लाल गुलाब (कहानी) / मेहरुन्निसा परवेज
वह सुबह उठ गई थी। घर के दरवाजे- खिड़की खोलते ही यूकेलिप्टस की तेज मादक गंद ने उसे भीतर तक भिगो दिया। आँधी-पानी ने यूकेलिप्टस के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों को एकदम नंगा कर दिया था। पत्तियाँ चारों ओर बिखरी पड़ी थीं। उनकी गंध हवा में समाई हुई थी। मोगरे के फूलों जड़ी-बूटियों और पत्तियों की सोंधी महक भी उसमें शामिल थी। उसने जोर से साँस खींचकर उस मोहक गंध को अपने भीतर खींचा। लगा, जैसे उसे बहुत आराम, सुख और राहत-सी मिली है। यह 28 अगस्त की भोर थी। लगातार दो-तीन माह सूरज की तपन के बाद पानी हफ्ता भर बरसकर आज थमा था। धूल भरी आँधी और तेज झंझावात के साथ पानी की बूँदे सरककर धरती पर दौड़ी थीं। गरमी से झुलसे लोगों ने पहली बार ठंडक से चैन की साँस ली थी। तेज गरम हवा के थपेड़ों के बाद तेज अंधड़ के साथ बूँदाबाँदी हुई थी, जो बाद में तेज बारिश में बदल गई। काले बादलों ने भी जैसे शहर के ऊपर अपना तंबू डालकर डेरा गाड़ दिया था। बिजली की चमक और बादलों की गड़हड़ाहट ने सारी धरती को कँपा दिया था।
शहर का जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। घरों के छप्पर उड़ गए थे। कहीं-कहीं बड़े-बड़े पेड़ धराशायी होकर सड़कों पर आ गए थे। शहर की बिजली व्यवस्था कहीं-कहीं ठप्प हो गई थी। भयभीत बगुले तथा पक्षी आकाश में चीखते भाग रहे थे। पक्षियों का कोलाहल तेज हो गया था। मौसम ठंडा हो गया था। चारों ओर अभी भी पानी-ही-पानी दिख रहा था। बड़े- बड़े पेड़ अभी भी घुटने-घुटने पानी में डूबे खड़े थे। पानी अभी नहीं बरस रहा था, परंतु बाहर का सारा दृश्य पानी से सराबोर था।
आज उसके स्वर्गीय बेटे समर का जन्मदिन था। आज वही सौभाग्यशाली दिन था जब वह बेटे की माँ बनी थी। आज से अठारह बरस पहले जब वह भोर आई थी, उस भोर में और आज की भोर में कितना अंतर था। कितनी सुहावनी भोर थी वह। लगा था जैसे सारा संसार उसकी खुशी में शामिल है और नगाड़े बजा रहा है; परंतु अब लग रहा है कि आज की ही तरह उजड़ा बेरौनक उसका भाग्य है। काल की अंधड़-आँधी ने उसके जमे पैर उखाड़कर उसे भी सड़क पर धराशायी वृक्ष की तरह फेंक दिया था। उसके सपने भी ऐसे पत्तों की तरह झड़ गए थे। और वह नंगी उघाड़ी होकर रह गई थी। आज तो कब्रिस्तान जाना है। दो दिन से वह खुदा से दुआ कर रही थी कि पानी थम जाए। खुदा ने वैसे तो कभी भी जीवन में उसकी नहीं सुनी, जो चाहा या कहा, ठीक उसका उलटा हुआ था। बेटे की बीमारी के समय उसने न जाने कितनी प्रार्थनाएँ की थीं, कितनी अरजी लगाई, थीं, कितने करार किए थे कि वह यह करेगी, वह करेगी; परंतु खुदा को तो अपनी मनमानी करनी थी और वही उसने किया। आज जाने कैसे उसने सुन लिया था और पानी रुक गया था। धुली पोंछी, साफ-सुथरी भीगी- भीगी बिना पानीवाली भोर आज उसके द्वार पर दस्तक दे रही थी। नहाकर वह तैयार हो गई। पति से जल्दी तैयार होने का आग्रह करने लगी। वह जल्दी से बेटे की कब्र पर जाकर फूल रखना चाहती थी।
पति ने उठकर खिड़की के बाहर ताकते हुए पूछा, "कब्रिस्तान कैसे जा पाएँगे ? वहाँ तो पानी- ही- पानी भरा होगा न ?" "तो," वह एकदम बिफर गई। लगा सारा धैर्य छूटा जा रहा है, पानी बरस गया तो क्या हम बेटे की कब्र पर नहीं जाएँगे ? आज उसका जन्मदिन है। हर दिन की अपनी अहमियत, अपनी महक होती है। उसे दूसरे दिन नहीं किया जा सकता।"