लैला की शादी / राधाकृष्ण
आखिर को लैला की माँ ने मंजूर कर लिया, कहा - "अब लैला को मजनू के हाथ ही सौंप दूँगी!"
सुननेवाले इस समाचार से खुश हो गए। लोगों ने लैला की माँ को बधाइयाँ दीं। मजनू बेचारा कितनी मुद्दत से लैला के पीछे तड़प रहा था। आशिकी के कारण इस दुनिया और उस दुनिया दोनों जगह बदनाम हो गया था। मिट्टी भारी हो गई थी और प्राणों में केवल आह भर ही बच रही थी। चलो, लैला की माँ का फैसला बड़ा अच्छा हुआ। आशिक-माशूक की जोड़ी मिल जाएगी। दोनों का भला होगा।
और उधर लैला की माँ शादी का बजट बना रही थी - सत्तर गज कीम-खाब, एक सौ सत्तर गज तंजेब, सत्रह बोरे गेहूँ, बीस बोरे चावल; पन्द्रह कनस्तर घी... !
बजट तो बन गया, पास-पड़ोसवालों ने उसे पास भी कर दिया, लेकिन सौदा कैसे मिले? लैला की माँ ने बाजार में पहुँच कर देखा कि किराना वालों के यहाँ खरीददारों का मेला लगा हुआ है, किरासन तेलवाले अपनी-अपनी दुकानें बंद करके सो रहे हैं, बाजार की दुकानों में लाठियाँ चल रही हैं। यह जर्मन की लड़ाई क्या हुई आफत हो गई। लैला की माँ घबड़ा गई। भीड़ के इस धक्के में हड्डी-पसली किसी का भी पता नहीं मिलेगा। या खुदा, अब क्या करूँ?
सहसा अँधेरे में बिजली की चमक की तरह वहाँ मजनू दिखलाई दे गया। शादी की खुशी में वह अपने दोस्त के साथ सैर करने को निकला था। लैला की माँ उसके पास पहुँच कर गिड़गिड़ाने लगी - "शादी क्या हुई, मुसीबत हो गई, कोई भी जिन्स नहीं मिलती, बेटा! देखो, मदद करो; तुम्हारी ही शादी की चीजें हैं। शुक्रगुजार होऊँगी।"
मजनू हक्का-बक्का। आँखें फाड़ कर उसने पूछा - "तुम चाहती हो कि इस भीड़ में घुस कर मैं गेहूँ खरीद लाऊँ?"
"हाँ बेटा, ज्यादा नहीं, फकत सत्रह बोरे!"
सत्रह बोरे! सुनते ही मजनू की आँखों के आगे सत्रह हजार सितारे नाचने लगे। आसमान को घूँसा मार आना आसान है, लेकिन सत्रह बोरे गेहूँ खरीद सकना उससे भी ज्यादा मुश्किल है। पसीने-पसीने हो कर मजनू ने जवाब दिया - "यह तो नामुमकिन है अम्माजान! तीन सेर का सवाल हो तो कहो; मैं लँगोट कस कर और लैला का नाम लेकर भीड़ में घुस जाता हूँ और तीन सेर गेहूँ खरीद लाता हूँ।"
लैला की माँ ने कहा - "लेकिन शादी की बात है, सत्रह बोरे से कम में काम नहीं चल सकता।"
मजनू ने आह भर कर जवाब दिया - "अब शादी हो या न हो, सत्रह बोरे गेहूँ तो तुम्हें किसी हालत में नहीं मिल सकते।"
मजनू के जवाब से लैला की माँ की हिम्मत टूट गई। आँखों में आँसू भर कर बोली - "तो क्या तुम चाहते हो कि गेहूँ के चलते मैं तुम्हारे साथ लैला की शादी मंसूख कर दूँ?"
मजनू ने कहा - "चाहता तो मैं नहीं, लेकिन लाचारी है!"
"तो यह शादी नहीं होगी?"
"शादी तो हो सकती है, लेकिन शादी में गेहूँ नहीं होंगे।"
"मैं कहती हूँ, गेहूँ के बिना शादी नहीं हो सकती।"
"तो शादी मुश्किल है!"
"यानी तुम कुछ कर न सकोगे?"
"इस मामले में मैं कर ही क्या सकता हूँ?"
अब लैला की माँ आँसू बहाती बाजार में खड़ी थी।
शहर के नामी गुण्डे उस्मान की नजर उस ओर गई। लैला की माँ के पास पहुँच कर वह उसके रोने का कारण पूछने लगा।
लैला की माँ रोती गई, फफकती गई और कारण बताती गई। सब कुछ सुन लेने के बाद उस्मान ने कहा - "इन सारी चीजों का मिलना कोई बड़ी बात नहीं है। तुम जो-जो कहो, मैं सारी चीजें खरीद दूँ; लेकिन दुनिया में एक मजनू ही तो लड़का नहीं। मैं भी लैला के लिए कब से तरस रहा हूँ; लेकिन हाँ, उस मजनू की तरह चिल्ला-चिल्ला कर मुझसे आह नहीं भरी जाती। तो देखो, अगर लैला की शादी मेरे साथ कर सको... "
और भीड़ को चीर कर उस्मान दूकानदार के पास पहुँच गया - "क्यों सेठ, लगाऊँ दो रद्दे या देते हो सत्रह बोरे गेहूँ?"
दुकानदार ने घबरा कर कहा - "सत्रह बोरे!"
"हाँ-हाँ, सत्रह से ले कर सत्रह सौ बोरे तक गेहूँ तुम्हें देना पड़ेगा, समझ रखो, वर्ना तुम हो और मैं हूँ!"
दुकानदार उस्मान के कान में जा कर फुसफुसाने लगा - "भाई, तुम्हें जो-जो चीजें चाहिए, उनकी लिस्ट देते जाओ। सारी जिन्स जहाँ तुम कहो, पहुँचवा दूँगा। दाम के लिए भी कोई बात नहीं। हाँ!"
और गेहूँ, गल्ला, कपड़े, किरासन सब ठेले पर लद-लद कर लैला की माँ के दरवाजे पर पहुँचने लगे।
अब आज के समाचार-पत्र में पढ़ रहा हूँ कि लैला की शादी उसी उस्मान से होनेवाली है। मजनू बेचारा निराश हो कर मिलिटरी में भर्ती हो गया।