लेखक का निवेदन / हरिशंकर परसाई

Gadya Kosh से
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हिन्दी ‘करंट’ की पहली सालगिरह पर ‘माटी कहे कुम्हार से’ का संग्रह पुस्तकाकार में प्रकाशित हो रहा है। एक साल पहले जब ‘करंट’ का हिन्दी संस्करण शुरू हुआ था, तब लेखकों को दो जातियों में बांट दिया गया था। जनता पार्टी और सरकार के अंधे समर्थकों ने अपने को ‘ब्राह्मण’ और मुझ जैसे कई इनसे असहमत लेखकों को ‘चांडाल’ करार दे दिया गया था। अब इन ‘ब्राह्मण’ क्रांतिकारियों की गत देखकर पहले हंसी आती है और फिर दया। ऐसा है जैसे चंदन-छाप लगाये पंडितजी रंडी के यहां पकड़े गए हों। हम जानते हैं, इन्होंने इंदिरागांधी के घटिया से घटिया चमचों की कितनी बेशर्मी से चापलूसी की थी। सत्ता पलटते ही, वे पलट गये। उनका अवसरवाद क्रांति कर्म हो गया। दूसरों के बुद्धि-विवेक, कायरता और बेईमानी कहे जाने लगे। उनकी कायरता नैतिकता हो गई।

लाजमी था कि घोर प्रक्रियावादी और फासिस्टी ताकतें सत्ता में आ गईं थीं, उनकी देशघाती नीतियों और कार्यों का डटकर विरोध किया जाये। ये जो सत्ता में आ गये हैं, वे एकाएक स्वर्ग से 1977 में नहीं टपके थे। हम पचीसों सालों से इन्हें और इनके राजनैतिक चरित्र को जानते थे। यह सत्ता भारतीय प्रेस से समर्पण करवा रही थी। प्रधान मंत्री का दावा झूठा है कि प्रेस स्वतंत्र है। अभिव्यक्ति के माध्यम से स्वतंत्र हैं। यह सरासर गलत है। 1974 तक प्रेस को जो स्वतंत्रता थी, उससे बहुत कम अब है। मैंने 1975 तक कांग्रेस और उसकी सरकार की कटुतम आलोचना की है। हजारों छपे हुए पन्ने सबूत हैं। पर अब इन नये सत्ताधारियों की आलोचना करता हूं, तो इनके तेवर अलोकतांत्रिक होते हैं।

ऐसी हालत में जरूरत थी, ऐसे पत्रों की जिनमें स्वतंत्रता से लिखा जा सके। देश और लोकघाती शक्तियों का सही रूप जनता के सामने रखा जा सके। हिन्दी ‘करंट’ ने इस बड़ी जरूरत को पूरा किया। श्री अयूब मेरे पुराने मित्र हैं। असल में ये और मैं मध्य प्रदेश में एक ही भूमि के ‘रतन’ (?) हैं। भाई महावीर अधिकारी से पचीसेक साल के स्नेह और विश्वास के सम्बन्ध हैं। इन दोनों बंधुओं ने अधिकारपूर्वक खुद ही स्तंभ का नाम तय कर दिया और घोषणा भी कर दी। मुझे भी अखाड़े की जरूरत थी। तो ‘माटी कहे कुम्हार से’ स्तम्भ शुरू हो गया। मुझे जो पूरी स्वतंत्रता लिखने की दोनों संपादकों ने दी है, उसके लिए मैं बहुत आभारी हूँ। इस स्वतंत्रता के बिना मन से लिखना सम्भव नहीं।

इस स्तंभ के छपने के बाद जो घोर गाली की चिट्ठियां मुझे आने लगीं उनसे मैं आश्वस्त हो गया कि लेखन सफल हो रहा है। ऐसे पत्र संपादकों को भी बहुत मिलते हैं। यह भी कि समर्थन में भी बहुत पत्र मिलते हैं। इस लेखन के बारे में मुझे गलतफहमी नहीं है। अनुभव ने सिखाया है कि लेखक का अहंकार व्यर्थ है। हम कोई युग प्रवर्तक नहीं हैं। हम छोटे-छोटे लोग हैं। हमारे प्रयास छोटे-छोटे हैं। हम कुल इतना कह सकते हैं कि जिस देश, समाज और विश्व के हम हैं और जिनसे हमारा सरोकार है, उनके उस संघर्ष में भागीदार हों, जिससे बेहतकर व्यवस्था और इंसान पैदा हो। पाठक के हाथों इस संग्रह को इस आश्वासन के साथ सौंपता हूं कि बुद्धि और विवेक ने जो कहा, वही लिखा है, डर और लोभ से कुछ भी नहीं लिखा गया।