लोकतंत्र की जड़ें / राजेन्द्र वर्मा
लोककथाओं और 'पञ्चतन्त्र' से पता चलता है कि शेर जंगल का राजा होता है। मनुष्य ने सदैव पशुओं से प्रेरणा ली है। श्रम-परिश्रम, मूर्खता-चालाकी, निस्पृहता-लूट, हिंसा-अहिंसा जैसे गुणों को मनुष्य ने गधा, गाय, भैंस, बैल, लोमड़ी, भेड़िया जैसे पशुओं से हथियाये हैं। राजा बनने की ललक उसे सिंह नामक पशु से प्राप्त हुई। भाषाविज्ञानी के अनुसार, 'सिंह' की उत्पत्ति 'हिंस' (हिंसा) की उलटबांसी से ही हुई है।
राजा बनने के लिए आज के राजाओं के पूर्वजों ने कितने पापड़ बेले; कितनी गालियाँ खायीं और कितनी थू-थू बरदाश्त की-इसका अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है! बौद्धिक, वामपन्थी, दीन-हीन अविलासी और आउटडेटेड लोग भले ही राजा-प्रजा की लोकतंत्र नामक अत्याधुनिक व्यवस्था के पक्ष में न हों और वे इसे गुण की बजाय दोष की संज्ञा दें; परन्तु राज्य और धर्म की सत्ता के ठेकेदार इसके पक्ष में सदैव रहे हैं और रहेंगे। मुफ़्त की मलाई वाला विमर्श किसे नहीं भाता!
अध्येता बताता है कि सत्ता का जन्म किसी खाये-अघाये आदमी से हुआ। रात्रि के चौथे प्रहर उसे दिव्य स्वप्न आया कि वह किसी पर लदा है और आराम से जीवन व्यतीत कर रहा है। साथ-ही उसके यश में निरन्तर वृद्धि हो रही है तथा उसे और उसके वंशजों को ईश्वर के प्रतिनिधि का दर्ज़ा भी मिल रहा है। ...चारों दिशाओं में उनकी जयकार हो रही है। ... जब उसकी आँख खुली तो वह सपने को सच में ढालने की परेशानी के साथ बिस्तर पर करवटें बदल रहा था! कोई घंटे-भर की मानसिक कुश्ती के बाद उसने स्वस्थ चित्त से निर्णय लिया कि अब वह अपने पैरों को कदापि कष्ट न देगा।
प्रातः नित्यकर्म और पूजा-पाठ से निवृत्त हो उसने दो दिनों के भूखे एक ऐसे आदमी को पकड़ा, जिसके माँ-बाप न तो जीवित न थे और न ही उसके किसी भाई-बहन ने जन्म लिया था। कुछेक रिश्तेदार थे, लेकिन वे भी भूखे मर रहे थे। भूख से मरने के अनेक कारणों का प्रमुख कारण यह था कि वे भूमिहीन विपन्न मजदूर, बेरोज़गार, छोटे किसान जैसे लोग थे और दिन-भर हाड़तोड़ मेहनत के बदले दो सूखी रोटियों के हक़दार थे।
भू-स्वामी, व्यापारी, अधिकारी जैसे खाये-अघाये लोगों ने उस भूखे आदमी को रोटी दिखायी। रोटी देख भूखा आदमी, 'माई-बाप, माई-बाप' कहता हुआ उनके पैरों पर लोटने लगा। ... तब खाये-अघाये आदमियों में से एक ने उसकी पीठ पर धीरे से पाँव रखा। भूखा आदमी तिलमिलाया, लेकिन उसकी आँखों में रोटी थी; भूख से रोते-बिलखते बच्चे थे, इसलिए वह पीठ पर पाँव का भार चुपचाप सहन करता रहा। लेकिन जब उसकी पीठ ने महसूस किया कि उस पर एक-दो नहीं, कई पाँवों का भार है, तब वह झल्लाकर सीधी हो गयी और खाये-अघाये लोग ज़मीन पर औंधे मुँह गिर पड़े! अचानक गिरने से किसी का होंठ फटा, किसी का माथा, किसी के गाल में खरोच आयी और किसी के हाथ में मोच। ...
खाये-अघाये परिवार ने इसे अपना अपमान माना और उसने भूखे आदमी से बदला लेने की ठानी। ईश्वर की कृपा उनके साथ थी, क्योंकि धर्म को उन्होंने पहले ही भेड़ा बना रखा था। उन्होंने ऐसे तमाम लोगों को अपने साथ मिलाया जो पैदाइशी ग़रीब थे और अपने-अपने देवता की कृपा से अमीरों की तरह बैठे-ठाले रोटी, धनादि चाहते थे। ... उन्होंने उनसे अपनी कार्य-योजना डिस्कस की। उनमें से कई योजना से सहमत न थे, परन्तु परिजनों के आगे वे भी विवश हो गये।
ऐसे विभीषणों की सहायता से वह पुनः भूखे आदमी की पीठ पर सवार हुए। भूखे आदमी ने विरोध करने की सोची, पर अपने आगे-पीछे, दायें-बायें तैनात लट्ठधारियों को देख उसे चुप रहना पड़ा। ... भूखे आदमी के डर के मारे चुप रहने पर खाये-अघाये लोगों ने उसकी सहमति समझी और शाम को उसके सामने दो रोटियाँ डाल दीं। ... रोटी पाकर भूखा आदमी पेट=भर सन्तुष्ट हो गया और दिन भर का ग़ुस्सा पानी के साथ कंठ-भर पी गया। (पाठको! रोटी यहाँ संवेदना का प्रतीक नहीं है। इसे इस तरह समझा जाना चाहिए कि किसी बैल को दिन भर रगेदने के बाद शाम को अगर उसे भूसा न खिलाया गया, तो क्या अगले दिन गाड़ी में गाड़ीवान जुतेगा?)
देखा-दूनी यह प्रक्रिया यत्र-तत्र-सर्वत्र सम्पन्न होने लगी और कुछ ही दिनों में खाये-अघाये लोग क्लब और एसोसिएशन बनाकर सार्वजनिक रूप से भूखे लोगों की पीठों पर सवार होने लगे! बौद्धिकों की सलाह, बहस-मुहाबसे मध्यम वर्ग को ध्यान में रखते हुए मीडिया ने इस प्रक्रिया को 'शिकार-शिकारी' नामक खेल की संज्ञा दी। धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी कि पुराणों और उपनिषदों में भी इस क्रीड़ा को स्थान मिलने लगा। ईश्वर को इस क्रीड़ा का निर्णायक तत्त्व माना गया। आम आदमी को भी इस व्यवस्था में आस्था उत्पन्न होने लगी क्योंकि इसमें ईश्वर की मर्ज़ी, पूर्व जन्म का फल जैसे तत्त्व मौजूद थे। भूखे लोगों में से कुछ ऐसे बौद्धिक भी थे जो इस व्यवस्था का विरोध करते थे, लेकिन वे विरोध करते-करते परलोक सिधार गये। कुछ ऐसे भी थे इसी लोक में किसी भी शर्त पर रहना चाहते थे, पर उनकी आत्माएँ ऐसी रोटियों के अर्जन में आड़े आती थीं। इसका हल भी शीघ्र ही खोज लिया गया: जिसकी आत्मा आड़े आती, वह मोक्ष को प्राप्त हो जाती। सत्ता के काम में भला अहिंसा का क्या काम!
शिकार-शिकारी के इस खेल को विश्वव्यापी होने में देर न लगी। 'राजा और प्रजा' नामक सत्ता-प्रतिष्ठान में स्थापित हो गया। सतयुग, त्रेता और द्वापर से होते हुए कलियुग में यह खेल 'चौबीस इनटू सेवेन' चल रहा है। हाँ, कलियुग में इसे 'लोकतंत्र' कहा जाता है। रोटी के बदले लोक की आत्मा पहले ही शूली पर चढ़ चुकी है, इसलिए 'तंत्र' के सामने प्रायः कोई समस्या नहीं। कभी कोई समस्या आती भी है, तो फिर पुलिस-मिलिट्री वग़ैरह की व्यवस्था किसलिए है!