लुनाई बनाम खुरदरापन / जयप्रकाश चौकसे

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लुनाई बनाम खुरदरापन
प्रकाशन तिथि : 08 मई 2013


आजकल नवाजुद्दीन सिद्दिकी के चर्चे उसी तरह गरम हैं जैसे कभी नसीरूद्दीन शाह और ओमपुरी के हुआ करते थे तथा इरफान खान के भी होते रहे हैं। हिन्दुस्तानी सिनेमा के हर खंड में कुछ उन प्रतिभाशाली कलाकारों के चर्चे हुए हंै जिनकी शक्ल पारम्परिक नायक की नहीं है और जो सिनेमा में अपने गोरे रंग व चिकनी त्वचा के कारण नहीं वरन् अभिनय प्रतिभा के लिए जाने गए हों। गोया कि लुनाई के साथ खुरदरापन भी सफल होता है। कहानी हो या कलाकार सफल होने का कोई फार्मूला नहीं है। प्रारंभिक दौर में अजीत, कन्हैयालाल चतुर्वेदी, किशोर साहू, रंजन, सज्जन, याकूब तथा शेखमुख्तार अपने खुरदरेपन के साथ लम्बी पारी खेल चुके हैं और बलराज साहनी तो चालीस के करीब की उम्र में फिल्मों में आए थे। मराठी रंगमंच और सिनेमा में नीलू फुले, अमरापुरकर इत्यादि अनेेक लोगों ने बहुत अच्छा अभिनय किया है। इन तमाम लोगों को अपनी अभिनय प्रतिभा पर यकीन था और उसके दम पर अपनी छवि गढऩा वे जानते थे। शक्ल सूरत पर आदमी का बस नहीं चलता परन्तु सीरत उसकी अपनी होती है और वही मनुष्य की असली पहचान भी है।

सिनेमा के बारे कुछ चीजें ऐसी प्रचारित हो जाती हैं कि उन्हें सच मान किया जाता है और चाकलेटी चेहरा या लुनाई भी प्रचारित हैं। सिनेमा ने दिलीप कुमार को अपनाया तो दारासिंह को भी सितारा बनाया और मिथुन मृगया के जनजाति युवक के किरदार से लेकर आज तक चल रहे हैं। कमल हसन और रजनीकांत भी पारम्परिक लुनाई वाले नहीं हैं। ओम पुरी ने कितना लंबा संघर्ष करके नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा और पूना संस्थान में प्रशिक्षण लिया। लगभग दर्जन भर विदेशी फिल्मों में काम कर चुके हैं। और ब्रिटेन में अपने से समझे जाते हैं। इसी तरह इरफान खान को भी विदेशों में खूब सराहा गया है। ओम पुरी और इरफान खान विदेशी फिल्मों में अपनी प्रतिभा के कारण लिए गए। अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान भी पारम्परिक लुनाई लेकर नहीं आए थे परन्तु अपने परिश्रम और प्रतिभा से शिखर स्थान प्राप्त किया।

यह भी अजीब इत्तेफाक है कि लुनाई कभी विदेशों में नहीं चली, वहां खुरदरापन ही चला है। नसीरूद्दीन शाह ने पायरेट्स इत्यादि में काम किया है परन्तु उन्हें ओमपुरी व इरफान खान की तरह नायक की भूमिका नहीं मिली और यह उनकी कमतरी नहीं है। कई बार प्रतिभाशाली लोगों को भी अवसर नहीं मिलता। दरअसल, सही समय पर सही लोगों से मुलाकात हो जाना बंद गुफा के द्वार खोल देता है। बहरहाल, नवाजुद्दीन सिद्धिकी उत्तर प्रदेश के छोटे से कस्बे से दिल्ली आए जहां नाटक देखकर उन्हें लगा कि अभिनय ही उनकी मंजिल है। इस मंजिल को पाने के लिए वे कहां- कहां से गुजरे ये वे ही जानते हैं। आमिर खान के लिए अनुशा रिजवी की पीपली लाइव में उन्होंने ध्यान आकर्षित किया? उन्होंने कई ऐसी फिल्मों में अभिनय किया जो प्रदर्शित नहीं हो पाईं परन्तु उनके काम के बारे में चर्चा होती रही और सुजॉय घोष की कहानी में सीबीआई अफसर के रूप में वे लाइमलाइट में आए। अनुराग कश्यप की गैंग्सऑफ वासेपुर जितनी सुर्खियों में रही उतनी थिएटरों में नहीं चली परन्तु नवाजुद्दीन सिद्दीकी को एक खास मकाम मिला गया। आमिर की तलाश में भी वे सराहे गये। हाल ही में प्रदर्शित बाम्बे टॉकीज में सदीप बनर्जी द्वारा निर्देशित लघु फिल्म के नायक और नवाजुद्दीन के जीवन में कुछ साम्य है। इसमें आप ओमपुरी की झलक भी देख सकते हैं। ऐसा लगता है कि नवाजुद्दीन ने अखबारों में छपी समालोचना विशेषकर मुंबई के अंग्रेजी अखबारों को चलाकर स्वयं पैसे कमाए हैं। प्रतिभाशाली व्यक्ति का भी पेट होता है। उसे भी आरामदायक रैनबसेरा चाहिए, इसलिए वे व्यावसायिक फिल्में भी करते हैं और महानता के मायाजाल से मुक्त होकर माया प्राप्त करते हैं। मुख्य मार्ग के आसपास की सारी पतली गलियां उसी से मिलने को बेकरार रहती हैं।

सार्थक फिल्मों के साथ मसाला फिल्में करने में कोई हर्ज नहीं है।प्रतिभा को मांजने के लिए नायलोन के ब्रश के साथ तारों का खरीरा भी इस्तेमाल किया जा सकता है और एक जमाने में तो राख से ही बर्तन मांजते थे। असली परीक्षा मसाला फिल्म में अधूरे चरित्र चित्रण वाले किरदार को सफलता से निभाने में हैं।