लोकप्रियता की जंजीर और पंखविहीन पक्षी / जयप्रकाश चौकसे

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लोकप्रियता की जंजीर और पंखविहीन पक्षी
प्रकाशन तिथि :10 नवम्बर 2017


रायपुर की एक विदुषी ने जानना चाहा कि 'बैजू बावरा' जैसी शास्त्रीय संगीत से प्रेरित फिल्म क्यों नहीं बन रही है? सलमान खान जैसा सितारा इस तरह की फिल्म बना सकता है। सलमान खान ने 'ट्यूबलाइट' में एक भोले भाले सीधे व्यक्ति की भूमिका की और अवाम ने उसे अस्वीकार कर दिया। लोकप्रिय सितारा छवि की जंजीर कलाकार को जकड़ लेती है। अर्जुन देव रश्क ने 'जिस देश में गंगा बहती है' का कथा विचार देव आनंद को सुनाया तो देव आनंद ने न केवल उन्हें परामर्श दिया कि वे राज कपूर से मिले वरन् स्वयं राज कपूर से अर्जुन देव रश्क की मुलाकात तय की। अर्जुन देव रश्क ने राज कपूर को कथा सुनाई और उस समय वहां शंकर और जयकिशन भी बैठे थे। राज कपूर ने कथा खरीद ली। अर्जुन देव रश्क के जाने के बाद शंकर-जयकिशन ने कहा कि इस कथा में गीत-संगीत की गुंजाइश नहीं है। राज कपूर ने उनसे कहा कि कुछ दिन बाद हम फिर कथा पर विचार करेंगे।

एक सप्ताह के बाद राज कपूर ने शंकर, जयकिशन, शैलेेन्द्र और हसरत की मौजूदगी में उसी कथा में कुछ परिवर्तन करके अपने अंदाज में कथा ऐसे बयान की कि उसमें दस गीतों की गुंजाइश उत्पन्न हो गई और इस डाकू केंद्रित फिल्म में केवल एक दृश्य में चंद गोलियां चली हैं गोयाकि गोलियों से अधिक गीत हैं। हर फिल्मकार कथा के कच्चे माल को अपनी सृजन प्रक्रिया में ढालकर नया रूप देता है। आम आदमी भी अपने जन्म के साथ एक राग लेकर आता है। यहां राग से तात्पर्य संगीत से नहीं है वरन मनुष्य के मिज़ाज से है। खुशमिजाज होना या सड़क पर इस काल्पनिक वजह से झुककर चलना कि आसमान का बोझ उनके सिर पर है- ये दृष्टिकोण ही राग है। अकारण उदासी भी इसी जन्म से जुड़े राग के कारण होती है। कुछ लोग त्वरित निर्णय लेते हैं और कुछ लोग बहुत सोच-विचार करके निर्णय लेने में समय लगाते हैं। दिलीप कुमार को महान फिल्मकार डेविड लीन ने 'लारेंस अॉफ अरेबिया' में नायक की भूमिका का प्रस्ताव दिया था परंतु निर्णय लेने में समय लगा और वह भूमिका अोमार शरीफ को दी गई। इसी प्रकरण से याद आया कि एक बार दिलीप कुमार ने कहा था कि उन्हें 'बैजू-बावरा' का प्रस्ताव अस्वीकार करने का दुख है और इसी तरह सलीम-जावेद की लिखी 'जंजीर' को भी अस्वीकार करने का अफसोस है।

आज का कोई भी शिखर सितारा बैजू-बावरा की भूमिका स्वीकार नहीं करेगा और दूसरी समस्या होगी संगीत की। आज उस दौर का नौशाद कहां मिलेगा? यह बात अलग है कि 'राम और श्याम' तक पहुंचते हुए नौशाद भी थक गए थे। शास्त्रीय संगीत आधारित या प्रेरित फिल्मों में उस दौर में नौशाद को ही चुना जाता था। इसी तथ्य के कारण किसी ने शंकर-जयकिशन पर तंज किया और उन्होंने 'बसंत बहार' जैसी शास्त्रीय संगीत प्रेरित फिल्म में अद्‌भुत माधुर्य रचा। दरअसल, यह प्रसंग भी जन्म के साथ तय राग से जुड़ा है। शंकर जयकिशन राज कपूर द्वारा प्रस्तुत किए गए थे और नौशाद मेहबूब खान व दिलीप कुमार से जुड़े थे। अत: उनकी शैलियां उनके संगी-साथियों के साथ ही उनके जन्म के राग से भी जुड़ी थी।

महालक्ष्मी स्टूडियो में शंकर-जयकिशन का संगीत कक्ष था जहां हमेशा हंसी-खुशी का वातावरण होता था। नौशाद के संगीत कक्ष में सदैव संजीदगी से काम होता था। जमीन पर गद्‌दे बिछे होते थे, जिन पर सफेद चादर बिछी होती थी। आज के लोकप्रिय संगीतकार एआर रहमान के संगीत कक्ष में बड़े आकार की मोमबत्तियां रोशन रहती हैं और मोमबत्तियों के जलते रहने तक काम चलता रहता है। उनका काम उनकी इबादत है। आज 'बैजू-बावरा' या 'बसंत बहार' जैसी फिल्म नहीं बनाई जा सकती, क्योंकि सितारे छवि से बंधे है परंतु यह भी सच है कि वे कोई जोखम नहीं लेना चाहते। सामर्थ्य बढ़ते ही जोखिम लेने का माद्‌दा घट जाता है।

आमिर खान ने 'लगान' अवधी भाषा में रची और अपनी छवि से बाहर आकर काम किया। यही उनके कॅरिअर और सोच में सबसे बड़ा परिवर्तन सिद्ध हुआ। 'लगान' के पहले और 'लगान' के बाद के आमिर खान दो भिन्न व्यक्ति लगते हैं। वे जोखिम उठाते हैं। 'दंगल' के क्लाइमैक्स में वे कमरे में बंद हैं। यह एक साहसी कदम था। इसे जोड़ा उन्होंने बचपन की घटना से,जब उनकी पुत्री पानी में हाथ-पैर मार रही है और संवाद है कि पिता हर जगह नहीं होगा परंतु उसकी शिक्षा सदैव साथ देगी। आज 'बैजू बावरा' या बसंत बहार नहीं बनाई जा सकती, क्योंकि न केवल उस तरह के फिल्मकार नहीं रहे वरन दर्शक को भी शास्त्रीयता से परहेज है। आज उनके पास पंख नहीं हैं कि वे आधुनिकता को सच्चे अर्थ में पा सकें और इसी प्रयास में वे पारम्परिक जमीन भी छोड़ चुके हैं।