लुका-छिपी बहुत हुई / एक्वेरियम / ममता व्यास
क्यों छुपाना खुद को? कभी पत्तों से, कभी बादलों से लुका-छिपी क्यों? पहले छुपाना फिर कहना मुझे पकड़ो। मुस्कान से दुखों की आंखें बंद करने से क्या होगा? क्या दुख सिर्फ़ आंखों से ही बयाँ होते हैं। दुख वे हैं, जो मन की गहन कंदराओं में, रह-रह कर काले पहाड़ों, पत्थर के कोयलों से धीरे-धीरे हीरो बन जाते हैं और चमकने लगते हैं, फिर भी चैन नहीं मिलता दुनिया को। वह इन हीरों को कई कोण से खूब काटती है। कमाल ये कि कट-कट के ये और भी चमकते हैं।
हम सूरज, चांद, धरती और आकाश से कह सकते हैं, मुझे पकड़ो और छिपने का खेल भी खेल सकते हैं। वह सभी हमें अपने-अपने अंदाज से पहचान ही लेंगे। प्रेम की ऊष्मा सूरज को बता देगी कि प्रेम यहाँ छुपा है। मन का हरापन पेड़ों से चुगली कर देगा। जिस पल, मुस्कान दर्द को ढंकने की कोशिश करती है, आंखें बोल पड़ती हैं। होंठों के कोने से प्रेम कंपकंपाता हुआ झांकने लगता है। क्यों बंद करना अपनी अनुभूतियों की आंखों को? क्यों अनसुना करना दस्तकों को? बाहर क्यों नहीं आते हम? क्या खुद को छिपाना खुद को छलना नहीं है? अपने दुखों पर भीतर-भीतर रो कर बाहर से हंसना फरेब नहीं है? छोटी चिडिय़ा ने आपको पकड़ लिया और आप 'कवि मारिओन सोरेस्क्यु' आप इतने बड़े ज्ञानी होकर भी खुद की आवाज को नहीं पकड़ सके, सुन नहीं सके, क्यों? बाहर क्यों नहीं आ जाते? रिहा हो जाइये न खुद से, बोझ हल्का कर दीजिये। प्रेम है तो कह दीजिये, दर्द है तो रो लीजिये। छुपिये मत, खेलिए मत खुद से, छलिये मत खुद को, ठगिये मत खुद को, बाहर आ जाइए। दस्तक सुन कर दरवाजे से बाहर आना होगा। संदेह, भ्रम और तर्कों के पर्दे भी हटाने होंगे, फिर देखिये आपकी अनुभूतियाँ फूलों में खुशबू बन कर और आकाश में चांदनी बन कर बिखर जाएंगी।