लिखा हुआ बोलता-सा गद्य / रवि रंजन
'गद्य की प्रत्येक इमारत में, प्रथमतः, विचार सीमेन्ट-चूने का काम करता है... यदि पाठक प्रतिरोध करता है तो उस समय जब विचार उसे हवा में तैरते प्रतीत होते हैं जो वस्तुतः कुछ नहीं पकड़ पाते...ऐसी कोई जीवित शैली नहीं है जिसमें शब्द और विचार की अनुकूलता का अभाव हो... यथार्थवादी विचार के लिए, सीधे-सादे 'गद्य' विचार के लिए, एक सीधी-सादी यथार्थवादी शैली की दरकार होती है। संभाषण और अभिव्यक्ति की यह समृद्धि हमारे देश में अब पहले जैसी नहीं रही... हमारे आधुनिक लेखन का यह पीलापन और रक्तशून्यता बहुत कुछ इस तथ्य के कारण है कि कतिपय बुद्धिजीवियों ने अपने आप को नवजीवन के इस चिरंतन स्रोत से जानबूझकर... अलग कर लिया है।'
- रैल्फ फॉक्स : उपन्यास और लोक जीवन , पृ . 124
'मैं गद्य की संरचना और शक्ति से बहुत प्रभावित हूँ....लेकिन अच्छा, सुगठित और सोचता हुआ गद्य लिखना काफी कठिन है जो अब दुर्लभ भी होता जा रहा है। मैं ऐसा गद्य लिखने का स्वप्न ही देखता रहता हूँ।... दुर्भाग्य से ज्यादातर लोग ख़राब गद्य लिखने के दुर्भाग्य से गुजर रहे हैं और उसे अच्छे गद्य के सौभाग्य की तरह प्रचारित करते हैं।'
- मंगलेश डबराल : 'कवि का अकेलापन', पृ. 7
'आलोचना के सामने एक और चुनौती हिंदी आलोचना की भाषा है। जान-अनजाने 'सामाजिक सरोकार' शब्द का प्रयोग खूब किया जा रहा है। तात्कालिकता का दबाव आलोचना के ऊपर साफ दिखाई देता है।'
- नामवर सिंह : 'सापेक्ष' - 50, पृ. 116
आम तौर से हिन्दी में गद्य की चर्चा नहीं होती है। कारण यह कि हमारा पाठ्यक्रम काव्यप्रधान है। कविता की परंपरा लगभग हजार साल पुरानी है, जबकि गद्य की परंपरा डेढ़ से दो सौ साल की है। दूसरे शब्दों में, कविता की उम्र ज्यादा है, गद्य की कम। उम्र के अलावा गुणवत्ता की दृष्टि से भी गद्य को प्रायः दोयम दर्जे का माना जाता है। किसी भाषा में यदि बीस लेखकों की सूची बनायी जाये, तो उनमें संभवतः पन्द्रह कवि होंगे, पाँच मुश्किल से गद्यकार होंगे। साहित्य की साहित्यिकता की दृष्टि से भी काव्य को विप्र माना जाता है। हालाँकि गद्य की अनेकानेक विधाएँ हैं और लोकप्रियता की दृष्टि से भी गद्य पर काम करना आसान (?) माना जाता है, पर गद्य शैली के बारे में यदि हिन्दी में किताबें खोजी जाएँ, तो उनकी संख्या न के बराबर होगी। अंग्रेजी में 'प्रोज़ ऑफ लाइफ' या 'पोएटिक्स ऑफ प्रोज़' जैसी पुस्तकें मिलती हैं, पर हिन्दी में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई गद्य के 'काव्यशास्त्र' पर विचार कर सकता है। हिन्दी में किसी कहानीकार या उपन्यासकार के सौन्दर्यशास्त्र पर जो किताबें उपलब्ध हैं, उनमें उस लेखक के गद्य के सौन्दर्यशास्त्र की कहीं कोई चर्चा नहीं मिलती।
नामवर सिंह के गद्य के सौन्दर्यशास्त्र पर चर्चा के पूर्व एक ऐतिहासिक तथ्य की ओर ध्यान दिलाना जरूरी है कि भारत में छापाखाना के आरंभ से गद्य के आरंभ का कोई नाभिनाल संबंध नहीं है। जो लोग प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत से गद्य को जोड़कर देखते हैं वे जाने-अनजाने औपनिवेशिक जेह्नियत के शिकार हैं। वस्तुतः छापाखाना शुरू होने के बहुत पहले न केवल ब्रजभाषा या पुरानी राजस्थानी में, बल्कि संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि भाषाओं में काफी मात्रा में गद्य मिलता है। 'वार्ता साहित्य' या राजस्थानी 'वचनिका' से बहुत पहले कहे गये बुद्ध के वचन गद्य में ही हैं।
एक और बात यह कि काव्य का संबंध वाचिक परंपरा से है और गद्य का लिखित परंपरा से है। बावजूद इसके, आम धारणा है कि हम जो बोलते हैं, वही गद्य है। 'गद्य की सत्ता' नामक पुस्तक में रामस्वरूप चतुर्वेदी की यही स्थापना है ; 'गद्य का संबंध बोलचाल से, और किसी रूप में वक्तृता से है।' जबकि वास्तविकता बिल्कुल उल्टी है। 'द क्रिटिकल पाथ' नामक ग्रंथ में नार्थोप फ्राई ने साफ लिखा है कि हम जो बोलते हैं, वह कदापि गद्य नहीं होता। रिकॉर्ड करके यदि हमारी बातचीत को लिप्यन्तरित कर दिया जाए, तो उसका वाक्य-विन्यास गद्य कतई नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः गद्य भी उतना ही बनावटी होता है, जितना कि काव्य। उसमें भी निर्मिति का बोध होता है। नार्थोप फ्राई ने लिखा है कि गद्य भी 'संडे क्लॉथ' में होता है। इसी प्रकार एज़रा पाउण्ड ने जब कहा था कि कविता को भी गद्य की तरह सुलिखित होना चाहिए, तो प्रकारान्तर से वे 'गद्य की कला' को कविता के मुकाबले जटिल बता रहे थे। जाहिर है कि बिम्बवादी कविताएँ 'राइम' के बजाय 'रिद्म' को केन्द्र में रखकर रचित तथा गद्य के समान सुलिखित हुआ करती हैं। सच तो यह है कि हमारे जमाने में भी अच्छी कविताएँ प्रायः वे ही कवि लिख रहे हैं, जो गद्य की कला में माहिर हैं। अच्छा कहानीकार, उपन्यासकार आदि होना एक बात है, पर अच्छा गद्यकार भी होना बिल्कुल भिन्न बात। इसीलिए अच्छे निबंधकार भी बहुत कम मिलते हैं। यह ठीक ही कहा है की गद्य यदि कवियों के लिए कसौटी है, तो निबंध गद्यकारों के लिए।
नामवर सिंह के गद्य में जो गठन व कसावट है, उसके प्रशिक्षण का श्रेय उन्होंने खुद अपने दो विद्वान शिक्षकों - मार्कण्डेय सिंह और आचार्य केशव प्रसाद मिश्र - को दिया (तद्भव, 3/9)। साथ ही, हजारी प्रसाद द्विवेदी के गद्य को 'हिन्दी गद्य की दूसरी परंपरा' के रूप में अभिहित करते हुए नामवर जी ने लिखा है : 'बहुत बाद में जब मैं 'दूसरी परंपरा की खोज' पुस्तक लिखने के लिए कलम उठायी, तो लगा कि कलम जैसे अपने आप ही पंडित जी की रौ में चल पड़ी है। बोलचाल के विन्यास में छोटे सरल सहज वाक्यों वाला गद्य।... 'कविता के नये प्रतिमान' में जो गद्य है, वह आचार्य शुक्ल और आचार्य केशव प्रसाद मिश्र के संस्कारों वाला गद्य है।' (वही, पृ १०)
कहना न होगा कि गद्य में गठन तथा कसावट के द्वारा वर्णन और अनुभव की तरलता के जिस सही अनुपात का ध्यान रखा जाता है, कविता उसे छंदों की मदद से साधती है। पर गद्य में छंद नहीं होता। वहाँ एक आन्तरिक लय होती है, जिसके लिए उसमें काईनेटिक सिद्धांत अपनाया जाता है। इसके तहत वहाँ साँस के अनुसार छोटे-बड़े वाक्यों की रचना की जाती है। अर्थात् जिस बात को कहने में जितनी दूर तक साँस रहे, वाक्य उतना ही बड़ा होना चाहिए। इस सन्दर्भ में खुद नामवर जी का मानना रहा है कि "गद्य हो चाहे पद्य, सभी में एक प्रकार से छंद होता है और वह छंद वाक्य की गति और यति में निहित रहता है। वाक्य की गति और यति से एक लय ध्वनित होती है और इस लय का तार वक्ता के हृदय में होता। ह्रदय के स्पंदन से ही वाक्य की लय निर्धारित होती है।"(छायावाद,पृ.१२१)
नामवर सिंह के गद्य में काइनेटिक सिद्धांत के विनियोग का एक उदाहरण द्रष्टव्य है, जिसकी अन्तर्वस्तु में निहित मानवीय संबंध की सघनता खासतौर से रेखांकनीय है :
"प्रिय काशी, यह होली की शाम है और मैं एकदम अकेला हूँ। कमरा बंद करके चुप बैठा हूँ। सिर्फ तुमसे बात करने को मन कर रहा है। आओ, पास बैठो।"
(पहल-३४,पृ ८३)
स्मरणीय है कि कविता लिखने के मुक़ाबले गद्य लिखने में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। गद्य की एक कला होती है। यदि सावधानी से एक ही आदमी की कविता और गद्य को मिलाकर देखें, तो कई बार पता चलेगा कि वही क़लम जो कविता में सावधान थी, गद्य-लेखन में लड़खड़ा गयी। पंत को शब्द-शिल्पी' कहा जाता है और स्पष्ट ही कविता में उनकी भाषा-क्षमता देखकर ताज्जुब होता है। पर जिस 'पल्लव' की भूमिका की बड़ी तारीफ की जाती है, वह अलंकृत और शिथिल गद्य है। वस्तुतः जो गद्य केवल लेखन का गुलाम हो जाता है, वह जीवंतता खो देता है। विचित्र विरोधाभास है कि गद्य का जन्म तो लेखन के साथ हुआ, पर वह अपनी सारी जीवंतता बोलचाल के लहज़े से अर्जित करता है, दूसरे शब्दों में, गद्य का प्राण बोलचाल में बसता है। लिपि उसको धारण करती है। इसलिए यह कहना अयुक्तियुक्त न होगा कि लिपि गद्य की पार्वती है, पर गद्य का परमेश्वर बोलचाल का लहज़ा है। इस दृष्टि से गद्य द्विज है। उसका जन्म दो बार होता है।
गद्यकार नामवर सिंह की भी तमन्ना रही है कि उनका गद्य बोलता-सा लगे। उन्होंने स्वीकार किया है; 'मैं बोलने को लेकर भी उतना ही सावधान रहता हूँ। बोला हुआ भी यथावत लिखा जा सकता है। बशर्ते उसको लेकर सतर्कता हो। तमन्ना तो यही रहती है कि बोला हुआ लिखा-सा लगे और लिखा हुआ बोलता-सा।'(तद्भव, ३/१०) इस संदर्भ में नामवर सिंह के गद्य का एक टुकड़ा द्रष्टव्य है : 'सुना है, जैनेन्द्र जी के सामने एक बार किसी ने कहा अक़्ल बड़ी कि भैंस? उन्होंने छूटते ही कहा--सवाल यह है कि किसकी अक़्ल और किसकी भैंस? इसी तरह सवाल यह नहीं है कि आस्था बड़ी या अनास्था ? सवाल यह है कि किसकी आस्था और किसकी अनास्था? साथ ही, किसमें आस्था और किसमें अनास्था?' (इतिहास और आलोचना, पृ ७१)
काशी हिन्दू विश्विद्यालय में बतौर अध्यापक कार्यरत नामवर जी की वक्तृत्व कला की याद करते हुए काशीनाथ सिंह ने लिखा है: "नामवर न डूबते थे न उड़ते थे- उन्होंने पानी को चीरते हुए ऐसा रास्ता निकाला जिसमें सर आकाश में रहे और धड़ पानी में। वे बीच-बीच में लहरों से खेलते भी थे और छपाके के साथ किलोल भी करते थे। इसी कला का विकास आगे उन्होंने अपने व्याख्यानों में किया - कठोर और उबड़खाबड़ धरती पर।.....उन्हें सुनना भोर के उजास में नागफनी के जंगल से गुजरने की तरह होता है। विषय साहित्य का हो या उससे अलग। वह वैसे ही धरती पर उगने, पनपने और बढ़ने लगता है। अपने खुरदुरेपन के साथ काँटों,पत्तियों-फूलों समेत जैसे नागफनी । ऐसी राह से गुजरना अखरता इसलिए नहीं कि आपके साथ वह सहयात्री भी होता है जिसे खतरों की बेहतर जानकारी होती है....और भाषा पर ऐसा नियंत्रण कि क्या कहिए ? क्या मजाल कि कोई शब्द या वाक्य या मुहावरा उनकी इच्छा के बिना अपनी मर्जी से टाक-टूक कर चुपके से या जबरदस्ती घुस आने की जुर्रत करे।"
(तद्भव, २००४)
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि 'गद्य की श्रेष्ठता तो भावों की गुरुता और प्रदर्शन प्रणाली या स्पष्टता वा स्वच्छता ही पर अवलंबित है; और स्पष्टता और स्वच्छता अधिकतर व्याकरण की पाबंदी और तर्क की उपयुक्तता से सम्बन्ध रखती है।' बालमुकुन्द गुप्त का भी मानना था कि सरलता, स्वच्छता और संक्षिप्तता अच्छे गद्य की विशिष्टता है। साथ ही, वे श्रेष्ठ गद्य का बामुहावरा होना ज़रूरी मानते थे। स्मरणीय है कि भाषा में मुहावरा का मतलब बोलचाल की रवानी ही है, कहावत नहीं। खड़ी बोली हिन्दी आगरे में मँजी-सँवरी और सच्चाई है कि इसका गद्य पहले उर्दू में आया, जिसमें बोलचाल के लहज़े का इस्तेमाल किया जाता था। इंशा अल्ला खाँ ने साफ़ तौर पर कहा था कि इसमें 'हिंदवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले।' इसके अलावा उस ज़माने के विद्वानों ने खड़ी बोली के गद्य को पंडिताऊपन और भाखापन, दोनों ही से बचाने की बात कही है। उस समय हिन्दी के लिए यदि पंडिताऊपन का मतलब संस्कृत से आत्यंतिक जुड़ाव था, तो उर्दू के लिए फारसी से। भाषा के बारे में नामवर सिंह कहते हैं : 'हालाँकि मैं भाषा को लकेर बहुत शद्धतावादी नहीं हूँ। भाषा खिचड़ी होती है, भाषा में तद्भव, तत्सम में जो करना है कीजिए। वैसे तद्भव में भी लोक में जो रूप चलता है, वही चलेगा, आपका तद्भव नहीं चलेगा।'(तद्भव', ३/११)
कहा जा चुका है कि गद्य बोलचाल का सुलिखित रूप है। चूँकि लेखन-क्रम में बोल-चाल वाले वाक्य-विन्यास को व्यवस्थित किया जाता है, इसलिए बोलचाल के लहजे में निहित-अन्तर्निहित जीवंतता की रक्षा के लिए भाषा गद्यकार से सृजनशीलता की अपेक्षा रखती है। नामवर सिंह के मुहावरेदार गद्य में सहजता तथा सृजनशीलता की साधना स्वस्थ चेहरे पर ख़ून की चमक की तरह झलकती है। कवि केदारनाथ अग्रवाल को लिखे गये पत्र के कुछ टुकड़े द्रष्टव्य हैं :
१. प्रिय केदार भाई, कल रात अचानक रेडियो खोला, तो आपकी आवाज़ सुनाई पड़ी.....बधाई दूँ की दौड़कर आपको गले लगा लूँ। युगों बाद आपकी आवाज़ कानों में पड़ी है और वह आवाज़ भी कैसी। जवान, स्वस्थ, खरे धातु के टुकड़ों की तरह कटी-छँटी ढली-ढलाई। काव्य शिल्प पर नई कविता के मास्टर भी निछावर हो जाएँ और काव्य-वस्तु में प्रगतिवाद अपनी नयी ज़िन्दगी देखे।.....इस तरह की कितनी कविताएँ आप छिपाए बैठे हैं। सहसा यह जवानी' कहाँ से फूट पड़ी है? हम तो बेखबर थे।'
२. मेरे केदार भाई पत्र के साथ कविताएँ मिल गई। आपको अपना हाथ मिला, तो मुझे अपनी आँखें मिल गई।(पहल-३४, पृ ८७)
केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं की तारीफ करते हुए नामवर सिंह ने जिस 'खरे धातु की तरह कटी-छँटी ढली-ढलाई' विशेषता का उल्लेख किया है, वह उनके गद्य की भी विशेषता है। इसे ही अशोक वाजपेयी ने 'विचार और व्याकरण का संतुलन' कहा है। यह संतुलन जहाँ चरम पर होता है, वहाँ अनायास सूक्तियों की रचना होती है। 'लगातार घर बदलने से घर का एहसास जाता रहता है', 'स्मृतिहीन लोग जितने दयनीय होते हैं, स्मृतिजीवी उनसे कुछ ही कम दयनीय होते हैं',- जैसी सैकड़ों सूक्तियाँ उनके पत्रों में भरी-पड़ी हैं। बावजूद इसके उनका गद्य सूक्ति-निर्भर नहीं है। इस गद्य का नाभिकीय बिन्दु मानवीय संबंधों की गहनता है। दूरभाष और इलेक्ट्रोनिक मेल के युग में शायद ही ऐसा गद्य अब संभव हो। ऐसे में नामवर जी द्वारा यथास्थान बार-बार उद्धृत एक श्लोक के टुकड़े का स्मरण स्वाभाविक है- 'ते ही नो दिवसा गतः।'
कहना न होगा कि हिन्दी में नामवर सिंह सरीखे उन आलोचकों को उँगली पर गिना जा सकता है जिनके गद्य में अपनी माटी की सोंधी गंध मिलती है। इसकी सबसे बड़ी वजह अपने जनपद की बोली से उनका रागात्मक सम्बन्ध है । इसका ठोस प्रमाण वहाँ देखा जा सकता है जहाँ वे त्रिलोचन की 'चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती' कविता की व्याख्या करते हुए अपनी यादाश्त पर जोर डालकर कासी-कोसल में प्रचलित एक लोकगीत की पंक्तियाँ बेहिचक उद्धृत करते हैं :
रेलिया न बैरी, जहजिया न बैरी,इ पइसवा बैरी हो
सैयाँ के ले गैले बिदेसवा इ पइसवा बैरी हो ।
रैल्फ फाक्स ने लिखा है कि 'अच्छा गद्य लिखने की कला चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारने की विलुप्त कला है।.......यह एक सत्य है, अडिग सत्य कि हमारे देश में अब भी ऐसी क्षमता रखने वाले लोग अदबदाकर मेहनतकश ही हैं क्योंकि वे जीवन के आवश्यक अनुभव तथा शब्दों के भण्डार से संपन्न हैं और उसमें वृद्धि करते हैं।'
नामवर सिंह के गद्य ऐसे अनेक टुकड़े उद्धृत किए जा सकते हैं जिनकी खूबी यह है कि वहाँ चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारा गया है । उनके लिखने और बोलने लहजे में हार्दिकता, अनुराग,वस्तुस्थिति की समझदारी के पुट के साथ ही उस सामान्य अनुभूति व समझ के तत्त्व भी भरपूर मात्रा में विद्यमान हैं जो साहित्य के जनतंत्र में सक्रिय किसी प्रबुद्ध नागरिक के भीतर जिंदगी की सामान्य चीज़ों व तजुर्बे के साथ गहरे लगाव का परिचायक होता है ।
अशोक वाजपेयी ने लिखा है कि 'बिना व्यस्क गद्य के सार्थक कविता संभव नहीं है जैसे कि बिना महत्त्वपूर्ण कविता की उपस्थिति के गद्य धारदार और संवेदनशील नहीं हो पाता।' हिन्दी रचनाशीलता की वैविध्यपूर्ण परम्परा के मद्देनज़र यह वक्तव्य भले ही अर्द्धसत्य हो, पर नामवर सिंह के धारदार गद्य की जड़ें कहीं न कहीं उनकी काव्य-मर्मज्ञता में अवश्य निहित हैं। इसके अलावा लोकभाषा एवं लोकजीवन से गहरा जुड़ाव भी उनके ताजगी भरे गद्य के मूल में है। प्रसंगवश 'वाद विवाद संवाद' की भूमिका का एक अंश दृष्टव्य है जो हिन्दी गद्य में हिन्दी की जुडवाँ बहन कही जाने वाली उर्दू के लहजे के सार्थक इस्तेमाल का नमूना है:
"आलोचना की वाचिक परंपरा के लिए मुझ पर तुहमत न लगाई गई होती, तो शायद मौखिक को लिखित रूप देने की यह ज़हमत भी न उठाता। सिंहवालोकन करने का समय तो शायद अभी नहीं आया है, फिर भी अपनी लिखने की ज़िन्दगी पर नज़र दौड़ाता हूँ, तो यह सोचकर कृतज्ञता की अनुभूति होती है कि प्रकाशित करते रहने के लिए कभी न कोई बाहरी दबाव महसूस किया, न प्रलोभन। शिक्षक के पेशे में रहते हुए भी और साहित्य की दुनिया में दिन-पर-दिन बढ़ती हुई व्यावसायिकता के बीच। और यह बुरा न हुआ! साहित्य की धरती का कुछ भार कम ही हुआ।"
विराम चिन्हों का यथास्थान सटीक प्रयोग यहाँ काबिलेगौर है। यह ठीक ही कहा गया है कि लिखते समय विराम चिन्हों के प्रयोग की लगभग वही भूमिका होती है, जो बोलते समय चेहरे पर भाव-भंगिमा की। इस वजह से नामवर सिंह का गद्य भी पाठक से वाचन की कला (Art of reading) की अपेक्षा रखता है। दूसरी बात यह कि एक ही रौ में 'सिंहावलोकन' जैसे पुराने शब्द का प्रयोग, 'नज़र दौड़ाता हूँ' और 'कृतज्ञता की अनुभूति' का इस्तेमाल और अंत में 'यह बुरा न हुआ' जैसी अभिव्यक्ति वस्तुतः भाषा के क्षेत्र में हिन्दुस्तान की गंगा-जमनी तहज़ीब का बेहतर उदाहरण है। ऊपर उद्धृत अनुच्छेद के अंतिम वाक्य से गुज़रते हुए गालिब की याद स्वाभाविक है :
'दर्द मिन्नत कशे दवा न हुआ मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ।'
नामवर सिंह का चेहरा, बकौल कवि केदारनाथ सिंह, किसान-चेहरा है। उनके गद्य का भी एक ठेठ देशी मिज़ाज़ है। शास्त्र-ज्ञान की गंभीरता के साथ-साथ उनके गद्य में निहित संवेदनात्मक बनावट पर ग्रामीण परिवेश की छाया दूर तक पहचानी जा सकती है। हिन्दी भाषा की जातीय प्रकृति एवं अस्मिता के प्रति एक संवेदनशील चौकन्नापन के चलते उनकी आलोचना की भाषा अनुभूत सच्चाई को पूरी ताकत के साथ उजागर करने में समर्थ है। एक आलोचक के रूप में इस अनुभूत सच्चाई के तमाम दबाव, तनाव आदि का असर उनके वाक्य विन्यास पर साफ दिखाई देता है। बहुतेरे तथाकथित साहित्य-शास्त्रियों की तरह नामवर जी की आलोचना भारतीय काव्यशास्त्र व पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली का कोश नहीं है। भारतीय काव्यशास्त्र, मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र, तथा नई समीक्षा के अनेकानेक प्रत्ययों का हिन्दी साहित्य के विश्लेषण-क्रम में यथास्थान विनियोग करने के बावजूद वहाँ बेज़रूरत के जार्गन, क्लीशे या अंग्रेज़ी के शब्दों से सावधानी के साथ बचा गया है। बकौल मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, 'यथार्थ के साथ स्रष्टा के द्वंद्व की पहचान की अचूक दृष्टि ने नामवर की आलोचना में प्राण का संचार किया था। आलोचना और भाषण के दौरान दरपेश बहस के किसी भी मुद्दे का सवाल हो, नामवर अपनी इस अचूक दृष्टि को प्रायः तिलांजलि नहीं देते। बहस के हर फ्रेम में द्वंद्व या अंतर्विरोध उद्घाटित कर मुख्य नुक्ते को पकड़ने की कला में वे पारंगत हैं।' (आधुनिक हिंदी साहित्य :विवाद और विवेचना',पृ.१३०) और, जाहिर है कि इस कला को साधने में उनकी भाषा, खास तौर से उपयुक्त शब्दों के चयन व संयोजन, की महती भूमिका है।
आज की हिन्दी आलोचना में कई बार तथाकथित उत्तरआधुनिक एवं उत्तरसंरचनावादी विश्वकोषी विद्वानों द्वारा विश्लेषणात्मक गद्य के नाम पर लिखित एक विचित्र प्रकार की प्रेत-भाषा व वागाडम्बर के मद्देनज़र आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के एक कथन की याद आती है। बहुत पहले आचार्य शुक्ल ने अंग्रेज़ीदाँ हिन्दी लेखकों की खबर लेते हुए जो बात कही थी, वह हमारे समय में 'कविता की संगत' करने वालों की हिन्दी के मद्देनज़र शायद ज्यादा प्रासंगिक है : 'अपनी भाषा की प्रकृति की पहचान न रहने के कारण कुछ लोग उसका स्वरूप ही बिगाड़ चले हैं। वे अंग्रेज़ी के शब्द, वाक्य और मुहावरे तक ज्यों-के-त्यों उठा कर रख देते हैं, यह नहीं देखने जाते कि भाषा हिन्दी हुई या और कुछ।'
प्रसंगवश हिंदी के उत्तरआधुनिक कहे जानेवाले दो आलोचकों के गद्य के टुकडे द्रष्टव्य हैं, जिनसे गुज़रते हुए न तो किसी सिद्धांत की सार्थकता उजागर होती है, न ही आलोच्य विषय की गहन अर्थवत्ताः
१. "इस कविता का चित्रात्मक (पिक्टोरियल) फलक, इसके लेखिम (ग्राफीक) फलक की सन्निधि (जक्स्टापोजिशन) में है और चूँकि दोनों ही फलक दृश्यात्मक हैं, अतः अपने द्वैत के बावजूद वे अपनी भिन्नता का द्वंद्व से समाहार नहीं करते, बल्कि एक द्वैध संतुलन से इस विषमांगता को समक्षणिक रूप में स्वीकारते हैं। यह समक्षणिकता ही है जो हमारा ध्यान उन अंतरालों पर केंद्रित करती है जो वस्तुतः शमशेर के संवेदन और संज्ञापन के बीच का अंतराल है, जो उनकी कविता के चित्रात्मक और लेखिम फलक के बीच हमेशा-हमेशा के लिए फैला हुआ स्थगित है।
- मदन सोनी
२. "लगा कि वे समस्याविहीन नहीं है, बल्कि हिंदी साहित्य की एक बड़ी समस्या हैं, उनमें यह समस्यात्मकता पढ़ी जा सकती है।......धीरे-धीरे नामवर की जिंदगी और उनकी लीलाएं सब एक दिलचस्प 'पाठ' बन उठीं और चूंकि ये मेरे 'पतन' के दिन थे, इसलिए भी एक 'बड़े पतित' से हमदर्दी होने लगी। मार्क्सवाद के उत्तर-समाजवादी प्रभंजन में, उत्तर-संरचनावादी विखंडन के नए रणकौशलों में से नामवर की आलोचना के भीतर कुछ नए विमर्श झिलमिलाने लगे और लगा कि सामूहिक 'अंतर्पाठ' की प्रविधि से भी नामवर का 'अपना पाठ' बनाया जा सकता है।
- सुधीश पचौरीः 'नामवर के विमर्श'
गौरतलब है कि 'आलोचना से आगे' सोचने-विचारने का दावा पेश करनेवाले आलोचकों के इन वागाडम्बरपूर्ण गद्यांशों की प्रकृति और संरचना के मद्देनज़र यदि एक ओर याद आती है महाकवि प्रसाद की टिप्पणी- 'बन जाता सिध्दांत प्रथम फिर पुष्टि हुआ करती है'- तो, दूसरी ओर र्रेल्फ फॉक्स का यह वक्तव्य : 'जबर्दस्ती किसी शैली की रचना करने के प्रयत्न से अधिक झुंझलाहट पैदा करने वाली चीज़ और कोई नहीं हो सकती। किन्तु, दुर्भाग्यवश, यह मानना पड़ेगा कि ऐसे समय जब विचार कठिन, दुखद या अरुचिकर हो जाता है, तब बनावटी शैली के प्राधान्य प्राप्त करने की संभावना भी ज्यादा रहती है।...यह कला विचारतत्त्व से एकदम शून्य, शुरू से अंत तक बनावटी, और इसलिए बेहूदगी की चरम सीमा तक 'शैली की चमत्कारिता' में डूबी हुई रहती है।'
नामवर जी के निबंधों में देशी-विदेशी साहित्यशास्त्रीय पारिभाषिक शब्दावली की संग्रह-वृत्ति के बजाय रचना से रू ब रू होने के दरम्यान अनुभूत विशिष्ट काव्यानुभूति का विवेचन-विश्लेषण करते हुए आलोचना की एक स्वतंत्र पद्धति की तलाश और उसके लिए ज़रूरी शब्दावली का विकास करने की सर्जनात्मक आकांक्षा दिखाई पड़ती है। बावजूद इसके, नामवर सिंह के व्यख्यान हीं नहीं बल्कि सुलिखित गद्य में भी कभी-कभार वैचारिक एवं भाषिक स्खलन के उदाहरण मिलते है। इस संदर्भ में 'आलोचना-२९' का संपादकीय खास तौर से द्रष्टव्य है।
प्रो. मैनेजर पाण्डे ने विस्तार के साथ उदाहरण देकर बतलाया है कि कैसे 'इस संपादकीय में विचारशीलता से अधिक उत्तेजना की व्यंजना है।...इसमें विशेषण संज्ञा के दुश्मन बन गये हैं। कहा जाता है कि विशेषण भाषा के दुश्मन होते है, लेकिन यहाँ तो वे विचार के भी दुश्मन बन गये हैं। इस संपादकीय में शायद ही कोई ऐसी धारणात्मक संज्ञा हो, जिसके अर्थ को सीमित, संकुचित या विकृत करता हुआ कोई न कोई विशेषण साथ न लगा हो। 'राजनीतिक समझ' के साथ 'स्थूल' लगा हुआ है तो 'लोकवादी रुझान' के साथ 'अंध'। केवल 'लेखक' के साथ लगभग एक दर्जन विशेषण हैं, जैसे- जागरुक, युवा, पराश्रयी, निष्ठावान, पिछलग्गू, अधकचरे, अनाड़ी, अनुवादक, अग्निवर्षी आदि। इतने विशेषण के बाद किसी संज्ञा के सुरक्षित बचने की कोई संभावना नहीं है।' (आलोचना की सामाजिकता, पृ.६३)
ऐसी स्थिति में नामवर सिंह का 'गद्य' भी इस कदर लड़खड़ाने लगता है कि उन्हीं के शब्दों में 'भाषा का रहस्यवाद' पैदा हो जाने की संभावना बनती है। ज़ाहिर है कि अज्ञेय के गद्य के लिए उन्होंने सायास, कृत्रिम, लद्धड़ और बेज़ान विशेषणों का जिस वजह से इस्तेमाल किया है वह वजह कभी-कभी उनके अपने गद्य में भी मात्रा-भेद के साथ मौज़ूद है। आलोचना की भाषा में चमत्कारपूर्ण शीर्षकों-उपशीर्षकों के प्रति उनमें जो आकर्षण 'कहानी : नयी कहानी' पुस्तक में दिखाई देता है, उसके व्यामोह से वे 'छायावाद' में भी एक हद तक ग्रस्त थे। किन्तु, आगे चलकर जब वे इस व्यामोह से बहुत हद तक मुक्त होते गये तो उनकी आलोचना में आये कुछ वाक्यों की बनावट और बुनावट के साथ ही उनमें विचार और व्याकरण के बीच अद्भुत संतुलन से उपनिषद् के गद्य जैसी सुषमा उत्पन्न हो गयी है : 'जिस प्रकार कंज-कोष सूर्य के कर-स्पर्श के बावजूद अपने अन्तर के आह्लाद से आप-ही-आप विकसित होता है, उसी तरह आज के जागरूक कवियों में लोकशक्ति की तादात्म्य की अनुभूति अन्तःसंस्कार बनकर उनकी कविताओं में लोकभाषा का सहज प्रस्फुटन प्रदान करती है।...अनुभूति आकांक्षा से नहीं आती, आकांक्षा कार्यान्वित होने की ठोस प्रगति से आती है। जो ऐक्य जीवन में नहीं आ सका है वह अनुभूति में नहीं आ सकता और जो अनुभूति में नहीं आ सका वह अभिव्यक्ति में नहीं आ सकता। आकांक्षा की विवक्षा प्रायः वायवी होती है।' (इतिहास और आलोचना, पृ.१११)
कहना न होगा कि नामवर सिंह ने कवि के समान ही भाषा की जिस सृजनशीलता को आलोचक के लिए भी ज़रूरी बतलाया है वह प्रायः उनके अपने लेखन में मौजूद है। 'कविता के नये प्रतिमान' में उन्होंने लिखा था- 'भाषा कवि से जिस सृजनशीलता की अपेक्षा रखती है, वही सृजनशीलता आलोचना के लिए भी आवश्यक है।' इस सर्जनात्मक आकांक्षा का प्रकटीकरण उनकी आलोचना में भरसक यथातथ्य एवं बोलचाल की भाषा में हुआ है। उदाहरण के लिए कवि राजकमल चौधरी के निधन पर धूमिल की कविता का एक अंश और उस पर नामवर सिंह की टिप्पणी द्रष्टव्य हैः
जीभ और जाँघ के चालू भूगोल से
अलग हटकर उसकी कविता
एक ऐसी भाषा है(भरोसे की)
जिसमें कहीं भी
लेकिन', शायद', अगर' नहीं है
उसके लिए हम इत्मीनान से कह सकते हैं---कि वह
एक ऐसा आदमी था जिसका मरना---
कविता से बाहर नहीं है।
'जिस नंगे और बेलौसपन के साथ यहाँ एक सच बात कही गई है, वह भी कुछ लोगों को 'नंगई' मालूम हो सकती है, लेकिन सच कहने के लिए अनेक युवा लेखकों में ऐसी नंगई को जान-बूझकर अपनाया है, क्योंकि बड़े-बड़े पहाड़ों को तोड़ने के लिए ऐसे शब्द 'डाइनामाइट' अथवा विस्फोटक का कार्य करते हैं और रचना में मितव्ययिता की दृष्टि से उनका उपयोग आवश्यक है। एक ऐसे विस्फोटक शब्द को वर्जित मान लेने के बाद जब दूसरे शब्दों का सहारा लिया जाता है, तो यही नहीं कि कलात्मक दृष्टि से रचना अनावश्यक रूप में पसर जाती है, बल्कि मूल कथ्य भी बदल जाता है और कभी-कभी वह सच सच भी नहीं रह जाता।' (वाद विवाद संवाद, पृ १२५)
यह बात जिस हद तक कविता के बारे में सच है, उसी हद तक आलोचना के बारे में भी। धूमिल की कविता पर इस टिप्पणी में बीज शब्द है- 'नंगई', जो स्पष्ट ही सामान्य बोलचाल का शब्द है। यदि इसके बजाय यहाँ दूसरे पारिभाषिक शब्द (जैसे, अराजकतावाद, बोहिमियन आदि) का इस्तेमाल किया जाता, तो आलोचनात्मक टिप्पणी में आस्फालन की पूरी संभावना होती। इस वजह से कई बार आलोचना में कविता की व्याख्या नहीं, बल्कि अन्यथाकरण होता है। सच तो यह है कि नामवर जी की आलोचना में जो संवादधर्मिता है, वह इस भाषिक खुलापन व जीवट के चलते ही संभव हुई है। 'गद्य की विलुप्त कला' के इस दौर में उनका लेखन हिन्दी गद्य की जातीय प्रकृति का एक श्रेष्ठ उदाहरण है।