लॉफिंग क्लब / सुकेश साहनी
हरिहर बाबू पार्क के सामने ठिठक गए। वहां जमा लोगों के सम्मिलित ठहाकों से वातावरण गूंज रहा था। उनके बहुत से हमउम्र साथी उस क्लब के मेम्बर हो गए थे और अक्सर उनसे भी इसमें शामिल होने के लिए कहते रहते थे। पिछले कई दिनों से वह ठीक से सो नहीं पा रहे थे, इसी वजह से उनकी आंखें सूजी हुई थीं और सिर चकरा रहा था।
थोड़ी देर तक वह उन हंसते हुए लोगों की ओर देखते हुए न जाने क्या सोचते रहे। फिर थके–थके कदमों से पार्क के भीतर जाकर उन व्यायाम करते लोगों की पिछली कतार में शामिल हो गए।
‘‘...फेफड़ों में धीरे–धीरे हवा भरो....छोड़ो, भरो...,’’ लॉफिंग क्लब का बूढ़ा ग्रुप लीडर कह रहा था, ‘‘अब जोर का ठहाका लगाओ।’’
‘‘हा हा हा हा....’’ हरिहर बाबू ने भी ठहाका लगाया।
....जब दुकान छोटे को देना चाहते हैं तो उसी के पास रहें जाकर।....हम लोगों की छाती पर क्यों चढ़े बैठे हैं....
‘‘हा...हा...हा...’’ इन जहर बुझे तीरों से बचना चाहते हैं हरिहर बाबू।
...दिन रात की खटर- पटर...तांक–झांक! जीना हराम कर रखा है। हमारी तो कोई प्राइवेसी ही नहीं रही....
‘‘हा हा हा....’’ ठहाकों के पीछे छिप जाना चाहते हैं ढाल हरिहर बाबू।
...हर चीज पर तो कुंडली मारे बैठे हैं, बुड्ढन!...
‘‘हा...हा...’’ ठहाकों की आवाज बहुत दूर से आती मालूम देती है उन्हें।
...बहुत लंबी उम्र पाई है इन्होंने....हमें मारकर ही मरेंगे...
‘‘हो हो हो हो...’’ तीरों की बौछार से ठहाकों की ढाल मिट्टी की तरह भुरभुरा जाती है।
ग्रुप लीडर के इशारे पर सब आराम की मुद्रा में आ गए थे। ठहाकों की वजह से सभी की आंखें भीगी हुई थीं। ऐसे में हरिहर बाबू को अपने आंसुओं से तर चेहरे को किसी से छिपाने की जरूरत महसूस नहीं हुई।
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