लोकगायक औघड़ कवि (दिनेश कुमार शुक्ल) / नागार्जुन
कविता की निर्मिति की प्रक्रिया को साक्षात् घटित होते हुए देखना हो तो हिंदी के बड़े कवि बाबा नागार्जुन के सहयोगी बनने की कल्पना कीजिये। अपने सारे संभव आयामों में प्रकट होकर यह कविता पढ़े जाने पर सिर्फ़ भाषा तक ही सीमित नहीं रह जाती। यह कविता नुक्कड़ नाटक, नारा, ललकार, उद्बोधन और प्रहार तक कुछ भी बन सकती है। नागार्जुन की कविता मुख्यतः अभिधा के उदात्तीकरण की कविता है। तभी तो इस कविता में रोज़मर्रा का एक अत्यंत साधारण-सा दृश्य देखते-ही-देखते क्या-से-क्या बन जाता है और पाठक को अपने ऊर्जस्वित प्रवाह में बहा कर कहां-से-कहां पहुंचा देता है। यह कविता फ़्लैश-फ़्लड की तरह आकर मन में जमा कूड़ा-करकट, झाड़-झंखाड़ को बहा कर दूर फेंक देती है और धीरे-धीरे कविता का प्रवाह सम पर आते-आते आपके मानस को शारदीय निर्मल जल से भर कर चला जाता है। भ्रम और भटकाव समाप्त हो जाते हैं। दृष्टि साफ़ हो जाती है। विचार स्पष्ट और संवेदना सजग हो जाती है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि नागा बाबा आज भी इस धराधाम पर विराजमान हैं और अपनी औघड़ यात्रा के किसी पड़ाव को फ़िलमुक़ाम आबाद किये हुए हैं। बस इतना है कि वह पड़ाव किसी बड़े पहाड़ की ओट में पड़ता है, इसलिए वे दिख नहीं रहे। वैसे तो मेले-ठेले में, आंदोलन-हड़ताल में, भीड़-भड़क्का में बाबा के पाये जाने की संभावना अधिक रहती है, किंतु क्या पता कभी किसी गली के छोर पर नाई की दूकान पर बैठे बड़ा-सा लेंस लिए बाबा आपको अख़बार पढ़ते मिल जायें। बाबा की न जाने कितनी कविताएं इन अख़बारों के भीतर छिपी ख़बरों के अंदर कुलबुला रही हैं। लगता है, एक न एक दिन बाबा इन्हें कविता में रूपांतरित करेंगे ज़रूर। इतने बड़े-बड़े घोटाले, इतनी हिंसा, इतना युद्ध, इतने विस्थापन, इतनी महंगाई... यह सब क्या अनकहा ही रह जायेगा। चूंकि यह कविता एक यात्राी की कविता है जो स्वर्ग से पाताल तक की यात्रा अनायास ही करती रही है, इसलिए इसमें ‘नारदीय’ परंपरा की छेड़खानी, व्यंग्य, खिलंदड़ीपन और ख़बर पहुंचाले वाली प्रवृत्ति का प्रभाव लगातार उपस्थित रहता है। भले ही वह क्लासिकल कसावट वाली ‘अमल धवल गिरि के शिखरों’ की कविता हो, लेकिन उसमें भी हंसी-मज़ाक और छेड़खानी की रौ आ ही जाती हैμइस कविता का ‘कस्तूरीमृग’ इसी छेड़खानी के चलते ख़ुद अपने ऊपर चिढ़-चिढ़ कर इधर-उधर खूंदने लगता है। 1976 का वर्ष आपातकाल का वर्ष था। इस समय अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता पूरी तरह समाप्त कर दी गयी थी। निराशा के भयानक अंधकार में देश डूबा हुआ था। ऐसे में भी नागार्जुन की कविता ‘चंदू मैंने सपना देखा’ में एक खिलंदड़ी उम्मीद के सपने का जीवंत चित्रा देखते ही बनता है। ‘चंदू मैंने सपना नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 295 देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा/ चंदू मैने सपना देखा, अमुआ से हूं पटना लौटा/.../ चंदू मैंने सपना देखा तुम हो बाहर, मैं हूं बाहर/चंदू मैंने सपना देखा लाये हो तुम नया कलैंडर’। और सचमुच ही किसी भविष्यवाणी की तरह अगले वर्ष 1977 का नया कलैंडर अपने साथ अभूतपूर्व पतिवर्तन की लहर लाया जिसमें तानाशाही के धुर्रे उड़ गये। सत्तर के दशक की नागार्जुन की कविताएं भारतीय चेतना की सबसे प्रामाणिक और प्रतिनिधि कविताएं हैं जिनमें सिर्फ़ तात्कालिक घटनाओं का ही वर्णन नहीं हैं, बल्कि अर्थ और रूप की ऐसी लय है जो कालातीत है और जिसके पाठ में भारतीय राजनीति के वर्गचरित्रा का सच्चा ख़ाका सहज ही पढ़ा जा सकता है। यह पाठ इतना सहज है कि अपढ़ जनता तक इस कविता के अर्थ-संसार में आसानी से पहुंच बना लेती है। इसीलिए यह संभव हुआ कि अपने समय के सबसे अधिक लोकप्रिय कवि के रूप में नागार्जुन का स्थान अद्वितीय बना रहा। जहां एक ओर इस कविता का निःसंग सधुक्कड़ी स्वभाव है तो वहीं दूसरी ओर घोषित तौर पर यह प्रतिबद्धता की कविता है। प्रतिबद्धता से भी आगे बढ़ कर यह आबद्धता और संबद्वता की कविता है। संबद्धता ऐसी जैसी पिता-पुत्रा या मां-बेटे के बीच की। आबद्धता ऐसी जैसी पति-पत्नी, भाई-भाई, भाई-बहन के बीच की। और प्रतिबद्धता ऐसी जो संबद्धता और आबद्धता के साथ-साथ एक सैद्धांतिक-संवेदनात्मक चेतनात्मक-क्रियात्मक एकता का प्रतीक है। नागार्जुन ने मानो फ्री थिंकर्स, शुद्ध कलावादियों को चुनौती देते हुए, अपना घोषणा पत्रा जारी किया हो, ‘प्रतिबद्ध हूं/संबद्ध हूं/ आबद्ध हूं/... /बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त/ संकुचित ‘स्व’ की आपाधापी के निषेधार्थ/ अविवेकी भीड़ की भेड़िया धसान के खि़लाफ/अंधबधिर व्यक्तियों को सही राह बतलाने के लिए/अपने आपको भी व्यामोह से बारंबार उबारने की ख़ातिर/ प्रतिबद्ध हूं, जी हां, शतधा प्रतिबद्ध हूं’। नागार्जुन की प्रतिबद्धता दूसरों को दिशा दिखाने के साथ-साथ अपने आपको भी लगातार कसौटी पर कसते रहने की प्रतिबद्धता है। यह प्रतिबद्धता हर प्रकार की जड़ता, भेड़िया-धसान और अपने आम्यंतर के अधंकार से लगातार संघर्ष करने की प्रतिबद्धता है। इसीलिए कभी-कभी के विचलनों के बावजूद, नागार्जुन ने खुल कर आत्मालोचना की और अपने ‘भटकाव’ को भी स्वीकार किया। ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने’ एक इसी प्रकार की कविता है जिसमें नागार्जुन ने एक बड़े जनांदोलन में भाग लिया, जेल गये लेकिन फिर भी उस जनांदोलन के वगचरित्रा और कमज़ोरियों का उन्होंने पूनर्मूल्यांकन किया और भविष्य के लिए चेतावनी और सावधानी का रास्ता भी दिखाया। अब यह अलग ब त है कि नागार्जुन के द्वारा समय-समय पर की गयी ‘आत्मालोचना’ की भी काफ़ी आलोचना की गयी और ई लोगों को उसमें कवि का डगमग स्वभाव ही दिखायी दिया। नागार्जुन संघर्षरत जनता के कवि हैं। सिद्धांत मनुष्य के लिए होते हैं न कि मनुष्य सिद्धांत के लिए। लेकिन, बिना सिद्वांत का मनुष्य मनुष्य नहीं पशु हो जायेगाμयह भी उसी सत्य का दूसरा पहलू है। सिद्धांत जड़ता से ग्रस्त होकर सिद्धांत नहीं रह जाते, वे रूढ़ि बन जाते हैं। कवि की लड़ाई इसी रूढ़ि से होती है। इसीलिए तथाकथित राजनीतिक आकलनकारों को कवियों में विक्षेप और विचलन प्रायः दिखायी दे जाता है। जब कि सच्चाई यह है कि कवि का यह ‘विचलन’ सिद्धांत की जड़ता पर प्रहार है न कि सिद्धांत के मूल तत्व पर। नागर्जुन की कविता जनांदोलन की कविता है। वह सावधान करती चलती है, उद्वेलित करती है, आह्नान करती है, नारे लगाती है और कभी-कभी उकसाती और उत्तेजित भी करती है। यह कविता तटस्थ पाठक को धकेल कर जुलूस के भीतर पहुंचा देती है, उसके अंदर सत्य की पक्षधरता पैदा करती है और धीरे-धीरे उसे सक्रिय कार्यकर्त्ता में भी बदल सकती है। नागार्जुन की 296 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 कविता का पाठक कविता के स्वर में स्वर मिला कर संघर्ष में शामिल हो जाता है। महाप्राण निराला के बाद नागार्जुन में ही कविता का वह प्रवाह दिखायी देता है जो न उसके पहले है न उसके बाद। यहां कविता ज्वार की तरह उमड़ती हुई आती है। निराला की कविता में आस्था ही प्रबल है, अनास्था तो यदा-कदा ही तिलमिलाहट की तरह प्रकट होती है। किंतु नागार्जुन की कविता का तो स्थायी भाव ही अनास्थावादी है। ‘कल्पना के पुत्रा, हे भगवान ’ शीर्षक कविता में नागार्जुन लगभग चुनौती देते हुए कहते हैं: कल्पना के पुत्रा, हे भगवान चाहिए मुझको नहीं वरदान दे सको तो दो मुझे अभिशाप प्रिय मुझे है जलन, प्रिय संताप चाहिए मुझको नहीं यह शांति चाहिए संदेह, उलझन भ्रांति .... बाप-दादों की तरह रगडूं न मैं निज नाक मंदिरों की देहली पर पकड़ दोनों कान ऐ हमारी कल्पना के पुत्रा, हे भागवान। किंतु इस प्रसंग में यह कहना ज़रूरी है कि नागार्जुन का अनीश्वरवाद कोई यांत्रिक दर्शन नहीं था बल्कि उसमें जीवन और जगत के उदात्त स्वरूप को परखने-समझने वाली जीवन दृष्टि के साथ-साथ सौंदर्य को उद्भासित करने वाली संवेदना और विवेक की संजीवनी भी थी। सूर्योदय के सौंदर्य से अभिभूत नागार्जुन की एक कविता है ‘पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने’: आओ मेरे साथ रत्नेश्वर देखेंगे आज जी भर कर उगते सूर्य का अरुण-अरुण पूर्ण बिंब जाने कब से नहीं देखा था शिशु भास्कर आओ रत्नेश्वर कृतार्थ हों हमारे नेत्रा देखना भई, जल्दी न करना लौटना तो है ही मगर यह कहां दिखता है रोज़-रोज़.... पछाड़ दिया आज मेरे आस्तिक ने मेरे नास्तिक को...। यह वही चीज़ है जो कवि की आत्मा को लगातार बेचैन कर देने वाली अवस्था में खींच ले जाती है। यही बेचैनी मायकोव्स्की, मांदेल्त्शाम, आख़्मातोवा और लू-शुन को भी पार्टी लाइन के ‘लौह पथ’ से हट कर चलने की ताक़त देती रही। यही बेचैनी नागाुर्जन, त्रिलोचन, निराला और मुक्तिबोध के यहां भी है किंतु यह बेचैन अराजकतावादी भाववाद बेचैनी से हट कर एक अलग तरह की, अन्वेषण करने वाली, नया रास्ता बनाने वाली, सार्थक बेचैनी है। यह वह ‘चीज़’ है जो कवि को कवि बनाये रखती है और उसे ‘राजनीतिक पशु’ होने से बचाये रखती है। राजनीति की बनावट ही ऐसी है कि उसे अपने ‘मूलपाठ’ को बचाये रखने के लिए भले ही न्यूनतम, एक व्याकरण गढ़ना पड़ता है। उसके आख्यान और पाठ एक नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 297 ‘प्रणाली’ के अंतर्गत ही तैयार किये जा सकते हैं। इस ‘संरचनात्मक’ मजबूरी के कारण राजनीति प्रायः कालप्रवाह का साथ नहीं दे पाती। जब कि साहित्य (और उसमें भी विशेष रूप से कविता) किसी भी बनावट, बुनावट या संरचना के विरोध पर ही पनपता है। साहित्य का मूलभाव ही प्रतिपक्ष की भूमिका वाला होता है। प्रगतिशीलता साहित्य के जीवद्रव्य का, साहित्य की जैविकी का मूलाधार है। साहित्य समय का सबसे बड़ा पारखी होता है। इसलिए उसे अग्रगामी दस्ते की भूमिका निभानी होती है। नागार्जुन इस अग्रगामी दस्ते में भी सबसे आगे चलने वाली टुकड़ी के सिपाही थे। उन्होंने बहुत पहले ही भारतीय जनजीवन के दैन्य के कारणों को समझ लिया थाμउनकी अनेकानेक कविताएं इसके जीवित प्रमाण हैं। नया तरीक़ा, बाक़ी बच गया अंडा, प्रेत का बयान, भुस का पुतला, मास्टर, आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी, आये दिन बहार के, शासन की बंदूकμजैसी अनेक कविताएं हैं जो नेहरू युग के स्वप्नभंग के दस्तावेज़ों की तरह हैं। ये कविताएं आम आदमी के कंठ में बस जाने वाली कविताएं है। इनका सत्य आज भी उतना ही भास्वर है, उतना ही प्रामाणिक, उतना ही तिलमिला देनेवाला और उतना ही करुण जितना वह आज से पचाल साल पहले था। नागार्जुन की कविता के विशाल पटल पर मनुष्य के साथ-साथ जीव-जंतुओं के दुःख-सुख के मार्मिक चित्रा अंकित हैं। मनुष्य प्रकृति से कहीं भी दूर नहीं है। नागार्जुन की कविता का मनुष्य स्वयं प्रकृति का ही एक हिस्सा है और उसी के साथ एकमेक है। यह मनुष्य न तो प्रकृति का विजेता है न स्वामी है और न ही उसका प्रकृति के साथ कोई शत्राुतापूर्ण अंतर्विरोध है। नागार्जुन की यह जीवनदृष्टि उसी भारतीय परंपरा का अगला चरण है जिससे पूरी की पूरी भक्तिकालीन कविता भरी पड़ी है। मनुष्य के सुख-दुख के साथी अगर बानर-भालू हैं तो कुत्ते, छिपकलियां, चूहे भी उसके साथ ही संसार सागर को पार कराने वाले सहभागी हैं। ऐसी एक कविता है ‘नेवला’। यह लंबी कविता विशेष अध्ययन की मांग करती है। यह उसी परंपरा के सफल निर्वाह का उदाहरण है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है। नाग और नेवले में जनम-जनम का वैर है। किंतु नागा-अर्जुन का ‘नेवला’ किसी ‘दुलरुआ’ संतान की तरह कवि का और उनके साथ कारावास में बंदी दूसरे लोगों का स्नेहभाजन बन जाता है। पूरी कविता में मनुष्य और बृहत्तर जीवन की सांगोपांग एकता का बड़े कौतुकी अंदाज़ में वर्णन किया गया है। ‘नेवला’ कविता का रचनाकाल और रचनास्थल आपातकाल के समय का कारागार है जो अंधकार का प्रतीक है। कारा को भेद कर उसमें आवाज़ाही करने वाला नेवला मुक्ति का प्रतीक है। आपातकाल की तानाशाही के सर्प ने पूरे देश को अपने सांघातिक गुंजलक में जकड़ रखा था। इस कविता में खेल-खेल में, बिना कुछ कहे हुए, इस नेवले को संघर्ष के प्रतीक के रूप में स्थापित किया गया है। ऐसा लगता है मानो ‘नेवला’ आपातकाल के सर्प को खंड-खंड करके जनजीवन को तानाशाही से मुक्ति दिलायेगा। साहित्य में ऐसे अनेक प्रसंग आते हैं जहां जीव-जंतु, पशु-पक्षी मनुष्य के साथी बन कर अत्याचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ते हैं और मनुष्यता की विजय में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं। माखनलाल चतुर्वेदी की कविता में जेल के भीतर आने वाली कोमल स्वतंत्राता और मुक्ति आशा के रूप में ही आती है। और नेवले की कथाएं तो, अनेक प्रकार से लोकजीवन के गीतों और कहानियों का विषय बनती रही हैं। भारत के गांवों में सर्पदंश के कारण मृत्यु के हज़ारों मामले हर साल होते हैं, ऐसे में सांप का दुश्मन नेवला अपने आप मनुष्य का मित्रा बन जाता है और अक्सर मनुष्य और उसके बच्चों को सर्पदंश से बचाता है। नागार्जुन का ‘नेवला’ पूरे कारागार में अपने खेल, कौतुक, खिलंदड़ेपन और निडरता के द्वारा जीवन का, मुक्ति का, आशा का 298 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 संचार करता घूमता रहता है। न उसके आने पर प्रतिबंध, न जाने पर। और तो और, वह जेलर के घर में भी उसी ढिठाई से रहता है जैसे बाहर। अपनी लगन और बुद्धिमत्ता के बल पर वह ‘गोश्त’ के उस टुकड़े को भी उछल कर पकड़ लेता है जो रस्सी में बांध कर ‘अखलाक बाबू’ ने उसकी पहुंच से दूर ऊपर टांग रखा है। इस नेवले की सारी स्फूर्ति में, संचलन में, उद्यम में, कौतुक में कवि नागार्जुन स्वयं ही कहीं न कहीं छुपे हुए हैं। एक कठिन देश काल में भी आनंद और मुक्ति का चित्राण करने वाली यह अनुपम कविता नागार्जुन के कविकर्म के फलक की विशालता का प्रमाण है। लोकभाषा, लोककथा, लोकलय और लोकध्वनि के कवि नागार्जुन की कविता स्वतंत्रा भारत के संघर्षरत जगनण की कविता है। भाषा और ध्वनि तथा लय के विविध रूप-रंगों से रची हुई यह कविता बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध का प्रामाणिक दस्तावेज है जिसमें नयी किस्म के सौंदर्यबोध की रचना की गयी है। जहां एक ओर कालिदास के स्थापत्य वाली कविताएं हैं, हिमालय के, सूर्योदय के, फलो-फूलों के अप्रतिम चित्रा हैं, वहीं ‘अधेड़ मादा सूअर’, ‘कगार पर खड़ा कोढ़ी गूलर’, ‘खुरदरे पैर’, ‘घिन तो नहीं आती है’ जैसी कविताएं भी हैं जो ऊपरी कुरूपता के भीतर छिपे हुए सौंदर्य की झलक दिखाती हैं। यह नयी सौंदर्यदृष्टि नागार्जुन ने अपनी प्रबुद्ध राजनीतिक चेतना के द्वारा अर्जित की थी। ये कविताएं ‘कुकुरमुत्ता’ की परंपरा को आगे बढ़ाने वाली कविताएं हैं। नागार्जुन ने हिंदी कविता के लिए नयी ज़मीन तोड़ी। नये प्रतिमान स्थापित किये। नयी राहें बनायीं। किंतु परंपरा के जीवन-रस की सरिता को उन्होंने सदैव सजल बनाये रखा। उनकी अप्रतिम सृजनशक्ति और काव्यसाधना ने हिंदी की यथार्थवादी कविता के लिए नये काव्यलोक और काव्यभाषा की रचना की। प्रगतिशील भारतीय कविता के क्षेत्रा में उनके जैसा लोकप्रिय लोकगायक दूसरा और कौन है? मो.: 09810004446