लीलाधर मंडलोई से बातचीत / कुमार मुकुल
लीलाधर मंडलोई से कुमार मुकुल की बातचीत
लीलाधर मंडलोई आदिवासी जीवन से आने वाले कवि हैं और तलहथी के जीवन से उठकर आने के चलते उनके अनुभवों की विविधता अतुलनिय हो जाती है। मंगलेश डबराल ऋतुराज को आदिवासी सभ्यता का कवि बताते हैं, इस रोशनी में देखा जाए तो ऋतुराज से ज़्यादा शिद्दत से लीलाधर मंडलोई आदिवासी जीवने को उसकी करूण जीवन दृष्टि और जुझारूपन के साथ सामने ला पाते हैं। श्रमपूर्ण जीवन के महत्व को वे कभी दरकिनार नहीं कर पाते और दीमकों और चींटियों की कारीगरी से प्रेरणा पाते हैं। मृत्यु के सम्मुख जीवन का गान वे दीमकों से सीखते हैं और दीमक घर को मनोरम पाते हैं। अपने आदिवासी जीवन से आई शब्दावली और उसे वरतने का तरीका मंडलोई ने विकसित किया है वह उन्हें हिन्दी कविता में सबसे अलग करता है। इतने नये शब्दों का इतने सहज ढंग से प्रयोग कुछ ही कवियों ने किया है। विजेन्द्र के यहाँ देशज शब्द अपनी ताकत के साथ आते हैं तो ज्ञानेन्द्रपति के यहाँ शुद्धता के एक आग्रह के साथ पर मंडलोई के यहाँ वे अपनी सहजता में रमे हुए से आते हैं जिनसे आदिवास की खुशबू और ताकत हमेशा आती रहती है। घउरा, सदापर्णी, मक्खीपानी, मावठा, समागन, सरमग, महुआर, खार, पूले, बिकवाली, फूंकन, रेठू, अबेरना आदि ऐसे ही शब्द हैं।
मंडलोई की कविताओं से गुजरते हुए मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय और ज्ञानेंद्रपति याद आते हैं। इन कवियों की जद्दोजहद जैसे मंडलोई के यहाँ एक नया रूपाकार प्राप्त करने की कोशिश में छटपटा रही हो।
लीलाधर मंडलोई वर्तमान में भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक हैं प्रस्तुत है उनसे कुमार मुकुल की बातचीत। यह साक्षात्कार राजस्थान पत्रिका के रविवारीय में 09 अप्रैल 2017 को प्रकाशित हुआ।
दृष्टि और विश्व दृष्टि क्या दो चीजें हैं? परंपरा और आधुनिकता के बीच लेखक अपनी विश्व दृष्टि को किस तरह रूपाकार दे?
दृष्टि की उदात्तता और चिंतन के विराट फलक से विश्वदृष्टि बनती है। सीमित और संकुचित दृष्टि विश्व दृष्टि बनने के मार्ग में अवरोधक हैं। परंपरा आधुनिक होती है और आधुनिकता परंपरा से च्युत नहीं होती। किन्तु यह साधक लेखक के बूते की बात है। जो साधक होगा, दृष्टि संपन्न और प्रयोगशील होगा वही विश्वदृष्टि को रूपाकार दे सकेगा, ऐसा मैं मानता हूँ।
अपनी एक कविता 'बिजूका' में आप लिखते हैं-'यह झूठ (बिजूके का झूठ) तो सब जानते हैं पर यह कितना बडा सच है इसे सिर्फ़ किसान जानता है।' इस सच को आप कैसे देखते हैं?
मेरी माँ बहन और भाई बचपन में खेतों में काम करने जाते थे जब कोयला खादानों का काम बंद होता था। माँ फसलें काटती तो हम सीला बीनते थे और खेतों में लगे पेडों से शाम के खाने के लिये भाजी, रेथू, बेर जैसी चीजें बटोरा करते थे। इस तरह अपनी गरीबी के साथ किसानों की दुर्दशा से भी परिचित होते थे।
साहित्य में सौंदर्यबोध और रचनाकार के परिवेश के सम्बंध को आप किस तरह से देखते हैं? क्या सौंदर्यशास्त्र को दलित और अल्पसंख्यक आदि खानों में बांटा जा सकता है?
किसी भी व्य-क्ति का सौंदर्यबोध उसके अपने परिवेश से जन्मता है। जब मैं व्यक्ति की बात कर रहा हूँ तो लेखकों का पूरा वर्ग इसमें शामिल है। इसलिये आप पाते हैं कि प्रेमचंद का सौंदर्यबोध यशपाल से भिन्न है और शमशेर का नागार्जुन से बिल्कुंल अलग। दलित सौंदर्यशास्त्र को देखने के लिये भी एक अलग दृष्टि की दरकार होगी। जैसा कि मराठी दलित साहित्यं में हुआ। आपको स्मरण होगा कि कई शीर्ष आलोचकों ने यह बात बार-बार कही है कि शीर्ष रचनाकारों के लिये एक अलग सौंदर्यशास्त्र की ज़रूरत है। जब यह परसाई, शमशेर और मुक्तिबोध के बारे में कहा जा सकता है तो यह बात दलित सौंदर्यशास्त्र पर भी लागू होती है।
एक रचनाकार के रूप में मन पर नियंत्रण को आप किस तरह से देखते हैं।
एक कवि के नाते मन को नियंत्रित करना मुझे बिल्कुटल अच्छा नहीं लगता। नियंत्रण का काम खास संदर्भों में ऋषि-मुनियों के लिये इसलिये बेहतर है कि उन्हें अपनी तपस्या से कुछ हासिल करना होता है। एक रचनाकार के लिये मन का नियंत्रण तभी ज़रूरी है जबकि वह आपको ग़लत दिशा व कारण में ले जाए.
आज सोशल मीडिया पर कविता एक लोकप्रिय विधा के रूप में विस्तार पा रही है? हर कोई अपनी भावाभिव्यक्ति को कविता के रूप में आकार देना चाहता है। इसे किस रूप में देखते हैं? क्या यह कविता के स्तर को प्रभावित कर रहा?
विधाओं को माध्यम विस्तार देता है, यही उसकी भूमिका है। कविता अच्छी होगी तो किसी भी माध्यम से अपने स्वर को प्राप्त करेगी। अभिव्यक्ति को आकार देने का अर्थ अच्छी कविता लिखना भी हो सकता है और घटिया भी। यह समय के साथ स्पष्ट होता है कि वह अच्छी है या कूड़ा। कूड़ा छंट जायेगा। वही बचेगा जो श्रेष्ट होगा।
क्या इलेक्टिा्निक मीडिया और मोबाइल के इस युग में छपे हुए शब्दों का महत्व कम होता जाएगा? इ बुक्स और किंडल जैसे नये रीडिंग टूल्स हमारी रचनात्मकता को कहाँ कैसे प्रभावित करेंगे?
इसका उत्तर आने वाला समय बेहतर बताएगा। व्यक्तिगत रूप से मैं समझता हूँ कि इस महादेश में किंडल और मोबाइल पर पढने वालों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। 2-3 प्रतिशत भी निकल जाएँ तो बहोत। मैं पुस्तक को उसकी गंध, ध्वनी और स्पर्श के साथ पढ़कर ही आनंदित होता हूँ।
साइबर स्पेस का फैलाव हमारे संवाद के पुराने रूपों को नष्ट कर रहा। क्या सोशल मीडिया इस कमी को पूरा कर पाएंगा?
संवाद के पुराने रूप खतरे में हैं। यह सच है। सोशल मीडिया अब एक बड़ा विकल्प है। चिट्ठियां लिखना कब का बंद हुआ। ज़रूरत है तो संवाद के इस सोशल मीडिया को आत्मीय-अंतरंग बनाने की है जिसमें झूठ, फरेब और मक्कारी का भाव न हो। प्रेम, सत्य और ईमानदारी-संवाद में आवश्यक है। यह काम माध्यम नहीं मनुष्य करेगा।
आपके प्रिय कवि कौन-कौन हैं जिन्होंने आपको प्रभावित किया?
भक्तिकाल के कवियों में कबीर, तुलसी, सूर और मीरा के साथ रहीम और रैदास, लोककवियों में इसुरी, गंगाधर व्यास, भिखारी ठाकुर, अंग्रेज़ी में शेक्सिपीयर, हेमिंग्वे, उर्दू में मीर, गालिब और हिन्दी में निराला, प्रसाद, मुक्त्बिोध, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, नागार्जुन, रघुवीर सहाय। विश्व के आधुनिक कवियों में नेरूदा ने और रसूल हमजातोव ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया। रूसी साहित्यकारों में टाल्सटाय, चेखव, मायकोवस्की, पुस्किन, अन्ना आख्मावतोवा आदि।