लाल किला और दंतेवाड़ा के आदिवासी / जयप्रकाश चौकसे

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लाल किला और दंतेवाड़ा के आदिवासी
प्रकाशन तिथि :17 अगस्त 2016


बस्तर स्थित दंतेवाड़ा के आदिवासी बच्चों ने 15 अगस्त को आयोजित समारोह में वंदेमातरम् गीत और उसके बाद फिल्म 'श्री 420' का गीत 'मेरा जूता है जापानी, पतलून इंग्लिस्तानी, सर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी..' गाया। समारोह में उपस्थित लोग चकित रहे गए। उन्हें यह भी ज्ञात हुआ कि ये बालक यह गीत प्राय: गाते रहते हैं। 62 वर्ष पहली बनी फिल्म 'श्री 420' का गीत ये आदिवासी प्राय: गाते रहते हैं। उन्होंने इसे अपने लोक-संगीत में शामिल कर लिया है और फिल्म विधा को भी विज्ञान व टेक्नोलॉजी संसार का लोकगीत ही कह सकते हैं। हर कालखंड का अभिव्यक्ति का अपना प्रिय माध्यम होता है। विरोधाभास और विसंगतियों के इस युग के लिए सिनेमा ही जंचता भी है, क्योंकि इस विधा में एक के ऊपर एक अनेक शॉट्स सुपरइम्पोज हो सकते हैं। यह कोलाज प्रस्तुत करने में सक्षम माध्यम है, शॉट्स का जक्स्टापोजिशन भी किया जा सकता है।

संगमरमर की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं के ठीक नीचे झोपड़पट्टी पसरी हुई रहती है। राजकपूर और ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म 'श्री 420' के एक दृश्य में एक पात्र मुंबई में नए आए बेरोजगार युवा से कहता है कि इस फुटपाथ पर सोने के लिए अधिक भाड़ा देना होता है, क्योंकि ठीक सामने सेठ सोनाचंद धरमानंद की कोठी से छप्पन भोग बनने की मदहोश करने वाली सुगंध आती है।

इसी फिल्म में एक दृश्य है कि फुटपाथ पर इलाहाबाद से पढ़-लिखकर आया नवयुवक भिखारी से कहता है कि वह जवान है, 24 घंटे मेहनत कर सकता है, क्या उसे काम मिलेगा? जवाब मिलता है कि उसे काम नहीं मिलेगा, क्योंकि सीमेंट से बने इस महानगर में लोगों के दिल पत्थर के हैं। इतना कहकर लंगड़ा भिखारी अपनी बैसाखी से उसे परे हटाकर भीख मांगने के अपने काम में जुट जाता है। उसी फुटपाथ पर ललिता पवार अभिनीत केले बेचने वाली मराठी भाषी महिला आवाज लगाती है कि दो आने के तीन केले ले लो। हंसोड़ बेरोजगार नायक उससे पूछता है कि क्या वह तीन आने में दो केले दे सकती है? वह अपनी आदत से बंधी लुट जाने के भय से इनकार कर देती है। थोड़ी देर बाद 'दो आने के तीन केले और तीन आने में दो केले' का भेद उसे समझ में आता है तो वह आवाज देकर अपने इस अनोखे ग्राहक को बुलाती है। वह कहती है कि दो अाने के तीन या तीन आने के दो, जैसे चाहे ले ले। तब खींसे निपोरकर बेरोजगार नायक कहता है कि जब भी उसके पास पैसे आएंगे, वह जरूर लेगा।

इसी फिल्म में चरित्र अभिनेता रशीद खान एक कबाड़ी की दुकान चलाता है, जहां चीजें गिरवी भी रखी जाती हैं और बेची भी जा सकती हैं। फिल्म की नायिका गरीब बच्चों को पढ़ाती हैं। वह अपनी किताबें गिरवी रखने आती हैं और नायक अपना ईमानदारी के लिए मिला स्वर्ण पदक गिरवी रखने आता है। किताबें ज्ञान का प्रतीक हैं, अत: भारत के स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद शुरुआती दशक में ही ज्ञान और ईमानदारी गिरवी रखे जा चुके हैं और आज़ादी का पूरा लाभ सेठ सोनाचंद धरमानंद को मिल रहा है। इस तरह से यह फिल्म पहले दशक में घटी त्रासदी का व्यंग्यात्मक चित्रण करती है। श्रीलाल शुक्ल का 'रागदरबारी' और अब्बास-राज कूपर की 'श्री 420' उस कालखंड की प्रतिनिधि रचनाएं बन जाती हैं। साहित्य को श्रेष्ठ व फिल्म को घटिया मानने वालों को यह बात पसंद नहीं आएगी परंतु दंतेवाड़ा के आदिवासी बच्चों को बिना किसी आडम्बर के यह बात सीधी और सरल लगती है।

इसी गीत का अंतरा है, 'होंगे राजे राजकुंअर हम बिगड़े दिल शहजादे, हम सिंहासन पर जा बैठे जब जब करें इरादे' में आदर्श गणतंत्र व्यवस्था में निहित संभावना पर भी शैलेंद्र प्रकाश डालते हैं कि आम आदमी के शासन करने की संभावना है। उस नेहरू प्रेरित पीढ़ी का यह आशावाद रहा है परंतु यथार्थ ने स्वप्न भंग कर दिया और सारा लाभ सेठ सोनाचंद धरमानंद को मिला तथा बिचौलियों का नया वर्ग उभरा और उसने दिन-दहाड़े लूटपाट मचा दी। इसी फिल्म में चौपाटी पर सेठ सोनाचंद धरमानंद नेता बनने के लिए भाषण झाड़ रहा है और दंतमंजन बेचने वाला अपना मजमा जमा चुका है तथा सेठजी के श्रोता उसकी ओर खिंचे जा रहे हैं। सेठजी अपने चमचे को इशारा करता है। वह पूछता है कि मंजन में कहीं हड्डी का चूरा तो नहीं मिलाया? मंजन बेचने वला मिथ्या आरोप से घबराकर कहता है कि चौपाटी की रेत और कोयले के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यह सुनकर जनता उसकी पिटाई कर देती है। इस दृश्य में भारत की राजनीति में धर्म के दुरुपयोग का तथ्य छिपा है। आज इसी के चरम पर पहुंचने की त्रासदी हम भुगत रहे हैं। महान आख्यानों के मनमाने अर्थ प्रस्तुत करके धर्म के नाम पर लूट मची है। माओवाद को आतंकवाद कहकर एक राजनीतिक विचारधारा का अपमान किया गया और हिंदुत्व की लहर पर सवार मुगलों के बनाए लाल किले से देशभर में भ्रम फैलाया जा रहा है।