लाल बत्ती वाले लोग / सुशील यादव

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हम लोग निपट देहात में रहा करते थे। सुविधा के साधन कम हुआ करते थे। न रेडियो न फोन।

पचास साल पहले, टी वी, मोबाईल के बारे में कोई जानने की सोच भी न सकता था।

मास्टर जी गाव के सर्वेसर्वा सुचना व् प्रसारण का काम सम्हालते थे|

वैसे उस जमाने में रोज की दिनचर्या में, खबरों की कोई जगह नही थी। लोग कमाने निकलते थे, दिनभर की रोजी में थक हार के लौटते। अन्धेरा घिरते ही पूरा गाव सो जाता था। अब ऐसे में खबर्रो का भला क्या अचार डालते ?

खबरों से ज्यादा,गांव में किस्से-कहानियों का प्रचलन था|चौपाल में कहीं दुबक के बैठ जाओ तो पिछले चालीस –पचास सालों का इतिहास समझ में आने लगता। कैसे १०० रु में तोला भर सोना,एकड भर खेत।

पन्द्रह रु महीने की पगार और चार आने की तरकारी में बड़े से बड़ा परिवार आराम से जीम लेता था। उस जमाने में किसी सी ए, पी ए की पैदाइश नही हुई थी, कोई तहलकेदार इकानामिस्ट नही हुआ करता था ।

बुजुर्गों की पूछ –परख वाला वो जमाना धीरे –धीरे मनो लद सा गया|

मास्टर जी को देख, पेशाब कर देने वाले लोग अब लाल बत्ती लगाए घूमने लगे। किस्सा कुछ यूं है ;

कंछेदीलाल और मै साथ-साथ पढते थे।

वो एक कमजोर सा दुबला –पतला, स्कूल से हमेशा गोल रहने वाला, या यूँ कहें कि मास्टर जी के डर से स्कूल से दूर –दूर भागने वाला, कम अकल का साधारण सा बालक था। वो मेरे ठीक पीछे बैठता था। उसकी अनुपस्थिति का खामियाजा मुझे झेलना होता था। मास्टर जी उन दिनों के रिवाज के मुताबिक उसे बुलाने, उसके घर मुझे भेज देते। कभी मिलता तो उसे पकड़ लाता। वरना मुझे भी पढ़ने से कुछ राहत मिल जाती| स्कूल ज़रा देर से पहुच कर कन्छेदी की जगह –जगह तलाशी का ब्योरे वार विवरण देकर वाहवाही पा लेता। इस बहाने, मास्टर जी से और भे कई छूट मिल जाया करती थी।

कभी कन्छेदी को लगातार स्कूल आए देखता तो मन ही मन मुझे उस पर गुस्सा सा आया करता था|

कन्छेदी प्राय: हर क्लास में मेरे करीब ही बैठता। उसे अघोषित रूप से मेरे स्लेट –कापी से देख के लिखने की आदत सी थी।

एक दिन खराब तबीयत के चलते मैं स्कूल नहीं जा सका। कन्छेदी पर आफत आ गई। मास्टर जी, परीक्षा की तैयारियों करवा रहे थे, कंन्छेदी सब गलत कर बैठा। मास्टर जी बौखला के दो-चार जमा दिए|कन्छेदी मूत मारे था। क्लास के उत्पाती बच्चो के लिए कन्छेदी को चिढाने का नया जुमला मिल गया। उसका नया नामकरण ‘मुतरा’ हो गया| सहपाठी उसका जिक्र आने पर इसी नाम से जानने लगे थे, मगर सीधे उसके मुह पर कोई नहीं कह पाता था।

कन्छेदी का मास्टर से डर का पारा यूँ बढ़ गया कि वो परीक्षा तक तो स्कूल ही नही आया।

आगे के क्लास में हमारे सेक्शन बदल गए।

कन्छेदी का पढाई से इतना ही वास्ता था कि वो पास हो जाया करता था।

उसकी दोस्ती मोहल्ले के एक –दो पहलवानों से हो गई। पहलवानी में उसका जी क्या लगा, देखते –देखते उसकी काया बदल गई। मस्त सांड की तरह बदन का हर हिस्सा गुब्बारे की तरह तन गया।

कन्छेदी मोहल्ले के टपोरियों का उस्ताद हो गया। टपोरी उससे संगत बढ़ाने के लिए हमेशा घेरे रहते। पान की दुकान, सेलून, चौराहे पर चाय-भजिए के होटल में उसका जमवाडा या पाया जाना लगभग तय रहता था। उसके खबरी आ-आ कर गाव, मोहल्ले,पडौस की खबर उसे पास-आन किया करते थे। उसे गाँव की हिस्ट्री-जिओग्राफी, बच्चे से बूढों तक की सेहत,यहाँ तक कि, जनानी बातों की जानकारी भी उसे मिल जाती थी|

उसके तजुर्बे दिनों-दिन बढ़ रहे थे। नौकरी की उम्र में पहुँच कर बहुत हाथ पैर मारे, मगर मार्क-शीट देख सब मुह फेर लेते थे। यों नौकरी के नाम पर बस खाली जूता घिसना ही हुआ|

हताश हो कर कन्छेदी से बैठा न रहा गया। उसके टपोरी –विंग ने पैसा कमाने के कई नुस्खे बताए। कन्छेदी कन्विंस न हो पाया। बस आखिर में उसे दलाली वाला आइडिया ही जमा। इसमे जोखम कम, लागत कम और जब तक दिल करे, काम करो वाली बात ने, उसे अट्रेक्ट किया। उसकी दलाली जम गई। कई लोग संपर्क में आते गए। सुझाव दर सुझाव, सलाह-दर सलाह करवट बदल–बदल के, कन्छेदी गाँव का मुखिया, सरपंच, जिला पंचायत का अध्यक्ष, विधायक और अंत में मंत्री तक बन गया।

कन्छेदी की तरक्की के ग्राफ को, किस्से कहानी की जुबानी कहे तो, “जैसे उनके दिन फिरे “ वाली बात हो जाती है। हम लोग इसे किस्मत का नाम देकर,बस ठंडी आहें भर लेते हैं। जलने-भुनने –कुढने की बात नही होती वरन कन्छेदी जैसे ‘लो आई-क्यू’ वाले लोग कहीं कम नही पाए जाते।

कन्छेदी की मिनिस्ट्री ठाठ से चल रही है। कछेदी के विचार –व्यवहार में जमीन –आसमान का फर्क आ गया है|वो तोल-मोल के अच्छा बोलने लगा है|किसी दार्शनिक के बतौर तर्कसंगत बातें सुन कर गाव वाले,उसे अगला और उससे भी अगला चुनाव अवश्य जीता देंगे। अभी तक तो यही माहौल है।

कई सालो बाद, मेरे नाम से मुझे ढूढते-ढाढ़ते मास्टर जी आए। कहने लगे, तुम्हारे दोस्त कन्च्छेदी से ज़रा काम था। मैंने कहा मास्टर जी आपने तो उसे भी पढ़ाया है। मास्टर जी कहने लगे- हाँ, मगर सीधे –सीधे कहना जमता नहीं। मेरे बेटे का ट्रान्सफर दूर के देहात में हो गया है सो उसे रुकवाना है, ये उन्ही के मंत्रालय का काम है वे शिक्षा –सचिव साहब को बोल देगे तो तुरंत काम हो जाएगा। मास्टर जी की कातरता से मुझे लगा कि गुरु-दक्षिणा का मौक़ा बिन मांगे मिल गया है। मै उॠण होने की तैय्यारी में लग गया।

वैसे मेरी मुलाक़ात कन्च्छेदी से कई सालो से नही हुई थी। मुझे खुद नहीं मालुम कि वो मुझे कितना वजन दे पाएगा ? मगर मास्टर जी ने पहली बार किसी बात के लिए कहा है तो इंकार की कोई गुंजाइश भी नही थी, वो भी तब जब मास्टर जी गाँव से चल कर राजधानी मुझसे मिलाने आए थे|मैंने कहा चलिए। काम हो जाएगा। मास्टर जी स्कूटर पर पीछे बैठ गए।

कन्च्छेदी का भव्य मंत्री वाला बंगला, सेक्युरिटी ने रोका, गांव का वास्ता देने पर जाने दिया। आगे पर्सनल सेक्रेटरी ने कई सवाल दागे|कहने लगा, सब गांव का रिफरेंस दे के मिलने चले आते हैं साहब का बहुत टाइम खोटा होता है|आप लोग पहली बार दिख रहे हो।

मैंने पी.एस.से मास्टर जी से परिचय कराया, अपने को उसका अभिन्न मित्र बताया। सेक्रेटरी ने कहा साहब गुस्सा होते हैं। हर किसी को मत भेज दिया करो।

मेरे कहने पर, कि आप ये चिट भेज भर दो। नहीं मिलते तो हम गाव में मिल लेंगे। सेक्रेटरी राजी हुआ। चिट के जाते ही बुलावा आ गया।

कन्च्छेदी के कमरे, उसकी बैठक, उसका रोब-दाब, ठसन देख कर पहली बार यों लगा कि मै अपनी स्लेट–कापी कन्च्छेदी से छुपा लूँ, उसे बिना मेहनत के सब सही हल क्यों मिले?

मेरे सहज होने से पहले कन्च्छेदी ने बहुत उत्साह के साथ हाथ मिलाया, मास्टर जी को प्रणाम किया। इधर-उधर की बातें हुई। उनके पास आने के बारे में हम बता पाते इससे पहले दो –चार फोन आ गए। उनकी व्यस्तता थी। वे कुछ सुनते, कुछ फाइल उलट-पुलट लेते। स्टेनो को बुला के हिदायत देते| सहज होने की कोशिश करते –करते वो हांफने लग गया। बस एक मिनट, बस दो मिनट, बस हो गया, की बात दुहराए जा रहा था।

उसे एक छोटा सा अंतराल मिलते ही, मैंने आने का मकसद, एक सांस में कह सुनाया। मास्टर जी खामोश श्रोता की तरह मेरी बात में सर हिलाते रहे। मेरी बात पूरी होते ही, कन्च्छेदी कुर्सी से उछल के खड़े हो गए, वे सीधे बाथरूम में घुस गए। निकलने के बाद उनके चहरे पर एक ताजगी दिख रही थी।

मुझे मास्टर जी की,स्कूल के दिनों में कन्च्छेदी की, की गई कथित पिटाई का ख्याल आ गया। मैंने बेखयाली में मास्टर जी की तरफ देखा|मास्टर जी बेखबर दिखे, उन्हें शायद याद भी न हो। सैकड़ों को पीटे हैं|मेरे जेहन में एक जुमला मन ही मन उतर गया ‘मुतारा’। मुझे हँसी आते –आते रह गई।

कन्छेदी बाथरूम से आ कर फोन मिलाने में व्यस्त हो गया, शायद सेक्रेटरी को मास्टर जी के बाबत बता रहा था।

उधर से सेक्रेटरी ने कहा, सर अच्छा हुआ आपने फोन लगा लिया, आपको सी.एम्. साहब ने अभी तलब किया है|

वे तत्काल उठ खड़े हुए। फिर बाथरूम गए।

निकल कर सीधे लाल –बत्ती की गाडी से रवाना हो गए।

मुझे लगा, हो न हो ‘मुतरे’ ने खुद ही मास्टर जी के बेटे का ट्रांसफर किया हो।