लिफ्ट / प्रमोद यादव
अक्सर आफिस जाने के रास्ते वह विकलांग युवक लोगों से लिफ्ट मांगते दिख जाता. कभी-कभार कोई उसे बैठा लेता अन्यथा अधिकांश स्कूटर व बाईकवाले उसे नजरअंदाज कर आगे निकल जाते क्योंकि यह उसका रोज का सिलसिला था लेकिन मैं उसे कभी निराश नहीं करता, अपनी स्कूटर रोक ही देता, कारण कि मैं भी एक पैर से थोड़ा विकलांग हूँ और एक विकलांग का दर्द एक विकलांग व्यक्ति ही समझ सकता है.
मेरे आफिस से एक फर्लांग आगे सीधे रास्ते में उसका आफिस था. अक्सर पहले उसे उसके आफिस ड्राप करता फिर अपने आफिस लौटता. धीरे-धीरे अच्छी जान-पहचान हो गई. अब वह किसी से लिफ्ट नहीं मांगता, केवल मेरे ही इन्तजार में खड़ा रहता. मैं भी यंत्रवत उसे देख रुक जाता, वह लपककर पीछे बैठ जाता. उसे पहले ड्राप करता फिर अपने आफिस जाता.
एक दिन हम दोनों जा रहे थे कि अचानक स्कूटर लहराने लगा. ब्रेक लगा स्कूटर को सड़क के किनारे किया तो देखा – गाड़ी पंचर. दोनों उतरे. मैं परेशान कि अब इसे बनवायें कहाँ. मार्केट काफी दूर और सेक्टर के बहुत अंदर था. आफिस भी समय से पहुंचना था और फिर इन महाशय को भी ड्राप करना था. यह सब मैं अभी सोच ही रहा था कि अचानक जो दृश्य देखा, मेरी आँखें फटी की फटी रह गई. मैंने देखा, मेरा वह विकलांग मित्र एक बाईकवाले को रुकवाया, लपककर पीछे बैठा और फुर्र हो गया. उसने पीछे मुड़कर मुझे देखा तक नहीं.
तबसे मुझे ज्ञान-बोध हुआ कि अपना सर्वस्व दे दो पर किसी को लिफ्ट कभी न दो.