लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पत्र / रामधारी सिंह 'दिनकर'
पटना
९-११-५८
मान्यवर जयप्रकाशजी!
प्रणाम।
मानवीय गुणों पर जोर देते हुए आपने अभी हाल में जो बयान दिया है उसकी कतरन मैंने पास रख ली है और उसे कई बार पढ़ गया हूँ। अजब संयोग की बात कि जब आपका बयान निकला, मैं धर्म और विज्ञान पर एक निबन्ध लिख रहा था जो ४० पेज तक गया है, मगर, अभी कुछ अधूरा है। बयान पढ़कर मुझे लगा कि आप जिस चीज को इतनी अच्छी भाषा में और इतनी सुस्पष्टता के साथ कह रहे हैं, मेरी असमर्थ भाषा भी उसी के आस-पास चक्कर काट रही है। इस बयान पर लोगों की क्या प्रतिक्रिया है, यह भी मुझे मालूम है। लेकिन, हर बड़े काम की राह में लोक-मत कुछ बाधक बनकर आता है और उसकी उपेक्षा किए बिना ये काम किए नहीं जा सकते। वर्त्तमान सभ्यता अनेक रूढ़ियों को तोड़कर आगे बढ़ी है, लेकिन, मुझे अब पूरा सन्देह हो रहा है कि वह खुद एक प्रकार की रूढ़ि में जा फँसी है, जिसका उपयुक्त भाषा के अभाव में, मैं 'बुद्धि की रूढ़ि' नाम देता हूँ। अगर मनुष्य को विकसित होना है तो उसे इस रूढ़ि से भी निकलना होगा। बर्ट्रेण्ड रसल ने लिखा है कि आदमी में तीन प्रवृत्तियाँ होती हैं, instinct to live, instinct to think and instinct to feel. ये मैं अपनी भाषा में रख रहा हूँ। Feel शायद उसने नहीं कहा है। इस प्रवृत्ति का नाम उसने spirit की प्रवृत्ति दिया है। इन तीनों में समन्वय हुए बिना मनुष्य का दोषहीन विकास नहीं हो सकता। रसल और हक्सले के अलावे, मैंने Alexis Carel
की Man: The Unknown नामक किताब में भी यही देखा कि वैज्ञानिक सभ्यता गलत दिशा की ओर जा रही है और मैं मान गया हूँ कि कैरेल का कहना बिल्कुल ठीक है। एक धारा है जो सबको बहाए लिए जा रही है। जरूरत है उन पुरुषों की जो इस बहाव में बहने से इनकार कर दें। आपने अपना पाँव जमा लेने का इरादा किया है, इसलिए, मैं आपका सादर अभिनन्दन करता हूँ।
युद्ध-काव्य के विषय में भी आपका सुझाव बेनीपुरी से मिला है। होगा।
आपका
दिनकर