लेखकीय दायित्वबोध और अनुशासन / सुकेश साहनी

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कथादेश द्वारा प्रत्येक वर्ष इस लघुकथा–प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है और पुरस्कार सौजन्य जनसुलभ पेपरबैक्स / वीवर्स इंडिया का होता है। पुरस्कृत रचनाओं का चयन तीन निर्णायको के सम्मिलित अंकों के आधार पर किया जाता है। गत वर्षों में इस प्रतियोगिता के निर्णायको में मेरे अतिरिक्त मैनेजर पाण्डेय, प्रियंवद, योगेन्द्र आहूजा, आनंद हर्षुल, सत्यनारायण, महेश कटारे, जितेन्द्र रघुवंशी, विभांशु दिव्याल, श्यामसुन्दर अग्रवाल, गौतम सान्याल, सुरेश उनियाल, हृषीकेश सुलभ एवं हरिनारायण रहे हैं। कहना न होगा कि किसी भी लघुकथा को पुरस्कृत करना किसी एक निर्णायक के हाथ में नहीं होता।

गत वर्ष अपने बड़बोलेपन के लिए प्रसिद्ध स्वनामधन्य एक लेखक महोदय ने यह सिद्ध करने का असफल प्रयास किया कि किसी भी घटिया लघुकथा को पुरस्कृत करना मेरी विवशता थी। उर्मिल कुमार थपलियाल की लघुकथा 'मुझमें मंटो' को लेकर एक ब्लॉग में छपी समीक्षात्मक टिप्पणी पर कुछ प्रतिक्रियाएँ देखें–

पहला–सुकेश साहनी क्या पुरस्कार के निर्णायक थे?

दूसरा– (प्रश्न का सीधे उ्त्तर न देते हुए) साहनी जी इस पुरस्कार के संस्थापक और आयोजक भी हैं।

पहला–इस लघुकथा की प्रशंसा के कारण को समझना आवश्यक है। पुरस्कृत करने के लिए सुकेश साहनी को उसकी प्रशंसा करना उनकी विवशता थी। किसी खराब रचना को अच्छा बताए बिना, उसकी सार्थकता सिद्ध किए बिना (भले ही कुतर्कों का सहारा क्यों न लेना पड़े) उसे पुरस्कृत कैसे किया जा सकता है.........

तीसरा–स्वयं साहनी जी इस लघुकथा की कमियाँ गिनवाते हैं, वहीं इसे प्रथम घोषित करते हैं।

लघुकथाओं पर अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार सभी का है और यह एक स्वस्थ परम्परा है, इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। कई बार पाठकों ने प्रतिक्रिया स्वरूप निर्णायक की भूमिका निभाते हुए प्रथम, द्वितीय पुरस्कार किसे मिलना था, यह सुझाया था। कथादेश के स्तम्भ 'अनुगूँज' में ऐसी प्रतिक्रियाओं को ससम्मान प्रकाशित भी किया जाता है। लेकिन यहाँ काबिलेगौर बात यह है कि लेखक महोदय को कथादेश द्वारा पिछले कई वर्षों से आयोजित की जा रही प्रतियोगिता का क ख ग तक नहीं मालूम, निर्णायको की कोई जानकारी नहीं, फिर किस आधार पर उनके द्वारा निर्णायकों की ईमानदारी पर चोट की गई. नकारात्मक ऊर्जा फैलाने वाले ऐसे लोगों की बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है। पूर्व में इनके द्वारा की गई स्वीकारोक्ति के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रसिद्ध नाट्यकर्मी एंव व्यंग्यकार उर्मिल कुमार थपलियाल की समाजवाद, गेट मीटिंग एवं मुझमें मंटो जैसी लघुकथाओं की बारीक ख्याली के निहितार्थ को समझने में इनको बरसों लग सकते हैं।

दूसरी विधाओं की तरह ही लघुकथा की सर्जन प्रक्रिया अंत: स्फूर्त है। इसमें बरसों लग सकते है। प्राथमिक चयन में जो लघुकथाएँ बाहर हो गईं, उनमें इस स्वाभाविक सर्जन प्रक्रिया का अभाव दीखता है। वे यांत्रिक प्रक्रिया के तहत हड़बड़ी में लिखी गई प्रतीक होती है। ऐसी रचनाओं में सत्य घटनाओं का बोलबाला रहता है और अंत में लेखक अपनी वैचारिक टिप्पणी से रचना का समापन कर देता है।

लघुकथा की सर्जन प्रक्रिया पर गत वर्षों के लेखों में मेरे द्वारा बहुत कुछ लिखा जा चुका है। दूसरे वरिष्ठ लघुकथा लेखकों ने अपनी लघुकथा रचना प्रक्रिया पाठकों से साझा की है, जो विभिन्न ब्लॉग्स के साथ–साथ लघुकथा डॉट कॉम पर भी उपलब्ध है। इसे सभी ने स्वीकारा है कि किसी घटना के रचना में बदलने की प्रक्रिया काफी जटिल है। घटना पर वैचारिक मंथन से लेखक को जो दृष्टि प्राप्त होती है, वह उसे मुकम्मल रचना लिखने के लिए प्रेरित करती है। यहीं लेखकीय दायित्वबोध और लघुकथा के लिए अनिवार्य अनुशासन की बात सामने आती है। वैचारिक मंथन के दौरान लेखक का दायित्वबोध उसे सचेत करता है कि क्या लेना है और क्या छोड़ना है। इसी लेखकीय दायित्व के चलते समाज में घट रही कुछ घटनाओं को लघुकथा में शामिल करने का मोह लेखक को छोड़ना पडता है। यह हवा में तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा जोखिम–भरा काम है, जिसे सर्जन प्रक्रिया के दौरान ही साधना होता है। जो रचनाकार इसके प्रति सजग नहीं होते, उनकी रचना में उपस्थिति रचना को कमजोर बनाती है और पात्रों से अधिक वे स्वयं बोलते दिखाई देते हैं। पाठक को लगता है कि वह कोई निबंध पढ़ रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में कलात्मक संतुलन बहुत ज़रूरी है। इसे जयमाला की लघुकथा दृष्टि में देखा जा सकता है। लेखिका ने कथ्य के अनुरूप दो घटनाओं का चयन किया है। सर्जन प्रक्रिया के दौरान ही इन घटनाओं के ताने–बाने बुने गए, जिससे रचना के उदे्श्य को सम्प्रेषित करने में सफल हुई है। लेखकीय दायित्वबोध कहीं भी लाउड नहीं हुआ है। दो पीढि़यो के 'दृष्टि' भेद को बहुत स्वाभाविक ढंग से पेश किया गया है।

कुछ लघुकथाएँ अकस्मात् जन्म ले लेती हैं, उनके सर्जन के लिए लेखक को लम्बी सर्जन प्रक्रिया से नहीं गुज़रना पड़ता है। लेखक को कुशल होना चाहिए. कोई एक वाक्य या घटना पूरी रचना को मायने दे देता है। गजेन्द्र नाम देव की 'रोशनी' लघुकथा अपने कथ्य और प्रस्तुति के कारण दूसरा स्थान पाने में सफल रही है। गाँव का बुजुर्ग स्कूल से लौटती लड़की से पूछता है–"कौन की मोड़ी आय?" "कौन नाम तुमाव? ' लड़की जवाब देती है–" रोसनी "बुजुर्ग फिर पूछते है–" काय की रोसनी? दिया की, डिबिया की, बलफ की, चंदा की के सूरज की रोसनी"लड़की कुछ देर सोचती रहती है, फिर बोलती है–" घर की रोसनी" यही एक वाक्य पूरी रचना को मायने देता है और लघुकथा में जो कुछ भी अनकहा है, वो पाठक के सामने साकार हो जाता है और उसे रचना पाठ के साथ सुखद एहसास की अनुभूति होती है। लड़की के घर की पृष्ठभूमि, घर वालों के लिंग भेद पर विचार, लड़की की घर में हैसियत...। आज जब मादा भ्रूणों को गर्भ में मारा जा रहा है, ऐसे क्रूर समय में गाँव की एक लड़की गर्व से खुद को घर की रोशनी बताती है। कहना न होगा कि इस विषय पर कलम चलाते हुए लेखक का समाज के प्रति जो दायित्व होना चाहिए उसकी बहुत ही प्रभावी प्रस्तुति इस लघुकथा में देखने को मिलती है।

आनन्द वरिष्ठ लघुकथा लेखक है। कई बार पुरस्कृत हो चुके है। उनकी लघुकथा 'स्वाभिमान' को भी इस दृष्टि से देखा परखा जा सकता है। यहाँ भी लेखक ने सर्जन प्रक्रिया के दौरान रिक्शा चालक के व्यवहार में जो आमतौर पर देखने को मिलता है, उसका चित्रण न कर जो होना चाहिए उस पर बल दिया है। होता यही है कि रिक्शा चालक को यदि एक रुपया ज़्यादा दे दिया जाए, तो वह खुशी–खुशी रख लेता है; लेकिन स्वाभिमान लघुकथा का रिक्शा चालक रुपया लेने से इनकार ही नहीं करता; बल्कि सवारी को इस बात का एहसास कराता है कि रिक्शा चालक का भी अपना वजूद होता है।

पति परमेश्वर (पल्लवी त्रिवेदी) में 'साली।आधी घर वाली!' जैसी अपमानजनक टिप्पणियों के विरुद्ध नारी आक्रोश की प्रभावी अभिव्यक्ति हुई है। दुल्हन जब अपने देवर का सहेलियों से परिचय इस तरह देती है...'यह है मेरे देवर...आधे पति परमेश्वर' तो घर में भूचाल आ जाता है। यहाँ एक बारगी रचना की प्रस्तुति अस्वाभाविक हो जाती है। लेखक की रचना में उपस्थिति प्रतीत होती है; लेकिन अगले ही क्षण लगता है कि रचना के समापन के लिए यह प्रस्तुति आवश्यक थी।

संतोष सुपेकर की 'आ‍र्द्रता' का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा। केवल घटनाओं के संयोजन द्वारा किस प्रकार रचना अपने उदे्दश्य को प्राप्त करती है, इसका अवलोकन इस रचना में किया जा सकता है। रचना का प्रारम्भ पति–पत्नी के झगड़े से होता है और झगड़ा बढ़ता ही जाता है। पति का गुस्सा इतना बढ़ जाता है कि देखने वालों को लगता है कि वह औरत को पीटने लगेगा। औरत जार–जार रोती हुई पति के साथ–साथ चलती जाती है। यहाँ लेखक एक घटना की प्रस्तुति से पूरी लघुकथा को मायने देता है–'हमने देखा कि बारिश चालू होते ही लड़ते–झगड़ते, औरत को मारने पर उतारू उस आदमी ने छतरी खोल कर औरत के सिर पर तान दी थी और खुद पूरी तरह भीगता हुआ उसके साथ–साथ चल रहा था।' कोई लेखकीय टिप्पणी नहीं, संवाद नहीं।सिर्फ़ इस घटना से बहुत कुछ अनकहा पाठक के सामने स्पष्ट हो जाता है।

भूख (पूरन सिंह) , विमर्श (मोहम्मद साजिद खान) , नमक हराम (श्रीकृष्ण कुमार पाठक) अपने आप में मुकम्मल और उदे्दश्य पूर्ण लघुकथाएँ है।

लघुकथा में जिस अतिरिक्त और अनिवार्य अनुशासन की बात की जाती है उसका अतिक्रमण 'जब तक कविता बाकी है' (इन्दिरा दाँगी) में हुआ है। यह लघुकथा बहुत मार्मिक है, पाठक पर अपना प्रभाव छोड़ने में पर सफल रही है लेकिन अनेक वाक्यों का दोहराव लघुकथा की प्रकृति के अनुरूप नहीं है। कहानी के तर्ज पर लिखी गई यह रचना अपने कान्टेंट के कारण सांत्वना पुरस्कार पा सकी है। इसी प्रकार शरीफों का मोहल्ला (मनीष कुमार सिंह) अपने उदे्दश्य में सफल है तथा मोहल्ले के तथाकथित नकाबपोश ' शरीफो को बेनकाब करती है रचना में कई पात्रों और कई घटनाओं का समावेश के कारण रचना का प्रभाव काफी कम हो जाता है।

आठ सिक्के (सुनील सक्सेना) कान्टेंट की दृष्टि से बेहतरीन है, परन्तु इसका समापन चरमोत्कर्ष पर न होने के कारण अधूरेपन का एहसास कराती है। शीर्षक के प्रति लेखक को और सजग होना चाहिए.

पहले भी कहा गया है कि लिखते समय लेखक को लघुकथा के शास्त्रीय पक्ष के प्रति सचेत नहीं होना चाहिए. स्वाभाविक रूप से जन्मी रचना पर बाद में काम किया जा सकता है। लघुकथा विषयक विभिन्न कार्य शालाओं में गम्भीर मंथन के बाद आम सहमति से लघुकथा लेखकों, , समीक्षकों ने कुछ निकष तय किए है; जिन पर लघुकथा को कस कर देखा जाता है। सृजनकार्य में कुछ भी अंतिम नहीं है। प्रतिभाषाली रचनाकार सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर समीक्षको को नये नार्म्स तय करने पर विवश कर देते है। युवा साथी मेरी टिप्पणी को ही इन्हीं सन्दर्भों में लें। पिछले दिनों लघुकथा में कालदोष को लेकर कुछ युवा रचनाकार काफी भ्रमित दिखे। कुछ वरिष्ठ लेखकों द्वारा कालदोष को स्थूल अर्थ में लेने के कारण भी यह स्थिति उत्पन्न हो रही है। यहाँ कालदोष के संदर्भ में खलील जिब्रान की लघुकथा 'असंवाद' प्रस्तुत है–

अपने जन्म के तीन दिन बाद भी मैं अपने चारों ओर नए संसार को हैरत और घबराहट से देख रहा था। मेरी माँ ने नर्स से पूछा, "ठीक तो है न मेरा बच्चा?"

नर्स ने कहा, "मैडम, बच्चा बिल्कुल ठीक है, मैंने इसे तीन बार दूध पिलाया है। मैंने आज तक ऐसा बच्चा नहीं देखा जो पैदा होते ही इतना हँसमुख हो।"

सुनकर मुझे गुस्सा आया, मैं चिल्ला पड़ा, "माँ, यह सच नहीं है। मेरा बिस्तर सख्त है, दूध का स्वाद बहुत कड़वा था, धाय की छातियों की दुर्गन्ध मेरे लिए असह्य है। मैं बहुत दयनीय हालत में हूँ।"

लेकिन मेरी बात माँ और नर्स दोनों ही नहीं समझ सकीं; क्योंकि मैं उसी दुनिया की भाषा में बात कर रहा था, जहाँ से मैं आया था।

मेरे जीवन के इक्कीसवें दिन पुजारी जी आए और मुझपर पवित्र जल छिड़कते हुए माँ से बोले, "आपको खुश होना चाहिए कि आपका बच्चा जन्मजात पंडित मालूम होता है।"

मुझे ताज्जुब हुआ, मैंने पुजारी से कहा, "तब तो तुम्हारी स्वर्गवासी माँ को दु: खी होना चाहिए, क्योंकि तुम तो जन्मजात पुजारी नहीं थे।"

पुजारी भी मेरी भाषा नहीं समझ सका।

सात महीने बाद एक भविष्यवक्ता ने मुझे देखकर माँ से कहा, "तुम्हारा बेटा बहुत बड़ा राजनीतिज्ञ बनेगा, उसमें महान् नेता के सभी गुण हैं।"

मैं मारे गुस्से के चीख पड़ा, "गलत...मुझे संगीतज्ञ बनना है, संगीतज्ञ के अतिरिक्त मैं और कुछ नहीं बनूँगा।"

पर आश्चर्य।उस उम्र में भी मेरी भाषा किसी के पल्ले नहीं पड़ी।

आज मैं तैंतीस वर्ष का हो गया हूँ। इन वषों‍र् में मेरी माँ, नर्स और पुजारी सब मर चुके हैं पर वह भविष्यवक्ता अभी जीवित है। कल ही मेरी मुलाकात उससे मंदिर के प्रवेश द्वार पर हुई थी। बातों ही बातों में उसने कहा था, "मुझे शुरू से ही पता था कि तुम संगीतज्ञ बनोगे, इस बारे में मैंने तुम्हारे बचपन में ही भविष्यवाणी कर दी थी।"

मैंने उसकी बात पर आसानी से विश्वास कर लिया; क्योंकि अब मैं स्वयं नन्हें बच्चों की भाषा नहीं समझ पाता हूँ।