लावा / संतोष श्रीवास्तव
कल से दीवारों का पेंट खुरचने में लगे थे कारीगर। उनकी शानदार कोठी बीते कल की कहानी बन चुकी थी। रह गया था तो बस वह कमरा जिसमें पिछले सैंतीस बरसों से वे अपनी हर उदासी, हर हँसी और हर पीड़ा को जी रही थी। शर्त यही थी फ़िल्म निर्माता से कि पूरी कोठी वे अपनी फ़िल्म की शूटिंग के लिये इस्तेमाल कर सकते हैं... बस नहीं करेंगे तो इस कमरे को, जो हॉल की सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर बायीं ओर नितांत उनका है। यूनिट के तमाम सदस्यों में सबसे ज़िम्मेवार लगा था मलय माथुर।
"मैडम आप निश्चिंत रहिए। हम हॉल की सीढ़ियाँ चढ़ेंगे ही नहीं। हमें तो अंग्रेजों के ज़माने को शूट करना है। उसके लिये कोठी का निचला हिस्सा ही काफ़ी है।"
वे आश्वस्त हुई थीं। यह भी तय हो गया था कि उन्हें जिस रंग की जैसी दीवारें फ़िल्म की शूटिंग के लिये चाहिए पेंट कर लें लेकिन बाद में उसी रंग से पेंट करके देनी होंगी जिस रंग की वे थीं।
कितनी जद्दोजहद के बाद तो वे शूटिंग करने देने के लिये तैयार हुई थीं कि इस फ़िल्म की कहानी में हीरो की कोठी पहाड़ की ऊँचाई परहै मेन सड़क से कुछ ही फर्लांग की हरी भरी ढलान को चढ़कर... कोठी के बरामदे से सामने सूर्योदय का नज़ारा दिखता है... हरे-भरे ऊँचे-ऊँचे दरख़्त हैं और पिछवाड़े बहता पहाड़ी नाला है जिसके दोनों किनारों की चढ़ान पर पीले जंगली फूल हर मौसम में खिले रहते हैं और यह सब इस कोठी में और कोठी के आसपास है। शूटिंग ज़्यादा से ज़्यादा तीन महीनों में निपट जायेगी। पूरी फ़िल्म थोड़ी शूट करनी है उन्हें यहाँ। हीरो की ज़िंदग़ी के बस चंद साल ही...
वे जानती हैं, उनके लिये कोठी ईंट पत्थर गारा सीमेंट से बनी निर्जीववस्तु नहीं है बल्कि उनका पूरा जीवन है ये कोठी। शांतनु के साथ तेईस वर्ष की उम्र में जब नई नवेली दुल्हनबनकरइस कोठी में प्रवेश किया था तब से लेकर अब तक... सैंतीस वर्षों के उनके लंबे सफ़र को शेयर किया है इस कोठी ने। कहीं कुछ भी नहीं बदला इसके रखरखाव और सजावट में। जैसा शांतनु के समय था वैसा ही अब भी है... बस बदली है तो उनकी देह ... जो उम्र के साठ वर्षों में बदल ही जाती है। उन्हें कभी अपनी देह से लगाव नहीं रहा ... नहीं तो आसन, प्राणायाम से बदल नहीं देती... उनके मन में तो उस हादसे के बाद बड़ा क्रूर एहसास जागा था इस देह के लिये... लेकिन... और फिर शांतनु के साथ हर बार पत्नी धर्म निभाते हुए अंदर कहीं वे बुरी तरह टूट भी जाती थी। जिस क्षण शांतनुअसीम आनंद और संतुष्टि में भरे होते उनकी आँखों से एक लावा-सा फूट पड़ता जो उन्हें झुलसाता हुआ देह की शिराओं में धधकने लगता। वे तड़प उठतीं और ख़ुद को शांतनु कीबाँहों से छुड़ा बाथरूम में ठंडे पानी के शॉवर के नीचे आ खड़ी होती। स्वयं को लावा से छुड़ा पाने में उन्हें घंटाभरतो लग जाता। लौटती तब तक शांतनु तृप्ति में आकंठ निमग्न गहरी नींद में सोये होते। वे भी लेट जाती। नींद नहीं आती फिर भी। कभी वे उठकर बालकनी में पड़े झूले पर आ बैठतीं। सामने सड़क के उस पार लंबे घास के मैदान के बाद चिरौंजी और पलाश के दरख़्तअँधेरे में डूबे होते। हालाँकि घास का मैदान चूँकि गोल्फखेलने के लिए उपयोग में लाया जाता था इसलिये वहाँ सड़क से लगे लैंपपोस्ट थे। कोलतार जैसे काले जिन पर रोशनी का दूधिया हंडा चमकता रहता।
एक बेटा हुआ उनके। माँ बनना चाहा नहीं था उन्होंने पर शांतनु की इच्छा के आगे सर झुकाना पड़ा उन्हें। जब बेटा गर्भ में था हर पल वे बिखरी हैं। ख़ुद को समेटना मुश्किल हो जाता। यह बिखराव देह और मन से पिघलते लावे में सना होता। जब वे ख़ुद को समेटती तो लावा छूटता ही नहीं और-और चिपकता जाता, उनकीउँगलियों में... उनकी देह पर... देह के रंध्र को ढँक लेता लावा...
"ये क्या... आँखें लाल हो रही हैं तुम्हारी, ब्लड प्रेशर भी हाई है। तुम्हें अपना खयाल रखना होगा मनु, चेकअप, दवाईयाँ, ब्रीदिंगएक्सरसाइज नियम से समझीं। कुछ किताबें ले आऊँगा तुम्हारे लिये। ये कबीर, बली और पाश को पढ़ना छोड़ो अभी। येकवि दुःख को और बढ़ाते हैं... कुछ हलके फुलके कविता संग्रह ले आता हूँ तुम्हारे लिये।"
अब वे कैसे बतायें कि दुःख को बढ़ाने वाली कविताएँ ही तो रास आती हैं उन्हें... वे पीड़ा इतनी अधिक बढ़ा लेना चाहती हैं कि ख़ुद को भूल जायें... गर्भमें पलते इस शिशु को भूल जायें। वैसे भी इसमें उनका हाथ कहाँ? यह सब तो प्रकृति ख़ुद ही रचती चलती है। जैसे प्रकृति ने कवि मन दिया उन्हें... दीवानगी की हद तक कविता को पोर-पोर में रचा बसा महसूस किया था उन्होंने। वह उम्र सपनों की, मोहकउड़ानों की, भ्रमों की, छले जाने की थी। औ र वह छतनारापीपलका दरख़्त जिसकीचिकनी-चिकनी पत्तियों से झाँकता चाँद उनके छोटे से कमरे को उजास से भर देता और फुसफुसाती आवाज़ उन्हें घेर लेती... मनोरमा... मनोरमा... मनोरमा... मनोरमा...
तब वे मीरा के पदों की किताब के खुले पन्नों पर माथा टेक देती... पीपलहवाओं से हहराता रहता। उस फुसफुसाहट में दम था... मनोरमा शब्द कानोंमें पड़ते ही तन-मन झनझना जाता था। एक मीठी झुरझुरी से देह लरजती रहती... पलों, घंटों तक...
तब धुन थी पढ़ने की और संगीत की... बाबूजी ने एक मास्टर घर में ही संगीत सिखाने के लिये बुला लिये थे। अधेड़ उम्र के लेकिन आँखों से अँधे। हमेशा काला चश्मा उनकी आँखों पर चढ़ा रहता... पर उनके लिये मास्टर जी का अंधापनस्वीकार करना कठिन हो रहा था। वे हारमोनियम पर कोई ग़लत सुर पर उँगली रख देती तो मास्टर जी बरज देते, वे सकपका जातीं। उस सुर पर आधा-आधा घंटे रियाज़ कराते मास्टरजी... उन्हें कबीर, मीरा, सूर के भजन सीखने थे। मास्टरजी कहते, पहले सरस्वती वंदना और देशभक्ति के गीत सीखो। एक दिन किवाड़ की दरार से उसी फुसफुसाहट सहित एक पर्ची आ गिरी कमरे में... लिखा था... 'एरी मैं तो प्रेम दीवानी मेरो दरद न जाने कोय' गाकर सुनाओ। 'जाने क्या हुआ धुन-सी चढ़ गई। जब हारमोनियम लेकर बैठतीं वही गीत साधने लगतीं। पूरा हफ़्ता लग गया। उस रात आसमान पर घनघोर बादल छाये थे। काले, धूसर, नारंगी आभा देते डरावने से। हवाएँ भी तेज़ चल रही थी... पीपलकी शाखें लहराते हुए भयभीत कर देने वाली आवाज़ में शोर कर रही थी। पुराने ज़माने का किले जैसा विशाल घर... दो भागों में बँटा। लेकिन बँटवारे के लिये किसी नई दीवार का निर्माणनहीं किया गया था। बसएक कमरे सेदूसरे कमरे में जाने के लिये बने किवाड़ों की साँकलें चढ़ा बड़े-बड़े ताले जड़ दिये गये थे। किवाड़ोंके उस पार साँय-साँय डोलती हवा में भी उसकी हलकी-सी हलचल अलग महसूस कर रही थीं वे। किवाड़ से सटकर आ बैठीं वे और हारमोनियम बजाकर गाने लगीं...' 'एरी मैं तो प्रेम दीवानी...' किवाड़ों की रंध्र से उस पार की साँसें आहिस्ता-आहिस्ता गीत में घुलने लगी। उस पार का कमरा, फ़र्श और दीवारें उन्हें अपने में समेटे ले रही थीं, मरमरी फ़र्श पर सुरों की लहरियाँ लरज-लरज जाती... बहुत देर बाद एक मीठा-सा शुक्रिया उन तक पहुँचा और वे झनझना गईं सितार के तारों सरीखी...
ममता जिज्जी की शादी तय हो गई थी बदायूँ में। संगीत के मास्टर जी अब नहीं आते थे। भातखंडे से संगीत विशारद और यूनिवर्सिटी से एम. ए. की डिग्री साथ-साथ मिल गई थी उन्हें। अब तो बाबूजी अम्मा से यह भी कहते सुने गये थे कि'अच्छा लड़का मिल जाये तो ममता के संग-संग ही मनोरमा को भी निपटा दें।'
रात फिर वही पुकार... मनोरमा... मनोरमा... मनोरमा। वे सहम-सी गई थीं। सामने चेहरा होता तो होठों पर हथेली रख देतीं... "आहिस्ता... दुनिया को सुनाओगे क्या?"
जाने कैसे मन की बात यहाँ तक पहुँच गई। किवाड़ोंपर उँगलियों की ठक् ठक्... "सुनो, मुझे किसी का डर नहीं... मुझे सिर्फ़ तुमसे मतलब है।"
औरवे वहीं-बैठी-बैठीउस पार की दीवारों में अनारकली बन धँसने लगी।
बदायूँसे क्या तो बारातआई थी। ढेरोंबाराती... जोदूल्हे के प्रगाढ़ मित्र थे वे जनवासे में दूल्हे के आसपास ही मँडराते। इधर से पूरी सखियों की टीम तमाम गालियों वाले गानों से लेस डटी थी। उन्होंनेधानी रंग का शरारा कुरता और घुँघरूओं वाली पाजेब पहनी थी पैरों में। रात दो बजे तक जब तक शादी का मुहूर्त नहीं आ गया... जब तक दूल्हे की मंडप में जाने की घड़ी न आगई वे ठुमक-ठुमक कर नाचती रहीं, गाती रहीं और जैसे ही भीड़ मंडप की ओर पलटी तभी वह हादसा...
कैमरेऑनहो गये थे। मुहूर्त शॉट होने के बाद का सीन शूट होने की तैयारी में था। मलय माथुर सीन की एक-एक बारीकी कलाकारों को समझाता इधर से उधर हो रहा था। एक लड़का दौड़-दौड़ कर सबको पानी पिला रहा था। शूटिंग देखने वे बाल्कनी में आ खड़ी हुईं। हॉल में कलाकारों का जमघट... कैमरेकी तेज़ लाइट में आँखें चुँधिया गईं। रीटेक... दो तीन बार होने के बाद शॉट ओ. के. हो गया। मलय माथुर ने हीरोइन को गले से लगा लिया। पूरी यूनिट ख़ुशी में डूब गई। "रंगवाला की फ़िल्म है बॉस, एक-एक सीन डूबकर करना होगा। उनकी पिछली फ़िल्म ने बॉक्स ऑफ़िस पर करोड़ों बटोरे हैं।"
बिरयानी परोसकर सब बतिया रहे थे। बिरयानी और कोल्डड्रिंक की बोतलें... यह तो उन्हें बाद में पता चला कि कोल्ड ड्रिंक में व्हिस्की मिली हुई थी।
मलय माथुर ने आवाज़ दी-"आईये मैडम... हमारे साथ बिरयानी खाइए।"
उन्होंने मना कर दिया-"नहीं, वे नॉनवेज नहीं खाती।" अलबत्तासलाद पापड़ और अचार की शीशी उन्होंने नौकर के हाथ भिजवा दी थी। सारे युवा लड़के, लड़कियाँ... कमाल का अभिनय। जैसे बॉर्न आर्टिस्ट हों... जोश और उमंग से भरे। अच्छा लग रहा था उन्हें। एक उनका समय था भावुकता भरा। युवा वर्ग नदी, पहाड़, आसमान, चाँद सितारों में खोया रहता था। रोमांटिक कवियों, शायरों की पंक्तियाँ आपस में सुनाकर, गुनगुनाकर रोमांस के नशे में डूबा रहता था। लेकिन आज का युवा वर्ग नितांत अलग एक़दम प्रेक्टिकल। ...वे भी जोश से भर जातीं। यूनिट के आने से पहले ही वे अपने रोजमर्रा के कामों से निपट जातीं और बाल्कनी में आ बैठतीं। सोचती, कितनी अलग दुनिया है इनकी। कैमराडायलॉग, एक्शन, गीत, संगीत, हँसी, मुस्कराहट, निश्छलउन्मुक्त जैसे गगन में उड़ते पंछी। न खाने में तामझाम, न कोई दिखावा। काम काम... और बस काम। कुछ कर गुज़रने की चाह... आसमान को बाँहों के इंच टेप से नाप लेने की चाह...
और वे! लावे की परत पर ज़िंदग़ी जीती...
शादी से भी इंकार था उन्हें-"नहीं करूँगी। मुझे नौकरी करना है, अपने पैरों पर खड़ा होना है। नहीं तोएम. ए. करने का फ़ायदा क्या है?"
"बचपना मत करो मनोरमा। इतना अच्छा लड़का मिला है। लाखों का बिज़नेस है... ज़िंदग़ी भरऐश करोगी।" अम्मा, ने उनकी ठुड्डी पकड़ प्यार से कहा था और फिर उनसे छोटी अपनी दो बेटियों को अवश भाव से निहारा था। चार-चार बेटियों की पुत्रहीन माँ... अम्मा की कातर निग़ाहों का सामना नहीं कर पाईंवे और मौन स्वीकृति दे अपने कमरे में आ किवाड़ से टिक गईं। लेकिन किवाड़ों के उस पार सन्नाटा था और इस पार सन्नाटे में सर पटकती तेज़ी से उठी उनकी भावनाएँ। भावनाओं का किर्च-किर्च हो फ़र्श पर बिखरना उन्होंने साफ़ महसूसा था।
बेटे के जन्म के साथ ही उन्हें बदल जाना चाहिए था। ममता से भर जाना चाहिए था पर वे तो पत्थर हो चुकी थीं उस हादसे के बाद... हाँ पत्थरों के नीचे लावा ज़रूर दबाये थीं जो अब तक सुलग उठता... सुलग उठती उनकी शिराएँ... तप्त पिघलता लावा... सैंतीस वर्षों से... सैंतीस क्यों बल्कि अड़तालीस वर्षों से इस पिघलते लावे में अपनी नर्म, मुलायम देह ले बरी हैं वे... इसी देह को तो घसीटा था उसने...
ममता जिज्जी की शादी के दौरान जब दूल्हे को लिये भीड़ मंडप की ओर जा रही थी। किसी के मज़बूत हाथों ने उनकी कलाई पकड़ कर घसीट लिया था उन्हें जनवासे से लगी एकांत कोठरी में। शक्कर के बोरों और घी के कनस्तरों से अटी थी कुठरिया... वहीं उन्हें पटक कर उनकी नर्म मुलायम देह को खरौंचे डाल रहे थे दो अजनबी हाथ... जनवासा एकदम सूना हो चुका था। उन्होंने चीखना चाहा था ऐन तभी उनका दुपट्टा उनके मुँह में ठूँस दिया गया था और वे पिसती रही थीं। जैसे वक़्त थम-सा गया हो... जो बीत जाने का नाम ही न ले रहा हो... उनकी पूरी देह गर्म लावे में धँसी जा रही हो... बड़ी देर बाद कुठरिया के बाहर आहट और उनके नाम की पुकार सुन कुठरिया का दरवाज़ा खुला और जनवासे से आती तेज़ रोशनी में वह घिनौना चेहरा अक्स हो गया उनकी पत्थर होती देह पर... जैसे खुरच-खुरच कर वक़्त ने चिन्हित कर दिया हो वह चेहरा... अब वह कभी नहीं मिटेगा। पत्थर पर खुदे चिह्न मिटते कहाँ हैं? अपनीखरौंच लिये सदियों ओले, बरसात झेलते अमिट रहते हैं।
"मनोरमा जिज्जी, आप यहाँ क्या कर रही हो? उधर सब आपको ढूँढ रहे हैं। चलो... चलो जल्दी... दूल्हेके जूते हम लोगों ने छुपा दिये हैं।"
वे अपनी पत्थर देह छोटी बहन के संग घसीटती-सी चलने लगीं।
"क्या हुआ? गिर गईं थीं क्या आप? ये गले पर खरौंचें कैसी?"
इसके पहले कि छोटी बहन इन खरौंचों में से किसी कहानी को ढूँढने की कोशिश करे उन्होंने दुपट्टे से अच्छी तरह गर्दन ढँक ली, छाती में उठा आँसुओं का बवंडर वहीं घोंट डाला और दृढ़ता से बोलीं-"कुछ नहीं हुआ मुझे... चलो जल्दी।"
ममता जिज्जी की बिदाई उनके मिट जाने की पहली सुबह को हो गई थी। धारों धार रोती रहीं थीं वे जिज्जी से लिपट कर... तमाम मौसियों, बुआओं से लिपट कर... जैसेउन्हींकी विदा हो रही हो। अम्मा ने चौंक कर बाँहों में समेट लिया था-"क्या हुआ पगली? अरे, आ जायेगी हफ़्ते भर में ममता।"
लेकिन रोना है कि थमता नहीं... एक तूफान उठा है मन में जिसने उनके सपनों, आकाँक्षाओं की सारी कोपलें नष्ट कर पेड़ ठूँठ कर दिये हैं। ज़िंदग़ी की राह में लुट गईं वे... यह लूट अब वे दुबारा नहीं कमा सकतीं, वापिस नहीं पा सकतीं... जैसे शरीर से एक अंग ही कट गया हो।
रात किवाड़ों की दरार से फुसफुसाहट तैरती रही... मनोरमा... मनोरमा... जैसे किसी ने सहानुभूति का हाथ रख दिया हो पीठ पे... "मनोरमा... मैंहूँ न! रो-रोकर हलकानहुई जा रही हो" और वे फूट-फूट कर रो पड़ी थीं। उनके होंठ काँपे थे-"अब तो मैं मिट गई... अब किसी के होने न होने से क्या फ़र्क़ पड़ता है?"
हफ़्तों उनकी आँखें गुड़हल-सी लाल रहीं... बात-बात पर आँसू छलक पड़ते। यूँकिताब पढ़ते नींद से आँखें झपक जाती और जब बिस्तर पर पहुँचती नींद कोसों दूर छिटक जाती। वे अपना दर्द, बेचैनी, पीड़ा सब मन में ज़ब्त किये जाने की आदत डाल रही थी... उनके सूखे, मुरझायेचेहरे की वज़ह सबने ममता से बिछुड़ना मानी और यह तय पाया कि जल्दी से जल्दी मनोरमा की शादी भी कर दी जाये। ...घर में शादी की दबी ढँकी बातें सुन वे आहत हुई थीं। शादी नाम से ही लगता धोखा दे रही हैं वे अपने जीवन साथी को... ईमानदारी की बात तो यह है कि यह हादसा भी पहले से बता दिया जाना चाहिए जैसे ज़िंदग़ी के औरहादसे बता दिये जाते हैं।
"एम. ए. का आख़िरी पेपर देकर अपने कमरे में पाँव रखा ही था कि किवाड़ों के उस ओर से लात घूँसों की आवाज़ें, मौन सन्नाटे में दहाड़ता मर्दाना स्वर..." इश्क़ लड़ायेंगे बरखुरदार... हम समझ रहे हैं इधर घंटों घुसे पढ़ाई कर रहे हैं साहबजादे। कल ही अपना बोरिया बिस्तर बाँधो... तुम्हें बेंगलोर भाई साहब की देखरेख मेंहॉस्टल में रहकर पढ़ाई पूरी करनी है। "
फिर काफ़ी देर बाद बोझिलसन्नाटा रहा। वे भी चुपचापअपने पलंग परसीधीतनी साँस रोकेलेटी रहीं। थोड़ी देर बाद फिर वही फुसफुसाहट... लेकिन अब की बार आत्मविश्वास से भरी और स्पष्ट... "सुनो मनोरमा... मेरा इंतज़ार करना, दो साल में जब इंजीनियर बनकर लौटूँगा तो इस किवाड़ पर पड़े भारी भरकम ताले की चाभी भी साथ लाऊँगा मेरा इंतज़ार करना।"
वे वैसी ही सीधी तनी लेटी रहीं... सन्नाटा फिर से लौट आया और तेज़ी से पसरने लगा।
शांतनु अब नहीं रहे। बेटा भी बहू के साथ लंदन जा बसा है... बस वे हैं और यह कोठी जो उनके जीवन के प्रत्येक क्षण की साक्षी उनकी निहायत अपनी है।
शूटिंग के तीन महीने होने को आये। आख़िरी शूट के लिये रंगवाला भी आने वाले हैं।
"मैडम, आज आख़िरी शूट है। उसके बाद एक गेट टु गैदर रखेंगे तब आप हमारे साथ होंगी। प्रॉमिज..." वे मुस्कुरा पड़ीं। शूट के लिये तमाम कैमरे तैयार किये जा रहे हैं। उनका संगमरमर का बाथरूम... टब... टब में ऊपर तक झाग ही झाग... हीरोइन टब में बैठी नहा रही होगी, पृष्ठभूमि में गाना चलेगा और गाना रुकते ही गोलियाँ चलने की आवाज़... अंग्रेजों ने पूरी कोठी घेर ली होगी... कैमरे की लाइट्स ऑन... चकाचौंध में उन्होंने जिस शख़्स को हॉल में प्रवेश करते देखा और यूनिटके लोग जिन्हें रंगवाला जी सम्बोधित कर रहे थे वह... वह तो वही... पिघलने लगा देह पर खुदा शिलालेख... अक्स हुआ वह घिनौना चेहरा पूरी क्रूरता से कसमसा उठा। अड़तीस सालों में एक क्षण को भी तो नहीं भूल पाई हैं वे इस चेहरे को। जैसे अड़तीस सालों से बंद पड़ी कुठरिया में एक बार फिर खींच ली गई हों वे। उनकी देह पर उसकी कठोर उँगलियों के निशान गहरे उभर आये हो... नाखूनों से डाली गई खरौंचों पर लहू छलक आया हो और मुँह में ठुँसे दुपट्टे से घुटती साँसों को बिखरता साफ़ महसूस कर रही हों। भले ही चेहरे पर ढलती उम्र ने अपनी छाप छोड़ दी है। आँखों पर चश्मा चढ़ आया है, सिर के बाल झड़कर गँजी चाँद ज़िंदग़ी कोख़िजाँ में बदलने का भुगतान है मानो। फिर भी कैसे भूल सकती हैं वे ये चेहरा? सहसा वे बालकनी में झूले पर बैठी-बैठी ढह गईं। तभी गोलियाँ चलीं... शॉट ओ. के. हुआ और शैम्पेन की बोतलें खुल गईं। मलय उन्हें ढूँढता तीन महीनों में पहली बार हॉल की सीढ़ियाँ चढ़ रहा था। उन्हें झूले पर नीम बेहोशी में पा सकपका गया-"मैडम... क्या हुआ?"
रात देर तक पार्टी चली। पूरी यूनिट विदा हो चुकी थी... बस मलय था और कोठी की दीवारों को जैसी की तैसी पेंट करने को कुछ कारीगर... "अब कैसी तबीयत है मैडम? सर आपसे मिलना चाहते थे।"
"ठीक हूँ... मलय जी, पेंट मत कराईए दीवारों पर... इन्हें ऐसी ही रहने दीजिए... याद बनी रहेगी कि इधर कभी शूटिंग हुई थी आपके सर की फ़िल्म की।"
" ओ. के... थैंक्स... आपकेकोऑपरेशन के लिये थैंक्स मैडम...
पूरी यूनिट विदा हो चुकी थी। तीन महीनों की चहल पहल के बाद सूना हॉल दहशत फैला रहा था। तमाम दीवारों पर पड़ी खरौंचे अड़तीस वर्षों का अंतराल लाँघ ऐन उनके सामने थी। गरम, उबलते लावे का देह से उठता रिसाव उन्हें झँझोड़ गया था। वे तड़प उठी थी दोबारा उसी हादसे में उसी व्यक्ति की गिरफ्त में स्वयं को पा...