लेने-देने की साड़ियाँ / पल्लवी त्रिवेदी

Gadya Kosh से
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भारतवर्ष में हर चीज़ दो प्रकार की होती है। एक स्वयं के लिए और एक लेने देने के लिए। चाहे वस्त्र हों या क्रॉकरी और चाहे विचार। आप दूसरों को देने के लिए दुकान पर कुछ भी खरीदने जायेंगे तो सबसे पहले दुकानदार को ज़रूर बता देंगे कि” गिफ्ट परपज से चाहिए । एक बार आपका परपज़ दुकानदार को पता चल जाए वो आपके सामने उपयुक्त वस्तुओं की लाइन लगा देगा। इसी प्रकार आप मन में क्या सोचते विचारते हैं वो आपके लिए है लेकिन दुनिया को क्या टिकाना चाहते हैं ये बिलकुल इतर बात है। दिल की बात दिल में रहती है और गिफ्ट करने वाली बात जुबां पर। खैर आज मैं केवल उस गिफ्ट आयटम की बात करूंगी जिसे उपहार न कहा जाकर” लेने देने वाली चीज़” कहा जाता है। और इसका अपना एक विशाल दर्शन और विशाल संसार है।

आप शादियों के सीज़न में किसी भी साड़ी की दूकान पर चले जाइए ... आपके यह कहते ही कि” भैया,,साड़ियाँ दिखाइये” दुकान वाले का पहला प्रश्न होगा कि” लेने देने की दिखाऊं या अच्छे में दिखाऊं?"

मतलब इस प्रश्न से इतना तो सिद्ध हो गया कि लेने देने की साड़ियाँ अच्छी नहीं होतीं।

अब अगर आप वाकई में लेने देने की साड़ियाँ ही खरीदने गए हैं तो दुकानदार का अगला प्रश्न होगा” कितने वाली दिखाऊं?" उसके पास अस्सी रुपये से लेकर ढाई सौ तक की रेंज मौजूद है।

एक कुशल स्त्री अस्सी से लेकर ढाई सौ तक की सभी साड़ियाँ पैक कराती है।घर जाकर वो पिछले बीस वर्ष का बही खाता खोलती है। सबसे पहले उसे ये देखना है कि किस किस ने कब कब उसे कैसी साड़ियाँ दी हैं? "अब बदला लेने का सही वक्त आया है .. जैसी साड़ी तूने मुझे दी थी उससे भी घटिया साड़ी तुझे न टिकाई तो मेरा नाम भी” फलानी” नहीं।”

अगर दस साल पहले उस महिला ने सौ रुपये की साड़ी दी थी तो बदला लेने में दस साल बाद अस्सी की साड़ी पचहत्तर में लगवाकर उसके मुंह पर मारी जाती है।

अगर किसी रिश्तेदार के घर के लड़के को जमाई बनाने का सपना संजोये बैठी हो तो उसे ढाई सौ की साड़ी दी जावेगी, अच्छी पैकिंग में, जिसमे थर्माकोल की छोटी छूती गेंदें भी इधर उधर लुढ़क रही होंगी और दस का करकरा नोट भी सबसे ऊपर शोभा बढ़ा रहा होगा।

ये भी खासी ध्यान रखने की बात होती है कि कहीं ऐसा न हो कि दो साल पहले जिस भाभी ने जो साड़ी दी थी, वापस उसी के खाते में ना चली जाए और अगर चली भी जाए भूल चूक से तो इन लेने देने की साड़ियों के कलर, कपडे और डिजाइन में इतना साम्य होता है कि दो दिन पहले दी हुई साड़ी भी अगर वापस मिल जाए तो किसी को संपट नहीं पड़ती। घचपच डिजाइन, चट्ट पीले पे चढ़ता झक्क गुलाबी और भूरे भक्क पर चढ़ाई करता करिया कट्ट रंग।

सबसे मजेदार बात यह है कि सब जानते हैं कि लेने देने की साड़ियाँ कभी पहनी नहीं जातीं। चाहे अस्सी की हों चाहे ढाई सौ की, ये हमेशा सर्क्युलेशन में ही रहती हैं। ये रमता जोगी, बहता पानी हैं। ये सच्ची यायावर हैं। ये वो प्रेत हैं जो कभी इसे लगीं, कभी उसे लगीं। इधर से मिली, उधर टिकाई और उधर से मिली इधर टिकाई।

एक बेहद कुशल गृहणी यह पहले से पता करके रखती है कि जो साड़ी उसे मिलने वाली है, वह किस दुकान से खरीदी गयी है।वह बेहद प्रसन्नता पूर्वक उस साड़ी को स्वीकार करती है, बल्कि उसके रंग और पैटर्न की तारीफ़ करती है और जल्द ही फ़ाल, पिकू करवाकर पहनने की आतुरता भी दिखाती है और अगली दोपहर ही उसे दुकान पर वापस कर दो सौ रुपये और मिलाकर एक अच्छी साड़ी खरीद लाती है।

सबसे मज़े की बात तो ये है कि जिस स्त्री को ये साड़ी प्राप्त होती है उसका मुंह फूली हुई लौकी की तरह बन जाता है और वो दो चार और अन्य स्त्रियों के साथ मिलकर देनेवाली स्त्री की बुराई का कम से कम तीन घंटे का एक सेशन पूरा करती है, जिसका लब्बो लुआब यह होता है कि कम से कम ऐसी साड़ी तो देनी चाहिए कि भली औरत पहन तो सके।फिर निर्मल भाव से उठकर शाम को बाज़ार का रुख करती है और अगले महीने होने वाली अपने लड़के की शादी के लिए उससे भी गयी बीती साड़ियाँ लेने देने के लिए छांटकर लाती हैं।यह भली प्रकार जानते हुए भी कि उसे किस प्रकार की साड़ी प्राप्त होने वाली है, प्राप्त होने वाली साड़ी से आजतक कोई महिला प्रसन्न नहीं हुई।

एक बार एक अति चतुर महिला तो सौ सौ रुपये की साड़ियाँ पैक कराने के बाद व्यवहारकुशलता का परिचय देते हुए दुकानदार से पूछ बैठी” भैया, क्या आपके पास पांच सौ छह सौ रुपये वाले प्राइस टैग खाली पड़े होंगे क्या? दुकानदार ने मन ही मन उसे प्रणाम करते हुए क्षमा मांगी और आगे से टैग अलग से बनवाकर रखने का वादा किया। दुकानदार को अच्छा आयडिया मिल गया था और बाद में वह उन टैग्स को पांच पांच रूपये में बेचने लग गया था। उस बेहद बुद्धिमान महिला ने घर में गत्ते के छोटे छोटे टैग बनाकर उस पर कीमतें लिखीं और साड़ी के ओरिजिनल टैग निकालकर उन पर नत्थी कर दिया।

उसके आगे क्या हुआ ये मुझे ठीक ठीक पता नहीं मगर इस मुल्क की एक चतुर स्त्री होने के नाते मैं बताती हूँ कि आगे क्या हुआ होगा। जिन महिलाओं को वे पांच सौ रूपये के टैग लगी थर्ड क्लास साड़ियां प्राप्त हुई होंगी, उन्होंने कपडे को अच्छी तरह टटोलकर, उछाल कर देखा होगा और विमर्श किया होगा कि या तो ये औरत बुरी तरह ठगाकर आई है या नकली टैग लगाकर हमें बेवकूफ बना रही है। फिर वे असलियत पता करने दो तीन दुकानदारों के पास उस साड़ी को लेकर गयी होंगी, बिना ये बताये कि उनका उद्देश्य क्या है। उन्होंने दुकानदार से कहा होगा कि भैया हमें ऐसी ही साड़ियाँ चाहिए। दुकानदार ने सौ प्रतिशत उन्हें वैसी ही साड़ियाँ दिखायी होंगी और उनमे एक साड़ी तो पक्के में सेम टू सेम ही मिल गयी होगी। वे महिलायें एक विजेता की तरह घर वापस आई होंगी और अगली बार उस महिला को उससे भी घटिया साड़ी हज़ार रूपये का टैग लगाकर एक कुटिल मुस्कान के साथ टिकाई होगी। “ ले बेट्टा .. ऐश कर । एक तू ही चतुर पैदा हुई है क्या? हम चतुराई में तेरी अम्मां हैं।" वे सही हैं। हर औरत चतुराई में दूसरी औरत की अम्मां ही है।

और ये भली स्त्रियाँ इन लेने देने की साड़ियों को भी छांटती, बीनती हैं और बाकायदा पसंद करती है।साड़ी भी मुस्कुराती हुई कहती है” हे भोली औरत क्यों अपना टाइम खोटी कर रही है? जिस पर हाथ पड़ जाए वही रख ले। क्या तू नहीं जानती कि हम तो सदा से ही प्रवाहमान हैं, हम हिमालय से निकली वो गंगा हैं जो किसी शहर में नहीं टिकतीं, अंत में हमें किसी के घर की काम वाली बाई रुपी समुद्र में जाकर विलीन होना है। ”

इन साड़ियों का अंतिम ठौर घर में काम करने वाली महिलायें होती हैं जिन्हें होली दीवाली के उपहार के रूप में इन्हें दिया जाता है और उसमे भी अलमारी में रखी पंद्रह साड़ियों में से सबसे पुरानी की किस्मत जागती है और वह सबसे पहले अपनी अंतिम नियति को प्राप्त होती है।