लूट सके तो लूट / सुशील यादव

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"राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट

अंत काल पछताइहे , प्राण जाइहे छूट"

राम नाम को लूटने की परंपरा का विगत बीस पच्चीस सालो से ह्रास हो गया है| जिन मंदिरों में ले जाकर, दादा-दादी बच्चो को राम-नाम का इंजेक्शन दिया करते थे,वहाँ बच्चो का जाना कम हो गया| प्ले –ग्रुप, के. जी.स्कूल से लेकर मास्टर डिग्री तक बच्चो को पढाई के बोझ से फुर्सत नहीं| दादा-दादी बच्चों को अगर मंदिर ले जाने के लिए तैयार करते हैं, तो ऍन चलते वक्त माँ-बाप बच्चो को आखे दिखा देते हैं, राहुल, होमवर्क हो गया? पिंकी प्रोजेक्ट का काम फिनिश कर लेते बेटा, फिर मंदिर की सोचना? मंदिर जो राम-नाम की पाठशाला हुआ करती थी, बच्चो के बचे हुए समय में भी समा नही रहा|

बच्चे, स्कूल–होमवर्क के बाद टी.वी.,चैट,एस.एम.एस, आई.पी.एल.और नेट में बीजी श्येड्यूल बनाए बैठे हैं|

राम के नाम को लूटने की परवाह ही नहीं?

व्यस्तता इतनी कि ट्यूशन आते-जाते भी दर्जनों मंदिर आ जाते जिन्हें वे जानते भी नहीं|

हमारे समय में, हम लोग एक पत्थर को हाथ भी जोड़ के मन ही मन कई बातें बुदबुदा लेते थे| किसी पेड़ को प्रणाम कर लेना, सूरज को अर्ध्य देना, सुबह उठ कर, धरती मैय्या को, आस्था के साथ स्पर्श करना, अपने-आप हो जाता था|

हम लोग सही मायने में राम-नाम को, ‘राम-नाम सत्य’ हो जाने तक तन-मन से जपते थे|

आजकल राम-नाम पर, एक पार्टी का एकाधिकार हो गया है| पार्टीवाले रामनामी पिटारे को हर पांचवे साल इस उम्मीद से खोलते हैं, कि ‘दो’ से ‘दो-सौ’ सांसद वाला, चमत्कार अयोध्यावासी के हाथों में अब भी है|

वे राम-नाम को लूटने कि बजाय वोटरों को लूटने की तरफ चल देते हैं| “मन्दिर वहीं बनायेगे”..... का जबरदस्त नारा उछालते हैं| जनता बेचारी जान ही नहीं पाती कि, वहीं बनाना था तो तोड़ा क्यों?बेचारे राम, कुटिया-नुमा गुम्बद के नीचे सुरक्षित तो थे|

पहली बार ‘अयोध्यावासी’ पता नहीं सचमुच भ्रम में आ गए, कि देखो, भक्त मेरी गिरती साख को, किस भक्तिभाव से बचाने पर तुला है|

लोग एक नारियल चढा के घर-परिवार के लिए क्या-क्या मांग लेते हैं, ये मेरा भव्य मंदिर बनवाने के नाम पर तुच्छ ‘वोट’ ही मांग के संतुष्ट हो रहे हैं|

वे वोटो की सुनामी ला दिए|

भक्त गदगद|

राम नाम को तरीके से लूटो तो आपका कल्याण अवश्य है|

जैसे उनके दिन फिरे ......

वैसी भक्ति आप की भला क्यों नहीं हो सकती?

इति,भक्ति-भाव, और भक्ति मार्ग का प्रथम अध्याय समाप्त|

आइये ‘लूट सके तो लूट’ पर चर्चा की जाए| सन सैतालिस के बाद, लूटने के इतिहास पर गौर किया जावे तो बेचारे ‘महमूद गजनवी’ का उनके देश में एक्सप्लेनेशन पूछ लिया जावे, ’खाली हाथ वापस आ गए’ ‘ देश का नाम मिट्टी में मिला दिया, कमीने’| जहां तू लूटने गया था, क्या नहीं था वहाँ?

तुझे दो-चार मुकुट,मुट्ठी-भर हीरे-जवाहरात ही दिखा तुझे?

देखना था तो घपले वाला, बाँध देखा होता,

वीरप्पन वाले चन्दन के जंगल देखे होते,

यदुरप्पा टाइप माइनिग खंगाला होता? रेल के ठेके,कोयला खदान की दलाली देखी होती|

सुखराम के संचार, राजा के ‘टू जी –थ्री जी’ के लिए इन्तजार किया होता?

कहाँ गए थे, वे हथियार के सौदे,ट्रांसपोर्ट में , बिजली में , मिड डे मील,नरेगा-वरेगा सब जगह तो इफरात पैसा था, पाने को|

ठहर के वेट तो करना था, क्या जल्दी थी वापस आने की?

घोड़े, भूखो तो नहीं मर रहे थे?

दो एक पीढ़ी तू रह लेता तो सौ पीढ़ियों का इन्तिजाम हो जाता| खूटे से रस्सी तोड़ के भाग आया छि’.......

एक तेरे वहां रहने से आज हम लोग स्विस बैंको के मालिक होते, सुपर पावर होते, दुनिया हमारे इशारों पर नाचती? गधे तुने क्या किया?

इंडिया जैसे ‘लूट के स्वर्ग’ को जहाँ, साधू के भेष में लूटने का स्कोप है, छोड़ आया बेवकूफ .......|

इति,

दूसरे अध्याय को, ‘हरी अनंत हरी कथा अनन्ता’ की तरह खुला छोड़ दिए देता हूँ.....संतन|

राजनीति में, जो अपने ‘काल के अंत’ को करीब आते देख रहे हैं या जिनके पाँव कब्र पर लटके हुए से हैं; वे सब अब पछताने के मूड में हैं|

हमारे यहाँ ‘पछताना’ एक क्न्सोलेशन प्राइज की तरह है| यहाँ, क्यों कि, कुर्सी एक, दावेदार अनेक, एक ने लिया तो बाक़ी को सिवाय पछताने के कुछ नहीं|

अगर आप ढंग से पछता नहीं सके तो बी.पी.-अटेक का ख़तरा सामने, ऊपर का जल्दी बुलावा सामने?

पछतावा तो, किसी की तरक्की देख के भी बहुत होता है|

स्साले में अक्कल, दो कौडी भर की नहीं, देखो कहाँ से कहाँ पहुच गया?

हमारे माँ-बाप कहाँ थे? म्युनिस्पेलटी के स्कूल में नौकरी दिला के अपने कर्तव्यों की इति-श्री कर ली ?

पछतावा तो तब भी होता है, जब सदन में पता लगता है अमुक ने ‘इतने सस्ते’ में जमीन ले ली और ‘इतने महंगे’ में बेच दी| हमे लगता है कि एक-आध बिना पैसा लगाए अगर मिल रही थी तो हम भी खरीदे होते|

आजकल अखबार पढ़ो, टी.वी. न्यूज देखो, सदन की कारवाही सुनो तो ‘पछतावा’ करने या कोसने के सिवा कुछ भी नहीं बचता|

“आछे दिन पाछे गए.....” की रट लगा के, दिल्ली की राजनैतिक सूरत बदलते देखने वाले,’भ्रष्टाचारी’ यदि अपना-अपना बोरिया –बिस्तर समेट लें, अपना टेंट –तम्बू उखाड़ लें, तो समझिये राम के नाम की सतयुगी लूट की संभावना आगे है|

एक बार फिर, जी कहता है,आदमी के स्वभाव में ‘पछतावा’ भी ‘हरी अनंत, हरी कथा अनन्ता’, की तरह सब के रोम-रोम में विस्तारित है| आदमी अपने भीतर झाँक के देखे तो सही|

अंतहीन, ये कथा तब तक चलेगी जब तक ‘जी-प्राण’ है|