लैम्प / लिअनीद अन्द्रेइफ़ / सरोज शर्मा

Gadya Kosh से
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डॉक्टर साहब अभी-अभी ख़रीदे हुए लैम्प को बाएँ हाथ से सीने से लगाए और दाएँ हाथ से एक पतली-सी छड़ी हवा में लहराते हुए मस्त चाल से चले जा रहे थे। उनकी चाल वैसी ही थी, जैसी ख़ुद पर और ख़ुद की खुशहाली पर भरोसा रखने वाले सभी लोगों की होती है। उनका सर तना हुआ था और आँखें मुस्कुरा रही थीं। डॉक्टर पहले तो भीड़ में चल रहे राहगीरों को कोहनी से ठेलते, फिर दिखावा करते हुए प्यार से कहते, ‘अरे माफ़ करो, भाई !’

लेकिन अक्सर ऐसा होता था कि डॉक्टर साहब जिससे भी माफ़ी माँगते थे, वह उनकी बात सुनता ही न था और यदि सुन भी लेता, तो उनके कहे को कोई ख़ास अहमियत नहीं देता था। लेकिन डॉक्टर को माफ़ी माँगने में बहुत मज़ा आ रहा था। ऐसा करते हुए वे अपने मन में बार-बार यही सोच रहे थे कि शालीन बने रहने और किसी को भी नाराज़ न करने से बड़ा फ़ायदा होता है। हर आदमी जानता है कि माफ़ी माँगने में अपनी जेब से तो कुछ जाता नहीं है, लेकिन फिर भी दुनिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो इतने बदतमीज़ होते हैं कि माफ़ी तक नहीं माँगते। ऐसे लोगों को न तो कोई पसन्द करता है और न ही कोई उनसे मिलना चाहता है। यह सोचने के बाद कि वे एक दयालु और नेक इनसान हैं, इसलिए पत्नी, दोस्त और उनके मरीज़ सभी उन्हें बेहद प्यार करते हैं, उनकी चाल अनायास तेज़ हो गई और उन्होंने हाथ में पकड़ा हुआ लैम्प कसकर अपने सीने से लगा लिया। वैसे वह लैम्प भी उन्होंने दया भाव से ही ख़रीदा था।

लैम्प कोई ज्यादा महँगा नहीं था। उसकी कीमत सिर्फ़ साढ़े बारह रूबल थी। डॉक्टर की बीवी वरवारा ग्रिगोरिएवना की एक अर्से से यह तमन्ना थी कि उनके घर में एक लैम्प होना चाहिए। इस समय अपने घर में बैठी वरवारा को इस बात का ज़रा भी अंदाजा न था कि उसका सपना साकार हो चुका है। संयोग से लैम्प बहुत अच्छा था और बेहद कम कीमत पर मिल गया था। डॉक्टर ने अपने कई दोस्तों और कई रोगियों के घरों में ऐसे ही लैम्प देखे थे। उन्होंने मन ही मन अपने लैम्प की तुलना उन सभी लैम्पों से की। उन्होंने सोचा कि यह लैम्प हर मायने में उन सभी से बेहतर है। यह लैम्प कितना दिलकश है, कितना ख़ूबसूरत है। जैसी कशिश इस साढ़े बारह रूबल वाले लैम्प में है, वह इससे पहले उन्होंने किसी लैम्प में नहीं देखी थी। डॉक्टर साहब के एक दोस्त इवानफ़ के घर में भी एक बहुत ही अनोखा और बढ़िया क़िस्म का लैम्प था, और उसकी कीमत भी कम नहीं थी - पूरे साठ रूबल। इतने पैसों में तो एक लैम्प ही नहीं, कई लैम्प आ जाते, बल्कि दो अच्छे घोड़े भी ख़रीदे जा सकते थे। पतानिन के घर में भी दो शानदार लैम्प थे...

अचानक डॉक्टर को एक धक्का लगा और उनके मुहँ से निकला – ओह ! उन्होंने एकदम अपनी तमीज़ दिखाते हुए कहा, – जनाब, माफ़ कीजिए ! पर धक्का इतना तेज़ था कि डॉक्टर साहब थोड़ा डगमगा गए थे। उन्होंने धक्का देने वाले की ओर देखा और मुस्कुरा दिए । उन्होंने देखा कि जिस व्यक्ति से उन्हें धकेला था वह एक छोटे क़द की दुबली-पतली-सी लड़की है। लड़की बहुत ज़्यादा हड़बड़ी में थी और ऐसे भागी जा रही थी जैसे कहीं आग बुझाने जा रही हो। डॉक्टर अलिकसान्दर पावेलअविच को बड़ा मज़ा आया और वे अपनी जगह पर खड़े होकर बड़े ध्यान से यह देखने लगे कि कैसे वह लड़की लोगों को धकेलते हुए आगे बढ़ रही है ।

अरे वाह, क्या लड़की है ! डॉक्टर साहब ने मन ही मन में उसकी तारीफ़ की, लेकिन जब उन्होंने यह सोचा कि उस लड़की के धक्के से लैम्प उनके हाथ से छूटकर गिर भी सकता था और अगर वह गिरता तो टूट जाता। यह सोचकर उन्हें बहुत ज़ोर का ग़ुस्सा आया।

कैसी पागल है। लोग परेशान हो रहे हैं। पहले तो उनके मन में यह बात आई फिर ख़याल आया कि हो सकता है उसके घर में कोई बीमार हो गया हो ? और मन में यह ख़याल आते ही डॉक्टर साहब को उस लड़की पर दया आ गई। उन्होंने अपने सिर को थोड़ा-सा झटका और फिर उनका मिज़ाज वापस अपनी रौ में आ गया। लेकिन अब वे पहले से थोड़ी सावधानी से चल रहे थे। और पहले की तरह ‘माफ़ करना, भाई’ न कहकर, बस, ‘माफ करें’ कहने लगे थे। वे सोच रहे थे कि इतना ही काफ़ी है।

हलकी सर्दियाँ शुरू हो गई थीं। जैसाकि इस मौसम में हमेशा होता है – शाम के धुँधलके में पास की चीज़ें तो साफ़-साफ़ दिखाई दे रही थीं, लेकिन दूर की चीज़ें सुरमई और काली-धुँधली-सी छवि में बदल गई थीं। तब न तो हवा चल रही थी और न ही बारिश हो रही थी, इसलिए फुटपाथ के गड्ढों में जमा छोटा-मोटा कचरा ऐसे पड़ा हुआ था जैसे जम गया था। वहीं एक तरफ़ सिगरेट का एक खाली पैकेट पड़ा हुआ था, जिसके चमकते हुए किनारे को देखकर अचानक डॉक्टर साहब के मन में एक अजीब-सा विचार आया – इस पैकेट में रखी सिगरेटें किसने पी होंगी और न जाने अब वह कहाँ होगा ? सर्दी बढ़ती जा रही थी और माहौल में उदासी छाने लगी थी। अँधेरा होना शुरू हो गया था इसलिए कुछ दुकानों की बत्तियाँ जल चुकी थीं। चारों तरफ़ बहुत ज्यादा शोर हो रहा था और इस शोर की वजह से डॉक्टर की थकान और बेचैनी बढ़ रही थी।

बढ़ते हुए झुटपुटे को देखकर डॉक्टर ने अपनी चाल तेज़ कर दी। अब वे भी जानबूझकर चुपचाप लोगों को धकेल रहे थे और उनके धक्के झेल रहे थे। उन्होंने लोगो से माफ़ी माँगनी बन्द कर दी थी।  उनकी सूरत पहले से ज्यादा संजीदा हो गई थी। लेकिन उनके मन में बीवी-बच्चों की ख़ुशहाली के  ख़याल तारी थे। उन्होंने सोचा कि उनकी लाइब्रेरी में आतिशदान कब लगेगा ताकि वे वहाँ बैठे आराम से सर्दियों में अलाव का मज़ा लेते रहें। डॉक्टर साहब यह याद करने लगे कि पिछले एक साल में उनके घर में कितना बदलाव आ गया है। उन्हें वे तमाम चीज़ें याद आने लगीं जो उन्होंने बीते साल में ख़रीदी हैं, जैसे किताबों वाले कमरे का सारा फर्नीचर ही बदल दिया गया है। उन्होंने किताबें रखने के लिए नई अलमारियाँ ख़रीद ली हैं। अब कमरे में एक नई मेज़ और एक नया सोफ़ा भी लगा हुआ है। बैठक का भी सारा फर्नीचर नया है, जो इत्तफ़ाक से सस्ते में मिल गया था। यह फर्नीचर है तो पुराना लेकिन देखने में एकदम नया और महँगा लगता है। अब उन्होंने चिकित्सा और साहित्य की दो पत्रिकाएँ भी मँगानी शुरू कर दी हैं। साहित्य में तो डॉक्टर साहब की दिलचस्पी हमेशा से रही है। उनका यह मानना है कि जीवन में साहित्य से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इस साल उन्होंने अपनी बेग़म के लिए एक नया ओवरकोट भी सिलवाया है। गुलाबी सर्दी में पहने जाने वाले इस नए लबादे पर सुनहरी पट्टियाँ लगी हुई हैं। अब उन्होंने बच्चे की देखभाल करने के लिए एक आया भी रख ली है। आज फिर वे घर के लिए एक नया लैम्प खरीदकर ले जा रहे हैं, जो सस्ता होने के साथ-साथ बेहद ख़ूबसूरत भी है। 

डॉक्टर साहब का घर थोड़ी ही दूर रह गया था कि अचानक उनकी नज़र सड़क के दूसरी तरफ़ वाले फुटपाथ पर पड़ी। वहाँ कुछ लोगों की एक भीड़-सी खड़ी थी। उस भीड़ में शामिल लोग धक्का-मुक्की करते हुए हाथ हिला-हिलाकर ज़ोर-ज़ोर-से चीख़ रहे थे। सड़क पर आ-जा रही मोटरगाड़ियों के शोर की वजह से डॉक्टर साहब को उनकी बातें साफ़-साफ़ सुनाई नहीं दे रही थीं। वे यह अन्दाज़ नहीं लगा पा रहे थे कि आख़िर वहाँ हो क्या रहा है। लेकिन उन लोगों की ऊँची-ऊँची आवाज़ों और हावभाव से ऐसा लग रहा था कि भीड़ में शामिल लोग ग़ुस्से में हैं और बड़े जोश में ज़ोर-ज़ोर से बोल रहे हैं। आमतौर पर जब कहीं भीड़-भाड़ हो जाती है तो लोग यह जानने के लिए बेचैन हो जाते हैं कि भई, आख़िर मामला क्या है ? वहाँ हो क्या रहा है ?

डॉक्टर साहब भी भीड़ को देखकर वहीं रुक गए थे और यह जानना चाहते थे कि आख़िर हुआ क्या है ?

यकायक उन्होंने देखा कि सामने से एक आदमी भागता चला आ रहा है। भीड़ उसके पीछे-पीछे भाग रही है। भीड़ में कुछ लोग चोर-चोर चिल्ला रहें हैं। भीड़ से बचकर भाग रहा आदमी बड़े आराम से दौड़ रहा था। डॉक्टर साहब ने क़यास लगाया कि शायद वह आदमी ही चोर है। उसे देखकर उन्होंने मन ही मन कहा, - अरे ! यदि यह इसी तरह धीरे-धीरे भागता रहा तो जल्दी ही लोग इसे पकड़ लेंगे । उसे इधर इस गली में घुस जाना चाहिए। डॉक्टर साहब चाहते थे कि वह सामने वाली, चंद क़दमों की दूरी पर अंदर की ओर मुड़ने वाली लम्बी और सुनसान गली में मुड़ जाए।

और वास्तव में वैसा ही हुआ। उस चोर ने जैसे डॉक्टर के मन की बात सुन ली हो। वह सड़क पार करके दौड़ता हुआ डॉक्टर के सामने की तरफ़ से आने लगा। यह देखकर डॉक्टर साहब पहले तो बहुत प्रसन्न हुए, लेकिन अगले ही क्षण पुलिस की गाड़ी के सायरन की आवाज़ सुनकर उनका माथा ठनका। सायरन की आवाज़ चोर को पकड़ने के लिए उसके पीछे भागी जा रही भीड़ के शोर से भी ज़्यादा कर्कश थी। उस कानफोड़ू शोर का डॉक्टर साहब पर ऐसा असर हुआ कि उनका दिल भी उस भीड़ में शामिल लोगों की तरह भागने और कोई बेवकूफ़ी भरी हरक़त करने को उतावला होने लगा। तभी उत्तेजित और बौखलाई भीड़ में से किसी ने चिल्लाकर कहा, - पकड़ो, उस बदमाश को पकड़ो!

डॉक्टर सामने से भागे आ रहे चोर को ऐसे ध्यान से देख रहे थे जैसे कोई कुत्ता कुछ ढूँढ़ने के लिए अपनी गर्दन तानकर देखता है। जब उस चोर और डॉक्टर के बीच में सड़क पर से गुजर रही कोई घोड़ागाड़ी आ जाती थी, तब चोर डॉक्टर को दिखाई नहीं देता था, लेकिन जैसे ही गाड़ी पार हो जाती थी वह फिर से पूरा का पूरा दिखाई देने लगता था। दौड़ते हुए हर बार पैरों की तरह उसके लम्बे-लम्बे बाल भी ऊपर-नीचे हो रहे थे।

चोर को पकड़ने के लिए उसका पीछा कर रही भीड़ और जोर से चिल्लाई, - पकड़ो, पकड़ो, इसे जाने मत देना! डॉक्टर के दिमाग़ में वे आवाज़ें सूइयों की तरह चुभने लगीं, जिससे उनकी तकलीफ़ बढ़ती गई। डॉक्टर को पता भी नहीं चला, कैसे अगले ही क्षण चोर उनके एकदम सामने आ धमका। उसे देखते ही डॉक्टर के दिमाग़ में उसकी साफ़-साफ़ छवि अंकित हो गई। पतली, हल्की भूरी मूँछों वाला वह युवा चेहरा ऐसा सहज और सामान्य था, जिसे देखकर यह कतई नहीं लगता था कि वह किसी से बचकर भाग रहा है, बल्कि ऐसा मालूम होता था कि मानो वह अपने घर के किसी छोटे-मोटे काम से बाहर निकला होगा। दाढ़ी के नाम पर उसकी ठुड्डी पर बस गिने-चुने कुछ बाल थे। उसकी ऐसी मासूम सूरत से तो यह बिलकुल नहीं कहा जा सकता कि उसका चोरी जैसी नीच करतूत से कोई लेना-देना भी हो सकता है।

चोर को अपने एकदम सामने देखकर डॉक्टर साहब खड़े के खड़े रह गए। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि ऐसे में उन्हें क्या करना चाहिए। इसी दुविधा में वे आधा क़दम आगे बढ़े और अपने दोनों हाथ थोड़ा ऊपर उठाकर उन्हें चौड़ाई में फैला लिया और चोर का रास्ता रोकने की कोशिश की। उनके एक हाथ में कागज़ में लिपटा हुआ वह लैम्प भी था, जिसे उन्होंने कुछ समय पहले अपने घर के लिए ख़रीदा था। युवक आकर डॉक्टर के सीने से इतनी ज़ोर से टकराया कि ऐसा लगा जैसे वह अंदर तक हिल गया हो। और उसके मुँह से आह निकल गई और डॉक्टर के हाथ से लैम्प नीचे गिराकर चूर-चूर हो गया। एक मिनट के लिए तो चोर भी हक्काबक्का रह गया, लेकिन वह तुरंत संभल गया। डॉक्टर के हाथ से लैम्प गिरने के बाद चोर ने उन्हें अपने हाथों से एक तरफ़ धकेला और वहाँ से आगे भाग निकला। डॉक्टर साहब उसके पीछे-पीछे भागे और जल्दी ही उन्होंने अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाकर उसका गिरेबान पकड़ लिया।

डॉक्टर ने उसे झकझोरते हुए दाँत पीसकर कहा - रुक बदमाश! तू नहीं भाग पाएगा। युवक ने उनसे ख़ुदको छुड़ाकर भागने की कोशिश की, लेकिन वह तुरंत समझ गया कि ऐसा करना बेकार होगा - कहाँ वह दुबला-पतला साधारण क़द का नौजवान और कहाँ वह हट्टा-कट्टा, लम्बा-चौड़ा डॉक्टर। चोर की साँस फूल रही थी। उसने आहिस्ता से डॉक्टर से कहा, - साहब, मुझे जाने दीजिए!

डॉक्टर ने उसका गिरेबान और कसकर पकड़ लिया और कहा - हरगिज़ नहीं।

चोर को देखकर यह साफ़ मालूम चल रहा था कि गिरेबान की पकड़ से उसका गला घुट रहा है और उसे बहुत तकलीफ़ हो रही है। परेशानी से उसका मुहँ भी लाल हो गया था। उसने दर्द से कंधे उचकाते हुए खरखराई आवाज़ में कहा, - हुज़ूर, मैं बहुत परेशान हूँ। मेरी जान बख़्श दीजिए, आपका भला होगा।

यह सुनकर डॉक्टर साहब ने अपनी पकड़ थोड़ी ढीली कर दी। उसके बाद वे दोनों चुपचाप खड़े रहे और निश्छल-सहज जिज्ञासा भाव से एक दूसरे को देखते रहे। हो सकता है, वे दोनों इससे पहले भीड़ में कभी कहीं मिले हों और एक दूसरे को देखे बिना ही अपने-अपने रास्ते आगे चल दिए हों। लेकिन, अब उनमें से एक चोर है और दूसरा चोर को पकड़नेवाला। शायद एक इसी बात ने उन्हें एक अनजान-सी घनिष्ठता से जोड़ लिया था। हालाँकि डॉक्टर को लग रहा था कि इससे पहले उन्होंने उसे कहीं नहीं देखा था। उन्हें जैसे पहली बार यह एहसास हुआ कि आँखें, नाक और मुँह - देखने, साँस लेने और चुम्बन लेने-देने के लिए बने हैं। उनके मन में यह विचार भी आया कि ये अंग जिस काम के लिए बने हैं, उन्हें वह काम करने देना चाहिए। युवक का चेहरा एकदम शांत था। उसकी ऐसी मासूम शक़्ल देखकर डॉक्टर को ग्लानि हुई और उन्हें उसपर और अधिक तरस आने लगा। जिस हाथ से उन्होंने चोर को पकड़ रखा था, वह हाथ उन्हें अगले ही पल ख़ुद का न लगकर किसी अजनबी का लगने लगा। उनका वह हाथ ऊपर से देखने पर चोर के कंधे पर हौले-से टिका हुआ लग रहा था, लेकिन उन्हें वह एक सूखे ठूँठ-सा जान पड़ा। कंधे से लेकर उँगलियों के पोरों तक वे अपने पूरे हाथ को महसूस कर रहे थे, लेकिन चाहते हुए भी उसे उसके कंधे से हटा नहीं पा रहे थे।

डॉक्टर ने सवालिया लहजे में उस चोर से कहा, - अरे भई, तुम चुप क्यों हो, कुछ तो बोलो, बोलो क्या बात है?

उसने पलकें उठाये बिना तुरंत जवाब दिया, - मैं क्या बोलूँ, मेरे पास कहने को बचा ही क्या है, जो बोलूँ?

वे दोनों फिर चुप हो गए। डॉक्टर अब अपना हाथ को ही नहीं, बल्कि अपने सर्वस्व को पूरी तरह से महसूस कर रहे थे। उन्हें जैसे यह अनुभूति हुई कि वे अपनी आँखों से देख भी सकते हैं। वे उन कपड़ों की छुअन भी महसूस करने लगे जो उन्होंने पहन रखे थे। उन्हें ऐसा लगा कि अपनी भीतरी नज़र से वे अपने ओवर कोट की बाईं जेब में रखी सिगरेट भी देख पा रहे हों। उन्हें ऐसा लग रहा था कि उनका दिमाग़ उनके पूरे बदन में फैल गया है और शरीर का रोआँ-रोआँ उनकी आँखों और दिमाग में बदल गया है। उन्हें ख़ुद को सिर से पैर तक देखने और महसूस करने के लिए अब कुछ देखने और सोचने की ज़रूरत ही नहीं रह गई है। जैसे किसी जादुई शक्ति से वे उस चोर को भी पूरी तरह महसूस कर पा रहे थे और उसके भीतर-बाहर की भी उन्हें स्पष्ट प्रतीति हो रही थी। उन्हें उससे ऐसा जुड़ाव महसूस होने लगा कि एक पल के लिए उनके ज़ेहन में आया कि वे दोनों एक ही व्यक्ति के दो रूप हैं - दोनों चोर हैं और दोनों डॉक्टर हैं, लेकिन दूसरे ही पल लगा - न न, मेरा इन दोनों से दूर-दूर का कोई नाता नहीं है, मेरे लिए तो ये दोनों ही अजनबी हैं। मैं न तो चोर हूँ और न ही डॉक्टर हूँ, मैं तो कोई तीसरा ही आदमी हूँ।

अचानक डॉक्टर साहब की नज़रों के सामने एक तस्वीर-सी उभरी, जिसमें चोर हाथ नीचे लटकाये खड़ा है और वे स्वयं चोर का गिरेबान पकड़े, पाँव फ़ैलाए खड़े हैं। वह नज़ारा सामान्य होते हुए भी बेहद डरावना था, क्योंकि उसमें एक आदमी ने दूसरे को अपने शिकंजे में कस रखा था।

डॉक्टर ने चोर से कुछ कहना शुरू ही किया था कि अचानक उसका पीछा कर रही भीड़ बिजली की गति से वहाँ आ पहुँची। उन लोगों ने पहले तो उन दोनों को घेर लिया फिर तुरन्त उन्हें अलग-अलग कर दिया और चोर का हाथ कसकर पकड़ लिया। वे लोग लोग चोर के पकड़े जाने की ख़ुशी में अपनी धुन में तेज़-तेज़ बातें करते हुए उसे लेकर थाने की तऱफ बढ़ गए। उनके चले जाने के बाद माहौल फिर से सामान्य हो गया। डॉक्टर महाशय दूर अतीत से एक-एक कड़ी जोड़ते हुए धीरे-धीरे वापस यथार्थ में लौटे। तब उनके मन में कुछ समय पहले ख़रीदे अपने लैम्प का ख़याल आया।

डॉक्टर साहब को बड़ा अफ़सोस हुआ और उनके मुँह से निकला - ओह! लैम्प तो गिर गया और गिरकर टूट गया! और मैंने उसके टुकड़े तक नहीं देखे। उन्होंने पीछे मुड़कर उस दिशा में एक निगाह डाली, जहाँ उनका लैम्प गिरा था। लैम्प की याद आने से उन्हें फिर से चोर का ख़याल आया। और चोर का ख़याल आते ही उन्हें उसके लिए अफ़सोस होने लगा। उन्हें बारी-बारी से, कभी चोर के लिए तो कभी लैम्प के लिए यानी कभी इनसान के लिए तो कभी वस्तु के लिए अफ़सोस होने लगा। जब वे इनसान के बारे में सोच रहे होते तो उन्हें वस्तु से चिढ़ होने लगती और वस्तु से अलग होने का पछतावा करते-करते उनके मन में इनसान के प्रति दुर्भावना घर करने लगती। इसी कशमकश में उनके पाँव थाने की ओर बढ़े और वे थाने पहुँचे। वहाँ पुलिस अधिकारी ने उनसे पूछा, - क्या चोर को आपने ही पकड़ा था?

डॉक्टर साहब ने हाँ कहकर पीछे मुड़कर देखा। वहाँ खड़े सभी लोग मुस्कुरा रहे थे। डॉक्टर ने बौखलाहट में थोड़ा रुक-रुककर ख़ुद को सही ठहराते हुए कहा, - यह सब कैसे हो गया, मैं ख़ुद नहीं जानता। वह भागा, और मैं... जो हुआ, अच्छा नहीं हुआ।

यह सुनकर उस पुलिस अधिकारी ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, - आप ऐसा क्यों सोच रहे हैं? चोर को पकड़वाकर आपने बहुत अच्छा काम किया है। डॉक्टर ने जब एक बार और पलटकर देखा तो पाया कि सभी लोगों की नज़रों में उनकी तारीफ़ झलक रही है।

पुलिस ने उस युवा चोर को जेल में बंद कर दिया। एक पुलिस अधिकारी शिष्टाचारवश डॉक्टर को उनके घर तक छोड़ने आया। उसने उनसे विनम्रतापूर्वक कहा, - आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा। आपको तो मालूम ही है कि यहाँ चोर-उचक्कों की कमी नहीं है। आप जैसे पढ़े-लिखे भद्र लोग कम ही मिलते हैं। आपसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई।

हालाँकि नया लैम्प टूट गया था, लेकिन उसके बिना भी डॉक्टर साहब के घर में सूरज की धूप जैसी रौशनी चमक रही थी। किताबों वाले कमरे में बहुत बड़ा झाड़-फ़ानूस जल रहा था, जिसे उन्होंने उस दौर में ख़रीदा था, जब वे अभी पढ़ ही रहे थे। डाइनिंग रूम में टंगे लैम्प से भी अच्छा-ख़ासा उजाला हो रहा था। बैठक और दूसरे दो कमरों में भी रोशनी ही रोशनी थी। उनका पूरा घर दीपावली की-सी सजावट से जगमगा रहा था और अतिथियों के स्वागत के लिए तैयार लग रहा था, जबकि बाहर घुप्प अँधेरा था और तेज़ बारिश भी हो रही थी।

डॉक्टर साहब ने अपना सिर हिलाते हुए अपनी पत्नी श्रीमती वरवारा से कहा - आज बहुत बुरा हुआ।

वरवारा - क्या किसी तरह उसे ठीक नहीं किया जा सकता था?

डॉक्टर - अरे, तुम समझी नहीं। मुझे अफ़सोस तो इस बात का है कि मैंने उसे पकड़ा ही क्यों !

वरवारा - अरे, ऐसा नहीं है। उसे तुम न पकड़ते तो कोई और पकड़ता। चलो, लिविंग रुम में बैठें।

ख़ाली समय में वे बैठक में समय गुज़ारना ज़्यादा पसंद करते थे। हर शाम वे उसे रोशन रखते थे। पहले उन्हें किताबों वाला कमरा अधिक भाता था, लेकिन बैठक में नए फर्नीचर और फूलों के गमलों के आ जाने के बाद से उन्हें यह कमरा अधिक सुहाने लगा। पति-पत्नी दोनों सोफ़े पर बैठे थे, पत्नी का सर पति के कंधे पर टिका हुआ था।

वरवारा - ज़रा कल्पना करो, यदि यहाँ नया लैम्प लगा होता तो यह कमरा कैसा लगता!

डॉक्टर - हाँ, अच्छा ही होता। डॉक्टर ने कुछ सोचकर आह भरी।

वरवारा ने सोचा, - मैं बस यह देखना चाहती थी कि लैम्प यहाँ कैसा लगता, भले ही बाद में टूटता तो टूटता!

अलिक्सान्दर थोड़ा हँसे, फिर पत्नी के गाल पर चुम्बन करते हुए कहा:

- मेरी जान! तुम ख़ुश तो हो?

- हाँ, और तुम?

- वैसे तो मैं भी ख़ुश हूँ, लेकिन मेरे दिल में उस चोर के लिए एक ख़लिश-सी है।

- तुम भी हद करते हो! दरअसल, तुम बहुत दरियादिल इनसान हो। तुम ज़रा बाहर झाँककर तो देखो! बारिश की झड़ी लगी हुई है, ऐसे में उसके लिए शायद जेल ही सही जगह है। आज शाम इवानव और उनकी पत्नी हमारे यहाँ आने वाले थे, लेकिन लगता है कि वे लोग शायद ही आएँ।

डॉक्टर जेल और जेल की काली-अँधेरी, खटमलों वाली कोठरी में क़ैद उस उजड्ड दाढ़ी वाले युवा के बारे में सोचने लगे। उन्हें अपनी आँखों के आगे उसका चेहरा भी दिखाई दे रहा था। तब उनके मन में यह ख़याल भी आया कि जेल में बैठा वह व्यक्ति कुछ-न-कुछ तो ज़रूर सोच रहा होगा। ऐसा भी तो संभव है कि वह उसे पकड़वाने वाले के बारे में ही सोच रहा हो ।

विचारों में डूबे अलिक्सान्दर के मुँह से निकला, - हे भगवान ! मैंने उसे पकड़ा ही क्यों ? यह कैसी अनहोनी हो गई । यदि मैं पाँच मिनट पहले दुकान से निकल गया होता, तो यह सब न हुआ होता ।

वरवारा ने अलिक्सान्दर को सीख देने के लहजे में कहा, - हमें गली-मोहल्ले के लड़ाई-झगड़ों में कभी नहीं पड़ना चाहिए। मुझे याद है, बचपन में मैं जब अपनी मौसी के साथ रहती थी, तब एक बार हमारे घर में भी एक चोर घुस गया था। बाद में उस पर केस भी चला था…साशा ( डॉक्टर), तुमने ध्यान दिया कि पिछले एक वर्ष में हम अपने घर के लिए कितना फ़र्निचर ख़रीद चुके हैं?

डॉक्टर - हाँ, मैंने इस बारे में सोचा। उस चोर की आयु बहुत कम है, उसके चेहरे की हड्डियाँ निकली हुई हैं।

वरवारा - हमें किताबों के लिए एक अच्छी अलमारी की भी ज़रूरत है। तुम्हारी वाली अब छोटी पड़ने लगी है। मुझे यह बताओ कि जब तुम अपनी किताबें लोगों को पढ़ने के लिए देते हो, तो क्या उन लोगों के नाम लिखकर रखते हो?

डॉक्टर - अरे, मेरे से किताबें लेता ही कौन है, जो लिखकर रखूँ!

वरवारा - अरे, नहीं, नाम लिखकर रखने चाहिए। नहीं तो, एक दिन हमारे पास एक भी किताब नहीं बचेगी।

दोनों खोए-खोए से कुछ सोचने लगे, प्यार से एक दूसरे से सटे हुए कमरे में नज़रें घुमाने लगे। वरवारा ने मन ही मन याद किया कि उसकी मौसी के घर में कितनी सारी पुस्तकें थीं और वे सभी कैसे ग़ायब हो गईं। डॉक्टर ने चोर का चेहरा याद करने की कोशिश की, लेकिन नहीं कर पाए। कुछ अजनबी और कुछ जाने-पहचाने चेहरे रह-रहकर आँखों के सामने आ रहे थे, लेकिन वह चेहरा जिस पर वे सहानुभूति प्रकट करना चाहते थे, आँखों से ओझल था। तब डॉक्टर ने अँधेरी-गन्दी जेल याद करने की कोशिश की, लेकिन वह भी ठीक से याद नहीं आई।

वरवारा ने पति के बाल सहलाते हुए पूछा, - क्या तुम्हें पता है मैंने आज खाने के लिए क्या मज़ेदार चीज़ ख़रीदी है? डॉक्टर ने अनमने मन से पूछा, - क्या ?

भूख से डॉक्टर के पेट में चूहे दौड़ रहे थे, इसलिए वे कुछ सोच नहीं पाए।

वरवारा ने घमंड से इतराते हुए कहा, - लोब्स्टर्स! मुझे लगा था कि आज हमारे घर इवानव दंपत्ति आएँगे, लेकिन वे नहीं आ रहे हैं। अच्छा है न, वे नहीं आ रहे तो तुम अकेले सब खा सकते हो।

अलिक्सान्दर और वरवारा ने एक दूसरे को कई बार चूमा। उन लोगों ने चाय पी, डॉक्टर ने लोब्स्टर्स खाए और वे किताबों वाले कमरे में चले गए। अलिक्सान्दर एक उपन्यास से वरवारा को कुछ पढ़कर सुनाने लगे।

बाहर पानी तेज़ी-से बरस रहा था, लेकिन खिड़की का काँच इतना मोटा था कि उसकी गड़-गड़ न के बराबर सुनाई पड़ रही थी। बड़े झाड़-फानूस से उनका कमरा रोशन था। डॉक्टर बड़े प्यार से पत्नी को उपन्यास पढ़कर सुना रहे थे।

वरवारा ने पति के हाथ की किताब बंद करते हुए ज़रा हठ से कहा, - बस, अब पढ़ना बंद करो और सोने चलो। उसने सोफ़े से आलस से उठते हुए अपने हाथ सर के पीछे ऐसे खींचे कि उसकी छाती आगे तन गई। वरवारा के हाथ वापस लाने से पहले ही अलिक्सान्दर ने उसके गले में बाँहें डालकर उसे चूम लिया।

अलिक्सान्दर - मुझे फिर भी ख़राब लग रहा है।

वरवारा - अच्छा, छोड़ो, जाने दो, नया ख़रीद लेंगे।

वैसे तो डॉक्टर आदमी के बारे में बात कर रहे थे, लेकिन पत्नी की बात सुनकर उन्हें लगा कि वे लैम्प के बारे में ही बात कर रहें हैं। वे दोनों एक दूसरे को आलिंगन में भरते हुए सोने चले गए।