लुगड़ी का सपना / सत्यनारायण पटेल
फूँऊँ.ऽ..ऽ..ऽ..ऽ..ऽ..ऽ..ऽ.............
यह शंख की ध्वनि थी- न सिर्फ़ मन्दिर से डूँगा के कान तक बल्कि गाँव के कोने-कुचाले तक पसरी और लम्बी। गन्धहीन और अदृश्य। ध्वनि भी क्या! बस, शंख के पिछवाड़े़ में फूँकी एक लम्बी फूँक, जो शंख के मुँह से ऊँचा स्वर लिए, तेज़ी से बाहर निकली थी, और डूँगा के कान तक आते-आते हवा में घुली धीमी और महीन ध्वनि में बदल गई थी। थी हवा से भी हल्की, पर जब कान से मग़ज़ तक में पसरी और फिर ख़ून में घुल गई तो डूँगा उठकर खड़ा हो गया। असल में वह डूँगा और उसके सरीखे उन सबके लिए एक हाँक, एक बुलावा और एक संकेत था, या हवा का ऐसा हाथ, जो दिखता नहीं, बस, हर रात आठ बजे के दरमियान कान पकड़कर मन्दिर में होने वाली आरती में खींच ले जाता।
डूँगा मन्दिर में होने वाली आरती में जाता तो था पर उसे न भगवान पर कोई भरोसा था, न आरती गाने का शौक। फिर भी वह आरती में जाता, क्योंकि वहाँ ढपली, करताल, खँजड़ी और झाँझ होती, और डूंगा झाँझ, करताल, ढपली और खँजड़ी बजाने का शौकीन था, इनमें से जो भी हाथ लग जाता, उसे इतनी तनमयता से बजाता कि आरती में आए लोग देखते ही रह जाते। सोचते कि डूँगा आरती में, भक्ति में लीन हो जाता है। पर वह लीन किसमें होता, ‘अपनी पसंद का वाद्य बजाने में, या पसंद का वाद्य बजा-बजाकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करने में, या फिर तनाव को दूर करने में, यह वही जानता था।
जब उस रात शंख की ध्वनि डूँगा को ढूँढती हुई आयी थी। वह क्षण भर को डूँगा के घर के दरवाज़े की बारसाख के पास ठिठकी थी। वहाँ ऊपर ओसारी की छत पर रखी पतरे की चद्दर से नीचे एक चालीस वाट का गुलुप जल रहा था। गुलुप, एक बत्ती कनेक्षन वाली स्कीम के तहत लगा था, जिसका मरियल उजास अँधेरे के आगे सेरी की धूल में गिन्डोले (कैंचुए) की तरह रेंग रहा था। जैसे किसी ने इंजक्षन से उसके भीतर का करंट खींच लिया था; और केवल इतना करंट था कि एकदम बुझा हुआ न लग रहा था। जहाँ से उजास आगे नहीं बढ़पा रहा था, वहाँ से कुछ क़दम आगे एक खाट ढली थी, जिस पर टिमटिमाते तारों की महीन रोशनी के हल्केफुस और भूरे भुरभुरे ही आसमान की दया पर बरस रहे थे।
उस रोशनी के हल्केफुस और भूरे भुरभुरे के उजास में खाट पर एक डूँड लेटा नज़र आ रहा था। डूँड- बरसात में भीगा, ष्याले (सर्दी) में सिकुड़ा और उनाले (गर्मी) में तपा गेरूआ झेल चुके गेहूँ के रंग का डूँड। जब शंख की ध्वनि ने कुछ क़दम खाट की जानिब बढ़ाये, तो उसे डूँड की एक शक्ल भी नज़र आने लगी। चार क़दम और बढ़ाने पर किसी कपड़े की तरह बहुत ही धीरे-धीरे ऊपर-नीचे हिलता डूँड का पेट दिखने लगा। थोड़ा और आगे बढ़ने पर तो पोल ही खुल गयी, वह डूँड नहीं डूँगा था। डूँगा और बारसाख के ऊपर जलते गुलुप में सगे भाइयों सरीखी की एक समानता थी- गुलुप बुझा नहीं, जल रहा था। डूँगा मरा नहीं, हिल रहा था। डूँगा को खोज लेने पर शंख की ध्वनि ख़ुशी से पोमा उठी। उसका अट्टहास अँधेरे के कम्बल को चीरता तारों तक जा पहुँचा। फिर जैसे डूँगा का कान मरोड़ती बोली- चल, आरती का टैम हो गया।
जब डूँगा मन्दिर में पहूँचा तो देखा- आरती में टुल्लर के छोरे पहले से मौजूद थे। कोई शंख बजा रहा था। कोई घण्टी, झालर और झाँज बजा रहा था। डूँगा के हाथ खँजड़ी लगी, तो वह खँजड़ी बजाने लगा था। खँजड़ी बजाने में डूँगा ऐसा डूबा कि सुध-बुध भूल गया था। आरती ख़त्म हो गयी। सभी ने अपने-अपने वाद्य पंडित के पास जमा कर दिये। लेकिन डूँगा ने खँजड़ी को न जमा की, न बजाना बन्द की।
आरती में आये छोटे छोरे उसकी बेख्याली पर कुतूहल के साथ हँस रहे थे। स्याने छोरे कभी उसे और कभी टुल्लर के छोरों को आश्चर्य से देखते खड़े थे। टुल्लर के छोरे को डूँगा देख-हो.... हो.... कर हँस रहे थे।
डूँगा उनकी हो... हो... के जवाब में खँजड़ी बजा रहा था। बजाते-बजाते हथेलियाँ छील गयी। ख़ून रिसने लगा। पर डूँगा का खँजड़ी बजाना ज़ारी रहा। उस रात ठन्ड ज्वार की बुरी की तरह काट रही थी, पर डूँगा के कपाल, घोग से पसीने की तिरपने रिस रही थी। अगर कोई सजगमना तेज़ी से बहती तिरपनों को एक पाट में बहा देता, तो रात भर में एक बीघा खेत रेलवा जाता।
लेकिन तिरपने अपनी ही हिकमत अमली से बह रही थीं। पीछे यानी सिर, कन्धे, गरदन के पसीने की तिरपन पीठ के पाट में बहती। कमर पर उचकी हड्डियों के बीच से धोती में उतरती। आगे यानी भाल, नाक और ठोडी के नीचे से रिसते पसीने की तिरपन, कन्ठ के नीचे ढुलकती। सीने की उभरी दो पसलियों के रेगाँले से गुज़रती। पिचके पेट का डोबना भरती। धोती में उतरती। ऐसे ही दोनों बगल की काँख का पसीना और अनेक तिरपनों का पसीना लट्ठे की फतवी को तर्रमतर करता। जब फतवी का रेशा-रेशा पसीने से तर हो जाता। उसमें और पसीना सोखने की कुबत न रह जाती और पसीने का आना ज़ारी रहता। तब फतवी से रिसता पसीना भी धोती में ही समाता। असल बात यह कि डूँगा की धोती बड़ी कलेजेदार थी। वह अपने भीतर पसीने की कितनी ही धाराओं को समा लेती और पुर नहीं आती। डूँगा की धोती, मानो धोती नहीं थी। उसकी कमर के आसपास लिपटा पूरा समुद्र थी।
पंडित हाथ में आरती की थाली लिये था। थाली में जलते दीप की सेंक को वह बारी-बारी से सभी की ओर धकियाता। कोई थाली में दो का सिक्का डालता, कोई पाँच का। जलते दीप की लो से लोग अपने हाथों को गरमाते। फिर उस गरमाहट को अपनी आँखों, गालों और बालों पर हाथ फिरा कर महसूस करते। बीच-बीच में पंडित डूँगा की ओर देखता और बोलता- र्कइं खँजड़ी तोड़ी के दम लेगो।
टुल्लर हो... हो... कर हँसता। डूँगा टुल्लर की हँसी को खँजड़ी की आवाज़से दबाने की कोषिश में और ज़ोर से बजाता।
पंडित ने आरती की थाली मूर्ति के चरणों में धर दी। पंचामृत की गवड़ी उठायी। प्रसाद का धामा उठाया। उन्हें सिंहासन के चैनल गेट के पास नीचे धरा। फिर धीरे से एक छोटे से आसन पर ख़ुद बैठा, तो तोंद नीचे फर्ष पर टिक गयी। फिर बारी-बारी से दो चम्मच पंचामृत देता। लेने वाला जब पंचामृत पी लेता, और हाथों को बालों या कूल्हों से पोंछ लेता, तब वह प्रसाद देता। यह सब शुरू होने तक भी जब डूँगा का खँजड़ी बजाना नहीं थमा। हथैलियों से रिसता ख़ून पसीने के साथ कोहनी के रास्ते से मन्दिर के आँगन में टपकने लगा। तब रामा बा का धैर्य भी चुक गया। उन्होंने डूँगा को झिन्झोड़ा- अरे कईं दम उखड़ने तक बजावेगो, धर अब।
टुल्लर फिर हो.... हो.... कर हँसा। डूँगा ने और ज़ोर से खँजड़ी बजायी।
जब उसने रामा बा की बात भी न सुनी, तो रामा बा ने उसके हाथ से खँजड़ी ज़ोर से खींच कर छुड़ा ली। तब उसकी तंद्रा टूटी। उसे लगा- जैसे गाँव के सभी टुल्लर के छोरे मिलकर उसके हाथों से खेत छुड़ा रहे हैं। उसने घबराकर खँजड़ी को और ज़्यादा मज़बूती से पकड़ा और ज़ोर से चीखा- म्हारे नी बेचनो है म्हारो खेत।
यह सुन रामा बा के हाथ पाँव ढीले पड़गये। वह समझ गये, डूँगा का इस क़दर खँजड़ी बजाने का कारण। उनके मन में घृणा का समुद्र हिलोरने लगा। फिर उसी भाव से टुल्लर की तरफ़देखा और मुँह फेर कर ज़ोर से थूका।
रामा बा की घृणा और उस ढँग से थूकने को देख, अगर कोई ज़रा भी लाज-शरम वाला होता। वहीं गड़जाता। लेकिन टुल्लर ने तो लाज-शरम काटकर ढेका (कूल्हे) पीछे धर ली थी। टुल्लर फिर बेशर्मी के मचान पर चढ़हो.... हो.... कर हँसा।
उस रात चुपचाप डूँगा चला आया था। उसके मग़ज़में हो.... हो.... गूँज रही थी। वह आकर सेरी में ढली अपनी खाट पर लेट गया था। खाट उनाले भर सेरी में ही ढ़लती थी। आम की लकड़ी की ईंस पर नरेटी यानी ‘नारियल के रेशों से बनी रस्सी’ से बुनी खाट। साँझ को खाट पर कोई गुदड़ी या पल्ली नहीं बिछी होती। वह तो जब आरती से लौट आता, तब बिछायी जाती। उनाले की साँझ होती, तो आरती में जाने से पहले डूँगा उमस के कारण फतवी को उतार देता। उघड़े बदन नरेटी पर लेट जाता। थके शरीर में नरेटी एक्यूपंचर का काम करती। जब शंख की ध्वनि आरती में बुलाने के लिए हाँक लगाती। डूँगा उठकर बैठता और खाट के पाए के माथे पर टँगी फतवी को उठाता। झटकारता। पहनता। इस बीच उसकी पीठ पर अबूझ नक्षा देखा जा सकता, जो नरेटी बनाती थी।
नक्षा साँझ को ही बनता पीठ पर, ऐसा ज़रूरी नहीं था। वह तो खाट पर उघड़े बदन लेटने से बनता था। जब उनाले के दिनों में खेत पर कम जाना होता। डूँगा दोपहर में घर सामने की ईमली की छाँव में दोपहरी गालने खाट पर लेट जाता। उठता तो पीठ ही नहीं, दायीं-बायीं पाँसुओं पर भी अबूझ नक्षे बने होते। जब नक्षों पर डूँगा की छोरी पवित्रा का पहली बार ध्यान गया था, तो पवित्रा ने जिज्ञासावश डूँगा से नक्षों के बारे में पूछा लिया था, तब डूँगा अपने मन में खाद-बीज से जुड़ी सन के रेसों की उलझी गुत्थी को सुलझाने का सिरा खोज रहा था। उसी मूड में उसने कह दिया था- बेटी, इ तो म्हारी ज़िनगी का नक्षा हैं, न समझ आवेगा और न मिटेगा !
उन दिनों पवित्रा आठवीं-नौवी कक्षा में थी। उसके शरीर में तेज़ी से तमाम बदलाव भी आना शुरू हुए थे। उस दोपहर डूँगा का जवाब सुन पवित्रा ने सोचा, वह कभी नरेटी बुनी खाट पर न बैठेगी, न सोयेगी। अगर बैठी या सोयी, तो उसके शरीर पर भी ऐसे आड़े-तिरछे और उलझे नक्षे बन जायेंगे, जो कभी नहीं मिटेंगे।
डूँगा के घर में एक ही खाट थी, जिस पर पहले उसकी जी (माँ) और दायजी (पिता) सोया करते थे। जब दायजी न रहे और डूँगा छोटा था, तो जी के साथ उसी खाट पर सोता था। बड़ा हुआ तो नीचे गुदड़ी बिछाकर सोया करता। जब जी न रही। कुछ दिन पारबती के साथ उसी खाट पर सोया। जब परिवार बढ़गया, तब फिर अकेला उस खाट पर सोता था।
एक बार डूँगा के पास थोड़े पैसे आये, तो उसने सोचा, घरवाली पारबती और छोरी पवित्रा के लिए भी एक-एक खाट बनवा ली जाये। खाट की ईंस और पाए तो अपने खेत के एक पेड़की कुछ डगाले कटवाकर गाँव के सुतार बा से गढ़वा लिये थे। खाट बुनवाने को रस्सी लाना थी और नरेटी ख़रीदने जितने पैसों का बन्दोबस्त था, सो खाट बनवाने के ख्याल में कोई खोट नहीं थी। जब पारबती की खाट बनकर तैयार हो गयी और पवित्रा की खाट में रस्सी बुनवाने की बारी आयी, तो पवित्रा ने अपनी खाट में सस्ती और चुभने वाली नरेटी न बुनवाने दी। उसके मन में यही था कि नरेटी से बुनी खाट पर सोयेगी, तो पूरे शरीर पर नक्षे ही नक्षे उभर आयेंगे। उसने पड़ोसन सम्पत माय की खाट में बुनी सूती निवार देख रखी थी, वही बुनवाने की जिद की।
डूँगा ने पवित्रा की जिद का मान रखा। नरेटी वापस की। अपनी दो भैंसों का दूध जिस सेठ को बेचता था, उस सेठ से कुछ रुपये उधार लिये। सूती निवार लाया। पवित्रा की खाट पर बुनवायी। पवित्रा निवार की खाट पर भी दो गुदड़ी बिछाकर सोती। डूँगा और पारबती की इकलौती और लाड़ली जो थी।
उस रात जब शंख की ध्वनि डूँगा को बुलाने आयी, तब अपनी खाट पर चीत लेटे डूँगा का मुँह अधखुला और आँखें पूरी खुली थीं। पलकों के कोनो में लोणी (मक्खन) के रंग का कीचड़जमा था। कोटरों में भरे पानी में पुतलियाँ तैर रहीं थीं। कोटरों के पानी और पुतलियों में बारसाख के ऊपर टँगे गुलुप की मानिन्द आसमान के तारे झीलमीला रहे थे। डूँगा की आँखों में झीलमीलाते तारे, केवल आसमान के तारे नहीं थे- एक सपना था। सपना भी क्या ! एक लुगड़ी का सपना ! छींटदार। सितारे टँकी लुगड़ी का सपना। यह एक ऐसा सपना था, जिसे देखने के लिए डूँगा को अर्धनिंद्रा में जाने की ज़रूरत नहीं थी। यह तो कुछ ऐसा था कि जब भी डूँगा खाट पर लेटता। सिर तकिये पर धरता। नज़्ारे तारों को छूतीं और क्षणभर में ही आसमान छींटदार लुगड़ी में बदल जाता। उस लुगड़ी को देखते-देखते ही वह नींद में चला जाता। सुबह उठकर लुगड़ी को पाने के लिए दिनभर खेत में हाड़तोड़मेहनत करता।
डूँगा का कुछ चीज़ों से ख़ास लगाव था, वे न हो तो डूँगा की नींद हराम हो जाती। मसलन कुआॅ हो, खेत हो, शरीर हो और मेहनत न हो। आसमान हो, तारे हो और तीन तारों की छड़ी न हो। आँखें हों, सपना हो, खाट हो और तकिया न हो। तकिया....... याद आया। उसकी खाट पर एक तकिया हमेशा धरा रहता। तकिया भी क्या, बस समझो, फटे-चेथरों को खोल में भरकर बना माकणों (खटमलों) का घर। जब किसी भी घर में सफाई अभियान के दौरान माकणों पर घासलेट या फ़सलों पर छिड़कने वाली दवा से हमला किया जाता, तब माकणें गारे की भीतों की दरारों से, ईंस और पाए की दरारों से यानी जो जहाँ होता, वहाँ से जान हथेली पर लेकर भागता और डूँगा के तकिये में आकर राहत की साँस लेता। माकणों के लिए पूरे गाँव में डूँगा के तकिये से ज़्यादा महफूज़कुछ नहीं था।
डूँगा का वह तकिया उसकी जी ने बनाया था- जिस पर पारबती ने पुराने लुगड़े कीखोल चढ़ायी थी। तकिये को कभी डूँगा की खाट से अलग नहीं रखा जाता। डूँगा खेत पर जाता। डूँगा परगाँव जाता और रात को लौटने वाला नहीं होता। तब भी तकिया खाट पर ही होता। पारबती इतना ज़रूर कर देती। खाट को ओसारी के आँगन में खड़ी कर देती और तकिया उसके पाए पर धर देती। यह ऐसा काम था जिसे टाला न जाता। अगर किसी व्यस्तता या मुसीबत की वजह से टल जाता, तो फिर खाट पर कबरे टेगडे (कुत्ते) का राज होता। टेगड़ा डूँगा की मौजूदगी में खाट के नीचे और ग़ैर मौजूदगी में ऊपर सोता। जब ऊपर सोता और सू सू की इच्छा होती। आलस्य के मारे नीचे न उतरता। खाट पर धरा तकिया उसे टीला नज़र आता। वहीं टाँग उठाता और उसी पर....तुर्रर...। वह तो एक रात पारबती ने देख लिया। तब से वह खाट को आँगन में खड़ी कर देती। न देखती, तो टेगड़े काखेल अभी ज़ारी रहता।
लेकिन वह कभी भी तकिये को घर में गुदड़मच्चा पर नहीं रखती। ऐसा भी कुछ नहीं था कि उस तकिये को घर के और तकियों के साथ रखने की मनाही थी। लेकिन पारबती और पवित्रा की आदत में ही नहीं था कि उस तकिये को भीतर गुदड़मचा पर रखी गुदड़ी और तकियों के साथ रखती।
एक बार पवित्रा ने डूँगा का तकिया ग़्ालती से और घर के दूसरे तकियों के साथ रख दिया था। साँझ को जब डूँगा की खाट सेरी में ढाली। उस पर तकिया रखा, तो भूल से दूसरा रखा गया। तकिया क्या बदला ! बदल गया सब कुछ- जैसे तकिये की गंध, उसकी नर्माहट, उसके माकणेें और ऐसे ही तकियों के माकणों के लिए भी सब कुछ।
उस रात डूँगा आरती से लौटा। खाना-वाना खा-पीकर। अपनी खाट पर लेटा। सिर तकिये पर धरा। आँखें खुली। नज़रें तारों से मिली, तो डूँगा को भी सब कुछ अजीब-अजीब-सा, बदला-बदला-सा लगा। तकिया अटपटा लगा। आसमान ओगला लगा। तारे बेपहचाने लगे। सपने का सिलसिला भी बिखरा-बिखरा लगा। नींद आँखों के आसपास मँडराती महसूस तो होती, पर पलकों पर लुमट कर उन्हें बंद न कर पाती। डूँगा हैरान-परेशान। कुछ समझ में न आये। रात बीती जाये। लेकिन फिर देर रात में ही सही, पर वजह उसके हाथ लग ही गयी। वहज वही थी कि भूल से तकिया बदल गया।
डूँगा ने घर में सोयी पारबती और पवित्रा को जगाने का सोचा और तकिया लेकर खाट पर उठ बैठा। आसमान में तीन तारों की छड़ी की ओर देखा, छड़ी, ‘जिसे वह अपनी सपनों की लुगड़ी में सोने का तार समझता था। उसी से टैम का अँदाज़ा लगाया। करीब एक-सवा-एक बजना चाह रहा था। यह सोच वापस लेट गया- अब घरवाली और छोरी की नींद ख़राब न करूँ। लेकिन रात के दो बजे तक सोने में असफल रहा। फिर से उठा और जाकर किवाड़खटखटाया। पारबती जागी। किवाड़खोला। नींद से पारबती की पलकंे भारी थीं। डूँगा को अपनी नींद बिगड़ने की झुँझलाहट थी। लेकिन बची हुई दोनों ने न बिगाड़ने की सोची। पारबती मौन थी, पर उबासी बज रही थी। डूँगा की झुँझलाहट यथावत थी, पर संयम से बोला- म्हारो तक्यो दी दे।
पारबती भीतर गयी। धम्म.. धम्म...। पवित्रा के माथे के नीचे से तकिया खींचा। माथा नीचे गुदड़ी पर गिरा-भट्ट। पारबती वापस लौटी- धम्म... धम्म.. । डूँगा के हाथ में तकिया थमाया- थप्प। डूँगा होठ हिलाता जैसे कोई शान्ति जाप करता खाट की ओर लौटा। पारबती ने किवाड़के पल्ले भिड़े- भड़ाक।
डूँगा खाट पर आ बैठा। सिरहाने बाजू ईंस पर तकिया धरा। फिर लेटा। तकिये पर माथा धरा। नज़रे तारों पर जा टिकी। मग़ज़्ा में लुगड़ी फरफराने लगी। थोड़ी देर में घुर्र.. घुर्र... खर्राटे शुरू।
उस दिन के बाद वह तकिया कभी भी भीतर नहीं गया। इस बात को ज़्यादा नहीं तो भी आठ-दस साल हो गये थे। तब तो तकिया ऐसा था कि कोई भी उसे सिर के नीचे रख लेता। लेकिन अब तकिये के भीतर भरे चेथरों के लड्डू बन गये थे, बल्कि कोई-कोई लड्डू तो कबीट की भाँति कड़क बम हो गया था। उस तकिये की खोल पसीने और मैल से इतनी चिकट और काली हो गयी थी कि उस पर कोई मक्खी भी बैठना पसंद नहीं करती। और कबरा टेगड़ा तो उसकी बास से भी कतराता। इसलिए जब भी खाट के नीचे सोता, अपना मुँह डूँगा के पैरों की तरफ़करता। लेकिन तकिये में रहने वाले माकणों और डूँगा को उसकी बास से कोई फर्क नहीं पड़ता, बल्कि उसकी बास की आदत पड़गयी थी और डूँगा का सफे़द बालों वाला सिर उसी तकिये पर टिककर आराम महसूस करता था।
जब कभी उसका सिर तकिये पर धरा होता। उसे अपनी गुज़र चुकी जी (माँ) की याद आती, तो ऐसा महसूस होता - वह तकिये पर नहीं, अपनी जी की जाँघ पर सिर रखकर लेटा है, और यह बात तो कभी वह किसी मीठे या भयानक डरावने सपने में भी नहीं भूल सकता था कि उसने एक रात जी की जाँघ पर माथा धर कर लेटे-लेटे ही काहा था- जी।
-हँ... जी ने हुँकारा भरा था।
-जद हूँ बड़ो हुई जउवाँ, थारा सरू एक बहोत अच्छी लुगड़ी लउवाँ।
-बहोत अच्छी..... जी का झुर्रीदार चेहरा चमक उठा और उसने ख़ुशी से भरकर पूछा था- कैसी ?
-वैसी..... डूँगा ने आसमान में जगरमगर करते तारों की ओर इशारा करते हुए कहा था।
उस रात डूँगा की जी का कलेजा भर आया था। अचानक अधेड़और पतली पलकों से खारा पानी ढुलक गया था। वह खारा पानी, जिसे उसने पन्द्रह बरस के रँडापे में कभी ढुलकने तो दूर, पलकों के आसपास भी नहीं आने दिया था। पन्द्रह साल पहले वह ब्याहकर आयी थी, और फिर साल भर बाद ही डूँगा उसके पेट में हिलने-डुलने लगा था। उन दिनों एक रात डूँगा के दायजी (पिता) ने उसकी जवान, किन्तु गर्भवती होने के कारण नर्म और ढीली पड़ती जाँघ पर माथा रखकर कहा था- हूँ थारा सरू अबकी एक बहोत अच्छी लुगड़ी लउआँ।
-कैसी ? उस रात भी डँूगा की माँ ने ऐसे ही पूछा था और डूँगा के दायजी ने आसमान में चमकते सितारों की ओर इशारा करके कहा था- वैसी।
लेकिन डूँगा के दायजी ने जीवन में ऐसा गच्चा खाया। लुगड़ी तो दूर, वे कभी लाख का एक चूड़ा भी नहीं पहना सके। डूँगा दस बरस का ही था, जब उसके दायजी के पैर भरोसे के धागों से बुने जाल में उलझ गये। दायजी के माथे उनके दायजी का लिया कुछ कर्ज़ा था। जिसे वे चुका नहीं सके; और जाल उन्हें लील गया। जिन्होंने दायजी को मारा, वे दायजी के भाइयों के बहादुर बेटे थे। उन्हीं ने उस कर्ज़ की वसूली के बदले दायजी से दो खेत के काग़ज़ों पर अगूँठा लगवाया था। काग़ज़पर लिखा था- कर्ज़ा न चुकाने की स्थिति में खेत उनके हो जायेंगे।
दायजी को खेत अपनी जान से भी प्यारे थे। जीवन का एक ही मक़सद- ज़ल्दी से ज़ल्दी खेतों को कर्जे़से मुक्त करना। वे फ़सल के गोड़में मेहनत, भावना और नींद के मिश्रण से बनी खाद डालते थे। एक-एक पौधे को ख़ून के पसीने से सींचते थे। फ़सल को अच्छी होना ही पड़ता था। एक दिन उनकी अदा ने दायजी के भाइयों के बेटों के मन में षंका का बीज बो दिया- यह ऐसी मेहनत करता रहा। ऐसी फ़सल काटता रहा। कर्ज़ा तो यूँ पटा देगा। पर रुपये के बदले रुपये लेने को थोड़ी दिया था कजऱ्ा। कर्ज़ा दिया था, ताकि उसके बदले खेत आ सके। पर लगता है ये तो उलटी गंगा बहाने पर तूला है।
उन्होंने एक रात दायजी को खेत पर करंट लगाकर मार दिया। जब दायजी का नुक्ता-घाटा हो गया, उन्होंने वे खेत कब्जा लिये। डूँगा की जी ने जैसे-तैसे उसे बढ़ा किया और ब्याह के साल-छः महीने बाद ही वह चली गयी। उसे कोई बीमारी थी, ये तो कभी कुछ उजागर न हुआ। पर उसकी उम्र और पड़ौस की सम्पत की, बाखल की और दूसरी औरतों की सुने, और माने, तो यही सुनने-समझने में आता- डूँगा की जी को आराम और ख़ुशी नहीं फली।
डूँगा अपनी जी को दी जबान पूरी करने को भरसक अपटा था। पर हर बार उसके सामने कोई न कोई मुसीबत खड़ी हो जाती। उस पर मुसीबतें कुछ ज़्यादा ही महरबान थीं। कुछ इस तरह की गाँव में से कोई भी मुसीबत को बाहर खदेड़ता, तो मुसीबत माकणों की तरह डूँगा के घर में आ बसती। डूँगा का घर यानी मुसीबतों का पिहर।
अगर डूँगा का घर मुसीबतांे की नज़र में न चढ़ता। डूँगा और उसका परिवार मुसीबतों को चकमा देने का हुनर सीख लेता। लुगड़ी तो वह एक नहीं, सौ-सौ कभी का; और कई-कई बार ख़रीद चुका होता। क्योंकि डूँगा अपने दायजी की तरह मेहनती था। फ़सल के रूप में नगद उगाता। पर वह मेहनत से कमाये पैसोें को अपनी मर्ज़ी से ख़र्च नहीं कर पाता। उसकी सभी इच्छाएँ, ज़रूरतें और सपने धरे रह जाते। पैसा किसी न किसी मुसीबत की भेंट चढ़जाता।
अब उसके ब्याह के बरस की ही बात ले लो। ब्याह से पहले तक उसकी जी एकदम टनटनाट थी। न सर्दी, न खाँसी, न गठिया, न कोई और अमका-ढिमका रोग। डूँगा के दायजी के चले जाने के बावजूद उसने जिस दमदारी से डूँगा को पाल-पोसकर बड़ा किया। खेती-बाड़ी के गुर सिखाये। वह सब अच्छे-अच्छे मूँछ वालों के सामने मिसालें थीं। कैसे वह अपनी बची-खुची ज़मीन को जेठ, देवर और उनके छोरों की नज़र से बचाती रही। कैसे उसने डूँगा को घड़ी भर भी अपनी नज़र से दूर नहीं जाने दिया। उसे पढ़ाने-लिखाने की इच्छा का गला घोंट दिया। उसने अपनी और डूँगा की रक्षा के लिए कभी कमर से बँधा दराँता (हँसिया) घड़ी भर को दूर नहीं रखा।
लेकिन डूँगा के ब्याह के बाद तो जैसे उसकी सारी मुरादें पूरी हो गयी। बहू पारबती ऐसी गुणवंती मिली थी कि सास को तिनका तोड़कर दो नहीं करने देती। उसे लगा- अब उसकी ज़िम्मेदारी पूरी हो गयी। उसे डूँगा के दायजी की याद सताने लगी। यह रोग उस पर इस क़दर हावी हुआ कि वह मिट्टी की तरह गलने लगी, और उस दिन जब डूँगा ब्याह के बाद पहली फ़सल बेचकर लौटा। उसने अपनी जी की गोदी में नोटों की नवली रखी। फिर उसमें से कुछ नोट लेकर वह जी के लिए एक लुगड़ी ख़रीदने जाने लगा। अपने सपनों की लुगड़ी। अपने दायजी के सपनों की लुगड़ी। छापादार लुगड़ी। डूँगा की जी अपने जीवन पर, अपने सपूत पर मुग्ध हो गयी। उसकी आँखों से ख़ुशी के दो गर्म रेले ढुलके- मानो रँडापे में सहे सभी दुख धूल गये। उसने अपने शरीर पर छापादार लुगड़ी को महसूस किया। ख़ुशी का एक गोला उसकी ष्वांस नली में फँस गया और वह ख़़ुशी-ख़ुशी अपनी देह से बाहर चली गयी। डूँगा के पैरों तले की धरती धँस गयी। सिर पर आसमान टूट पड़ा। नुक्ते-घाटे का ख़र्चा पहाड़की तरह छाती पर खड़ा हो गया। डूँगा खूब नटा। उसने कहा कि वह जीते-जी अपनी जी को मन पसंद एक लुगड़ी न ओढ़ा सका। मरे पाछे नुक्ते-घाटे का ढ़कोसला करने का क्या फ़ायदा ? समाज के ठेकेदारों ने अच्छे-अच्छों के घर-खेत बिकवा कर नुक्ते करवाये थे। फिर डूँगा को कैसे बख़्षते ? फ़सल का पूरा पैसा जी के क्रिर्याकर्म और नुक्ते-घाटे में ख़र्च हो गया।
फिर एक रात जब मन्दिर में शंख, झाँझ, खँजड़ी और ढपली की आवाज़थमी। रोज़की तरह पारबती समझ गयी, आरती ख़त्म हुई। आरती से लौटकर डूँगा खाना खाया करता। आरती ख़त्म होने के साथ ही ख़त्म हुआ था पारबती का खाना बनाना भी। उसने जिस दाथरी में आटा गून्धा था, उसी में हाथ धोये। दाथरी धोयी। दाथरी का पानी पनहरी के नीचे रखे कुण्डे में डाला। दाथरी को भीत से खड़ी टिका दी, ताकि पानी निथर जाये। फिर अपने पूरे नौ महीने के पेट को लेकर उठी। बारी में से पीतल की थाली निकाली। पनहरी के ऊपर भीत में ठूँकी खूँटी पर रखे पटिये पर से काँसे का गिलास उठाया। बारी में से छाछ का चूड़ला निकालकर बाहर रखा। बैठकर थाली में खाना परोसने लगी। लेकिन परोसने से पहले थाली पोंछने का ख्याल आया। इधर-उधर नज़र मारी, थाली पोंछने का चेथरा कहीं नज़र न आया। उठकर चेथरे को ढूँढ़ने की इच्छा न हुयी, अलसा गयी, तो अपनी घाघरी से थाली पोंछी और खाना परोसने लगी।
उस रात खाना भी क्या बनाया था उसने ! देखते ही गलफों से लार की तिरपने फूट पड़तीं। कड़ेले पर छींटादार सेंकी ज्वार की रोटी। मटूरिया। भरता। लीली मिर्चा। लूण। यह सब जब पीतल की थाली में परोसा और चूड़ले में से गिलास में गाढ़ी और चार-पाँच दिन पुरानी खट्टी छाछ कूड़ही रही थी कि डूँगा आ गया। आरती में जाने से पहले ही डूँगा के सिर में हल्का-हल्का दर्द था। लेकिन जब थाली में अपना मन पसंद भोजन देखा, तब दर्द तो भूला ही, भूला खाने से पहले हाथ धोना भी, और दोनों साथ-साथ खाने लगे।
खाने के बाद फिर सिर में दर्द ने आँखें खोली और धीरे-धीरे चटीके पड़ने लगे। वहीं सामने वाली भीत से सटी अनाज से भरे थैलों की थप्पी लगी थी। कुछ दिन पहले ही आयी ताज़ी फ़सल को अवेरकर रखी थी। बेंचना बाक़ी थी। थप्पी पर गोल घड़ी कर खजूर के खोड्यों से बनी छादरी धरी थी। डूँगा ने छादरी उठायी और ज़मीन पर बिछाकर उस पर लेट गया। पारबती से माथा दुखने का बताया, तो वह पास आ गयी। भीत से टिककर बैठी। पैर लम्बे किये। डूँगा का माथा अपनी नर्म और ढीली जाँघों पर रखा और कपाल को हथेली के गुद्दे से कूचने लगी।
पारबती के हाथों में जैसे जादू था। दर्द छू मन्तर होने लगा था। अपने सिर के नीचे पारबती की नर्म और ढीली जाँघों को महसूस कर डूँगा को अपनी जी की याद आने लगी। डूँगा की आँखें बंद होने लगी। उसके कपाल के नीचे से दर्द के छू मन्तर होने पर जो जगह ख़ाली हुयी, वहाँ लुगड़ी लहराने लगी। लुगड़ी के पीछे ही जी के न रहने का ख्याल भी आया। उसका मन इस मलाल से भर गया कि जीते-जी जी को लुगड़ी न ला सका। जी होती तो आज गल्ले से भरे थैलों की थप्पी बेचकर लुगड़ी ले आता। पर अब किसके लिये....?
उसके मन में आये इस प्रष्न के पीछे-पीछेे ही उत्तर भी चला आया- जी न सही, पारबती तो है। वह पारबती को कम नहीं चाहता, बस, कभी मन में लुगड़ी लाने का खयाल ही नहीं आया। लेकिन उस क्षण अचानक ह्दय में पारबती के लिए भी प्रेम की क्षिप्रा किनारे तोड़कर बहने लगी। फिर उन दिनों तो पारबती के दिन भी पूरे चल रहे थे। वह किसी भी दिन बच्चे को जन्म दे सकती थी। डूँगा सोच में पड़गया। शायद मग़ज़में गूँजने लगा- म्हारा ही अंश के जनम दइगी। उना गेंहूँ का खळा में म्हारा ही एक टिपका (बूंद) के कोख में छिपइ ल्यो थो; और उनाज टिपका के अब फूल बनई के म्हारी गोदी में रखी देगी। पारबती म्हारी बैराँ तो है ही, जी भी बनी जावेगी।
उस क्षण डँूगा अपनी भावना में भीग गया। पारबती की जाँघों पर से सिर उठाकर उसकी छातियों पर रख दिया। उसके फूले पेट पर आहिस्ता-आहिस्ता हाथ फिराता और छातियों से सटे मुँह को ऊपर उठाया। पारबती की आँखों में देखता बोला- गल्लो बेचने जउँआ, तो थारा सरू बहोत अच्छी लुगड़ी लउँआ।
-कसी (कैसी) ? पारबती ने उसके बालों में अँगुली फेरते पूछा।
-लाल छींटादार। डूँगा ने भौहों को उचकाकर और होंठों पर मुस्कान लाकर कहा था।
उन्हीं दिनों दो दिन बाद की एक सुबह, इधर डूँगा ने मंडी ले जाने को मेटाडोर में गल्ला भरा। उधर पारबती की कोख के भीतर बच्चा ज़ोर-ज़ोर से लात मारने लगा- मानो पेट का बच्चा भी अपने बाऊजी के साथ मंडी जाने को ज़ल्दी से बाहर आना चाह रहा था। उसी मेटाडोर में पारबती को बैठाया। अस्पताल में उसकी देख-रेख करने को पड़ौसन सम्पत काकी को साथ बैठा लिया। बड़ी भली बैराँ थी सम्पत काकी। ऐसे मामलों में कभी मना नहीं करती। वह सुबह पाँच-साढ़े पाँच का वक़्त था। सम्पत काकी लोटा लेकर झाड़े(दिशा फारिग) फिरने जा रही थी। पर उसने लोटे का पानी फेंक दिया। लोटा अपने घर की ओटली पर रखा और बाहर से हाँक देकर अपनी छोरी को बुलाया। छोरी भीतर चाय बनाने को चूल्हा सुलगा रही थी, वह हाथ का काम छोड़कर बाहर आयी, तो उसे बस इतना कहा- थारा बाऊजी के बता दे, हूँ पारबती काकी की साथ में हस्पताल जय री हूँ।
छोरी आठ-दस साल की ही थी। उसे कुछ सम्पट नहीं पड़ी, तो उसने पलट कर पूछा- क्यों र्कइं हुई ग्यो ?
-थारो माथो हुई ग्यो, तू तो थारे बतायो, उतरो बता दी जे, वी सब समझी जायेगा। उसने मेटाडोर में बैठते-बैठते कहा था।
गाँव से शहर की दूरी आधे घण्टे की थी। शहर पहुँचते ही महात्मा गाँधी अस्पताल था। पारबती और सम्पत काकी को अस्पताल में छोड़ा और वह गल्ला लेकर मंडी पहुँचा। मेटाडोर भर कर गल्ला बेचा और मुट्ठी भर नोट लेकर दो घण्टे में वापस अस्पताल आ गया था। आते ही उसने देखा- अभी तक पारबती को भर्ती ही नहीं किया था। वह फर्ष पर लेटे चीख़ रही थी। उनकी कोई सुनवाई नहीं हुयी थी। डूँगा ने भाग-दौड़कर अस्पताल का कोना-कोना एक कर दिया। तब नर्स और डाॅक्टर के कान पर जूँ रेंगी। पारबती को भर्ती किया। बच्चा हिल-हिल कर भीतर उलझ गया था। डाॅक्टर ने अपने और अस्पताल के ख़र्चे का मुँह फाड़ा, तो डूँगा ने पूरे के पूरे नोट उसके मुँह में ठँूस दिये थे। तब पारबती को आॅपरेशन के लिए ले गये। उधर पारबती को ले गये। इधर सम्पत काकी ने भाल का पसीना पोछते हुए कहा- डूँगा, बीर तू याँ बैठी जा, हूँ झाड़े फिरीन अभी अऊँ।
उस दिन बड़े आॅपरेशन और लम्बे इंतज़ार के बाद आयी थी- पवित्रा। पवित्रा के आने की ख़ुशी से डूँगा उछल पड़ा। उसने उन क्षणों में सम्पत काकी को भी एक लुगड़ी ओढ़ाने का वादा किया। सम्पत काकी ने सात-आठ दिन तक अस्पताल में पारबती की देख-भाल, अपनी सगी बेटी की तरह की थी।
जब अस्पताल से पारबती को छुट्टी दी। तब डाॅक्टर ने डूँगा को अपने केबिन में बुलाकर समझाया- पारबती का केस कुछ ज़्यादा बिगड़गया था। उसकी कोंख बिल्कुल ख़राब हो गयी। अब वह दुबारा माँ नहीं बनेगी।
सुनकर डूँगा को दुख तो हुआ था। एक क्षण को उसके ज़ेहन में कौंधा- पढ़ा-लिखा होता, या शहरी पैसे वाला होता, तो शायद पारबती के केस में ढ़ीलपोल नहीं होती। लेकिन दूसरे ही क्षण उसने नन्हीं पवित्रा की ओर देख कर सोचा- यही छोरा और यही छोरी। अब जो करी, वही खरी।
वही पवित्रा जो आठवी-नवीं तक दुबली-पतली और लम्बी नाक वाली बच्ची दिखती थी, ग्यारवी-बारहवीं पास करते-करते एकदम बदल गयी। पारबती से तीन-चार इंच लम्बी दिखने लगी। उसके बदन पर भी मानो किसी ने पीली मिट्टी की छबाई कर दी। अब उसकी नाक पहले से कम लम्बी दिखती, क्योंकि नाक के दायें-बायें सुलगती छाणी के टापू की तरह गाल उभर आये थे। कभी जिन आँखों में कीचड़भरा रहता। अब उनके सामने कुलाँचे भरती हिरणी की आँखें भी कमतर लगती। गरदन के नीचे की हड्डियाँ भी छाती पर उभरे माँस के नीचे छुप गयी। अब तो बस.... उसकी देह ऐसी हो गयी थी कि उसे छूते हुए हवा जिस बाखल से गुज़रती, पवित्रा के हम उम्र और चारेक साल बड़ों तक का मग़ज़पगला जाता।
पारबती की नज़रों से भी न पवित्रा का शरीर छुपा था, न खिलते शरीर की ख़ुशबू। उसने इस सम्बन्ध में न डूँगा से कोई सलाह-मशविरा किया, न पवित्रा से कुछ कहा। ख़़ुद ही यह तय किया- अब पवित्रा को कहीं अकेली जाने-आने नहीं देगी।
वे कुएँ या हैण्ड पम्प से पानी लेने जाती, तो माँ-बेटी साथ जाती। खेत पर जाती, तो साथ-साथ जाती। यहाँ तक की झाड़े फिरने भी एक साथ जाती। बस, पारबती नहीं जा सकती थी, तो पवित्रा के साथ पढ़ने ! इसलिए पवित्रा का पढ़ना बारहवीं के बाद पारबती ने छुड़वा दिया। लेकिन इतना पढ़कर भी वह गाँव की छोरियों में सबसे ज़्यादा भणी-गुणी थी।
पारबती की आँखों में छोरी के हाथ पीले करने का सपना जवान होने लगा। वह डूँगा पर पवित्रा के लायक लड़का ढँूढ़ने का दबाव बढ़ाने लगी। डूँगा सालों से खेती में मेहनत और बस मेहनत करता आ रहा था। उसकी दुनिया घर, मन्दिर और खेत के बीच फैली थी। गाँव से बाहर जाने के नाम पर कभी अनाज मंडी जाता। सोसायटी में खाद लेने जाता। बिजली का बिल भरने जाता। लुगड़ी ख़रीदने के सपने के अलावा, भी कुछ चिंताएँ थी- मसलन कभी खाद का महँगा होना, कभी बिजली का कटोत्रा बढ़ना, कभी बीज बोदा निकलना। कभी डंकल का डसना। कभी अंकल का हँसना।
लेकिन अब जब गाँव-परगाँव आना-जाना बढ़ने लगा था। छोरा भलेही ढँग-ढोरे का नहीं मिल रहा था। पर छोरा ढूँढ़ते हुए जो कुछ देखने-सुनने और जानने-समझने को मिल रहा था, वह भी उसे आष्चर्य से भरता था। उसे अपने आसपास की दुनिया में बहुत कुछ बदलाव नज़र आता। बदलाव, कुछ समझ में आता और कुछ समझ से परे भी रह जाता।
पवित्रा का जन्म अब तक उसे जैसे कल की घटना लगती। लेकिन अब लगने लगा- वह बीस बरस पुरानी बात है। इतिहास में बीस बरस जो भी मायना रखते हो, लेकिन एक जीवन में बहुत मायना रखते हैं। उसने तो बीस बरस में बीस बार ढंग से आईना तक नहीं देखा। आईने के सामने बस बैठता। नाई हजामत बना देता और वह उठकर चला आता।
लेकिन पिछली बार जब एक साँझ वह नाई से गाल के बाल छिलवाने गया। आईने के सामने बैठा। आईने में ख़ुद को देखा, तो एकदम अपना चेहरा पहचान न सका। पलट कर पीछे देखा कि पीछे कौन बूढ़ा है, जो आईने में दिख रहा है। पीछे नाई के सिवा कोई नहीं था। वह सफे़द बालों से भरा उसी का चेहरा था। जब नाई ने चेहरे से सफ़ेद बालों को साफ़कर दिया, तो चेहरे पर मकड़ी का जाला उभर आया था। वह आँखें बंदकर मानस पटल पर अपना पुराना चेहरा देखने लगा। गालों पर हाथ फेरकर पुराना चेहरा ही महसूस किया। पर जब आँखें खोली तो वही चेहरा सामने था- पुपलाता मुँह, आँखें धँसी। पुतलियों के आसपास फफूँद जैसा कुछ जमा हुआ। भाल, नाक और गाल पर मकड़जाल। जाल के नीचे आटा छननी के माफिक छोटे-छोटे ऐसे छेद, जैसे कोई बहुत सावधानी से चोरी-चुपके कई दिन-रात बेर के सीधे काँटे से करता रहा था और डूँगा ने पहली बार उसी साँझ को देखे थे।
वह उठ खड़ा हुआ। नाई को पाँच रुपये थमाकर घर की ओर चल पड़ा। उस साँझ उसे लगा- वह बूढ़ा हो गया। वह चलते-चलते अचानक रुक गया। दरअसल आनायास ही उसकी जीभ ऊपरी जबड़े की बाँई बाजू के दाँतों को टटोलने लगी। उसने महसूस किया, बाँई बाजू का तीखा दाँत नहीं था, जिसे अक्सर वह साँटे (गन्ने) की पँगेर में सबसे पहले धँसाता और बाकी अड़ौसी-पड़ौसी दाँतों की मदद से साँटे को चीर देता था। उसे ज़ोर का धक्का तब लगा, जब अगले छण महसूस किया- तीखे दाँत की बगल वाली दाड़भी नही है। जीभ जैसे एक-एक दाड़-दाँत का समाचार लेने लगी। मानों मुँह का बाड़ा छोड़कर चले गयों के प्रति दुख और सहानुभूति प्रकट करने लगी। बचे हुओं को, जाने वालों के ग़म से उभारने का सोच ढाँढ़स बँधाने लगी। जीभ जैसे ही मसूड़ों पर चलकर अगले दाँत के पास पहँुचती। कोई अकड़कर और कोई विन्रमता में अपनी जगह खड़ा रहता। कोई रूठकर पीछे हट जाता। जैसे जता रहा हो- मैं ज़्यादा दिन रुकने वाला नहीं।
फिर वह अपनी जगह खड़ा-खड़ा ही हँसा। सचमुच में नहीं, लेकिन मन ही मन ख़ुद की खोपड़ी में पीछे से एक टप्पू मारा और बुदबुदाया- कसो घनचक्कर है हूँ भी।
दरअसल उसे चार साल पहले की वह घटना याद हो आयी थी। जब सरपँच ने मजे़-मज़े में बिजली कटौत्रा के विरोध में विद्युत मंडल का घेराव करवा दिया था। उसने गाँव में डोन्डी फिरवाकर हर घर से ‘एक आदमी को जाना ज़रूरी है’ बता दिया था। डूँगा के घर से डूँगा गया था। वहीं जब बात बढ़गयी और पुलिस वालों के डन्डे अपनी कला दिखाने लगे थे। डूँगा का जबड़ा सामने आ गया और कुछ दाड़-दाँत से हाथ धो बैठा था।
हालाँकि उसके बाद डूँगा के जबड़े का मुआवजा सरपँच और टुल्लर ने प्रशासन के हलक से निकालकर अपने हलक के नीचे उतार लिया था। डूँगा तो अपनी धुन में खेत में जुतकर लुगड़ी के सपने को साकार करे में भिड़गया था।
उस दिन एक-एक दाँतों पर जीभ घुमाते हुए महसूस किया- बचे हुए दाड़-दाँत पर मैल की जाने कितनी परतें चढ़गयी हैं। वह जीभ के साथ मुँह में उलझे मन को वापस अपनी जगह पर लाया। घर की ओर चलने लगा।
थोड़ी दूर चलने के बाद उसकी नज़्ार अपने कबरे टेगड़े पर पड़ी- टेगड़ा हाँप रहा था। उसकी लटकती जीभ से लार टपक रही थी। वह एक गुमटी के पीछे था और उसका मुँह डूँगा की तरफ़। डूँगा खड़ा हो, टेगड़े को बुलाने लगा। टेगड़ा देख तो रहा था डूँगा की तरफ़, पर आ नहीं रहा था। डूँगा जहाँ खड़ा होकर टेगड़े को बुला रहा था। वहाँ उसके पीछे एक ओटला था। ओटले पर छोरों का एक टुल्लर बैठा था, जो बैठे किस काम से थे नहीं मालूम, पर जब डूँगा टेगड़े को बुलाने लगा, तो वे डूँगा को ही ऐसे देखने लगे थे, मानो यह देखने के लिए ही वहाँ आकर बैठे थे। वे डूँगा का कबरे टेगड़े को बुलाना देख रहे थे और मुस्करा रहे थे।
डूँगा ने फिर थोड़ी ज़ोर से हाँक लगाकर कबरे टेगड़े को बुलाया। कबरा नहीं आया, पर डूँगा को लगा कि कबरे ने आने की कोषिश की, मगर किसी ने पीछे से खींच लिया। उसे कबरे के पाँव ज़मीन पर पीछे की ओर घीसटते लगे। डूँगा ने सोचा- कबरा गुमटी के पीछे गड़े अर्थिन्ग के तार में या किसी मुसीबत में तो नहीं उलझ गया। वह थोड़ा तिरछान में आगे बढ़ा, ताकि कबरे का पिछला धड़देख सके। दो क़दम बढ़ते ही देखा कि कबरा के पीछे एक टेगड़ी भी है। डूँगा वापस दो क़दम पीछे चला और मुड़ा, तो ओटले पर बैठा टुल्लर हथेली पर हथेली मारकर ज़ोर से ठहाका लगा उठा। डूँगा ठहाके को अनसुना कर आगे बढ़गया।
डूँगा अभी भी अपने घर से डेढ़-दो सौ मीटर की दूरी पर था कि उसके दाहिने कान में एक ख़ास मौके़पर बजायी जाने वाली सीटी की आवाज़पड़ी। उसने उधर देखा, उसकी बाखल के रामा बा सीटी बजा रहे थे। रामा बा अपनी भैंस को गाबन कराने के लिए पटेल बा के पाड़े के सामने लेकर खड़े थे। रामा बा ऐसे मौक़े पर बजायी जाने वाली सीटी बजाकर पाड़े को भैंस पर डाकने के लिए राज़ी कर रहे थे। भैंस टेंटा हिलाती। थोड़ी-थोड़ी देर में पूँछ उठाती। पाड़ा पूँछ के नीचे सूँघता। आँखें मीचता। नकसुर सिकोड़ता। ऊँचा मुँह करता। थोड़ा आगे-पीछे क़दम करता और फिर भैंस की पूँछ नीचे सूँघता। थोड़ी दूरी पर गुल्ली-डन्डा खेलना छोड़कर छोटे-छोटे चार-पाँच छोरे रामा बा, भैंस और पाड़े को कुतहल से देख रहे थे।
डूँगा कुछ सोचता हुआ रामा बा की ओर बढ़गया। राम.. राम.. कह दुआ-सलाम करने के बाद पूछा- या कित्ता बैत झोंटी है,यानी अब तक कितनी बार जन चुकी है।
-अब तीसरी बैंत होगी। रामा बा ने कहा और फिर पाड़े की ओर देखते बोले- बड़ा ढीला नाड़ा को पाड़ो है, आधा घण्टा से भैंस लीने खड़्यो हूँ, पर छीणालका को मन ही नी होतो। और फिर रामा बा मज़ाक़करता बोला- पाड़ा की जगह पटेल बा होता, तो इतरी देर में दस के गाबन कर देता।
-हाँ, पटेलों को काड़(लिंग)को जस है। डूँगा ने कहा।
डूँगा और रामा बा की एक साथ हँसी निकल पड़ी। फिर डँूगा ने राम राम की और घर की ओर चल पड़ा। घर पहुँचा तो देखा- आँगन में बैठी पारबती साग-भाजी काटने की बंकी से बिजाला (बैंगन) के टुकड़े कर रही थी। वह उसकी तरफ़मुस्कराया। वह ऐसी मुस्कान थी, जिसे पारबती ने बरसों बाद देखी थी- जैसे चेहरे पर फैले मकड़जाल के धागों में बिजली दौड रही थी। झुर्रियाँ भी झुर्रियाँ नहीं, मकड़जाल के बीच में चमकते जुगनू लग रही थीं। वह ज़रा-सी लजा गयी थी। डूँगा पारबती की ओर बढ़ा, उसके नज़दीक जाकर बैठ गया। पारबती के हाथ से बंकी और बिजाला थाली में छूट गये; और सोचने लगी- क्या बात है ? तभी उसका हाथ पकड़कर डूँगा बोला- पारी तू आज भी उसीज (वैसी) लागे।
-कसीज (कैसी) ? पारबती जैसे क्षणभर को ख़ुद को भूल गयी, ऐसे देखती बोली थी।
-जैसी पहली बार गेहूँ का खळा (खलिहान) में लागी थी। डूँगा ने उसकी आँखों को अपनी आँखों से सेंकते हुए कहा था।
डूँगा ने उन दिनों की याद दिलायी, जब वह ब्याह के बाद पहली बार ससुराल आयी थी। कुछ दिन तो उसे डूँगा की माँ अपने साथ ही सुलाती रही थी। वह सोचती थी कि बहू छोटी है, इसलिए डूँगा से दूर रखा करती थी। पारबती छेड़ा (घूँघट) भी इतना लम्बा काड़ती थी कि डूँगा एक घर में रह कर भी पारबती की शक्ल नहीं देख पाता। वह माँ की नज़र से बचकर इधर-उधर छू लेता।
लेकिन उस रात जब खलिहान में गेहूँ थ्रेशर में से निकाले जा रहे थे। डूँगा गेहूँ का पूला उठा-उठाकर थ्रेशर के पास जमाता। उसकी माँ पूला थ्रेशर में देती। पारबती थ्रेशर में से निकलते गेहूँ को एक तगारी में झेलती। जब तगारी भर जाती, तो उसे गेहूँ के थापे (ढेर) में उडै़ल देती। इस काम में दो तगारी लगती। भरी तगारी को उठाते वक़्त ही उसकी जगह दूसरी ख़ाली तगारी लगा देती। तगारी को गेहूँ से भरने में थोड़ी देर लगती, उतनी देर पारबती ख़ाली नहीं बैठती। डूँगा के साथ गेहूँ के पूले उठा कर लाती और सास के पास ढेर जमाती, ताकि सास पूलों को थ्रेशर में लगातार देती रहे।
उस रात यही काम वे कर रहे थे और साथ में कर रहे थे- एक-दूसरे के साथ छेड़खानी, मस्ती, मज़ाक़। तभी अचानक गेंहूँ के पूलों के ढेर के पीछे डूँगा ने पहली बार पारबती को बाहों में कस लिया। वह कसमसायी। छुड़ाने की कोषिश की। लेकिन डूँगा उसके शरीर को यहाँ-वहाँ छूता, दबाता, सहलाता रहा। उसकी आँखों में उनाले की रातों की हवा में घुली महुए की मादकता भरने लगी। उसके होठों पर केसुड़ी खिलने लगी। डूँगा की साँस बढ़ती रही। उसके हाथों से, उसके होठोें से पारबती के बदन का एक गेहूँभर हिस्सा भी ओगला नहीं रहा। वह जैसे पिघल कर गेंहूँ के पूलों के ढेर पर गिर पड़ी। धीरे से फुसफुसायी- रहने दो.... छोड़दो..... जी देखे.....
-नी देखेगी.... जी... पूला को ढ़ेर.....डूँगा ने कुछ समझाया।
उधर थ्रेशर में झोंकने को पूले का ढेर तो छोटा नहीं हुआ, लेकिन कुछ देर में डूँगा की माँ को प्यास लग आयी। उसने पारबती से पानी माँगा। पारबती तो पीछे पूलों पर सवार हो तारों की सेर कर रही थी, उसने आवाज़न सुनी, या आवाज़ही ने उसके कान के रास्ते जाकर मग़ज़में खलल पैदा करना ठीक न समझा, और उल्टे पाँव वापस लौट आयी। सास ने थोड़ी देर बाद फिर पानी माँगा और जब पानी नहीं मिला; तो उसने सोचा- रात काफ़ी हो गयी, कहीं बहू सो तो नहीं गयी। उसने उधर देखा- जिधर गेंहूँ झेलने को तगारी लगी थी। तगारी भर गयी थी और उसमें से गेंहूँ उबराकर बाहर गिर रहे थे। लेकिन वहाँ बहू नहीं थी। पानी की गागर की ओर देखा- उधर भी बहू नहीं थी।
वह थ्रेशर के गाले में पूला लगाना बंद कर नीचे आयी। नज़रों से इधर-उधर ढूँढ़ती पूले के ढेर के पीछे की तरफ़गयी। अभी पूरी तरह गयी भी नहीं थी कि बेटे-बहू पर अड़छड़ती नज़र पड़ी.....। वह उलटे क़दम से वापस लौट आयी। उसने क्या देख लिया ? वह ख़ुद को कोसने लगी। अपने छोरा-बहू को...कोई ऐसे देखता......... हे भगवान......... मैं उन्हें छोटे समझती रही........ उसने जैसे-तैसे ख़ुद को षांत किया। पानी पीया। तगारी के गेंहूँ थापे में डाले। जो उबरा गये थे, वे भी सोर कर डाल दिये। फिर वह छोरे-बहू के बारे में निष्चिंत होती। थ्रेशर के गाले में पूले देती। थापे पर धरे गोबर गणेश से मन ही मन माफी माँगी। फिर मानो थापे पर बिराजमान गोबर गणेश और रात की उस पहर का शुक्रियादा करती धीमे-धीमे गुनगुनाने लगी-
धन्य-धन्य ये बखत
बिछावन सुनहरी पूला
खळा बना तखत
तारे फूले-फूले मन से फूल बिखेरे
हवा में उड़े प्रीत की सोरम
निशाचर गावे बधावे
अब पालने झूलुआँ
झूला देने वालो आवेगो
या पग कूचणे वाली आवेगी
अब दादी बणूआँ........2
उस दिन जब पारबती को यह रात याद दिलायी। क्षण भर को उस रात की तरह ही खिली केसुड़ी बन गयी थी, लेकिन पिघलकर आँगन में फैलने से पहले, ज़ल्दी से संभल कर अपना हाथ खींचती बोली- भांग पी ली र्कइं, घर में पवित्री रोटी बेली री है।
डूँगा ने फिर उसका हाथ पकड़ने की कोषिश की। पारबती दूर खिसकी और देखा कि डूँगा भी खिसकने वाला है, तो वह उठकर भीतर जाते-जाते धीरे से फुसफुसायी- यो गेहूँ को खळो नी, घर है, और अब बूढ़ा हुई गया हो, थोड़ी सरम करो।
वह भी उठने को हुआ। उठते हुए उसके घुटनों ने उसे एहसास दिलाया- पारबती सच कह रही, वह बूढ़ा हो गया।
उसे षिद्दत से यह महसूस भी हुआ- अब पहले जैसा कुछ नहीं रहा। न शरीर, न मन, न घर, न गाँव, न दुनिया।
डूँगा के गाँव में भी सबकुछ तेज़ी से बदल रहा। न केवल गाँव का हुलिया, बल्कि गाँव के सँस्कार, त्यौहार मनाने का ढँग, बोली, पहनावा, खान-पान, रहन-सहन का ढंग, त्यौहार, शादी-ब्याह के तौर तरीके, सबकुछ शहरी सँस्कृति गोलगप्पों की तरह निगल रही थी। लेकिन बाल-विवाह, घूँघट, पवणई, मामेरा, त्यारी जैसी कई बुराईयाँ बरकरार थीं और उन्हें करते वक़्त आधुनिकता हावी रहती। बाज़ार हावी रहता। महँगी और अनावष्यक चीज़ों की भरमार और दबदबा बढ़रहा था। रिष्ते तेज़ी से अविष्वसनीय हो रहे थे और अपने अर्थ भी बदल रहे थे।
डूँगा के गाँव का हुलिया जिम्मा दो शहर बखूबी निभा रहे थे- एक प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी और दूसरा औद्योगिक नगरी से नाम से विख्यात। दोनों शहर गाँव के विकास और उद्धार का डंका बजाते। अपनी मस्ती में मस्त धापे साँड की तरह डुकारते।
इन दोनों शहरों के बीच के गाँव में पीछले दस-पन्द्रह बरसों में काॅलेज में पढ़ने वाले छोरों की संख्या बढ़रही थी। वे बी. ए., एम. ए. के अलावा दूसरे व्यावसायिक विशय भी पढ़रहे थे। छोरियाँ अभी भी दसवीं-बारहवीं से आगे कम ही पहुँच रही थीं।
इस पढ़ी-लिखी पीढ़ी में कोई बिरला छोरा ही होता, जो खेती-बाड़ी के काम में रुचि दिखाता। कुछ प्राॅयवेट नौकरियों में शहर चले गये। कुछ पुलिस और सेना में चले गये। जो कहीं नहीं गये थे, उनमें से कुछ गये हुओं से ज़्यादा मजे़में थे, कुछ के बुरे हाल थे।
कुछ छोरों ने ज़मीन की दलाली का रोज़गार अपना लिया था। रोज़गार धीरे-धीरे ऐसा पनपा कि वह उन छोरों के लिए बिजनेस बन गया था। बिजनेस में होड़शुरू हो गयी। होड़में मारकाट शुरू हो गयी। गाँव के छोरे अब आईटीसी, रिलायंस या ऐसी किसी भी बढ़ी कम्पनियों के नुमाईंदों के सम्पर्क में रहने लगे थे। डूँगा के देखते-देखते ही सबकुछ इतनी तेज़ी हो रहा था कि डँूगा सरीखे कई देख-समझ भी नहीं पा रहे थे।
एक सुबह खेत पर जाने को वह घर से निकला। सेरी में सम्पत काकी के छोरे किशोर से राम-राम हुई। उस बखत किशोर अपनी मोटरसायकिल पोंछ रहा था। डूँगा ने सोचा- कहीं जा रहा होगा। उसे इधर-उधर दौड़ने के अलावा काम भी क्या ? रोज़एक-दो लुगड़ी का तैल तो फूँक ही देता होगा !
साँझ को जब डूँगा लौटा। बैलगाड़ी को अपनी सेरी में थोबी। तब उसने किशोर के घर सामने नवी-नकोर कार खड़ी देखी। पहले तो उसने सोचा- किशोर के यहाँ कोई पावणा-पई (मेहमान-वगैरह) आया होगा। बैलों के जोत छोड़ते हुए पवित्रा को हेल्ला दिया, तो वह घर से निकल सेरी में आ गयी। बैलगाड़ी को डँई पर धरता पवित्रा से बोला- निराव के कोठा में पटकी दे।
वह बैलों की रास थामें उन्हें कोठे में ले चला। पीछे-पीछे निराव को बाहों की बाद में भर कर पवित्रा भी कोठे में पहँुची। उसने बैलों को अलग-अलग खूँटे से बाँध दिया। पवित्रा ने एक कोने में निराव पटका और दूसरी खैप लेने जाने लगी। तब डँूगा बोला- छोरी रुक ज़रा।
पवित्रा रुक गयी। डँूगा उसके पास गया और धीमें से पूछा- किषोर्या का घर कोई पावणा आया है ?
-ऊँ हूँ । पवित्रा ने गरदन हिलाकर कहा। यह कहते उसके चेहरे पर ऐसा भाव उभर आया मानो उसने पूछा- क्यों पूछ रहे हो ?
-तो फिर वा कार ? डूँगा ने जिज्ञासा से पूछा।
-वाऽऽ वा तो किशोर अंकल लाया है। पवित्रा ने कहा। फिर बोली- उनने बादर वाला खेत बेच दिया, कार तो बयाना के पयसे से ही लायें है।
-अच्छा ! डूँगा ने जैसे कुछ ख़ास जान लिया था।
-म्हारा से भी कार के टिक्को (तिलक) करायो। डूँगा की ओर ख़ुशी से देखते हुए पवित्रा बोली- थाली में सौ रुप्या भी धर्या।
-अच्छा, तू तो भणी-गुणी है, तो थारे मालम है ? या कार कितरा रुप्या की आवे ? डूँगा ने जानकारी के लिए पूछा।
-या कार तो पाँच लाख में लाया है किशोर अंकलजी। पवित्रा ने कहा और आगे बताया- सम्पत माय को बता रहे थे, बादर वाला खेत का तीस लाख रुप्या मिलेगा। फिर वह बोली- अच्छा, अभी निराव पटकी दूँ, फिर सिरियल देखूँआँ, थोड़ी देर में आने वालो है।
-तीस लाख.....। दो बीघा का तीस लाख। डूँगा बुदबुदाया। उसके मग़ज़में तीस लाख की एक बड़ी जबरी पोटली उभर आयी थी।
डूँगा ओसारी में आया। अपनी खाट और तकिया उठाकर बाहर सेरी में लाया। किशोर की कार को देखते हुए खाट ढाली और उस पर कूल्हे टिकाये ही थे कि पारबती आ गयी थी। पारबती का रोज़का नियम था। बैलगाड़ी बाहर सेरी में थुबती और वह चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा देती। डूँगा कोठे में बैल बाँध कर आता। खाट ढाल कर बैठता। पानी के लोटे और चाय के गिलास के साथ पारबती हाज़िर हो जाती।
लेकिन उस साँझ पारबती के हाथ में न पानी का लोटा था, न चाय के कपबशी। डूँगा ने उसके ख़ाली हाथों की तरफ़देखा। डूँगा कुछ पूछता उससे पहले पारबती ने ही बताया- रोज़चाय-पानी दूँ, तो सम्पत माय देखे। उनने आज एक बात समझय म्हारे।
-कईं बात...? डूँगा ने पूछा।
-उनने बतायो..... पारबती बताने लगी- धरधरी बखत दिया-बत्ती को टेम रय।
-त .....? डूँगा ने पूछा।
-त.... इतरी बखत सरग में भगवान हमारा पुरखा हुण के पीने के कुल्हड़ी भर पानी, और खाने के चना दय। पारबती थोड़ी रुकी। सम्पत माय के घर तरफ़देखा और फिर बोली- सम्पत माय ने बतायो- जो धरधरी बखत (सूरज डूबने के वक़्त) चाय-पानी पीये सरग में उनका पुरखा भूखे मरे।
-अरे रहने दे ओ बायचैदी.... डूँगा ने कहा- तू भी काँ सम्पत काकी की बात में अयगी। फिर हँसकर बोला- म्हारा जी-दायजी तो भगवान का हाथ से छोड़य ने खई लेगा, तू फिकर मत कर। जा चाय-पानी ल्या।
पारबती घर में गयी और चाय-पानी ले आयी। डूँगा ने पारबती के हाथ से पानी का लोटा लिया। पानी के कुछ छींटे मुँह पर छाँटे। फिर कुल्ला किया। फिर मुँह ऊँचा कर खोला और लोटे का आधा-पौन लीटर पानी गट-गट गटक गया। लोटा पारबती को पकड़ाया और अपने गले में पड़े गमछे से मुँह पोंछा। हाथ पोंछे। पारबती के हाथ से चाय का गिलास लेता बोला- बैठी जा।
-बैठी कैसे जऊँ, दाथरी में आटा गून्धा धरा है, रोटा थेपी लूँ। थेपणा तो है, फिर देर कईं्र सरू करूँ। पारबती ने कहा।
-पवित्री थेपी लेगी। डूँगा ने चाय का घूँट लेने के बाद कहा।
-वा टी बी का सामने जमीगी, अब सोती बखत ही वाँ से हलेगी। पारबती ने कहा- टी वी राँड में जाणे कसी-कसी डाकण आवे। इनके एक बार खेत में नींदने बैठइ दो, तो दस दिन तक ढेका (कूल्हों) की फाड़में से गारो नी हिटेगो। पर पवित्री के उनके देखने को घणो चुरुस है।
उसके कहने में कुछ ग़्ाुस्सा था। वह नहीं चाहती थी कि जब तब पवित्रा टी वी के सामने बैठी रहे। टी वी में जाने क्या-क्या आता-जाता रहता है। कहीं पवित्रा भी टी वी की डाकनों जैसी करने लगी तो ? पवित्रा की कुछ आदतें थीं भी ऐसी, जो पारबती को लगता कि वह डाकनों से सीखी होगी। घर में छोटी टी वी भी पवित्रा की जिद पर आयी थी।
-अगी देखने दे, बालक है। डूँगा गिलास की चाय को ऐसे फूँक मार कर ठन्डी कर रहा था, मानो चाय नहीं पारबती के ग़्ाुस्से को ठन्डा कर रहा था।
-र्कइं की बालक, म्हारा से हाथ भर ऊँची हुई गयी। म्हारे तो इससे छुटपन में ही ब्याह दी थी। अन तमने खळा में जबड़य भी ली थी। पारबती ने कहा और खाट पर बैठ गयी। धीमें स्वर में बोली- सवेरे म्हारा पेर (मायका) चल्या जाओ। म्हारा भई मदन ने आज सम्पत काकी का फ़ोन पर म्हारे बतायो। कोई छोरो देख्यो है, तम भी देखी आवो।
-अच्छा, या तो अच्छी बात है, सवेरे जऊँआ। डूँगा ने चाय का आख़िरी घूँट लेकर गिलास खाली कर पारबती को दिया। पारबती गिलास और लोटा लेकर घर में चली गयी। तभी मन्दिर तरफ़से शंख की आवाज़आयी। डूँगा समझ गया। आरती का टैम हो गया। उठा और आरती में चल पड़ा।
आरती से लौट कर खाना खाया, और वापस अपनी खाट पर आ गया। पारबती ने खाट पर एक गुदड़ी बिछा दी। रात उनाले की थी, पर रात बारह के बाद एक कम्बल की ठंड तो उनाले में भी लगती, इसलिए पैताने कम्बल भी रख दी थी।
डूँगा के दिमाग़में वही सरबल रहा- तीस लाख कितने होते होंगे ? उसने कल्पना की- अगर बैलगाड़ी में चारा, बगदा की तरह नोट भरूँ, तो गाड़ी कहाँ तक भरा जायेगी ? आधी-आधी मूँडियों तक तो भरा सकती है ! और अगर तीस लाख की खन्डार बनाऊँ, तो कितनी लम्बी, चैड़ी और ऊँची बनेगी ? दो बीघा के चनों की खन्डार बराबर तो बनेगी ही ! किशोर के दो बीघा के तीस लाख, तो मेरे दस बीघा के कितने होंगे। अं अं डेढ़सौ लाख। बहुत ऊँची और चैड़ी खन्डार होगी। पूरी बैलगाड़ी भर जायेगी। लेकिन एक बैलगाड़ी भर नोट में कितनी बैलगाड़ी भर लुगड़ी आयेगी। फिर मैं, मेरी पड़ौसन सम्पत काकी को ही नहीं, परगाँव की भी कई सम्पत काकियों, पारबतियों और पवित्रियों को लुगड़ी दे सकूँगा। धरती माँ की हरेक बेटी को लाल छींटादार लुगड़ी ओढ़ा दूँगा।
तभी उसके मग़ज़की सभी भीतों से प्रष्नों की तिरपन रिसने लगीं- डूँगा खेत बेच देगा, तो काम क्या करेगा ? रोटी कहाँ से कमायेगा ? क्या तू धरती का बेटा, धरती को बेचे पैसों से रोटी ख़रीद कर खायेगा ? क्या तू अपने भाई और बेटों सरीखे प्यारे बैलों को भी बेच देगा ? नहीं बेचेगा, तो उन्हें खिलायेगा क्या ? खेत में मेहनत करे बग़्ौर तूझे रोटी हजम हो जायेगी ? नींद आ जायेगी ? कोई बेटा अपनी माँ का सौदा करके चैन से सो सकता है ? तेरे मन में ये लालच कैसे आया ? तूझे अपना ही नहीं, पवित्रा और पारबती के भी सपने पूरे करने है, लेकिन धरती माँ की गोदी से ही, उसे बेचकर नहीं।
यही सब सोचते-सोचते उसके रोम रोम से नकार का पानी यों झिरपने लगा- मानो बदन रेत का था, जिसके भीतर पानी न ठहरता। वह लेटा था, उसकी आँखें छोटे-छोटे दो डोबनों की तरह डबडब थी, और आसमान की ओर खुली थी, जिनमें मोती से भरी थाल काँप रही था। धीरे-धीरे नींद के बोझ से पलकें बंद हो गयी। काँपती थाल भीतर ही रह गयी, जो लाल छींटादार लुगड़ी में बदल गयी और पूरी रात मग़ज़के चैगान में फरफराती रही।
सवेरे मुँह झाँकले के टैम पर उठा। रोज़मर्रा के कामों से निपटा। कई दिनों के बाद उसने बालों में खोपरे का तेल लगाया। साबुत और धुले हुए धोती-कमीज पहने। कई सालों के बाद डूँगा ससुराल की ओर चल पड़ा। लोंडी पिपल्या गाँव में डूँगा का ससुराल था। ससुराल जो कभी, व्यावसायिक राजधानी के नाम से ख्यात शहर के कुछ ज़्यादा ही नज़दीक था। अब नज़्ादीक नहीं रह गया था, शहर की आँतों में समा चुका था।
जब डूँगा वहाँ पहुँचा, तो अचम्बे में पड़गया। गाँव के आसपस जहाँ कभी फ़सले लहलहाया करती। वहाँ कहीं बँगले, तो कहीं मल्टियाँ खड़ी थीं। गाँव के भीतर भी कई बड़े-बड़ेघर उग आये थे। गाँव में कभी लोग ढँूढ़े नहीं मिलते थे। पिछली बार कई बरस पहले जब आया था, तो साले से मिलने खेत पर जाना पड़ा था। लेकिन इस बार साला बीच गाँव में ईमली के पेड़की छाँव में जुआ खेलता मिल गया।
खेत साले के भी बिक गये थे। उसने सपने में भी न सोचा था कभी, इतने रुपये मिलेंगे। पर जब मिल गये, तो करे क्या इतने रुपयों का ? घर बना लिया ! कार ख़रीद ली ! थैला भरकर बैंक में रख दिया; और क्या करता ? इससे ज़्यादा उसे ही नहीं, कइयों को नहीं सूझा!
जो थोड़े-बहुत भणे-गुणे थे, उन्हें थोड़ा-सा ज़्यादा सूझा भी, तो वे शहर में जाकर किसी न किसी रोज़गार से लग गये। कुछ ने किसी दूर के गाँव में ज़मीन ख़रीद ली और वहीं बस गये। लेकिन कई लोग थे, जो कहीं नहीं गये। उनमें से कई दिन भर ईमली के पेड़के नीचे जुआ खेलते। रात को बाय पास या रिंग रोड के ढाबों पर पीने-खाने चले जाते। और कुछ यहाँ भी डूँगा के मिजूँ टुल्लर के साथी बन गये। डूँगा का साला मदन भी इन्हीं में से एक था।
उस दिन जब डूँगा को मदन ने देखा, तो बोला- अरे जीजा, आ गये, बैठो। ये बाज़ी हो जाये फिर चलते हैं। ईमली की दूसरी तरफ़कोल्ड्रींक्स की दुकान वाले को आवाज़दी- चार-पाँच ठन्डी शीशी दे इधर। उसने जीजा डूँगा के अलावा वहाँ खेल रहे साथियों के लिए भी कोल्ड्रींक्स मँगवाया।
डूँगा जुआ खेलने वालों के बीच पैसे का ढेर देख, सोच रहा था- इतनी रकम में तो जाने कितनी लुगड़ी आ जाये। पर ये तो ऐसे ही खेल रहे हैं, जैसे मैं बचपन में राखी के ख्याल और ख़ाली आगपेटी खेला करता। उन दिनों तो आगपेटी भी कोई बिरला ही लाता, ज़्यादातर तो चूल्हों में राख के भीतर अँगार भार कर रखते थे।
थोड़ी देर में बाज़ी ख़त्म हो गयी। पूरे रुपये डूँगा का साला अपनी जेब में ऐसे भर रहा था, जैसे रुपये नहीं रद्दी काग़ज़के टुकड़े हों। उसे देख डूँगा का मन हुआ- साले को डांटे। उससे रुपये ले ले, उनकी अच्छी घड़ी करे, एक बरसाती की थैली में धरे और फतवी के भीतरी जेब में दिल से लगा कर रखे- एकदम सुरक्षित। साले को तो रुपयों की क़द्र करनी ही नहीं आती। लेकिन फिर उसने ख़ुद को समझाया- कमाने में पसीना बहाया हो, तो क़द्र करे ?
साले ने अपने साथी खिलाड़ियों से उठते हुए कहा- यार जीजा के साथ जाना पड़ेगा, बाद में फिर बैठता हूँ।
डूँगा को लगा- साला ऐसे कह रहा था, जैसे उसके साथ जाने की इच्छा नहीं, मजबूरी हो। मन हुआ, साले को दो बातें सुनाये। लेकिन फिर सोचा- साला दस-पन्द्रह साल छोटा है, अब छोटे को कुछ सुनाने से क्या फ़ायदा ? बराबरी का होता, तो सुनाता। उसे बात लगती भी। पर इतने छोटे को क्या कहना, छोड़ो। मन के किसी कोने में यह आषंका भी थी कि कहा, और कहीं माजना बिगाड़दिया तो ..?
दोनों चलने लगे, पवित्रा के लिए छोरा देखने। थोड़ी ही देर में दोनों वापस लौट आये। डूँगा को वह छोरा अपने गाँव के टुल्लर के छोरों का ही साथी लगा, सो पसंद नहीं आया।
डूँगा साँझ तक वापस अपनी खाट पर आ गया। पारबती ने उसे पानी का लोटा दिया। उसने मुँह पर पानी के छिंटे मारे। गट... गट पानी गटका। फिर खाट के पैताने की तरफ़बैठी पारबती को बताया- छोरा नी जँचा।
पारबती जाकर चूल्हे-चैके में लग गयी। पवित्रा टी वी के सामने बैठी थी, जो थोड़ी देर बाद डूँगा को चाय दे गयी। चाय पीकर वह खाट पर आड़ा पड़गया। साँझ ष्याम रंगी सितारों जड़ी लुगड़ी ओढ़चुकी थी। कहीं-कहीं सितारे भी टँक गये थे।
उसके मग़ज़्ा में ए.बी. रोड किनारे के कई खेत आ-जा रहे थे, जो पिछले कुछ सालों में ही बिके थे। अब सड़क किनारे के खेतों में फ़सल की बजाय कहीं रिलायंस और कहीं एस्सार कम्पनी का पेट्रोल पम्प खड़ा था। कहीं आई टी सी का हब और कहीं चैपाल सागर खुला था। ये सारे खेत टुल्लर के छोरों ने बिकवाये थे। उस साँझ जब वह घर लौट रहा था। टुल्लर के एक छोरे ने उसे कई के बाद फिर टोक दिया- डूँगा काका खेत बेचणु कईं, घणी जबरी पार्टी है इनी बार!
डूँगा ने उससे तो कुछ न कहा था, लेकिन जबसे उसके मग़ज़में वह बात चल रही थी। दरअसल उस पट्टी में डूँगा का खेत कुछ फँस ही ऐसी जगह गया था कि अब वह मिट्टी का नहीं रह गया। खेत की एक बाजू आईटीसी का चैपल सागर। दूसरी बाजू रिलायंस पेट्रोल पम्प। सामने एस्सार पम्प। अब तो यह कि उस खेत का दाम जो डूँगा के मुँह से निकल जाये।
लेकिन डूँगा चाहता नहीं था खेत बेचना। वह चाहता था उसमें फ़सल पैदा करना। फ़सल ही से पैसा कमाना। अपनी धरती माँ को बेचने या उसकी दलाली करने की सोच ही उसे कंपकंपा देती। वह मेहनत के दम पर लुगड़ी ख़रीदना चाहता। घर चलाना चाहता। पर सरकार की नीतियाँ और बाज़ार के छल ने कभी हाथ में इतना पैसा आने ही न दिया, और दिन फिरेंगे भी वह नहीं जानता ! पर वह सपने में भी उस ज़मीन का सौदा नहीं करना चाहता।
लेकिन गाँवदी और शहरी दलाल टुल्लरों की भी अपनी समस्या थी- ज़मीन उनके मग़ज़में चढ़गयी थी औ बिकवानी थी। टुल्लरों द्वारा उसका घर गूँधना बढ़रहा था। दलालों के एक टुल्लर ने मदन को भी अपने साथ मिला लिया था। सभी डूँगा को किसी न किसी तरह से पटाने की कोषिश में लगे रहते। दलालों ने डूँगा ही नहीं, पारबती, पवित्रा की ज़रूरतों और सपनों को भी भाँप लिया था। दलाल किसी भी वक़्त डूँगा के यहाँ आ धमकते। डूँगा घर पर नहीं होता, तो वे पारबती और पवित्रा को पटाते।
एक बार भाई दूज पर मदन आया, तो अकेला नहीं आया, उसके साथ दलालों का एक पूरा टुल्लर आया। मदन जानता था कि बहन के यहाँ टुल्लर की खातिरदारी कुछ ख़ास नहीं होगी। इसलिए वह पहले ही बायपास रोड के एक ढाबे पर बीयर-वियर पी-पाकर, चिकन-मटन चटखा कर आया। पारबती ने खाने को पूछा, तो वह नट गया।
-मामा चाय तो पियोगे न, बनाऊ ? पवित्रा ने टी वी में आये ब्रेक के वक़्त पूछा।
-अं... हं .. कुछ भी नहीं। मदन ने कहा था।
पूरा टुल्लर आँगन में ढली दो खाटों पर बैठा था। ये दोनों खाट पवित्रा और पारबती की थी। डूँगा की खाट भीत से टिकी खड़ी थी और उसके पाये पर तकिया भी धरा था। टुल्लर में से एक ‘जो अपनी रियाज से दो बीयर ज़्यादा पी गया था, ने सोचा थोड़ी देर खाट पर आड़ा पड़जाये। आड़ा पड़ने के लिये सिर नीचे तकिया रखने की ज़रूरत थी, तो वह उठा और डूँगा की खाट पर का तकिया उठाया, तकिया उठाते ही उसे लगा, तकिया नहीं ईंट के टुकड़ों से भरी छोटी बोरी उठा ली। तकिये की काली चिकट खोल देख कर लगा, पेट में भरी बीयर और चिकन बाहर आ जायेंगे। उसने तकिया झटपट वापस रखा और उलटे क़दम आकर खाट पर बैठ गया।
तभी पारबती भी दोनों ढली खाट के सामने आकर नीचे आँगन में बैठ गयी और मदन के सामने पवित्रा के ब्याह की चिंता सरकायी। पवित्रा जो धारावाहिक देख रही थी, वह ख़त्म हो गया था, तो वह भी आकर धीरे से पारबती के पीछे बैठ गयी।
मदन ने पवित्रा की ओर देख धीमे से मुस्कराया और फिर उसे गुदगुदाने के अँदाज़में पारबती की ओर देखता बोला- हिरोइन की हिरोइन दिखती भान्जी को चाहे जिसके साथ फान्द दें क्या ? भणी-गुणी भान्जी को किसी के यहाँ गोबर सोरने और कंडे थेपने को परणई (ब्याह) दें क्या ?
इतना कह उसने फिर पवित्रा की ओर देखा- पवित्रा का चेहरा बता रहा था, मामा मदन की बात उसके गले से रसगुल्ले की तरह उतर रही थी। क्योंकि पवित्रा भी टी वी के धारावाहिकों में आते हीरो-सा दुल्हा चाहती थी। वैसा ही घर, सोफ़े और बेडरूम। वह धारावहिक देखते-देखते दुल्हन के जेवर के, सितारों जड़ी लाल चुनड़ी के और जाने किस-किस चीज़के सपने देख लेती। उस दिन उसे लगा- मदन मामा उसके बारे में कितना अच्छा सोचते हैं।
मामा मदन के चेहरे पर ज़रा-सी उदासी उतर आयी। वह उदासी के पीछे से बहन पारबती का चेहरा बाँचता बोला- दुनिया में छोरों की कमी थोड़ी है, छोरा तो टी वी में से अच्छा हीरो पकड़कर बाहर ले आऊँ। तू चाहे तो घर जवाँई बना के रखना। चाहे उसके साथ रहना। पर अच्छा छोरा भी अच्छी जगह ही रुकेगा न ? अब कोई भणा-गुणा यहाँ आकर जीजा के साथ खेत में तो नहीं खपेगा ?
-मामा की बात तो सही है। धारावाहिकांे में छोरे या तो कारखाने के मालिक हैं। मैनेजर हैं या इतने पैसे वाले हैं कि कुछ करते ही नहीं। पवित्रा ने मन ही मन ख़ुद से कहा- सच में मामा ने किसी धारावाहिक वाले छोरे से बात पक्की कर दी, तो वह ऐसे घर में कैसे रहेगा ?
फिर वह सोचने लगी- धारावाहिक में किस-किस के लिए लड़की ढूँढ़ी जा रही है ? उसे कोई याद आता, तो वह मन ही मन उसके साथ अपनी जोड़ी बना कर देखती। जोड़ी न बनती, तो मन में यह भी आता- किसकी आपस में नहीं पट रही है, या किसकी जोड़ी को कैसे तोड़ी जा सकती है, जिससे अपनी जोड़ी बन सके। पवित्रा इसी में उलझ गयी थी।
भाई मदन की बात बहन पारबती को भी सुहाती लग रही थी, इसलिए उसने मदन से ही पूछा- त.. फिर र्कइं कराँ बीर, तू ही बता।
-जाजी के राज़ी कर लो, ज़मीन के छाती पर बाँधी के तो नी ले जानी है। मदन ने हल सुझाते कहा।
तभी पवित्रा, पारबती और टुल्लर ने देखा। सेरी में बैलगाड़ी थुबी। रोज़की जगह से थोड़ी पीछे थुबी थी, क्योंकि रोज़की जगह पर टुल्लर की कार थुबी थी। पवित्रा उठी और बैलगाड़ी में से निराव उतरवाने चली गयी। पारबती चाय का पानी चढ़ाने चली गयी। डँूगा ने हाथ में पकड़ी रास को गाड़ी के जुए के ऊपर से बैलों के सामने फेंका। फिर जुए के ऊपर से ही वह भी उतरा। समेले में से जोत के आँटे खोल बैलों के गलो को मुक्त किया। गाड़ी की ऊद पकड़ऊपर उठायी और बैलों को टचकारा तो वे इधर-उधर हट गये। गाड़ी की डँई को ज़मीन पर टिकाया और बैलों को कोठे में बाँधने ले गया। इस बीच उसने दो बार आँगन में बैठे टुल्लर की ओर देखा, पर मदन भीतर की बाजू बैठा था, तो दिखा नहीं और किसी ओर को वह जानता नहीं था। फिर भी घर आये पावणों से उसने औपचारिक राम-राम बैलगाड़ी थोबती बखत ही कर ली थी। डूँगा ने कोठे में बैल बाँधने के बाद पवित्रा से पावणो के बारे में पूछ लिया था, इसलिए जब वह आँगन में आया, तो चेहरे पर पावणो से बेओलखान (अपरिचय) का भाव नहीं था।
टुल्लर खाट पर बैठा, आपस में खुसुर-फुसुर कर रहा था। एक दो ने चलने के लिए कहा। मदन ने समझाया- जीजा अभी आये हैं, उनसे मिले बग़ैर कैसे चलें। उनसे भी दो बात करनी पड़ेगी।
वह डूँगा से मुखातिब हो बोला- र्कइं जीजा, मज़े में हो ?
-हाँ, मज़ा में ही है। गेहूँ बो दिया है। सरी बाँध रहा हूँ। डूँगा ने खेत पर कर रहे काम के बारे में बताया था।
-जीजा आप भी इस उमर में खेत में खटते रहते हो। वह गरदन हिलाता ऐसे उपेक्षित भाव से बोला, मानो खेत में खटना बहुत बुरा काम है।
-किरसान को बेटो खेत में खटे नी, अपना मन से जुटे है। डूँगा बोल रहा था- जैसे अपनी धरती माय की गोदी में खेले है।
-हाँ, ठीक है, ये सब मन समझाने की बात है। मदन ने कहा- खेत बेचो तो बताओ, इनी बार बम्बई की भोत जबरी पार्टी है। मन होय, तो बात करूँ ?
-मदन, जिको मन जी का दूध से नी भर्यो, जी का ख़ून पीना से, गोष्त खाना से कैसे भरेगो ? यह कहते हुए डूँगा का गला भर आया। पर कुछ नहीं बोला। पारबती ने चाय दे दी, तो नीची घोग (गरदन) से चाय को फूँक कर ठन्डी कर रहा था।
अभी उसने एक घूँट सुड़की थी कि वहीं खड़ी पारबती बोली- और र्कइं पूरी उमर तो बीती गयी, गारो खोदते-खोदते। ढंग की एक लुगड़ी भी नी लय पाया। बुढ़ापा में तो गार के सुधार लो !
पारबती की बात से डूँगा तिलमिला उठा। चाय पिघला लोहा बन गयी और भीतर तक फफोले पाड़ती गयी। ढंग का एक ही तो सपना था डूँगा का। जिसकी ख़ातिर उसने कितने ष्याले, उनाले और बरसात लट्ठे की फतवी में काट दिये थे। उस क्षण उसे लगा- उसकी मेहनत पर पारबती का भरोसा पोला था, जो मदन द्वारा फेंके लालच की मार से पिचक गया। उसे लुगड़ी ख़रीदने के लिए उस ज़मीन को बेचने का कहा जा रहा, जिसे उसकी जी और दायजी ने उसे सौंपी थी। जिसके गारे में जी-दायजी की उम्र भर का पसीना मिला हुआ था। उसने चाय पीकर ख़त्म की और पीछे खिसकर भीत के सहारे टिक गया था। चुप। उसके मग़ज़्ा में चल रहा था- इस बार आधी सोयाबीन बाँझ रह गयी। आधी का पानी की ताण के कारण दाना छोटा रह गया। ई चैपाल वाले ने ख़रीदी नहीं। कस्बे में बाण्या को बेची, उसमें गेहूँ के लिए खाद और टेमपरेरी बिजली कनेक्षन लिया। बरसात चकमा न देती, तो पारबती को तो इसी बरस एक लुगड़ी ला देता। पारबती ने जो ताना दिया, वह तो कभी सम्पत काकी ने भी न दिया। पारबती के सिर पर एक लुगड़ी आ जाती, तो मदन की बातें उसे न भरमा पाती।
-बीस लाख रुपये बीघा तक दे सकते हैं। सोचो, दस बीघा का कितरा रुपया होगा। मदन ने डूँगा की ओर देखते हुए कहा और फिर पारबती की ओर देखते हुए बात ख़त्म की- वारा न्यारा हुई जायेगा। चाहो तो लुगड़ी बनाने को कारखानो खोली लीजो। सौ-दो सौ लुगड़ी रोज़बाँटोगा तो भी कम नी पड़ेगी।
-और क्या ? कारखाने को सम्भालने के लिए मामा धारावहिक के किसी हिरो को राज़ी कर लेंगे। पवित्रा मन ही मन बुदबुदायी और डूँगा की ओर यूँ देखा, मानो उसकी आँखें कह रही हो- हाँ कह दो ?
पर डूँगा तो जैसे बहरा हो गया। मदन की बात न सुन पा रहा, न समझ पा रहा। हालाँकि मदन और उसके साथियो ने, और भी कुछ बातें सुझायी। मसलन- अभी बेचने का मन न हो, तो मत बेचो। बीस-तीस लाख रुपये बम्बई की पार्टी से यूँ ही दिलवा देते हैं। घर बनवा लो। पवित्रा को परना दो और आराम से बैठे-बैठे बुढ़ापे का मज़ा लो। बस, एक छोटा-सा एग्रीमेंट करना होगा- जब भी बेचोगे, उसी पार्टी को बेचोगे, जिससे पइसे दिलवायेंगे।
डूँगा हाँ, ना कुछ नहीं बोला। वैसा ही बैठा रहा। बाहर गुमसुम। भीतर खदबदाता।
खाट पर बैठा टुल्लर जाने को उठा। कोई और पावणा होता, तो डूँगा कहता- और आवजो। लेकिन जब वह टुल्लर जाने को उठा, तो उसके साथ डूँगा भी उठा। वह सेरी में खड़ी कार तक साथ-साथ गया, उन्हें हाथ जोड़बिदा करता मन ही मन बुदबुदाया- म्हारो पिंड छोड़दी जो।
मदन के जाने के बाद पारबती ने फिर से चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा दिया। वह उसी वक़्त समझ गयी थी कि डूँगा की चाय का स्वाद बिगड़गया है। तभी से डूँगा गुमसुम भी था। चाय के पानी में पत्ती-शक्कर और दूध मिलाने के बाद, उसने चाय की ज़िम्मेदारी पवित्रा को दे दी। डूँगा सेरी में खड़ा डूबते सूरज की ओर देख कर, शायद अँदाज़ा लगा रहा- आरती में कितनी देर बाक़ी है। पारबती ने डूँगा की खाट को लाकर सेरी में ढाल दी। सिरहाने तकिया भी धर दिया।
डूँगा बुरी तरह थका-मांदा-सा खाट पर बैठा। पैरों से पनही निकाल दी। धोती की काँछ को ऊपर चढ़ा ली। दोनों पैरों को उठाकर खाट पर रखे और फिर आड़ा पड़गया। तकिये पर सिर रखा और आँखें आसमान में टिका दी। सूरज डूबने के बाद की लाली पर साँझ की ष्याम रंगी झिनी लुगड़ी अभी पूरी तरह फरफरायी भी नहीं थी कि गाँव के छोरों का एक टुल्लर आया, तो डूँगा उठकर बैठ गया।
सभी छोरे गाँव के ही थे। सभी अधकचरे पढ़े-लिखे थे। उनके बाप-दादा की ज़मीने बिक गयी थी। उनमें से एक के बाप ने तो बाहर दूर गाँव, जहाँ की ज़मीन गारे की थी, यहाँ की ज़मीन की तरह सोने की नहीं, वहाँ ज़मीन ख़रीद ली थी। ज़मीन पर हाली छोड़दिये थे। बीच-बीच में जाकर देख आते थे। फ़सल अवेर लेते थे। इस गाँव में बाप के पास ताश पत्ते खेलने के अलावा कोई ख़ास काम नहीं था। बेटा लोगों की ज़मीन बिकवाता। गाँव की बहू-बेटियों को ताकता। उसका अपने सरीके पाँच-सात छोरों का एक टुल्लर था। गाँव में यही इकलौता टुल्लर था, ऐसा हरग़िज नहीं था। टुल्लर तो और भी थे, पर उनके भीतर लाज और गाँवदीपन अभी बचा था। अभी वे बुजुर्ग़ों से आँख मिलाते या उन्हें धमकाते झिझकते थे। लेकिन ये टुल्लर बिन्दास और पाॅवर फुल था।
इसी टुल्लर की महरबानी से डूँगा के घर की मगरी पर तीन तरह के खापरे थे, यानी देशी नलिये, देशी खापरे तो पुराने ही डले हुए थे। लेकिन जब इस टुल्लर का मन दगड़्या चैदस मनाने का होता। मना लेता। टुल्लर तो पत्थर को आसमान की ओर उछालता। पत्थर ही हवा और अँधेरे की मदद से डूँगा के घर के ऊपर जाता। खपरेलों पर वहाँ गिरता, जहाँ नीचे पवित्रा सोयी होती। लेकिन कवेलू, खापरा और नलिया डूँगा के मग़ज़में टूटता। जहाँ-जहाँ का खापरा, नलिया टूटता, वहाँ-वहा,ँ डूँगा अँग्रेज़ी कवेलू लगा देता। टुल्लर ऐसा हर उस घर पर नहीं करता, जिसमें जवान छोरी रहती। उस घर के साथ करता, जो टुल्लर की लायी पार्टी के साथ सौदा नहीं करता।
डूँगा को सबसे पहले, इसी टुल्लर ने आॅफर दिया था कि खेत बेच दे। दस लाख रुपये बीघा के हिसाब से बिकवा रहे थे तब। पर नहीं बेचा, तो नहीं बेचा। उस वक़्त रामा बा जैसा कोई मामला फँसा नहीं था। लेकिन तभी से उन्होंने दगड़्या चैदस मनाने का काम ज़ारी रखा था, ताकी डूँगा भूले नहीं। गाँव के सभी टुल्लरों के बीच थाना-कचहरी आने-जाने में इसी टुल्लर का नाम सबसे ऊपर था। अगर उसकी लायी पार्टी के साथ किसी ने सौदा नहीं किया, तो फिर कोई खाँ हो, उनकी सहमति के बग़ैर उस ज़मीन को बिकवा नहीं सकता। यह ऐसा अलिखित समझौता था, जिसके विरूद्ध कभी कोई नहीं गया था।
डूँगा ऐसे समय और महान देश के गाँव का किसान था, जिसमें डूँगा तो क्या ? उसके जैसे गाँव के किसी भी रामा बा या सामान्य किसान का पेट भरने के अलावा कोई सपना देखना और मेहनत की फ़सल बेचकर जीते-जी सपना पूरा करने का सोेचना गुनाह से कम न था। ऐसा करने का मतलब सरकार और उसकी नितियों की खुल्लम खुल्ला तौहीन करना था। हालाँकि सरकार इतनी गेली नहीं थी, न उसकी नीतियाँ इतनी ढीली-ढाली थी कि डूँगा जैसे धोती छाप लोग अपने सपनों को पूरा कर लेते। सरकार ने बहुत ही विकसित और ताक़तवर देषों की सरकारोें की मंसानुसार जो नीतियाँ बनायी थीं, उन्हें समझना डूँगा जैसे धोती छाप गाँवदियों के बस का तो था ही नहीं। लेकिन सरकार के भीतर- बाहर बुद्धि की खाने वालों का दावा करने वालों के लिए भी, बग़ैर चन्द्रायन के चाँद पर जाने का सपना देखने जैसा था।
ऐसी बखत में डूँगा का एक मन पसंद लुगड़ी का सपना। पारबती का बूढ़ी हड्डियोें को आराम और जवान छोरी को परनाने का सपना। पवित्रा की आँखों में अच्छे घर और दूल्हे का सपना। सपना कोई बुरी बात नहीं। लेकिन जीते-जी पूरा करने की जिद। मेहनत की फ़सल से पूरा करने की अड़। ये सरकार की नज़र में क्या था नहीं पता, पर गाँव के टुल्लर की नज़र में यह एक गेलचैदापना था। उसके मग़ज़्ा में कोई उलझाव नहीं था। डंके की चोट पर कहता- वह चूतिया है।
जब टुल्लर के सामने डूँगा और उसके परिवार के सपनों की पोल खुली थी, कई मुँह से हँसते-हँसते टुल्लर के कई पेट में बल पड़गये। फिर टुल्लर में से ही एक मुँह ने अपनी हँसी को काबू में करके यह राज़खोला- डूँगा ज़मीन को बेचे बग़ैर सपना पूरा करना चहता है।
तब अचानक सारे मुँह की हँसी थम गयी। टुल्लर के लीडर के भेजे में एक गर्म सूई धँस गयी। एक क्षण को सन्नाटे की तूती बोल गयी। लेकिन दूसरे क्षण.....
-चूतिया है, चूत मारीका। टुल्लर के लीडर ने कहा, और फिर अँगुलियों के बीच सुलगती आधी सीगरेट को पटक एडीडाॅस के जूते से मसलता बोला- अपना गाँव में रामा बा जैसे हुड़क चुल्लुओं की कमी नी है
साँझ का वक़्त था, उस साँझ सरपंच ने पंचायत भवन में टुल्लर, हल्के के पटवारी और क्षेत्र के थानेदार का खाना-पीना रखा था। खाना-पीना रखने की कोई ख़ास वजह नहीं थी, बस, उस साँझ सरपंच का टर्न था।
लेकिन जब टुल्लर को यह भनक लगी कि चैधरी बाखल का टुल्लर डूँगा की ज़मीन की फिराक़में है। उसने डूँगा के साले मदन को पटा कर अपने साथ जोड़लिया है, और डूँगा के साथ एक बैठक कर ली है, तो उनकी झाँटों का सुलग उठना जायज ही था। टुल्लर के लीडर ने सरपंच के टुनटुने (मोबाइल) पर अपने टुनटुने के मार्फत बता दिया कि खाना-पीना नौ बजे के बाद, और टुल्लर सीधे पहुँच गया था डूँगा की सेरी में।
टुल्लर में एक लम्बी नाक वाला छोरा था। क़रीब अट्ठाइस-उनतीस साल का। उसकी आँखों की पुतलियाँ गहरी काली। भौंहे चैड़ी। सिर के बाल घने, गहरे काले और चेहरे का रंग साफ़था। वह टुल्लर की सेकैण्ड लाइन का लीडर था। डूँगा के ठीक सामने बैठा था। वह बोल कुछ नहीं रहा था। बस, एक-एक, दो-दो मीनिट के अन्तराल पर डूँगा को घूरता। फिर उधर देखता, जहाँ आँगन में बैठी पवित्रा रात को राँधने के लिए, दराँती से आल काट रही थी।
टुल्लर की पहली लाइन का लीडर डूँगा की बाजू में बैठा। दिखने में शरीफ गाय का गोना। डूँगा को टेकल करने के अँदाज़में समझा रहा- रामा बा बनने की खुजाल क्यों मची है ?
डूँगा के सामने वह सब पसर गया, जो रामा बा के साथ दो साल पहले घटा था। रामा बा, डूँगा की ही बाखल में रहने वाला बूढ़ा, और दो जवान छोरियों का बाप। उसकी पहली छोरी पवित्रा से दो-तीन साल बड़ी। दूसरी पवित्रा की ही दई (उम्र) की। वह डोलग्यारस का दिन था। पूरा गाँव मन्दिर सामने के चैक में था, और डोल को सजा-धजा कर तलाई पर ले जा रहे थे। वहीं से बड़ी छोरी अलोप हो गयी। आठ-दस दिन तो पता ही नहीं चला, छोरी कहाँ रही। उसके साथ क्या-क्या हुआ ?
एक रात जब उसी चैक में वह पड़ी मिली, तो लोगों ने कहा- इससे तो अच्छा होता कि मर जाती। न उसे खाने की सुध, न पीने की। छोटी बहन और उसकी माँ ज़ोर-जबरदस्ती से कपड़े पहना देती, तो वह उतार कर फेंक देती। फिर किसी पहलवान की तरह अपनी जाँघ को ठोकती। टुल्लर के लीडर का, उसके साथियो का, सरपंच का, थानेदार का, पटवारी का एक-एक का नाम पुकार कर चुनौती देती और अपनी टाँगों के बीच इशारा करते हुए कहती- अउ... , अउ और भरई जउ इमें।
दो साल से वह रामा बा के घर की एक अँधेरी ओड़ली में बंद है, पर रामा बा के घर के अलावा कोई नहीं जानता- वह ज़िन्दा है कि मर गयी। छोटी छोरी पवित्रा की तरह जवान हो गयी। पर उसके लिए न कोई रिष्ता आता, न कोई लाता। कोई भूला भटका आ जाता, तो उसे टुल्लर का कोई न कोई छोरा मिल जाता और उलटे पाँव भगा देता। टुल्लर ने ये अघोषित ऐलान किया हुआ था- रामा बा की छोटी छोरी उनकी प्राॅपर्टी है, जिसका उपयोग वे जब चाहे, तब मिल बाँट कर करते हैं।
यह सब, क्यों सहा रामा बा ने ? क्या रामा बा को अपनी छोरियों से ज़्यादा ज़्ामीन प्यारी थीं ?
क्या ग़ज़ब गुनाह था रामा बा का भी। उनका खेत सड़क किनारे था और शहर के एक सेठ को पसन्द आ गया था। उसे पेट्रोल पम्प डालने के लिए, रामा बा के खेत से मुफिद जगह दुनिया में कहीं नहीं मिली थी। सेठ टुल्लर से मिला। टुल्लर के पहली लाइन के लीडर ने सेठ को खेत दिलवाने की ज़बान दे दी, और दिलवा भी दिया। लेकिन न बेचने और बेचने के बीच, रामा बा और उसके परिवार के साथ जो कुछ हुआ था वह, बल्कि पिछले दस-पन्द्रह बरसों से सड़क किनारे के गाँवों में रामा बाओं के साथ जो कुछ घट रहा था। किसी की फ़सल में आग लग जाती। कोई फ़सल बेच कर लौटता, तो रास्ते में रकम लुटा जाती। रास्ते से बच आता, तो घर में से चोरी हो जाती। ऐसी हर एक बात का तार टुल्लर की तरफ़जाता दिखता। पर कोई तार को पकड़टुल्लर की ओर क़दम बढ़ाता, तो कुछ क़दम के बाद ही वह तार को गला पाता। फिर वहाँ से आगे कुछ नज़र न आता।
उन दिनों ए बी रोड किनारे के हर गाँव में टुल्लर, रामा बा और डूँगा की संख्या में बढ़ोत्री हो रही थी। यह बढ़ोत्री तरक्की की झकाझक पौशाक पहनकर इतराती थी। उस साँझ टुल्लर की पहली लाइन के लीडर की बातों से डूँगा को सबकुछ समझ में आ गया था। इस क़दर साफ़-सुथरा और पारदर्षी समझ में आया था कि आँखें समझ को छुपा न सकी। कुछ बूँद समझ चू ही गयी।
टुल्लर के जाने के बाद, पारबती हाथ में चाय से भरे कपबशी लेकर आ गयी थी। डूँगा ने काँपते हाथों से कपबशी को पकड़ा। आधा कप चाय बशी में कूड़ी (उड़ेली) और धूजते होंठों से फूँक मारता चाय ठन्डी करने लगा। दो फूँक के बाद ही चाय सुड़क ली, तो इस्सऽऽ कर उठा। जीभ सेे नीचले होंठ की भीतरी सतह को छूकर महसूस किया- जीभ की नुक्खी और नीचले होंठ की भीतरी बाजू में सरसों के दाने के बरोबर के छाले उपक आये हैं।
पारबती, जो चाय का कपबशी पकड़ा कर अपने घर के बाहर ओटली पर बैठी सम्पत काकी और सेरी में कार को कपड़ा पहनाते किशोर को देख रही थी। शायद उसके मन में चल रहा था- ज़ल्दी ही उसके घर सामने भी एक कार खड़ी होगी। पवित्रा का लाड़ा कार को कपड़ा पहनायेगा। डूँगा और वह खाट पर बैठे-बैठे देखेंगे।
तभी डूँगा की लम्बी इस्स से उसका ध्यान टूटा। वह बोली- ज़रा धीरपय से फूँकी- फूँकी के पियो, चाय कपबशी से न्हाटी (भागी) जई री है र्कइं ?
डूँगा के होंठ और जीभ जलने से आँखों में जलजले आ गये थे। उसने पारबती की ओर देखा, पर बोला कुछ नहीं। सोचा- काश उसकी आँखों में आये जलजले के पीछे पारबती झाँक पाती, तो समझती- आँखों में पानी जीभ और होंठ के जलने से हैं या किसी बेबसी सेे हैं ? वह फिर से फूँक-फूँक कर चाय पीने लगा। पर उसे अब ठन्डी चाय भी गरम जैसी ही लग रही थी। क्योंकि उसने पारबती के मन में सरबलाती हसरत को भाँप लिया था।
चाय ख़त्म हुई। डूँगा ने खाली कपबशी पारबती को पकड़ाये। वह कपबशी लेकर घर तरफ़बढ़ी की उसने देखा- किशोर और सम्पत काकी डूँगा की खाट तरफ़ आ रहे है, तो वह रुक गयी। काकी और किशोर को नज़दीक आते देख, डूँगा बोला- आ काकी बैठ।
काकी और किशोर खाट पर बैठ गये। तब पारबती ने काकी और किशोर की ओर देख, पूछा- चाय लाऊँ ?
किशोर ने तो गरदन हिला कर नकारा कर दिया और काकी बोली- अरे अग्गी बाल चाय राँड के, आधो कप भी पी लूँ, तो पेट फुगी के ढोल हुई जाये, और फसर-फसर पाद आवे।
पारबती धीमे से मुस्कुराती खाट के पास आ गयी। खाट के पास सेरी में नीचे ही बैठ गयी। टी वी में धारवाहिक भी समाप्त हो गया था, तो पवित्रा भी आकर पारबती की बग़ल में बैठ गयी थी।
-का रे डूँगा, इ छोराना कूण था ? काकी ने सीधे काम की बात पूछी थी, क्योंकि जब टुल्लर आया था, तब भी काकी वहीं बैठी थी। किशोर नहीं था, वह थोड़ी देर पहले ही आया था।
डूँगा ने सोचा, कह दे, ऐसे ही मिलने वाले थे। वह काकी को सच बता भी देगा, तो काकी उनका क्या कर लेगी ? पर दूसरे ही क्षण डूँगा को लगा- वह काकी को झूठ बता कर भी टुल्लर का क्या बिगाड़लेगा ? काकी के किशोर ने तो अभी ही ज़मीन का बयाना लिया है, तो हो सकता है, वे कुछ उपाय सुझा दे ? उसने टुल्लर के बारे में सही-सही बताया। कौन-कौन थे और क्या-क्या बोल रहे थे।
पारबती ने वह सब सुना, तो धड़कन बढ़गयी। लेकिन वह डूँगा को हिम्मत बन्धाती बोली- डरने की बात नी, म्हारो भई मदन सब ठीक कर देइगो। पर जब उसे डूँगा ने बताया कि मदन भी ऐसे ही टुल्लर का साथी है, तो फिर वह चुप हो गयी।
वहीं बैठे किशोर के सामने अपनी ज़मीन का सौदा करते वक़्त आयी आफतें तैर गयी। काकी को भी वह सब याद आ गया- कैसे किशोर को घापे में लेकर ज़मीन का बयाना पकड़ाया ! कैसे सौदा चिट्ठी बनवायी ! शुरूआत में किशोर ने सख़्ती से ज़मीन बेचने से मना कर दिया, तो उसके साथ क्या हुआ ?
काकी ने अपनी बूढ़ी और लरजती आवाज़में कहा- देख, म्हारी बात कान धर। जितरी ज़ल्दी हुई सके, पवित्री का हाथ पीला कर दे। कोई भी ज़मीन का बारा में पूछे, तो बस, यूँज बोल- छोरी के परणई देने का बाद योज करनो है।
-हाँ, इनको कोई भरोसो नी। अपने तो रात-बेरात पाणत करने भी आनो-जानो पड़े। किशोर ने कहा था।
पाणत करने ही तो गया था किशोर उस रात। यूँ कहने को तो उस रात टुल्लर ने किशोर को एक झापट भी नहीं मारी। जब वह पाणत कर रहा था टुल्लर के पाँच-सात छोरे पहुँचे। उसके सारे कपड़े उतार दिये। हाथ-पाँव बान्द के पानी के पाट में पटक दिया। सवेरा होते-होते किशोर राज़ी हो गया था।
जब सवेरे घर आया। काकी को बताया। काकी ने कहा- जान से प्यारो नी है खेत, बेच दे।
फिर टुल्लर ने जहाँ कहा, वहाँ अपना नाम लिख दिया। सात लाख रुपये बयाना पेटे ले लिये। जिसमें से एक लाख दलालों ने रख लिये थे। बाक़ी की रकम छः महीने में देगें। न देने पर सौदा रद्द माना जायेगा। किशोर ने पाँच लाख की एक कार ख़रीद ली। बाक़ी रकम मिलने पर, कहीं सड़क से दूर गाँव में ज़मीन भी लेगा। घर बनावावेगा।
टुल्लर डूँगा की भी ऐसी ही कोई नस दबाना चाह रहा था। हो... हो... कर मज़ाक उड़ाना। पी-खाकर कवेलू पर पत्थर फैंकना। जैसे टुल्लर के प्रयोग पुराने और असफल हो गये थे। लेकिन टुल्लर को टैन्षन नहीं थी। वह जानता था- डूँगा ज़मीन को फतवी की जेब में रखकर कहीं भाग नहीं सकता। टुल्लर की सहमति के बग़ैर कोई दलाल बिकवा नहीं सकता। फिर भी बीच-बीच में टुल्लर छोटे-मोटे प्रयोग करता रहता। ताकि लोगों को लगे- वे सब मेहनत भी करते हैं।
ऐसे ही टुल्लर ने धुलण्डी की रात में एकदम ताज़ा प्रयोग आजमाने का मन बनाया। हालाँकि प्रयोग पर टुल्लर में साँझ को ही बातचीत हुई थी। टुल्लर की दोपहर बाद से पंचायत भवन में पार्टी-शार्टी चल रही थी। जब पार्टी ख़त्म होने को आयी, तब नये प्रयोग का आइडिया आ गया। फिर बातचीत में तय हो गया- रात में ही प्रयोग कर लिया जाये। प्रयोग में डूँगा का सोना ज़रूरी था। डूँगा के सोने के टेम तक पार्टी को ज़ारी रखना था। फिर हुआ ये कि पार्टी नये सिरे से शुरू हुई।
टुल्लर के लीडर ने ख़ुश होकर दो बोतल और खुलवा दी। पके माँस की तो कमी थी नहीं। पर फिलवक़्त कच्चे गोष्त के लिए सरपँच और लीडर का मन मचल उठा।
लीडर ने टुल्लर के एक छोरे से कहा- सरपँच साब की कार लेकर जा, और प्राॅपर्टी को बैठा ला।
जाने से पहले छोरे के मन में पवित्रा का ख़याल आया। उसने लीडर को पवित्रा का ध्यान दिलाया- भइया, डूँग्या का घर में भी तो गद्दर तोतापरी है !
लीडर ने कहा- अबी नी, अबी जा, जीतरो बोल्ये उतरो कर ।
छोरा चला गया। लम्बी नाक वाले की तरफ़लीडर ने भौंहें उछाली, जैसे पूछा कोई कमी तो नहीं। उसने दोनों हाथ और चेहरे के भाव से ऐसे बताया कि तृप्त हो गया। तब लीडर बोला- तो तू प्रयोग की प्राॅपर्टी का बन्दोबस्त कर ले।
लम्बी नाक वाला एक पोलीथिन लेकर पंचायत भवन से बाहर निकला। पंचायत भवन ए बी रोड के किनारे नया-नया ही बना था। रोड और ख़ास गाँव के बीच में लम्बा चैड़ा काँकड़था। काँकड़पर ज़्यादातर बलाई, चमार और भंगी रहते थे। और टाॅयलेट तो गाँव में पटेलों चैधरियों के भी पुराने घरों में नहीं थे। फिर काँकड़वालों की झोंपड़ियों में तो टायलेट का सवाल ही नहीं। काँकड़के लोग, रोड से थोड़ी दूरी पर, रोड के समानन्तर खुदी खन्ती में ही फारिग हुआ करते थे।
लम्बी नाक वाला एक मेहतर के झोंपड़ी पर गया। मेहतर तो था नहीं, उसका तेरह-चैदह बरस का छोरा मिला। लम्बी नाक वाले ने उसी को पोलीथिन पकड़ायी और छोरे से कहा- खन्ती में जा और इके गू से आधी भरी ला।
फिर पंचायत भवन के बाहर रखी पानी की टन्की की तरफ़इशारा करता बोला- पानी ली ने उके घोल दीजे। फिर पन्नी का मुन्डो बान्धी ने दीवाल से टिकइन धरी दीजे।
छोरे का बाप भी होता, तो मना करने का तो सवाल ही नहीं था। थोड़ी देर में छोरा घोल बनाकर रख गया। तब तक गाँव में से कार में प्राॅपर्टी भी ले आयी गयी थी। फिर देर रात तक उनकी मौज़-मस्ती चली। प्राॅपर्टी को वापस छोड़ा। फिर सब चले प्रयोग करने।
डूँगा के घर से थोड़ी दूर इमली के नीचे कार और जीप रोकी। पहले गाड़ी में से ही देखा- दूर से उन्हें भी डूँगा, खाट पर पड़े डूँड की तरह ही नज़र आया।
खाट के नीचे कबरा जगकर सतर्क हो गया था। लम्बी नाक वाले से लीडर ने पूछा- भई थारा प्रयोग में टेगड़ा को कईं बन्दोबस्त है ?
लम्बी नाक वाला बोला- पूरो बन्दोबस्त है। वह एक छोटी पन्नी में हड्डियाँ दिखाता- इ इका सरू तो भेली करी र्यो थो।
लीडर ने कहा- आज तो थारी खोपड़ी के मानी ग्यो यार।
दो जने गाड़ी से नीचे उतरे। एक ने गू के घोल की पोलीथिन पकड़ी, दूसरे ने हड्डियों की और डूँगा की खाट तरफ़बढ़े। कबरा देख रहा था। सतर्क था। पर भौंक नहीं रहा था। चूँकि डूँगा के घर सामने से रास्ता था। कोई न कोई आता-जाता रहता। कबरा हर किसी पर न भौंकता। वह तब भौंकता, जब उसे भरोसा हो जाता- कोई ओगला आदमी उसकी तरफ़आ रहा है।
लम्बी नाक वाले ने दूर से ही उसकी तरफ़हड्डी का टुकड़ा फैंका। कबरा टुकड़े के पास गया। हड्डी की गन्ध से उसका मुँह लार से भर गया। वह करड़-करड़चबाने लगा। फिर लम्बी नाक वाले ने पूरी पोलीथिन उसके पास रख दी। कबरा गदगद।
लम्बी नाक वाले के साथ वाला खाट की ओर बढ़ता गया। खाट पर करवटे सोये डूँगा के पीछे पोलीथिन धरी। उसमें ब्लेड से एक चीरा लगाया। पोलीथिन में से घोल बाहर निकलने लगा। यहीं से टुल्लर बिखरा। सब अपने-अपने घर जाकर आराम करने लगे।
डूँगा इस प्रयोग से दुखी हुआ। चिन्तित भी हुआ। पर ज़मीन बेचने को राज़ी न हुआ। तब टुल्लर को लगा- डूँगा है मरियल, पर है बड़ा चामठा। जब तक सूखेगा नहीं, टूटेगा नहीं। कुछ नया प्रयोग करना पड़ेगा।
टुल्लर कल्पनाशील तो था ही। कुछ ही महीनों बाद देव उठनी ग्यारस पर गाँव के खाती पटेल के यहाँ बारात आयी। बारात में दो बस, तीन-चार कार, जीप भरकर लोग, एक मेटाडोर में बैंड-बाजा, एक में दूल्हे की घोड़ी। कार की डिक्की में शराब की पेटी। आदि आदि। कहने का मतलब- पूरे तामझाम के साथ पधारी थी बारात।
डूँगा ने किसी खाती पटेल की ऐसी बारात पहले कभी नहीं देखी थी। लेकिन जबसे खातियों की ज़मीने बिकने लगी थीं, ऐसी बारातें अक्सर देखने को मिलती थी। पहले तो खाती पटेल शराब और माँस को चोरी-छिपे भी नहीं छूते थे। अगर कोई खाता-पीता तो बच्चों की सगाई-शादी नहीं होती। पहले से हुई होती तो टूट जाती। पर अब खातियों की युवा पीढ़ी में खाने-पीने का ही नहीं, औरत बाजी का षौक भी बढ़गया।
उस रात बारात डूँगा के घर सामने ईमली के पेड़के नीचे थी। बैंड-बाजा बज रहा था। छोरे नाच रहे थे। पीने वाले डिस्पोजल में पी रहे थे। पटाखे छोड़ने वाले पटाखे छोड़रहे थे। तभी अचानक टुल्लर को एक ऐतिहासिक आइडिया आया। उसने तुरंत ही पटाखे वाले से डिब्बानुमा पटाखा लिया। यह ऐसा पटाखा था, जिसे एक बार सुलगाव तो उसमें से दस-बारह पटाखे निकलते। ऊपर आसमान में जाकर फूटते। लाल, नीली और पीली रोशनी के फूल बिखेरते।
उस रात आरती के बाद का वक़्त था। डूँगा के घर में खाना नहीं बना था, क्योंकि पटेल बा के यहाँ से साकुट्म्या (सपरिवार) निमंत्रण था, सो सभी साँझ को जीम आये थे। सर्दी थी इसलिए डूँगा की खाट भी ओसारी में ढली थी। पारबती बारात को अपने घर तरफ़ आने का सपना देखती खाट पर बैठी थी। पवित्रा घोड़ी पर बैठे दूल्हे को टी.वी. से बाहर निकल आया हीरो समझती देख रही थी।
डूँगा खाट पर लेटा-लेटा बैंड-बाजा सुन रहा था। उसके मग़ज़में अपनी बारात का दृष्य चल रहा था। उसकी बारात में न बैंड-बाजा था, न पटाखे थे, न घोड़ी। बस, बैलगाड़ी से बारात गयी थी और पारबती को बैठा लाये थे। उसने ख़ुद से पूछा- कितरी फ़सल का पइसा फूँका जाता होगा, इनी तोबगी में ?
ख़ुद ही ने जवाब दिया- फ़सल का होता तो नी फूँकता, इ तो ज़मीन का पइसा हैं, असज बंगे लगेगा।
जब डूँगा का ख़़ुद से सवाल-जवाब चल रहा था, तभी उसकी ओसारी में ढ़ेर सारे पटाखे वाला डिब्बा आकर गिरा। उसमें एक-एक पटाखा राकेट की तरह बाहर निकलता। डिब्बा आड़ा पड़ा था, उसमें से पटाखे भी आड़े-तिरछे ही निकलते। कोई दीवार से टकराकर फूटता। कोई डूँगा की धोती में घूसने की कोषिश करता। कोई पारबती की घाघरी में। कभी पवित्रा की तरफ़लाल, नीली, पीली रोशनी के फूल बिखरते। कभी पारबती और डूँगा की तरफ़। कभी पवित्रा की चीख़ निकलती, कभी पारबती की। डूँगा के घर की ओसारी, ओसारी नहीं जैसे इरान, फिलिस्तीन थी। थोड़ी देर में धुआँ ही धुआँ भर गया था, न कुछ देखते बनता, न सांस लेते बनता। डूँगा समझ गया था- यह अनायस नहीं है। टुल्लर का ही नया प्रयोग है।
उसके बाद जब भी बारात आती। डूँगा परिवार सहित घर के भीतर बंद हो जाता। ओसारी में मिशाइलें दग चुकी होतीं। बारात घर सामने से आगे बढ़जाती। तब किवाड़खोलता। ओसारी के आँगन की साफ़-सफ़ायी करते।
टुल्लर ने पिछले डेढ़-दो बरस में यह प्रयोग कई बार आजमाया। कुछ नये प्रयोग भी ट्राय किये। पर डूँगा न टूटा। टूटा भले न हो पर डूँगा झटका ज़रूर गया था। पहले की तुलना में काफ़ी कमजोर हो गया था। चिंता उसे भीतर से घुन की तरह खा रही थी। कभी रामा बा और उसकी छोरियों के साथ हुआ वाकया याद आता। पवित्रा और पारबती की फिक्र सताती। कभी किशोर के बारे में सोचता। खेत पर आते-जाते मन में खुटका रहता। खाट पर सोता, तो कई बार ऐसा होता। आँखों में लुगड़ी के सपने की बजाय, कभी खेत में खड़ी फ़सल के जलने का सपना आता। कभी रामा बा की बड़ी छोरी की जगह पवित्रा को जाँघ पर हाथ मारते देखता और सुनता- अउ.... अउ..भरइ जउ इमें
यह सितम्बर की एक रात थी। डूँगा ओसारी में खाट पर आड़ा पड़ा था। उसकी नज़रे ओसारी के चद्दरों में पड़े दोंचों पर टीकी थी। दोंचें पटाखों के टकराने और वहीं फूटने से बने थे। देव उठनी ग्यारस कुछ ही दिन दूर थी। उसके मग़ज़में चल रहा था- फिर ब्याह होंगे। फिर बारात आयेगी। फिर आँगन में पटाखे का डिब्बा आकर गिरेगा। चद्दरों में फिर दोंचें पड़ेंगे। ठन्ड ज्वार की बुरी की तरह ही काट रही थी। पर वह काँप रहा था। कनपटियों से जैसे पसीने की नहीं, गाढ़ेख़ून की तिरपन रिस रही थी।
तभी शंख की ध्वनि उसे हमेशा की तरह बुलाने आयी। लेकिन डूँगा ने ध्वनि का आना। कान में प्रवेश करना। महसूस ही नहीं किया। पारबती घर में चूल्हा-चैका का काम करी रही थी। पवित्रा टी.वी. के सामने बैठी थी। डूँगा के मग़ज़में देव उठनी ग्यारस के पटाखे फूट रहे थे।
क़रीब दो-तीन मीनिट से उसकी खाट के पास किशोर आकर खड़ा था। वह डूँगा काका...... काका..... कहकर उसे उठा रहा था। जब किशोर ने उसे झिन्झोड़कर उठाने की कोषिश की, तब तंद्र टूटी। किशोर ने बताया- डूँगा काका..... आज आरती में नी गयो। आज खँजड़ी नी बजावेगो।
डूँगा के पास तो जैसे भीतर कुछ था ही नहीं, जो कहता। किशोर ने ही कहा- काका जा, थारो खेत अभी नी बिकेगो। थारो खेत लेने वाली बम्बई की पार्टी तो डूबी गयी।
डूँगा के मन में जैसे कुछ बुलबुले उठे- न बरसात हुई, न बाढ़आयी। पार्टी कैसे डूब गयी। कुछ समझ में नहीं आया। वह भौचक्क किशोर की ओर देखता रहा। डूँगा ने न कभी दलाल पथ का नाम सुना था, न वाॅल स्ट्रीट का। न मंदी का, शेयर मार्केट का। लेकिन जब किशोर समझा रहा था, तो डूँगा जानने की इच्छा में चुप ही रहा। किशोर ने टी.वी. में देख-सुनकर जो समझा था, उसी के आधार पर डूँगा को अथक प्रयास से कुछ समझाना चाहा। डूँगा को इतना ही समझ में आया। कहीं बहुत भयानक बाढ़आयी- मंदी की बाढ़। उधर दलाल पथ और वाल स्ट्रीट के बीच, शायद बरसात को मंदी कहते होंगे। उसी बाढ़में बम्बई की पार्टी डूब गयी।
उसी पार्टी को टुल्लर ने किशोर का खेत बिकवाया था। वही पार्टी डूँगा का खेत ख़रीदने की सोच रही थी। पर अब वह डूब गयी। उसका किशोर को दिया बयाना डूब गया। क्योंकि लिखा-पढ़ी के मुताबिक छः महीने से ज़्यादा का वक़्त हो गया था। दुनिया में जिधर देखो उधर से डूब की ख़बर आ रही थी। न डूँगा को पता, न किशोर को मालूम था।
टुल्लर तो रोज़ही शहर के दलालों और भू-माफियाओं के सम्पर्क में रहता था, सो वह भी सब कुछ जान ही गया था। डूब का हाहाकार पूरी दुनिया में फैला था। जिधर देखो उधर से डूब की ख़बर आ रही थी। न डूँगा को पता, न किशोर को मालूम। ये डूब उनका क्या कुछ डूबाएगी ! खेत डूबाएगी या मेहनत डूबाएगी ?
पर डूँगा को किशोर की बातों से इतना समझ में आ गया था- जब तक खेत बचा है। खेती करने की इच्छा बची है। अपनी मेहनत की फ़सल के दम पर लाल छींटादार लुगड़ी लाने का सपना बचा है। जब तक सपना बचा है, बहुत कुछ बचा है।
उस साँझ शंख की ध्वनि भी जैसे अड़बी पड़गयी थी। जब तक डूँगा मन्दिर में नहीं आयेगा, वह उसे हाँक दे. देकर बुलाती रहेगी। डूँगा में जैसे पूरा करंट लौट आया। वह यूँ खटाक से उठा जैसे पूरी रोशनी के साथ गुलुप भिड़ा। वह और किशोर तेज़क़दमों से मन्दिर में पहुँचे। डँूगा ने चैनल गेट के पास धरी खँजड़ी की ओर देखा, उसे लगा- खँजड़ी उसके इंतज़ार में बावली हो गयी थी। उसके छूते ही यों बोलने लगी- जैसे डूँगा के भीतर ज़ख्मी शदी झूम-झूम कर नाचने लगी।
आरती ख़त्म होने पर भी डूँगा का खँजड़ी बजाना ज़ारी था। खँजड़ी और किशोर की ताली बजना। रामा बा के पाँव के पँजों का ऊपर-नीचे उठना। सबने मिलकर ऐसा समा बाँधा था कि आरती में आये किशोर वय के छोरा-छोरी किलकने लगे थे। पंडित खड़ा-खड़ा देख रहा था। उसे प्रसाद बाँटकर ज़ल्दी जाने की चिंता न थी। पर यह तो डूँगा को ही पता था। वह भक्ति में लीन था या अपनी ख़ुशी में डूबा था। उस रात मन्दिर में खँजड़ी और ताली ही बज रही थी। हो.... हो.... नहीं थी।