लोकजीवन में लोकगीतों का महत्व / प्रदीप प्रभात
लोकगीत मानव जीवन की अनुभूत अभिव्यक्ति और हृदयोदगार है तथा जीवन का स्वच्छ और साफ दर्पण भी है, जिसमें समाज के व्यक्त जीवन का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। लोकगीत मनुष्य के स्वाभाविक भावनात्मक स्पंदनों सें जितना जुड़ा हुआ है उतना वाणी के किसी रूप में भी नहीं। लोकगीत ही लोकजीवन की वास्तविक भावनाओं को प्रस्तुत करता है। इसमें मनुष्य मात्र के पारिवारिक और सामाजिक जीवन का सामयिक तथा भावनात्मक चित्रण रहता है। जीवन के सभी पहलुओं एवं विभिन्न परिस्थितियों में मनुष्य के मानसिक एवं शारीरिक व्याापार जैसे ही होते हैं, उनका यथातथ्य चित्रण लोकगीत में मिलता है। लोकगीत में सामूहिक चेतना की पुकार मिलती है। इसमें जनता के जीवन का इतना विशद चित्रण होता है कि उनमें मूल संस्कृति तथा जनजीवन का पूर्ण चित्रण मिल जाता है। लोकगीतों में हमारी मूल संस्कृति जिसे हम लोकसंस्कृति कहते हैं विरासत के रूप में रखी होती है।
लोकगीत के द्वारा जनजीवन के सभी पक्षों का दर्शन होता है। जनसमाज के अपने गीत होते हैं जिनमें किसी समाज विशेष की जीवनानुभूति की अभिव्यंजना होती है। जीवन की प्रत्येक अवस्था जन्म से लेकर मृत्युपरांत लोकगीत समयानुकूल भावनाओं को अभिव्यक्ति देता है। लोकगीत में जीवन के हर्ष-विषाद, आशा-निराशा, सुख-दुख सभी की अभिव्यक्ति होती है। इसमें कल्पना के साथ रस-वृŸिा भावना और नृत्य की हिलोर भी अपना काम करती है। इसमें हृदय का इतिहास अभिव्यक्त होता है। जीवन का कोई ऐसा पहलू नहीं, ऐसा दृष्टिकोण नहीं, ऐसा स्पंदन नहीं जो लोकगीतों की सीमा का संस्पर्श न करता हो। लोकगीतों से मनुष्य की व्यवहारिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति होती है-काम का बोझ हल्का करना, अत्याचार का विरोध करना तथा सामान्य जनता का मनोरंजन करना।
लोकगीत अशिक्षित सामान्य जनों के उपयोग का कलात्मक माध्यम है। लोकगित अपनी सरलता और सवाभाविकता के कारण ही मोहक होता है। लोकगीत समाज धरोहर ही नहीं लोकजीवन का दर्पन भी है। लोकगितों की प्रमुख विशेषता है कि इसमें निहित मिठास छंद के स्थानों पर इसके लय में अद्भूत मिठास और संवेदना भरा होता है। जिसे पढ़ने में जितना आनन्द नहीं मिलता उससे ज़्यादा सुनने में आनंद मिलता है। लोकगीतों का गायन बहुतायत में होता है।
अंगजनपद के अंगिका लोकगीतों को निम्न श्रेणियों में विभाजित कर अध्ययन कर सकते हैं-
1. संस्कार गीत: इसके अंतर्गत संस्कारों की संख्या 16 मानी गई है जैसे-सोहर, खेलावन, मुण्डन, जनेऊ, विवाह, कोहवर, बेटी विदाई, समुझावन, गौना, आदि के गीत।
2. ऋतु गीत: इसके अंतर्गत कजली, बारहमासा, फगुआ, चैता आदि गीत आते हैं।
3. व्यवसाय या श्रम गीत: इसके अंतर्गत जतसार, रोपनी, कोल्हू, मल्लाह, आदि गीत आते हैं।
4. पर्व त्यौहार के गीत: इसके अंतर्गत छठ गीत, तीज, जितिया, करमा, बिहुला-विषहरी आदि के गीत आते हैं।
5. धार्मिक गीत: इसके अंतर्गत शीतला माता का गीत, प्रभाती, निर्गुण, ग्राम देवता, आदि गीत आते हैं।
6. लीला गीत: इसके अंतर्गत झुमर और झुलन गीत आते हैं।
7. लोरी: ये नवजात शिशुओं के गीत आते हैं।
8. बाल क्रीड़ा गीत: इसके अंतर्गत खेल गीत आते हैं।
संस्कार गीत के अंतर्गत 'सोहर' एक लोकगीत है जो पुत्रजन्म के शुभ अवसर पर गाये जाने वाले गीत हैं जिसे 'सोहर' की संज्ञा दी गई है। 'सोहर' गीत का एक उदाहरण देखिये-
नौ महिना जबेॅ बितलै, कान्हा जबेॅ अवतार लेलकै हे।
रामा, बाजै लागलै आनन्द बधावा, महल उठै सोहर हे।
ऋतुगीत में कजली लोकगीतों का विशेष स्थान है। सावन में घिरने वाले श्याम मेघ का वर्णन करने के कारण ही इन गीतों को 'कजली' कहा जाता है। यथा-
झूला लगे कदम के डारी झूले राधा प्यारी ना।
कौन काठ के बने हिंडोंला, कथी के डोरी ना।
चन्नन काठ के बने हिंडोला, रेशम डोरी ना।
'छठ' गीत का एक नमूना देखिये-
'काँचियो बाँस केरो बाँघी
बाँधी लचकल हे जाय'
व्यवसाय या श्रम गीत के अंतर्गत 'जँतसार' गीत आता है 'जतसार' लोकगीत का एक वानगी देखिये-
सासु देलकै गहुँमा, ननदो देलकै चंगेरियो रे जान।
गोतनी रे बैरिनियाँ भेजै जँतसरियो रे जान।
'लोरी' लोकगीत उतनी ही प्राचीन है जितनी मानव की सृष्टि। माँ-मौसी बच्चों को थपकियाँ देकर सुलाती हैं, पालने पर बच्चों को सुलाने की एक वानगी देखिये-
आव-आव गे फुदो चिरैया,
अण्डा पारी-पारी जो गे।
तोहरा अण्डा आगिन लागौं,
नुनु आँखी नीन गे।
झूमर का एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है-
कहाँ केरो मूँगा मोती, कहाँ केरोॅ छींट गे सजनी।
सजनी कहाँ केरोॅ राजा बेटा जोड़ावै प्रीत गे सजनी।
भागलपुर के मूँगा-मोती, सूजागंज के छींट गे सजनी।
सजनी पटना के राजा बेटा जोड़वै प्रीत गे सजनी।
खेल लोकगीत के नमूने यहाँ प्रस्तुत हैं-
सेल कबड्डी आला / तबला बाजाला। / तबला में पैसा लाल बतासा।
उपरोक्त सारे संस्कार लोकगीतों में विद्यमान है इन संस्कारों का जीवन में बड़ा महत्त्व है। मानव इन संस्कारों के द्वारा जन्मजात अपवित्रताओं से छुटकारा पाकर सच्चे मनुष्यत्व को प्राप्त करता है। संस्कारों के विधान के पीछे यही दृष्टिकोण लोकगीतों में समाहित है। लोकगीतों में लोकमानस की सहज अभिव्यक्ति होती है। लोकगीतों के पीछे सामाजिक परंपरा होती है, मानवीय मूल्य और सम्मान का भाव छिपा रहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि लोकगीत की भावसंगति सम्पूर्ण लोक की मंगलकामना के रूप में ही उद्भाषित नजर आती है। लोकगीतों ने मूलस्त्रोत से कभी किसी को अलग नहीं होने दिया। यही लोकगीत की विशेषता है।
निर्विवाद रूप से लोकजीवन में लोकगीतों का काफी महत्त्व हैं।