लेकिन गायब रोशनदान: उजाले की तलाश करती हुई गजलें / हरेराम समीप

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ग़ज़ल साहित्य में छोटी बहर की ग़ज़लें लिखने वाले महज चन्द शायर ही हुए हैं, वहीं हिन्दी में तो एकमात्र विज्ञान व्रत ऐसे ग़ज़लकार हैं, जो सिर्फ छोटी बहरों में और वह भी सीमित बहरों में ही ग़ज़लें लिखते हैं। इसलिए विज्ञान व्रत एक अलहदा शैली के ग़ज़लकार माने जाते हैं। आज तो उनकी तरह की ग़ज़लें लिखने का चलन-सा दिखाई देता है। इस तरह उन्होंने हिन्दी ग़ज़ल को नयी शैली, नयी भंगिमा और नए तेवर प्रदान किए हैं।

विज्ञान व्रत का जन्म 17 अगस्त 1943 को उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के टेरा गाँव में हुआ। चित्रकला में स्नातकोत्तर उपाधि लेकर उन्होंने केन्द्रीय विद्यालय, नई दिल्ली में अध्यापन करते हुए चित्रकारी की। उनकी अब तक अनेक चित्रकला प्रदर्शनियों का आयोजन हो चुका है। साथ ही उन्होंने गीत व ग़ज़ल लेखन किया। अनेक प्रख्यात ग़ज़ल गायकों द्वारा उनकी ग़ज़लों का गायन भी हुआ है। 'चुप की आवाज' शीर्षक से उनकी ग़ज़लों का एक अल्बम प्रसारित व चर्चित हुआ। उनकी ग़ज़लें हिन्दी की लगभग सभी स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं। अब तक उनके बारह ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनके नाम हैं-बाहर धूप खड़ी है, चुप की आवाज, जैसे कोई लौटेगा, तब तक हूँ, मैं जहाँ हूँ, लेकिन गायब रोशनदान, मेरा चेहरा वापस दो, याद आना चाहता हूँ, शर्मिन्दा पैमाने थे, मेरे वापस आने तक, किसका चेहरा पहना है और भूल बैठा हूँ जिसे। इसके अतिरिक्त उनका एक दोहा-संग्रह, एक नवगीत संग्रह तथा एक बालगीत संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। उन्हें अपने लेखन और चित्रकला पर देश और विदेश में अनेक पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।

'लेकिन गायब रोशनदान' उनके पिछले संग्रहों की 92 प्रतिनिधि ग़ज़लों का संग्रह है, जो 2020 में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह के माध्यम से हम उनकी रचनाशीलता की एक छवि आसानी से देख सकते हैं। आइए, इस किताब की यात्रा करते हुए हम उनकी रचनाशीलता तथा उनके काव्य-सरोकारों से परिचित होते हैं। सबसे पहले अपने बारे में आये उनके चन्द शेर पेश हैं-

मैं कुछ बेहतर ढूँढ रहा हूँ

घर में हूँ, घर ढूँढ रहा हूँ

घटना उसके साथ घटे

और लगे मुझको अपनी

जंग लगा दरवाजा हूँ

मैं मुश्किल से खुलता हूँ

रख अपने पैमानों को

मेरे अपने पैमाने

मैं था तन्हा एक तरफ

और ज़माना एक तरफ

वसुधैव कुटुम्बकं की विराट भारतीय संस्कृति को लेकर कहा गया यह शेर यहाँ गौरतलब है–

एक मुश्तरका रक़बा हूँ

जाने किसका कितना हूँ

अपनों के बीच भी वह यही पारदर्शिता की अपेक्षा करते हैं-

या तो मुझसे यारी रख

या फिर दुनियादारी रख

यहाँ दुनियादारी से उनका आशय उस समझौतापरस्त, आत्मकेंद्रित सोच है, जो एक व्यक्ति में केवल अपना ही हित पूरा करने में लगी होती है जबकि यारी या दोस्ती निश्छल व निस्वार्थ सम्बन्ध का नाम है। इसी क्रम में दुनियादारी की निर्मित परिभाषाओं से अलग कवि अपने वजूद को एक प्रखर अपवाद कहकर स्पष्ट करता है:

उसकी सब परिभाषाओं में

एक प्रखर अपवाद रहा मैं

खुशहाली जैसे कहीं हमसे खो गई है, जिसकी खोज की जानी है-

सूरज कब से उलझा है

अंधे रोशनदानों में

आज की ग़ज़ल अपने सामने चलती-फिरती ज़िन्दगी की कामेंट्री है। इसके प्रति हम आँख-कान बन्द नहीं कर सकते। इस ज़िन्दगी में कदम-कदम पर लड़ाई है और ये सही भी है कि इस लड़ाई को गहराई से समझे बिना नहीं जीता जा सकता है-

आखिर उसको मौत मिली

सच कहता था क्या करता

यह शेर एक तरफ तो सच के प्रति एक व्यक्ति की निष्ठा का गुणगान करता है, वहीं उस समाज की विसंगति की ओर भी हमारा ध्यान खींचता है, जहाँ सच बोलने वालों को मार दिया जाता है। यहाँ विज्ञान का व्यक्तित्व उनकी ग़ज़लों में घुलकर अभिव्यक्त हुआ है। पाठक ऐसे शेर आत्मीयता से ग्रहण करता है और जो शेर आत्मीयता पैदा करता है, वह सदा के लिए लोक का अंग बन जाता है। ऐसे शेर जनता के दिल व दिमाग पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। वह सूली पर चढ़ने से नहीं घबराता; क्योंकि वह तो शहादत है, जो अमर कर देती है-

सूली होती सूली तो

मार न देती ईसा को

चारों जानिब तीर-कमान

मैं तन्हा नन्ही—सी जान

विज्ञान अपने रहनुमाओं अपने हुक्मरानों को खूब समझता है, तभी यह कह उठता है-

ऊँचे लोग सयाने निकले

महलों में तहखाने निकले

जिनको पकड़ा हाथ समझकर

वो केवल दस्ताने निकले

यहाँ विज्ञान का इशारा उन अभिजन, कुलीन और सरमाएदारों की ओर है, जो अपने से नीचे के लोगों को मनुष्य तक नहीं समझते। समाज के निचले तबके के जीवन संघर्ष को विज्ञान व्रत शिदद्त से महसूस करते हुए कहते हैं-

सीखे भूखे चेहरे पढ़ना

पूरा तंत्र निरक्षर क्यों है

सीधी सादी बात इकहरी

हम क्या जानें लहजा शहरी

गाँव में जो घर होता है

शहरों में नंबर होता है

महानगरीय संस्कृति में व्यक्ति भाग-दौड़ में ऐसा उलझ होता है कि घर और दफ्तर में फर्क नहीं कर पाता-

ख़ुद को ही खो बैठे हैं

हम घर के सामानों में

सहरा में सागर ढूँढेगा

बस्ती में वह घर ढूँढेगा

पापा घर मत लेकर आना

रात गए बातें दफ्तर की

घर में पूरी दुनिया रक्खूँ

लेकिन ख़ुद को कितना रक्खूँ

एक ज़रा—सी दुनिया घर की

लेकिन चीजें दुनिया भर की

आ चुप की आवाज सुनें

चल गूँगे से बात करें

आज के इस गूँगे होते समय की चुप्पी में ग़ज़लकार विज्ञान व्रत का यह शेर बहुत बड़ी बात कह जाता है। व्यक्ति से लेकर समाज और देश से सम्पूर्ण विश्व में जो विकराल समस्या खड़ी है, वह है संवादहीनता की। आजकल लोग इतने आत्मकेन्द्रित हो रहे हैं कि किसी को किसी की फिक्र नहीं है। भाषा, जाति, धर्म और जमीनों व वर्चस्व के नाम पर गूंगे बने लोग लड़ रहे हैं। इस शेर के माध्यम से विज्ञान व्रत का आग्रह है कि चिन्तनशील व सृजनशील वर्ग के बीच यह शेर प्रतिनिधि विचार बनकर हमारी चेतना को उद्वेलित करता रहे। सच्चाई यही है कि हर व्यक्ति आज इसी गूँगे वक्त से रोजाना दो-चार हो रहा है।

बाज़ार ने हमारे विवेक पर हमारे सपनों पर हमला किया है। विज्ञान बड़ी सूक्ष्मता से इसे परखते हैं-

ख़्वाब न भीतर आने पाए

दरवाजे पर कौन खड़ा था

वरना गुम हो जाएगा

ख़ुद को ठीक ठिकाने रख

जीवन की विषम स्थिति पर इसी संग्रह का ये शेर भी पढ़ें-

जीना मरने जैसा है

मेरी बस्ती आकर देख

एक सभ्यता गूँगी बहरी

आकर मेरी बस्ती ठहरी

जाने कितनी बार मरा

वह आखिर मर जाने तक

कमाल तो यह है कि विज्ञान अपनी तरफ से कोई बड़ी बात नहीं बोलते; बल्कि किसी बड़ी बात का ऐसा सूत्र पाठक के पास छोड़ जाते हैं कि वह शेर उसके पास ठहर जाता है, उसका आत्मीय हो जाता है और वह शेर के आईने में अपने जीवन को देखने लगता है-

सिर्फ उजालों से क्या होगा

कालिख भी तो घर की पोंछो

यहाँ 'घर' उपमान की आवृत्ति अधिक है; लेकिन विज्ञान के लिए यह इसलिए जरूरी है; क्योंकि वे मानते हैं कि घर हमारा सच है और यह सच कैसे-कैसे तथा कहाँ-कहाँ हमें जीवनानुभूति प्रदान कर सकता है, यह देखने की बात है-

तुम हो तो यह घर लगता है

वरना इसमें डर लगता है

रहने दो ही परिभाषाएँ

घर का मतलब घर होता है

यहाँ किसी आत्मीय की उपस्थिति घर का पर्याय बन गई है। विज्ञान ने सम्बंधों के केन्द्रस्थल 'घर' को ग़ज़ल के विमर्श में पहली बार शामिल किया है। वास्तव में विज्ञान व्रत मन के भीतर की दुनिया अर्थात रिश्तों के पुंज को 'घर' शब्द से अभिहित करना चाहते हैं। वे बाहरी राजनीतिक, सामाजिक समस्याओं, विडम्बनाओं तथा अंतर्विरोधों के स्वरूप को समझने का बुनियादी आधार भी इसी 'घर' को ही मानते हैं।

'ढूँढ' शब्द की जो आवृत्ति भी इनकी ग़ज़लों में बार-बार होती है। वह रचनाकार की शाश्वत तलाश की सूचना देती है। उनकी इसी तलाश की सकारात्मक परिणति उनके इन शेरों में हुई है-

उसका अंबर ही अंबर था

एक दिशा थी और सफ़र था

मैं खिड़की वह परदा है

देखो तो क्या रिश्ता है

आम आदमी की नगरीय जीवन की जद्दोजहद पर यह शेर कितनी बड़ी विडम्बना का खुलासा कर देता है-

घर हो जाने की ख्वाहिश में

बस घर का सामान रहा हूँ

वह घर का सामान ही नहीं होता बल्कि इस फैलते महानगरों के तथाकथित विकास की कलई खोलते उनके इन बहुअर्थी अशआर को भी देखें-

घर तो इतना आलीशान

लेकिन गायब रोशनदान

एक शहर हो जाने में

कितने गाँव मरे होंगे

हमारे समाज में बढ़ते सांप्रदायिक विद्वेष पर वे कितने मार्मिक शेर कहे हैं, जहाँ धर्म को निरन्तर भय के धंधे में तब्दील किया जा रहा है-

घर के आगे पूजाघर है

देखो उसको कितना डर है

बच्चे भूले शैतानी

ऐसा कौन घरों में था

मजहब कर्ज वसूलेगा

लेगा और लहू लेगा

इतनी नफ़रत अलगाव, हिंसा और जीवन की अनेक विद्रूपताओं के बीच आदमी की अस्मिता व पहचान के लिए विज्ञान व्रत की छटपटाहट महसूस होती है। वह सतत अपनी परम्परा अपनी संस्कृति और अपनी पहचान की खोज में कबीराना अंदाज़ में ख़ुद में गुम हो जाना चाहता है-

मैंने ख़ुद को ढूँढा है

ख़ुद में गुम हो जाने तक


बरसों ख़ुद से रोज़ ठनी

तब जाकर कुछ बात बनी

पहले ख़ुद से तो निबटूँ

फिर इस दुनिया को देखूँ

कोई रिश्ता बेहतर ढूँढो

ख़ुद को अपने अंदर ढूँढो

अध्यात्म और दर्शन तथा सूफीवाद से प्रभावित उनके अनेक शेर हैं, जो आत्मपरक शैली में लिखे गए हैं-

दिल भी वह है धड़कन भी हो

चेहरा भी वह दर्पण भी हो

रिश्तों में ईमानदारी का बेहतरीन शेर-

मुझको अपने पास बुलाकर

तू भी अपने साथ रहा कर

यहाँ ग़ौर करना होगा कि उपर्युक्त तीनों शेरों में एक शेर की सम्पूर्ण विशिष्टताएँ समाहित हैं। वास्तव में विज्ञान का शायर तकलीफ़ से पैदा हुआ है। किसी गहरी टीस से जन्मा है, जो भोगा है वही ऐसे दमदार शेर कह पाता है-

तपेगा जो। गलेगा वो

गलेगा वह। ढलेगा वह

उसने ख़ुद को खर्च किया

और बताए आमदनी

जैसा मैंने पहले भी ज़िक्र किया था, विज्ञान व्रत एक शाश्वत तलाश में रहते हैं। एक शेर में तो वे उस चादर की तलाश में मिले जो उनके क़द के साथ बढ़े। इसी भावबोध के कुछेक शेर यहाँ भी ध्यातव्य हैं। जैसे-सूफियाना अंदाज में आईं उनकी अनेक ग़ज़लें हैं, उनसे कुछ शेर-

ढूँढना क्या है मुझे अब

मैं जहाँ हूँ तू वहाँ है

सामने हैं आप लेकिन

आप तक रस्ता कहाँ है

दरवाजे पर बैठा हूँ

जैसे कोई लौटेगा

पहचानी आवाज़ लगी

शायद कोई अपना है

उनसे तो अब क्या पूछूँगा

मैं ख़ुद को ख़ुद ही ढूँढूँगा

मेरे कद के साथ बढ़े

ऐसी चादर ढूँढ रहा हूँ

जब कभी किसी शेर में कुछ अव्यक्त रह जाता है, तो वह शेर एक गूँज की तरह लम्बे समय तक पाठक के मन में बरकरार रखता है, यही इबहाम है। उपर्युक्त शेर में यह अव्यक्तता मौजूद है। इनकी ग़ज़लों में झाँकने के लिए उनके ये शेर वे झरोखे हैं, जहाँ से विज्ञान व्रत के अंतस को जाना और समझा जा सकता है-

रिक्शेवाले का सपना

उसका अपना रिक्शा हो

मत पूछो तनहाई की

ख़ुद से हाथापाई की

आतंक को लेकर उनकी संवेदना कुछ यूँ व्यक्त होती है-

जितने लोग शहर में हैं

एक मुसलसल डर मैं है

भूमंडलीकरण ने जीवन की प्रत्येक गतिविधि को बाज़ार में उतार दिया है, जिसमें आम आदमी यूँ बेबस और निरीह हो गया है कि-

सारा आलम मज़मे जैसा

मैं हूँ एक जमूरे जैसा

विज्ञान के उत्कष्ट शेरों में से यह मेरा सर्वप्रिय शेर है-

गद्दी का वारिस लौटा था

राम कहाँ लौटे थे वन से

प्राचीन से नवीन विचार कि यह यात्रा समय की अब तक कि यात्रा का पता देता है। इसी तरह की अपनी सोच और चिन्तन की व्यापकता का परिचय देते हुए विज्ञान यह भी कहते हैं-

पल भर में क्या समझोगे

मैं सदियों में बिखरा हूँ

मेरा मानना है कि सूक्ति का तरह यह शेर भविष्य में हर जुबाँ पर ज़िन्दा रहेगा-

सबसे मुश्किल काम यही है

ख़ुद को अपने जैसा रखना

आदमी का वर्तमान और वर्तमान का संघर्ष साफ दिखने लगता है। यह बात कभी भूली नहीं जा सकती, वह है विज्ञान व्रत का यह ज़िन्दगी से अक्षुण्ण सम्बन्धों का खुला ऐलान-

आमादा हूँ जीने पर

और अभी तक जि़न्दा हूँ

इस शाश्वत जीवन की इससे बेहतर परिभाषा और क्या हो सकती है। इस तरह इस संग्रह की ग़ज़लें उनकी संघर्षशीलता की उद्घोषणा करती हैं। समाज के सबसे निचले तबके के सबसे अंतिम व्यक्ति के अहसास से यह जुड़ाव विज्ञान व्रत को बड़ा रचनाकार बनाता है। इसे दोबारा देखें:

सब तक हूँ। तब तक हूँ

तब तक हूँ। जब तक हूँ

इसी तरह एक ग़ज़ल में आज के आदमी के जीवन से सरोकार का यह शेर उल्लेखनीय है-

आपसे रिश्ता रहा

और मैं जि़न्दा रहा

इस ग़ज़ल में जीवन का जो संघर्ष व्यक्त हुआ है, वह विचारणीय है। उसका एक शेर देखें-

ख़ुद को अपने कंधों पर

बस्ती बस्ती ढोते हम

संग्रह की एक ग़ज़ल के ये शेर अभावग्रस्त किसान की त्रासदी के तकलीफदेह मंजर पेश कर रहा है-

होरी सोच रहा है उसका

नाम यहाँ किस दाने पर है

आज यहाँ है एक हवेली

और यही होरी का घर था

अगली ही ग़ज़ल में फिर उनकी चिन्ता और जीवन से मुकाबले के लिए ख़ुद में शक्ति एकत्रित करने का संकल्प प्रेरक है। यहाँ मुझे कबीर के आत्ममंथन के विचार की गूँज सुनाई देती हैः

जिस दिन ख़ुद को देख सकेगा

अपने ऊपर आप हंसेगा

कौन करेगा ये अहसान

ख़ुद ही कर अपनी पहचान

राजनीति ने जनता को कब से भ्रमित कर रखा है। इसके खिलाफ प्रतिवाद से भरी एक ग़ज़ल के चन्द अश्आर यहाँ पेश हैं-

जैसे बाज परिन्दों में

मेरा कातिल अपनों में

अब इंसानी रिश्ते हैं

सिर्फ कहानी किस्सों में

वो सितमगर है तो है

अब मेरा सर है तो है

जो हमारे दिल में था

अब जुबाँ पर है तो है

शेर दर शेर विज्ञान व्रत एक ऐसा मंजर रचते हैं कि पाठक ख़ुद को एक नए वितान में रमा हुआ पाता है।

ये दो शेर भी मुलाहिजा फरमाएँ:

लापता हूँ आपको क्या

मिल गया हूँ आपको क्या

खुश हूँ अपनी बस्ती में

बाकी दुनिया तुम रक्खो

संवेदनशून्य वर्ग को सम्बोधित ये कतिपय शेर ग़ज़लकार के कद्दावर व्यक्तित्व का प्रमाण पेश करते हैं,

जीवन का शृंगार है बेटी

एक सपना साकार है बेटी

आमादा हूँ जीने पर

और अभी तक जि़न्दा हूँ

लड़ रहा हूँ जीतना है

जि़न्दगी का मोर्चा है

बस किरदार बचाने तक

जिंदा है मर जाने तक

कहा जाता है कि वही रचनाएँ श्रेष्ठ होती हैं, जिनमें अनुभूति सत्य विद्यमान होता है। कहना होगा कि इस संग्रह तक आते विज्ञान व्रत की ग़ज़लें उनके दृढ़ व्यक्तित्व को उजागर ही नहीं करती अपने अनुभूति सत्य के ज़रिए समाजगत चिन्ताओं से मुठभेड़ भी करने लगती हैं। यह उनकी रचनात्मकता के विस्तार का परिचायक है।

बस किरदार बचाने तक

जिंदा है मर जाने तक

त्याग और समर्पित जीवन को संकेतित यह शेर अनुपम है-

सूरज बनकर देख लिया ना

अब सूरज—सा रोज़ जलाकर

यदा कदा विज्ञान व्रत जब व्यंग्य के माध्यम से मनुष्य की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हैं तो वह शेर जुबान का शेर बन जाता है। मसलन:

आखिर मुझमें ऐसा भी

क्या देखा है जो चुप हो

साथ ही यह शेर भी कि:

बात करते हैं हमारी

जो हमें समझे नहीं हैं

इस तरह तग़ज्जुल या ग़ज़लियत हर ग़ज़लकार में अपने ही ढंग से आती है। गालिब में या मीर में या अन्य किसी बड़े शायर की शायरी से यह साफ हो जाएगा। विज्ञान ने ग़ज़ल की इस विशेषता को समझा है। उनमें शिल्पगत प्रयोंगों द्वारा जमीन तोड़ने का साहस सर्वत्र दिखाई देता है। इस अर्थ में वे एक स जनशील रचनाकार हैं और अपनी विधा से उनकी कितनी आत्मीयता है यह स्पष्ट हो जाता हैः

बाकी सब कुछ खर्च हुआ

बस मैं अपने पास बचा

हाँ यह बात जरूर खटकती है कि विज्ञान व्रत के कतिपय शेर एक दूसरे को काटते हुए से मिलते हैं। इसके कुछेक उदाहरण पेश हैं। मसलन:

पहले संग्रह का शीर्षक शेर

बाहर धूप खड़ी है कब से

खिड़की खोलो अपने घर की

बाहर धूप खड़ी है' अपनी जड़ताओं अपने अंधविश्वासों और सड़ी गली परम्पराओं की खिड़की खोलो और देखो नया सूरज तुम्हारा इंतजार कर रहा है और इस आवाहन के साथ विज्ञान व्रत ने स्वयं पहल करते हुए ग़ज़ल में नए बिम्बों व प्रतीकों का स जन किया।

लेकिन इस विचार को काटता हुआ एक शेर यह भी है कि-

सिर्फ उजालों से क्या होगा

कालिख भी तो पोंछो घर की

दूसरा

अपने घर में बैठे हो

यार सुनो तुम अच्छे हो

प्रतिरोध हौसला हिम्मत दृढ़ निर्णय कर लेता है कि-

हारे या जीतें अबके हम

कितनी बार सुलह कर देखें

मैं था तन्हा एक तरफ

और ज़माना एक तरफ

सूफियाना रंग विज्ञान व्रत के व्यक्तित्व का अहम् हिस्सा है। वे उस परमेश्वर पर दृढ़ आस्था रखते हैं और ख़ुद को उसे जोड़ कर देखते हैं-

एक अगर तू मेरा होता

मुझ में जाने क्या-क्या होता

उम्मीद जीवन की अक्षय ऊर्जा जो सदैव प्रवाहित होती रहती है-

हंसता गाता एक मकान

मेरे जीवन का अरमान

मैं उसका हिस्सा ना हुआ

मुझको यह धोखा ना हुआ

उपर्युक्त अशआर के विश्लेषण से पता चलता है कि विज्ञान व्रत ने समकालीन युगबोध को जितनी सूक्ष्मता और गहनता से आंका है वह कोई विलक्षण ग़ज़लकार ही कर सकता है। मानवीय मूल्यों का ह्रास, सामाजिक विघटन, उच्चादर्श के पतन, मनुष्य के अजनबीपन तथा रिश्तों के नाटकीय रूप को ग़ज़लकार ने उजागर किया है।

वास्तव में देखना यह होता है कि रचनाकार अपने भीतरी सत्य के प्रति कितना ईमानदार है। हाँ, यह अवश्य है कि जहाँ-जहाँ विज्ञान अपने आसपास से उदासीन होते हैं, वहाँ रचना का कथ्य उखड़ने लगता है और वहीं ये सवाल उठते हैं कि क्या ग़ज़लकार समकालीन परिस्थितियों से अनभिज्ञ है? या जानबूझकर तटस्थ रहना चाहता है? उसके सरोकार आख़िर किसके प्रति हैं? मसलन अपने देश के किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं, स्त्रियों पर बढ़ती हिंसा, गरीब-मजदूरों का शोषण या आदिवासियों का अपनी जमीनों से बेदखली या प्रकृति का अंधाधुंध दोहन जैसी ज्वलंत समस्याओं से उनकी ग़ज़लें क्योंकि रू ब रू नहीं हो पा रही हैं आदि ...यद्यपि प्रकृति की जीवन्तता की अभिव्यक्ति उनके चित्रों में अवश्य हुई है, लेकिन अन्य विषय उनकी ग़ज़लों से अभी चूक रहे हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि विज्ञान व्रत सायास ही समसामयिक सन्दर्भों को रचना का विषय बनाने से गुरेज़ करते हैं। ग़ालिब के यहाँ यह है। यद्यपि उनके शेरों में सूक्तियाँ हैं, संदेश हैं, मशविरे हैं, मूल्यवान सीख हैं, मगर वर्तमान को लेकर कोई बेचैनी कोई प्रश्न नहीं हैं, समस्याएँ नहीं हैं, द्वन्द्व नहीं हैं। इनमें से वह व्याकुलता भी नदारद है, जो एक कवि की नियति होती है, रचनाकार का सरोकार उत्स है। हम जानते हैं कि संघर्ष जीवन का मूलाधार है, जिसके प्रति कवि का रुझान न होना, उनके समकालीन स्थितियों के प्रति उदासीनता का प्रतीक बनने का संदेश देता है। आज के कवि के सरोकार आमजन से जुड़े होने चाहिए। आज का कवि संत की तरह दूर मंच पर बैठकर प्रवचन नहीं दे सकता; बल्कि वह आमजन की तरह समाज में रहता है और वह जो भोगता है, उसकी ही अभिव्यक्ति करके आम आदमी के साथ शेयर करता है।

शिल्प के संदर्भ में यह बात विशेष ध्यान खींचती है कि विज्ञान के सम्पूर्ण ग़ज़ल साहित्य में एक भी ऐसा शेर नहीं है, जिसमें नारी या पुरुष का भेद किया हो। ये ग़ज़ल रचनाएँ मनुष्य मात्र या 'व्यक्ति' के भावात्मक संवाद के रूप में प्रस्तुत हुई हैं। विज्ञान व्रत का अंदाजे बयाँ यक़ीनन 'कुछ और है' जिसे समझा जाना चाहिए. इस संग्रह की ग़ज़लों में व्यक्ति, समाज और देश के सामने जो अव्यवस्था फैली है उसकी परोक्ष अभिव्यक्ति हुई है। जीवन की विसंगतियों पर जब विज्ञान अपनी व्यंग्यपूर्ण नज़र दौड़ाते हैं तो हमें आत्मचिन्तन की ओर मोड़ देते हैं।

गजल के अरुज़ की दृष्टि से विज्ञान व्रत की ग़ज़लें साफ-सुथरी और नयापन लिए हैं। विज्ञान व्रत ग़ज़लों में शब्दों की मितव्ययता के लिए मशहूर हैं। ग़ज़ल में शब्दों को सलीके से पेश करना दृष्टि सम्पन्न ग़ज़लकार की कसौटी है। उनके सभी ग़ज़ल संग्रहों में ऐसी अनेक ग़ज़लें हैं, जिनमें केवल मतले ही मतले हैं, कोई शेर नहीं है। इसी तरह कभी मतले की एक पंक्ति से अगला शेर निकाला गया है जो चमत्कारिक है। इन प्रयोगों के आवेग में कभी-कभी उनकी संवेदनात्मक अनुभूति उनके दो छोटे मिसरों में विलीन हो जाती है और वे मिसरे बिखर जाते हैं। यद्यपि उनकी बहरों की तादाद सीमित है, फिर भी उनकी ग़ज़लों के शिल्प में परिपक्वता व प्रौढ़ता स्पष्ट दिखाई देती है। उर्दू ग़ज़ल के मिजा़ज का सम्मान करते हुए विज्ञान पूरी शालीनता से अपनी ग़ज़लों में नए प्रयोगों का साहस करते हैं। इन नए बिम्बों के माध्यम से विज्ञान ने अपनी ग़ज़लों को अधिक प्रभावपूर्ण बनाया है। इतने प्रयोगों के बावजूद विज्ञान हमारा यह विश्वास नहीं टूटने देते कि वे ग़ज़ल के मूल स्वरूप को खंडित नहीं होने देंगे। वे इतनी सहजता से बिम्ब प्रस्तुत करते हैं कि वह बिम्ब प्रस्तुति ग़ज़लकार की मूल्यवत्ता बन जाती है।

भाषा के स्तर पर यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि विज्ञान व्रत अपनी ग़ज़लों के लिए हिन्दी-उर्दू के भाषायी विवाद को गैरजरूरी मानते हैं। उनके यहाँ आमफहम जन-भाषा है, तभी वह आत्मीय बनकर लोगों के दिल में उतरती चली जाती है। विज्ञान व्रत के यहाँ भाषा, जैसे एक सधा हुआ मुहावरा बनकर आती है। इसीलिए उनके यहाँ शुद्ध शास्त्रीयता का ढकोसला भी सिरे से गायब है। उन्होंने अपने पद और छन्द स्वयं विकसित किए हैं। जैसे वे सूक्ति वाक्य बन कर उतरे हों। इस प्रकार वे अपनी काव्य-क्षमताओं को नई ऊँचाइयों तक ले जाते हैं। इन ग़ज़लों से गुज़रते हुए बार-बार ऐसा लगता है, जैसे आप किसी अंतरंग मित्र से बेहद आत्मीय बतकही में मशगूल हों। इस तरह विज्ञान व्रत ने हमें हिन्दी ग़ज़ल का नया मुहावरा दिेया है और ग़ज़ल को नये सोपान तक पहुँचाया है, जहाँ पाठक ग़ज़ल से आत्मीय भाव बनाता और उसे अपना लेता है। विज्ञान के पास अपने अनुभव को ग़ज़ल में ढालने का अंदाज़ बिलकुल भिन्न है। मसलन उर्दू शायर अक्सर परम्परागत प्रतीकों व बिम्बों के जाल में अपनी शायरी का आशय तलाशता है, वहीं विज्ञान व्रत इस शैली से अलग अभिव्यक्ति के खुले आंगन में बैठकर वक्त से बतियाता है और मैं, तू, वह और जो... के माध्यम से नए संदर्भ तलाशता है। विज्ञान का लहजा भाषा, शिल्प वैशिष्टय, बिम्ब चमत्कार और प्रतीक-विधान अनूठा व विलक्षण है। अपनी बात कहने के लिए वे ग़ज़ल में नयी सम्भावनाएँ तलाशते ज्यादा दिखाई देते हैं।

सतही तौर पर इन ग़ज़लों को देखने पर यह जरूर लगता है कि जैसे ग़ज़लकार हर वक्त आत्मरत रहता है। लेकिन गहराई से पड़ताल की जाए तो पता चलता है कि वास्तव में ऐसा नहीं है। दरअसल विज्ञान आत्मरत नहीं बल्कि आत्मनिष्ठ रचनाकार हैं और ऐसा आत्मनिष्ठ-भाव समाज को अपने भीतर गहरे से आत्मसात करने के बाद ही सम्भव होता है। यही कारण है कि यह भाव उनकी रचनाओं में इतना रच-बस गया है कि ग़ज़लकार अपने समय से सदैव बतियाता हुआ मिलता है। वे अपनी दृष्टि व नये संकल्पों और मानवीय भावबोध के साथ ग़ज़ल प्रस्तुत करते हैं, इसलिए उम्मीद करनी चाहिए कि इस संग्रह 'लेकिन गायब रोशनदान' की ग़ज़लें हिन्दी कविता में एक सार्थक गूँज बनकर उपस्थित रहेंगी और हिन्दी ग़ज़ल को निरन्तर समृद्ध करेंगी।

लेकिन गायब रोशनदान (ग़ज़ल) : विज्ञान व्रत, पृष्ठ: 104, मूल्य: 240 रुपये, संस्करण: 2020, अयन प्रकाशन, 1 / 20, महरौली, नई दिल्ली-110030