लोकतन्त्र की यात्रा : चंद और मुक़ाम (पृष्ठ-1) / अजित कुमार

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जिसे एक समय ‘प्रहसन’ बता कवि नागार्जुन ने बन्द कराना चाहा था और जिसे विविध अवसरों पर ‘लोकतन्त्र का नृत्य’, ‘पंचवर्षीय समारोह’, ‘राष्ट्रीय प्रवंचना’, ‘ठगी-युग’, ‘युवा राष्ट्र में वृद्धों का षडयन्त्र’, ’परिवर्तन का महापर्व’, ‘फुटकर राहतों का त्योहार’ आदि-आदि कई तरह के नाम दिए जाते रहे हैं.. उस ‘चुनाव’ को ‘लोकतन्त्र की अनिवार्य प्रक्रिया’ से जुड़ी ‘यात्रा’ और ‘देश की सांस्कृतिक क्षमता’ के रूप में डा0 विश्वनाथ त्रिपाठी (नई दुनिया,5/4/09) ने उचित ही चित्रित किया है । तथाकथित ‘रूढि़ग्रस्त’ देश ने जिस उत्सवधर्मिता से उसको अपनाया, उसका उन्होंने ठीक स्वागत किया, लेकिन जिन गाँधी, विनोबा, जयप्रकाश के अभाव को वे ‘दुर्भाग्य’ बताते हैं, उसे इस प्रक्रिया का ‘अनिवार्य’ प्रतिफलन समझना ज्यादा संगत होगा ।

वास्तव में, लोकतन्त्र के माध्यम से सत्ता अपनानेवालों में कार्यनिष्ठा, दक्षता, दायित्वबोध, समाज-संलग्नता, वस्तुपरकता, अभीष्ट की सिद्धि के लिए व्यावहारिकता, तत्परता और ईमानदारी जैसी जो अनेक विशेषताएँ अपेक्षित हैं , वे सब सन्त-महात्मा में होना ज़रूरी नहीं । और भी कि यदि गाँधी-विनोबा जैसे कोई आज होते भी तो इस माहौल में उनकी तथाकथित ‘कड़वी औषध’ को जीवनघाती ‘ज़हर’ या निखालिस ‘कचरा’ समझ खारिज करनेवाले कम न होते । क्या हम जानते नहीं कि उनमें से हरेक को अपने जीवन-काल में भी कितनी उपेक्षा-आलोचना-कटुता झेलनी पड़ी थी ?- इसलिए कोई ‘करिश्माई व्यक्तित्व’ प्रकट हो, देश की समस्याओं का समाधान कर देगा- यह व्यावहारिक नहीं जान पड़ता । उलटे, उसमें सैनिक या तानाशाही तन्त्र के उदय का भय है जिसने हमारे कुछ पडोसी देशों को जकडे रखा है और जो संसदीय प्रणाली का विरोध करता हुआ अनेक अतिवादी आन्दोलनों की शक्ल में देश के भीतर भी सक्रिय रहा है ।... इसलिए, यह काम तो दलीय और चुनावी दलदल में से उभरे जनों के ही वश का है और पिछले पचासेक बरसों के दौरान वे ही इसे भरसक बल्कि कभी-कभी भलीभाँति निभाते भी आए हैं ।

कालक्रम में यह भी स्पष्ट हुआ है कि विकासशील भारत में सरकारी पक्ष और विरोधी पक्ष चाहे जो भी हों – उनकी व्यावहारिक नीतियों में कोई बुनियादी फर्क सम्भव नहीं होता, यहाँ तक कि साम्प्रदायिकता-अगड़े-पिछ़ड़े-दलित-वंचित आदि का झंडा उठानेवाले दल भी ज़मीनी सचाई की वजह से ‘सेकुलर’ या ‘समग्र हितकारी’ दिखने को विवश रहते हैं... इसलिए दलीय ध्रुवीकरण की अधिक गुंजाइश यहाँ नज़र नहीं आती । लिहाजा ब्योरों की बात अलग है, वरना शाब्दिक गोलन्दाज़ी का सहारा लेना ही संसदीय लोकतन्त्र में हिस्सा लेनेवाले दलों को अधिक रास आता रहा है ।

1950 में संविधान लागू होने के बाद का चुनावी इतिहास रोचक रहा है । उसके शुरुआती दौर में जहाँ 1952 में पं0 नेहरू के विरुद्ध फूलपुर से खडे एक मौनी ब्रह्मचारी केवल ‘श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे’ बोलकर ही अपने चुनाव-अभियान की गतिविधि का जायज़ा लेते थे और व्यग्र- अधीर होने पर ही भजन की अगली पंक्ति ‘हे नाथ नारायण वासुदेवा’ का सहारा लिया करते थे ...वहाँ 2009 में हम कनफोड़ वाचालता और निर्धारित ‘कोड आफ़ काडक्ट’ के यदा-कदा उल्लंघन ही नहीं, जूता-फेंकू आक्रामकता के भी आमने-सामने हैं ।

इसके बावजूद, आपात्कालीन तथा अन्य बाधाएं पार करते हुए, हम आज उस मुक़ाम पर पहुँचे हैं, जो शायद अब तक का सबसे चुनौतीभरा, विकल्पगर्भी अभियान सिद्ध हो—भले ही 42 साल पहले, 1967 में सम्पन्न चौथा आम चुनाव तब श्री राजेन्द्र माथुर (देखें, नई दुनिया 09-04-09 के अंक में 12-02-67 के लेख का पुनर्मुद्रण) को सबसे निराश, सर्वनाशी, बल्कि अन्तिम चुनाव-जैसा प्रतीत हुआ था । वैसे तो कुछ ही साल बाद आपातस्थिति घोषित कर इन्दिराजी ने उस अन्देशे को सही साबित किया, पर देश की जनता ने मौक़ा मिलते ही इसकी सजा़ उन्हें देने के बाद, जल्द ही दोबारा कुर्सी पर भी बिठाया जिसका यह मतलब निकालना बेजा न होगा कि भारतीय मतदाता तब तक वह निर्णय लेने में समर्थ हो चुका था, जिसे वह - सही हो या ग़लत- अपने हित में समझता था और कि उसे फुसलाना-बरगलाना पहले जैसा आसान नहीं रह गया था ।

यह तर्क आगे बढ़ाया जाय तो निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि इस चुनावी दंगल में अपने बारे में लम्बे-चौडे दावे करने और दूसरों को संदिग्ध-अशक्त-असमर्थ बतानेवाले सब-के-सब दलों-व्यक्तियों की ख्वाहिश इतनी भर है कि वे किसी-न-किसी बहाने सत्ता हथिया, केवल अपना उल्लू सीधा करने में संलग्न हो जाएं । बहुत मुमकिन है, उनमें से कुछ या बहुत- बल्कि उम्मीद तो करनी चाहिए कि अधिकांश- सरकार के भीतर या अलग या विरुद्ध रह, देश तथा समाज की वास्तविक सेवा भी करना चाहेंगे । इसका भरपूर बाहरी दबाव उनके ऊपर सारे समय बना रहेगा क्योंकि लोकतन्त्र ने सत्ता-व्यवस्था से इतनी अधिक अपेक्षाएँ जन-मन में उत्पन्न कर दी हैं जितनी पहले कभी एकजुट नहीं हुई थी । इसको भी चुनावी प्रक्रिया का स्वाभाविक विकास समझना होगा ।

बरस-दर-बरस लोग बिजली, पानी, घर, सड़क और जीवन की बुनियादी सुविधाओं के लिए इतना इंतजार करते आए है...कि अब अधीर हो वे हर कीमत पर अपना प्राप्य पाने को बेकरार है । इसे हर दिन की घटनाओं- चाहे रोड-रेज, चाहे कानून को हाथ में लेने के यत्नों, चाहे अनवरत धरनों-घेरावों-आन्दोलनों में स्पष्ट देखा जा सकता है । मतदाता अपने हित-अनहित को धीरे-धीरे अधिकाधिक समझने लगे हैं जिसका स्वाभाविक निष्कर्ष है कि अब ये पहले से अधिक समझदार ही नहीं, जुझारु भी हो गए हैं । चौथे या किसी अन्य आम चुनाव में भले यह प्रश्न रहा हो कि यदि दें भी तो ‘वोट किसे दें?’ इस वक्त देश भर में यह नारा बुलन्द है कि वोट ज़रूर दें मगर भलीभाँति सोच-समझ्ने के बाद ही कि ‘वोट किसे न दें?’...

अत:, ’चुनाव’ को तो आज शायद व्यवस्था का सख्त से सख्त आलोचक भी ‘प्रहसन’ नहीं कहेगा जिसका श्रेय प्रबुद्ध मतदाताओं और कार्य-तत्पर भारतीय निर्वाचन आयोग की नियम संहिता को दिया जाएगा, पर सर्वोच्च न्यायालय को यह सुनिश्चित भी करना होगा कि विलम्ब से मिलनेवाला न्याय सचमुच ‘ अन्याय’ न बना रहे । इसी तरह, जो सत्ताधारी सत्ता का उपयोग अब तक केवल अपने या अपनों के हित में करने के आदी हो चुके हैं उन्हें इस बार यह सबक सीखने के लिए तैयार होकर राज- काज चलाना होगा कि जन-आक्रोश अब कुछेक नेताओ का टिकट रद्द कराने तक सीमित रहने वाला नहीं, वह और भी उमड़े-घुमड़ेगा । सत्ताधीश जब तक नहीं चेतते कि भ्रष्टाचार को ऊपर से नीचे तक हर स्तर पर मिटाया जाना है, तब तक लोकतन्त्र या तो लूटतन्त्र बना रहेगा या जल्द ही जंगलतन्त्र बन जाएगा, जिससे उसको बचाने का यह एक अहम, चुनौतीभरा मौक़ा है । काम-काज के तौर-तरीकों में तीखा परिवर्तन ही लोकतन्त्र को सचमुच प्रभावकारी बना सकेगा बशर्ते कि वह महज़ ‘तू-तू मैं-मैं तक सिमटा एक ‘नारा’ भर न बना रहे ।