लाश / अनतोन चेख़फ़ / अनिल जनविजय
अगस्त की उदास रात । खेत में से धीरे-धीरे कोहरा ऊपर उठ रहा है और जहाँ तक नज़र जाती है वहाँ तक सब कुछ सुरमई चादर से ढका हुआ है । चन्द्रमा की रोशनी में चमकता हुआ कोहरा या तो शान्त अपार समुद्र की तरह लगता है या विशाल सफ़ेद दीवार की तरह दिखाई देता है। हवा में नमी और खुनक है। सुबह अभी बहुत दूर है। जंगल के किनारे से गुज़रनेवाली पगडण्डी से एक क़दम दूर रोशनी झलक रही है। शाहबलूत के पेड़ के पास एक लाश रखी हुई है जो सिर से पैर तक सफ़ेद कफ़न से ढकी हुई है। मृतक की छाती पर लकड़ी का एक बड़ा-सा देवचित्र रखा हुआ है।
लाश के नज़दीक, पगडण्डी के एकदम पास दो किसान बैठे हुए हैं जिनको देखकर ही यह पता लग जाता है कि वे बहुत मुश्किल काम करते हैं। किसानों का काम वैसे भी मुश्किल होता है। उनमें से एक युवक है, जिसका क़द लम्बा है और जिसके चेहरे पर मूँछो का हलका उभार दिखाई दे रहा है और जिसकी भौंहें काफ़ी घनी हैं। उसका कोट फटा हुआ है और वह लकड़ी से बने जूते पहने हुए है। वह अपने पैर आगे की तरफ़ फैलाकर आसमान से गिर रही ओस से गीली हो चुकी घास पर बैठा हुआ है और कुछ खुट-पिट करते हुए समय गुज़ार रहा है। उसने अपनी लम्बी गर्दन अपनी छाती पर आगे की तरफ़ झुका रखी है और समय गुज़ारने के लिए वह अपनी नाक घुरघुराते हुए लकड़ी के एक बड़े टुकड़े को काटकर उसे चम्मच का आकार देने की कोशिश कर रहा है । दूसरा किसान दुबले पतले बदन का छोटे क़द वाला आदमी है। उसके चेहरे पर बुढ़ापे की हलकी-सी झाईं दिखाई देने लगी है। उसने बारीक मूँछें रखी हुई हैं और उसके ठुड्डी पर बकर-दाढ़ी फैली हुई है। अपने हाथ घुटनों पर रखे, बिना हिले-डुले वो अलाव की तरफ़ घूर रहा है, जिसकी लपटों की रोशनी में दोनों के चेहरे लाल भभूका चमक रहे हैं। चारों तरफ़ घनी शान्ति छाई हुई है। सिर्फ़ लकड़ी पर चाक़ू के घिसने की आवाज़ सुनाई दे रही है और अलाव में जल रही गीली लकड़ियों के चटकने की आवाज़ आ रही है।
“स्योमा, तुम सोओ मत...” अचानक युवक ने अपने साथी से कहा।
“मैं सो नहीं रहा हूँ...” बकरदाढ़ी वाले ने हकलाते हुए कहा।
“यूँ ही... यहाँ अकेले बैठे रहना ख़ौफ़नाक है, डर लगता है। कुछ बताओ, स्योमा !”
"मैं क्या बताऊँ ... मुझे कुछ मालूम ही नहीं है ।"
“तुम भी बड़े अजीब आदमी हो, स्योमा ! कोई दूसरा आदमी होता तो मेरी बात सुनकर हँस पड़ता और कोई क़िस्सा सुनाने लगता या कोई गीत गाने लगता, और तुम... भगवान ही जानता है तुम क्या हो। तुम इस तरह बैठे हो, जैसे कोई बिजूका हो और ऐसे अलाव को ताक रहे हो जैसे तुम्हें यह मालूम ही नहीं है कि कोई क़िस्सा कैसे सुनाया जाता है... तुम बोल भी ऐसे रहे हो जैसे किसी बात से डर रहे हो। तुम पचास साल के हो चुके हो, लेकिन तुम्हारा दिमाग किसी बच्चे से भी छोटा है। क्या तुम्हें इस बात का अफ़सोस नहीं होता कि तुम बौड़म हो?”
“हाँ, मुझे अफ़सोस तो है...” बड़ी उदासी के साथ बकरदाढ़ी वाले आदमी ने जवाब दिया।
“और क्या हमें तुम्हारे बौड़म होने पर अफ़सोस नहीं होता? हमें भी अफ़सोस होता है। तुम दयालु और समझदार आदमी हो, लेकिन अफ़सोस सिर्फ़ इस बात का है कि तुम कठदिमाग हो। यह ठीक है कि भगवान ने तुम्हारे साथ नाइनसाफ़ी की है और तुम्हें अक़्ल नहीं दी है, लेकिन तुम खुद भी तो अपने तजुरबे से अक़्ल पा सकते हो... तुम कोशिश तो कर ही सकते हो, स्योमा... जब भी कोई कुछ अच्छी बात कहे, तो तुम उस बात को अपने दिमाग में बिठा लो और फिर सोचो, सोचो... और अगर कोई बात तुम्हारी समझ में नहीं आए, तो उसे समझने की कोशिश करो कि उस बात का क्या मतलब है। समझे कुछ? कोशिश करो ! अगर तुम्हें अक़्ल नहीं आई तो तुम ऐसे ही मर जाओगे।”
अचानक जंगल में ज़ोर-ज़ोर से खाँसने की आवाज़ सुनाई दी। पेड़ों के ऊपर कुछ सरसराहट सी हुई और ऐसा लगा कि जैसे पेड़ों की पत्तियों के बीच से कुछ ज़मीन पर आ गिरा हो। इसके बाद अस्पष्ट-सी कोई गूँज सुनाई दी। युवक ने चौंककर अपने साथी की ओर देखा।
“यह कोई उल्लू है जो चिड़ियों को परेशान कर रहा है । ” स्योमा ने उदासी से कहा।
“तो क्या, स्योमा, चिड़ियों के गरम इलाक़ों में जाने का समय आ गया है !”
“हाँ, उनके जाने का समय तो यही है।”
“अब सुबह ठण्ड पड़ने लगी है। और दिन-ब-दिन ठण्ड बढ़ती जा रही है ! और सारस एक कोमल चिड़िया होती है, उसके लिए ये ठण्ड मौत के समान है। तुम देखो मैं तो सारस भी नहीं हूँ और ठण्ड से जम गया हूँ... अलाव में कुछ लकड़ी डाल दो !”
स्योमा उठकर लकड़ी लाने के लिए घने अन्धेरे में ग़ायब हो गया। जब तक वह झाड़ियों के पीछे जाकर कुछ सूखी झड़ियाँ तोड़ रहा है, तब तक उसके जवान साथी ने अपनी बाँहों से आँखें बन्द कर लीं। परन्तु वो हर आवाज़ पर चौंक जाता था। स्योमा झाड़ियों का एक ढेर लाकर अलाव में डाल देता है। आग की लपटें उन सूखी काली झाड़ियों को लील लेती हैं, और अलाव में आग फिर से भड़क उठती है, जिसकी रोशनी में दोनों आदमियों के चेहरे फिर से लाल-भभूके दिखाई देने लगते हैं। अलाव की लपटों की रोशनी में मुरदे पर ढका सफ़ेद कफ़न और उसकी छाती पर रखा देवचित्र भी चमकने लगते हैं... चारों तरफ़ चुप्पी छा जाती है। युवक अपनी गरदन को और भी नीचे झुका लेता है और पहले से ज़्यादा घबराहट के साथ लकड़ी को छीलकर चम्मच गढ़ने लगता है। बकरदाढ़ी अपनी जगह पर पहुँचकर पहले की तरह शान्त बैठ जाता है और अपनी आँखें अलाव पर टिका देता है।
“ज़ियोन के पहाड़ से नफ़रत करने वाले लोगों को ईश्वर के सामने पछतावा होना चाहिए...” अचानक रात के अन्धेरे में किसी के गाने की ऊँची आवाज़ सुनाई देती है। इसके बाद किसी के धीमे क़दमों की आवाज़ आती है, और अलाव की लाल किरणों से रोशन हो रही पगडण्डी पर एक धुन्धली मानव आकृति उभरती है जिसने साधुओं का सा चीवर (बाना ) पहन रखा है। उसके सर पर चौड़े छज्जे वाला हेट दिखाई दे रहा है, और उसके कन्धे पर एक झोली लटक रही है।
“हे भगवान, सब तेरी ही मरज़ी है ! यह बात सच है।” उस आकृति ने कर्कश और ऊँचे स्वर में कहा। “घने अन्धेरे में जब मुझे आग दिखाई दी, तो मैं बेहद डर गया था... पहले तो मैंने सोचा कि रात के अन्धेरे में कोई घोड़ों को चरा रहा है, लेकिन फिर मैंने सोचा कि घोड़े तो कहीं दिखाई नहीं दे रहे, तो कोई उन्हें रात को कैसे चरा सकता है? फिर मेरे मन में आया, कहीं लुटेरों का कोई दल तो नहीं बैठा हुआ हैं जो किसी अमीर राहगीर के गुज़रने का इन्तज़ार कर रहा हो? फिर सोचा कि हो सकता है कि ये बंजारे होंगे, जो मूर्तियों को बलि चढ़ाते हैं और मेरा दिल उछलकर मेरे हाथ में आ गया। मैंने खुद अपने आपसे कहा, जाओ, फ़िअदोसिय, शहीद हो जाओ! और मैं पतंगे की तरह आग में झुलसने को तैयार हो गया। अब मैं आप लोगों के सामने खड़ा हूँ और आपकी मनों को आँक रहा हूँ : मेरे ख़याल से तुम लोग चोर नहीं हो, और न ही मूर्तिपूजक हो। भगवान तुम दोनों के मन को शांति दे!”
“वाह, क्या बात है! ”
“ईसाइयो, क्या तुम लोग बता सकते हो कि मकुख़िंस्की ईंट भट्टे तक जाने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?"
"अरे वो तो पास में ही है। बस, इसी रास्ते पर सीधे-सीधे चले जाइए, क़रीब दो कोस चलकर आप अनानवा पहुँचेंगे। हम वहीं पर रहते हैं। वहाँ से, बाबा, आप सीधे हाथ पर मुड़ेंगे और नदी के किनारे-किनारे चलेंगे तो ईंट के भट्टों तक पहुँच जाएँगे। अनानवा से क़रीब तीन कोस और दूर है।”
“भगवान तुम्हारा भला करे। पर तुम लोग यहाँ क्यों बैठे हुए हो?”
“हम यहाँ गवाह के तौर पर बैठे हुए हैं। देखिए, वह लाश दिखाई दे रही है...”
“कैसी लाश? हे भगवान !”
साधु की निगाह सफ़ेद चादर और देवचित्र पर पड़ी, और वह इतने ज़ोर से चौंका कि अपने पैरों पर खड़ा नहीं रह पाया। अचानक इस नज़ारे का उस पर भारी असर पड़ा। वह वहीं बैठ गया, और उसका मुँह खुला का खुला रह गया, उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। वह जैसे अपनी जगह पर जड़ हो गया। क़रीब तीन मिनट तक वह चुप रहा, मानो उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, फिर बड़बड़ाने लगा :
“हे भगवान ! हे देवी मईया ! मैं तो अपने रास्ते जा रहा था, मैंने किसी को कोई तकलीफ़ नहीं दी, फिर अचानक यह किस बात की सज़ा...”
“आप कौन हैं, क्या किसी धार्मिक संगठन से जुड़े हुए हैं?” युवक ने पूछा ।
“नहीं, नहीं, मैं तो, बस, मठों में आता-जाता हूँ... मिख़अईल पअलिकारपिच को जानते हो? वही कारख़ाने वाले ... । तो मैं उनका भतीजा हूँ... हे ईश्वर जैसी तेरी मरज़ी ! लेकिन तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो?”
“हम इस लाश की चौकीदारी कर रहे हैं... हमसे ऐसा करने के लिए ऊपर से कहा गया है।”
“ठीक है, ठीक है...” अपनी आँखों पर हाथ रखते हुए बड़बड़ाया। “और यह आदमी कहाँ का रहनेवाला था?”
“राहगीर था कोई।”
“यह ज़िन्दगानी है कितनी फ़ानी ! भाइयो, शायद मैं भी ऐसे ही चला जाऊँगा... अभी कुछ देर रुका हुआ हूँ। मुझे किसी भी दूसरी चीज़ के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा डर मरे हुए लोगों से लगता है, प्यारे भाइयो... मेहरबानी करके मुझे बताओ कि क्या तब तक, जब यह आदमी ज़िन्दा था, उन्होंने इसकी तरफ़ कोई ध्यान दिया, और अब जब यह मर चुका है, तो इसे सड़ने के लिए छोड़ दिया। उसकी लाश के सामने हम भी वैसे ही काँप रहे हैं, जैसे किसी सेनापति या पादरी के सामने काँप रहे हों... हमारी ज़िन्दगी भी कितनी फ़ानी है ... हम कभी भी मर सकते हैं। क्या इसे किसी ने मार दिया है ?”
“यह तो ईसा मसीह ही जानते हैं ! हो सकता है, वह मर गया हो या हो सकता है इसे मार दिया गया हो।”
“हाँ, हाँ, ठीक है... किसे मालूम है कि शायद इसकी रूह अब जन्नत में मज़े कर रही होगी !”
युवक ने कहा, “अभी तो इसकी रूह इसके बदन के आस-पास घूम रही है। हमारे यहाँ माना जाता है कि मरने के बाद आदमी की रूह तीन दिन तक उसके बदन को नहीं छोड़ती।”
“हुम... आज कितनी ठण्ड है ! भयानक ठण्ड पड़ रही है... तो — नाक की सीध में सीधे चलते चले जाना है..।”
“जी, जब तक आप गाँव में नहीं पहुँच जाते, सीधे चलते रहिए, और नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़िए।”
“नदी के किनारे-किनारे... ठीक है... अरे, मैं अभी तक खड़ा ही हूँ? मुझे तो चलना चाहिए... नमस्कार, भाइयो !”
साधु पाँच क़दम आगे बढ़ता है और रुक जाता है।
“ अरे, इसको दफ़नाने के लिए इस पर पैसे डालना तो मैं भूल ही गया। भाइयो, क्या मैं एक सिक्का डाल सकता हूँ?” साधु ने कहा।
“आप यह बात हमसे ज़्यादा अच्छी तरह जानते होंगे। आप तो मठों में आते-जाते रहते हैं। यदि यह अपनी मौत मरा है, तो यह पुन्न होगा, और अगर इसने आत्महत्या की है, तो यह पाप होगा।”
“ठीक कह रहे हो... हो सकता है इसने ख़ुदकुशी ही की हो ! तो मैं अपना सिक्का अपने पास ही रख लेता हूँ। चारों तरफ़ पाप ही पाप है ! मुझे कोई एक हज़ार रूबल दे, तो भी मैं यहाँ नहीं बैठूँगा... चलता हूँ, भाइयो !”
साधु फिर से अपनी राह पर रवाना हो जाता, लेकिन कुछ दूर चलकर फिर रुक जाता है।
“मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए...” वह बुदबुदाता है।
“यहाँ आग के पास बैठकर मुझे सुबह का इन्तज़ार करना चाहिए... यह डरावनी बात है। लेकिन आगे जाना भी तो ख़तरनाक है। आगे पूरे रास्ते अन्धेरे में मुझे यह मरा हुआ आदमी दिखाई देगा। भगवान ने यह कैसी सज़ा दी है। पाँच सौ कोस पैदल चलकर आया हूँ और कुछ नहीं हुआ। और घर के पास पहुँचा, तो यह लाश दिखाई दी... चलना भी मुश्किल हो गया है !”
“सचमुच बेहद डर लग रहा है...”
“मैं ना भेड़ियों से डरता हूँ, न चोरों से, न अन्धेरे से, लेकिन मरे हुओं से डर लगता है। डरता हूँ और बस ... ! मैं घुटनों के बल बैठकर तुम लोगों से यह विनती करता हूँ कि मुझे गाँव तक छोड़ दो।”
“हमें लाश छोड़कर जाने का हुक्म नहीं है।”
“अरे कौन देखेगा, भाइयो? क्या लाश देखेगी? लाश तो कुछ नहीं देख सकती ! भगवान तुम्हें सौ गुना पुन्न देगा ! बकरदाढ़ी, मेहरबानी करके, मुझे छोड़ने के लिए मेरे साथ चलो ! बकरदाढ़ी, तुम चुप क्यों हो?”
“अरे यह तो बौड़म है...” युवक ने कहा।
“चलो, छोड़ आओ ! पाँच का नोट दूँगा !”
“पाँच रूबल? हाँ, यह तो बढ़िया सौदा है।” लड़के ने अपने सिर को खुजलाते हुए कहा। “लेकिन हमें हुक्म नहीं है... अगर यह स्योमा यहाँ अकेला बैठ जाए तो मैं आपको छोड़कर आ सकता हूँ।”
“हाँ, हाँ, बैठ जाऊँगा...” बौड़म ने कहा।
“ठीक है, तो चलते हैं।”
लड़का अपनी जगह से उठकर खड़ा हो जाता है और साधु के साथ चलने लगता है।
एक मिनट बाद उनके क़दमों की आहट और उनकी बातचीत सुनाई देनी बन्द हो जाती है। स्योमा अपनी आँखें बन्द कर लेता है और चुपचाप सो जाता है। अलाव की आग बुझने लगती है,और लाश के ऊपर गहरा अन्धेरा छा जाता है...।
मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय