लुटेरे राम-नाम के / बलराम अग्रवाल
पात्र सर्जना—
पहली मंडली — महन्त 1, भक्त 1, भक्त 2, भक्त 3, भक्त 4 / चरणदास
दूसरी मंडली — पीठाधीश्वर, भक्त 5, भक्त 6, भक्त 7, भक्त 8
तीसरी मंडली — महन्त 3/महामंडलेश्वर, भक्त 9, भक्त 10, भक्त 11, भक्त 12
चौथी मंडली — इसमें सामान्य वेशभूषा के कितने भी पात्र रखे जा सकते हैं।
एक ग्रामीण — इसका पहनावा ग्रामीण-जैसा ही होगा—धोती और बिना बाजू वाली कपड़े की बनियान। यह बारी तीनों टोलियों में घूमेगा और अपनी सहज बुद्धि से जिज्ञासाएँ रखेगा।
इस नुक्कड़ नाटक में ढोलक, डफली, चिमटा, मंजीरा आदि कीर्तन के साजो-सामान का भरपूर उपयोग होगा। इसलिए जरूरी है कि इन्हें बजा सकने वाले कलाकार ही अभिनय करें या फिर इन्हें बजा सकने वाले कलाकारों की एक टोली को अलग से शामिल रखा जाए।
कम से कम पाँच-पाँच कलाकारों की तीन टोलियाँ बनायी जायेंगी जो अलग-अलग तीन ही स्थानों पर खड़ी की जायेंगी और वहीं से अपना अभिनय शुरू करेंगी। मान लिया कि दर्शक गोल घेरे में खड़े हैं, तब…
गोल घेरे में ही दर्शकों के साथ खड़ी मंडली-1 एकाएक डफली या ढोलक, खंजरी, मंजीरे, चिमटा आदि छोटे आकार के वाद्यों के बजाती हुई अपने बायें ओर चलती हुई गाने लगती है—
महन्त 1 : सीयाराम सीयाराम, सीयाराम सीयाराम…
एक चक्कर पूरा करके ये सब गोल घेरे के केन्द्र में एक ओर आ खड़े होते हैं।
महन्त 1 : तो भक्तजनो, अब आप यह बताइए कि हम में से कोई अगर किसी दूसरे अनजान व्यक्ति से कहीं मिलता है तो अभिवादन के तौर पर क्या शब्द बोलने हैं जिनसे पता चल जाए कि वह भी हमारे ही अखाड़े का सदस्य है अथवा नहीं।
भक्त 1 : राम-राम जी।
महन्त जी 1 : धत्।
भक्त 2 : जै राम जी की।
महन्त जी 1 : हट।
भक्त 3 : नमस्ते जी।
महन्त जी 1 : बेड़ा गर्क।
ग्रामीण : जय हिन्द।
महन्त जी 1 : शटा…ऽ…प। नहीं मालूम तो चुप रहिए। गधे हो सब के सब। यही सब बोलते रहना होता तो हम अलग मंडली क्यों बनाते? बने रहते लकीर के फकीर।
भक्त 3 : तब आप ही निर्देश दीजिए न स्वामी जी।
महन्त जी 1 : गाओ चरणदास।
चरणदास यानी भक्त 4 गाना शुरू करता है।
चरणदास : सीयाराम …सीयाराम सीयाराम सीयाराम । सीयाराम …सीयाराम सीयाराम सीयाराम । सीयाराम …सीयाराम सीयाराम सीयाराम । सीयाराम …सीयाराम सीयाराम सीयाराम ।
महन्त 1 : (चरणदास के गाने के बीच में ही) अभी जो फेरी लगाते हुए गा रहे थे, वह क्या भाड़ झोंकने के लिए था?
भक्त 1: हम समझ गये महन्त जी…
महन्त 1 : क्या ?
भक्त 1 : यही कि क्या बोलना है ?
महन्त 1 : क्या बोलना है ?
भक्त 1: ‘जय सियाराम’ महन्त जी…
महन्त 1 : हाँ…ऽ… हमारे मठ का पहचान मन्त्र है यह…संवाद शुरू करने का कोड। सामने वाला इसके अलावा दूसरा कुछ बोले या ‘जय सियाराम’ सुनकर चौंके, हँसे… तो समझ लेना कि वह हमारे मठ से बाहर का व्यक्ति है ।
सभी भक्त : (एक साथ) जय सियाराम।
महन्त 1 : जय सियाराम।
इसी के साथ दर्शक दीर्घा के गोले में दूसरी मंडली गाती-बजाती दायीं ओर चलना शुरू करती है—
मंडली 2 : सीताराम-सीताराम, सीताराम-सीताराम
सीताराम-सीताराम, सीताराम-सीताराम
ये लोग यानी पीठाधीश्वर, भक्त 5, भक्त 6, भक्त 7, भक्त 8 पूरा एक चक्कर लगाकर दर्शक दीर्घा के जिस किनारे से चले थे, उसी पर जाकर रुक जाते हैं।
भक्त 1 : महन्त जी, वे लोग सीयाराम की बजाय सीताराम का जाप कर रहे थे?
महन्त 1 : वे लोग एक नम्बर के भ्रष्ट ‘सीता’ नामी अखाड़े के मूरख हैं… ।
भक्त 2 : और हम ?
महन्त 1 : … हम एक नम्बर के उच्च स्तरीय ‘सीया’ नामी अखाड़े के भक्त हैं।
भक्त 3 : हम समझे नहीं स्वामी जी। धरम के काम में भी अखाड़ेबाजी?
भक्त 4 : धरम के काम में नहीं भैया जी, राम के नाम में…
महन्त 1 : (दोनों को डाँटता है) अबे चुप…दोनों चुप, एकदम। धरम के नाम में नहीं तो क्या चोरी-चकारी के काम में अखाड़ेबाजी होगी?
ग्रामीण : ‘सीयाराम’ और ‘सीताराम’… दोनों में फरक क्या है स्वामी जी?
महन्त 1 पलभर चुप रहकर अपनी ही मंडली के भक्तों के चारों ओर दो चक्कर काटता है—पहला दाएँ, दूसरा बाएँ। फिर बोलना शुरू करता है—
महन्त 1 : (ऊँची आवाज में) मानो तो देव। न मानो तो मिट्टी का ढेर। मानो तो बहुत बड़ा अन्तर है। न मानो तो कोई अन्तर नहीं है… सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा। चाचा-ताऊ के बालकों जैसा सम्बन्ध है हम दोनों के बीच।
भक्त 3 : सो कैसे ?
महन्त 1 : (सामान्य आवाज में) अब से करीब 100 साल पहले की बात है। ‘सनातन धाम’ नाम के एक बहुत बड़े मठ के संस्थापक महन्त थे—बाबा रामदास। उनके दो बेटे हुए। बड़े बेटे का नाम उन्होंने जानकीदास रखा और छोटे का राघवदास। बाबा रामदास के निधन के बाद…
भक्त 4 : ‘निधन’ क्या होता है महन्त जी ?
महन्त जी 1 : मृत्यु… मौत… बाबा रामदास की मौत के बाद उनकी गद्दी पर राघवदास ने कब्जा जमा लिया और जानकीदास को बाहर का रास्ता दिखा दिया। इस तरह, दोनों भाइयों और उनके चाहने वालों के बीच जूतम-पैजार हो गया…
भक्त 4 : जूतम-पैजार क्या होता है महन्त जी ?
महन्त 1 : झगड़ा… उनके बीच झगड़ा हो गया। खूब लाठियाँ चलीं… त्रिशूल और तलवार चले… दोनों तरफ के सैकड़ों चाहने वाले घायल होकर अस्पताल पहुँच गये। मामला कोर्ट में जा पहुँचा।
भक्त 3 : फिर ?
महन्त जी 1 : राघवदास बहुत चालू था। उसने कुछ भले लोगों को बीच में डालकर उसने जानकीदास को फुसला लिया। कहा कि मामला दो सगे भाइयों के बीच का है, कोर्ट के बाहर आपस में समझौता कर लेते हैं। जानकीदास उसकी चाल में आ गये। लोगों के कहने पर उन्होंने हलफनामा दाखिल कर दिया कि सुलह हो गयी है इसलिए मुकदमा खारिज मान लिया जाए, उन्हें कोई शिकायत नहीं होगी। ऐसा ही हलफनामा राघवदास ने भी दाखिल किया। तय यह था कि सनातन धाम की सारी सम्पत्ति दो हिस्सों में बाँटी जाएगी। लेकिन मुकदमा वापिस होने के बाद राघवदास फिर-से अपनी पर उतर आया। कहा कि दो हिस्सों में बाँटने की बात हुई थी, बराबर-बराबर दो हिस्सों में बाँटने की बात नहीं हुई थी। बीच-बचाव कराने वाले बुजुर्गों की बात भी उसने नहीं सुनी। बड़े भाई को एक धर्मशाला और खेती के लायक कुछ जमीन ही देने को राजी हुआ। जानकीदास झगड़ालू नहीं थे, मान गए। मठ के अपने वाले हिस्से का नाम उन्होंने रखा—बाबा रामदास सेवा आश्रम। उधर, राघवदास ने, मठ के बचे हुए हिस्से का नाम बदलकर रखा—राघवदास योग साधना पीठ। आप सभी भक्तों को हम बता दें कि इनमें महन्त जानकीदास हमारे पूज्य पिताजी थे। उस आश्रम के चेलों का यानी हमारा बीजमन्त्र है—‘सीयाराम’… और झगड़ाखोर महन्त राघवदास के चेलों ने हमारी नकल पर बीजमन्त्र रखा है—‘सीताराम’।
भक्त 3 : वो योग साधना भी सिखाते हैं ?
महन्त 1 : योग उनके साले का नाम था और साधना उनकी पत्नी का।
भक्त 3 : और पीठ ?
महन्त 1 : पीठ उनकी गुंडई से मजबूत है।
भक्त 4 : आप कितने भाई-बहन हैं स्वामी जी ?
महन्त 1 : बाबा रामदास की कृपा से हम अकेले ही सन्तान हैं अपने पूज्य पिताजी की। न कोई भाई, न कोई बहन। सम्पत्ति के बँटवारे का कोई झगड़ा-टंटा ही नहीं। …
ग्रामीण : (आश्चर्य से, स्वगत) इतने बड़े महन्त की औलाद के बीच भी धन-दौलत और गद्दी के अधिकार को लेकर झगड़ा…मुकद्दमा…बेईमानी!!!…गद्दी और धन-दौलत बँट जाने का डर ?
इसी के साथ दर्शक दीर्घा के किनारे बैठे दूसरी मंडली के सदस्य खड़े होकर बोलना शुरू कर देते हैं। पहली मंडली के लोग फ्रीज हो जाते हैं। ग्रामीण भागकर दूसरी मंडली के साथ जा खड़ा होता है।
पीठाधीश्वर : गद्दी हो और झगड़ा न हो, यह तो हो ही नहीं सकता।
भक्त 6 : इन्द्र के जमाने से चला आ रहा है गद्दी को पाने और बचाने का झगड़ा।
भक्त 7 : धृतराष्ट्र और पांडु के जमाने में भी था यह झगड़ा।
भक्त 8 : इस झगड़े का सम्बन्ध बुद्धि, चतुराई, साहस और बल से है; परम्परा से चले आ रहे अधिकार से नहीं।
पीठाधीश्वर : खैरात में मिले अधिकार में और छीनकर लिए अधिकार में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। अपने आश्रम की सम्पत्ति को हमारे पूज्य पिताश्री महन्त सीतानाथ ने लड़कर छीना है। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए हम हजार बार भी अपनी जान कुर्बान करें तो कम है। सी…ऽ…तारा…ऽ…म।
भक्त 5, 6, 7 व 8 : (मंडली 1 के लोगों की ओर आक्रामक मुद्रा मुट्ठियाँ हवा में तानकर एक साथ) सी…ऽ…तारा…ऽ…म।
ग्रामीण : (सोचने की मुद्रा में खड़ा रह जाता है। फिर, स्वगत) यह टोली भक्तों की है या आत्मघाती दस्तों की !!!
यों कहता हुआ पुन: पहली मंडली के साथ आ खड़ा होता है। तभी महामंडलेश्वर की अगुआई में भक्त 9, 10, 11, 12 की एक तीसरी मंडली वानरों की तरह उछलती-कूदती, हुड़दंग मचाने की मुद्रा में कीर्तन गाते हुए गोले में घूमना शुरू करती है—
मंडली 3 : जय स्रीराम जय स्रीराम जय स्रीराम जय स्रीराम
जय स्रीराम जय स्रीराम जय स्रीराम जय स्रीराम
ग्रामीण : स्वामी जी, इन्होंने तो ‘राम’ के साथ से ‘सीया’ और ‘सीता’ दोनों को ही गायब कर दिया!
महन्त 1 : पागल हैं हरामजादे। बाबा तुलसीदास ने कहा है—सियाराममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥…जब सारा संसार ही ‘सियाराम’मय है तो इधर उधर का वितंडा फैलाने की जरूरत क्या है भाई।
महन्त 1 का यह संवाद पूरा होते ही महन्त 3 यानी महामंडलेश्वर और उसके अनुयायी अपने स्थान पर रोष की मुद्रा में खड़े हो जाते हैं। महन्त 1 और उसके भक्त फ्रीज हो जाते हैं।
महामंडलेश्वर : (मुट्ठी को हवा में खड़ी करके) जय स्रीराम…
भक्त 9, 10, 11 और 12 : (महामंडलेश्वर का अनुकरण करते हुए, एक साथ) जय स्रीराम।
महामंडलेश्वर : कौन मूरख ‘जय स्रीराम’ के उद्घोस को वितंडा कहने का दुस्साहस कर रहा है। इस मन्तर को वितंडावाद बताने वाले कान खोलकर सुन लें…बाबा तुलसीदास ने अपनी रामायन में घोसना करी है कि—राम सकल नामन ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥
भक्त 9 : (महन्त 3 के कान में फुसफुसाकर) तुलसीदास ने रामायन नहीं लिखी गुरु जी, उन्होंने रामचरितमानस लिखी है।
महामंडलेश्वर : (फुसफुसाकर डाँटते हुए) चुप। हजार बार समझाया है कि परवचन के बीच में टोका मत करो। सपीकर पर बैठे होते हैं हम। माईक लगे होते हैं चारों तरफ। जिनकी पकड़ में हमारी गलती न आई हो, टोके जाने पर वो भी पकड़ में आ जाती है। उधर ही ध्यान चला जाता है जनता का। (प्रकट में) तो प्रिय सज्जनो ! इस संसार रूपी जंगल में पापरूपी पच्छियों को मारने वाला केवल और केवल एक ही नाम है, और वह है…जय स्रीराम।
भक्त 10 : (महामंडलेश्वर के दायें कान में फुसफुसाकर) गुरु जी, वो सामने ‘जय सियाराम’ वाले खड़े हैं अपने चेलों के साथ।
भक्त 11 : (महन्त जी 3 के बायें कान में फुसफुसाकर) और उधर देखिए गुरु जी, वहाँ ‘सीताराम’ वाले भी खड़े हैं।
महामंडलेश्वर : लूट-खसोट के मुखिया हैं दोनों। एक महन्त बना बैठा है और दूसरा पीठाधीश्वर। भोली-भाली जनता की कोमल भावनाओं को भड़काकर उससे धन ऐंठने के अड्डे बन चुके हैं इनके मठ, पीठ और आसाराम। चाचा-ताऊ की औलाद हैं दोनों; उधर देखना भी पाप है…
भक्त 9 : आसाराम नहीं, आसरम लिखकर दिया था गुरुजी…
भक्त 12 : (धीमे स्वर में डाँटते हुए) चुप। क्या समझाया था अभी-अभी। सपीकर पर मत टोका करो। (प्रकट में) चाचा-ताऊ की औलाद हैं वे दोनों। उधर देखना भी पाप है।
भक्त 12 : (शान्त स्वर में) लेकिन गुरु जी, चन्दा तो हम भी लेते हैं ?
महामंडलेश्वर : (उग्र स्वर में) लेते नहीं, लूटते हैं।
भक्त 9-10-11-12 : (आश्चर्य से, एक साथ) लूटते हैं !!!
महामंडलेश्वर : हाँ…राम-नाम का ‘अनमोल’ खजाना लुटाकर हम मोह-माया में फँसाए रखने वाली नस्वर धन-सम्पत्ती लोगों से लूटते हैं…क्या बुरा करते हैं?
महामंडलेश्वर की बात सुनकर ग्रामीण अपना सिर खुजाता-सा चारों ओर घूमने लगता है।
ग्रामीण : (चारों ओर खड़े दर्शकों को सम्बोधित करते हुए) कोई राम-नाम के ‘प्रेम से’ (‘प्रेम’ शब्द पर जोर डालकर महन्त 3 की नकल करता है) लूट रहा है तो कोई डरा-धमकाकर। आपस में द्वेष, जलन और गुस्से को छोड़ने का उपदेश देने वाले ये संन्यासी, आश्रम और मठ ही मोह-माया में सबसे ज्यादा इनमें डूबे हैं। न कोई ‘सीयारामी’ है न ‘सीतारामी’ न ‘श्रीरामी’…सब के सब राम-नाम के लुटेरे घूम रहे आपके…आपके…आपके बीच। (व्यंग्यपूर्ण स्वर में) ‘माया’ किसको बुरी लगती है भाई!!! लेकिन, कबीर की छह सौ साल पुरानी वाणी क्या नहीं देती सुनाई…?
ग्रामीण की अन्तिम पंक्तियों के साथ ही ढपली पर थाप पड़ती है और दर्शकों के बीच से निकलकर मंडली-4 ढपली बजाती-गाती बाकी तीनों मंडलियों को चिढ़ाती हुई, उन्हें मारने-पीटने की मुद्रा बनाती-सी चारों ओर घूमने लगती है। ग्रामीण भी उन्हीं के साथ गाता हुआ नाचने लगता है—
माया महा ठगनी हम जानी।।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै बोलै मधुरै बानी।
केसव के कमला हुइ बैठी, शिव के भवन भवानी।
पंडा के मूरत हुइ बैठी, तीरथ में भइ पानी।
योगी के योगन हुइ बैठी, राजा के घर रानी।
साहू के हीरा हुइ बैठी, काहू के कौड़ी कानी।
भगतन के भगतिन हुइ बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्माणी।
कहे कबीर सुनो भई साधो, यह सब अकथ कहानी।
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