लोकमान्य की विजय / गणेशशंकर विद्यार्थी
कवि-श्रेष्ठ मिल्टन की उक्ति है कि शान्तिकाल की विजय युद्धकाल की विजयी से कम नहीं होती। हमारा विचार है कि शान्तिकाल की विजय अधिक स्थायी, अधिक गौरवप्रद और अधिक वास्तविक होती है। शान्तिकाल की विजय सिद्धांतों की विजय होती है, वै नैतिक, मानसिक और आध्यात्मिक विजय होती है। वह विजित के मन, मस्तिष्क और आत्मा पर अधिकार कर लेती है। उससे विजित के हृदय में विजेता का भय और आतंक नहीं छा जाता, बल्कि विजित विजेता का अनुयायी, प्रशंसक और भक्त हो जाता है। शान्तिकाल की विजय शारीरिक मृत्यु के बाद भी संभव है। लोकमान्य तिलक की विजय भी ऐसी ही विजय है - वह सिद्धांतों के ऊपर सिद्धांतों की विजय है। उसने अपने-आप विजितों के मन, मस्तिष्क और आत्मा पर अधिकार कर लिया है। इस विजय के कारण लोकमान्य के जीवितावस्था के विपक्षी भी उनके प्रशंसक, अनुयायी और भक्त हो गये हैं जो सज्जन उनके जीवनकाल में उनकी जिस नीति और उनके जिस सिद्धांतों की तीव्र आलोचना करते थे, वे ही अब उनकी उसी नीति और उनके उन्हीं सिद्धांतों की तीव्र आलोचना करते थे, वे ही अब उनकी उसी नीति और उनके उन्हीं सिद्धांतों के अनुसार आचरण करते हैं। कैसी पूर्ण और कैसी उत्कृष्ट विजय है! लोकमान्य सदैव विजयी रहे - उन्होंने पराजय कभी जानी ही नहीं। जीवितावस्था में वे सदैव अपने प्रतिपक्षियों और विपक्षियों को पराजित करते रहे, मृत्यु के बाद भी उन्होंने अपने विपक्षियों के मन, मस्तिष्क, हृदय और आत्मा को जीत लिया, परन्तु उनकी जीवितावस्था की जीत से उनकी मृत्यु के बाद होने वाली विजय कहीं अधिक पूर्ण, वास्तविक और गौरवशालिनी है।
संसार के प्रत्येक आन्दोलन में, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, तीन दल हुआ करते हैं। एक दल तो वह जो कल्पनाशक्ति के अभाव और विचार-भीरुता के कारण साहसिक कार्य सम्पादन करने में सर्वथा असमर्थ होता है, जो काल्पनिक विघ्नों और विपत्तियों के अपडर से कोई साहसिक कार्य प्रारम्भ ही नहीं कर सकता। जो भारी बोझ से भरी हुई गाड़ी में जुते हुए भैंस के पुल्लिंगों की तरह लकीर के इधर से उधर नहीं होता। इस दल के लोगों की दृष्टि आदर्शों की ओर देखते ही चौंधिया जाती है - महान् आदर्शों पर उनकी दृष्टि पलभर भी नहीं टिक सकती। ये लोग नवीनता और परिवर्तन से बहुत घबड़ाते हैं। अपडर से चौंकते रहना, कायरता की सीमा से टकराने वाली सावधानी सजगता दिखाना और फूँक-फूँककर पैर रखना इस दल के प्रधान लक्षण होते हैं। दूसरा दल वास्तविकता और व्यावहारिकता का पूर्ण ध्यान रखते हुए आदर्शों की ओर लक्ष्य करके अग्रसर होता हैं और जन-समाज को अपने साथ आदर्श की ओर ले जाता है। आदर्श सदैव इस दल की दृष्टि के सामने रहता है। आदर्श का निरंतर ध्यान रखते हुए यह दल सीधे और सरल रास्ते से एक बुद्धिमान पथिक की-सी सजगता और तत्परता के साथ उस ओर बढ़ता है और फलस्वरूप अपने उदिष्ट स्थान पर पहुँचने में सफलता प्राप्त करता है। सह्य और परिहार्य कठिनाइयों के होने पर यह दल कीचड़ और रेत में भरी हुई जर्जरित पुरानी लकीर को छोड़कर नये खोजे हुए सीधे और पक्के रास्ते से यात्रा करने में कभी नहीं हिचकता। इसी दल से तीसरे दल की सृष्टि होती है। वह मार्ग की कुछ भी परवाह न करते हुए बेतहाशा दौड़ता। अधीरता इस दल का प्रधान लक्षण होता है। यह दल वास्तविकता और व्यावहारिकता की ओर तो आँख उठाकर देखता तक नहीं। लोगों में आदर्श-प्रेम जागृत करने के लिए बहुधा दूसरे दल को जन-साधारण के हृदय को अपील करनी पड़ती है। उन्हें भावुको की भावुकता और कल्पना पर असर करने वाले भावावेशपूर्ण उपदेश देने की आवश्यकता होती है। पहले दल की विचार-भीरुता और उसके कल्पना-दारिद्रय से समाज को बचाने के लिए उन्हें आदर्शों की महिमा का बखान बड़े ही ओज भरे और नवीन प्राण फूँकने वाले सजीव शब्दों में करना पड़ता है। इससे कुछ व्यक्तियों की भावुकता और आदर्शप्रियता असाधारण वृद्धि पा जाती है। उनका सुषुप्त आदर्श-प्रेम जग उठता है और नवोत्थित होने के कारण उनमें बालोचित चंचलता और शक्ति-प्रचुरता होती है। बालकों की सी अधीरता, बालकों की-सी सरलता और बालकों की-सी निर्मलता इस दल में पर्याप्त रूप से पायी जाती है। बालकों की तरह वह अपने पैरों पर खड़े होने में समर्थ होने से पहले ही आदर्श की ओर उड़ना चाहता है। वह पहले दल और दूसरे दल के संघर्ष की प्रतिक्रिया से उत्पन्न होता है। अपनी अधीरता के कारण वह अपने जनक-दल से असंतुष्ट हो जाता है। प्रतिक्रिया की लहर का वेग कम हो जाने पर पहला दल कुछ आगे बढ़ता है और तीसरा दल कुछ पीछे हटता है। इस प्रकार दोनों दल अंततोगत्वा बीच के दल, दूसरे दल, में आ मिलते हैं। प्रकृति दूसरे दल की उपासक है, इसलिए सदैव इसी दल की विजय होती है। हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन में लोकमान्य तिलक दूसरे दल के जनक और अधिनायक थे। इसीलिए उनकी विजय निश्चित थी। जो लोग समय-चिन्हों को देखने और उनका अध्ययन करने की योग्यता रखते हैं वे जानते हैं कि विजय लोकमान्य के हाथ है। बीच की श्रेणी का यही मार्ग सर्वोत्तम मार्ग होता है। इसमें 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' इस नीति वाक्य का पूर्णतया पालन किया जाता है। यह ठीक है कि कुकर्मों से सुकर्मों की अति भी अच्छी है, परन्तु सामंजस्य सर्वोत्तम है। बहुधा जो दल अपने को बीच के दल कहता है। वह यथार्थ में बीच का दल नहीं होता। नाम बड़ा धोखेबाज है। उससे सदैव सचेत रहना चाहिए। बीच के दल की पहचान यह है कि जिस दल की नीति और सिद्धांतों पर पहले और तीसरे दल का समझौता हो, वही दल बीच का विजयी दल होता है।
इस कसौटी पर कसने से पता चलेगा कि लोकमान्य का दल ही बीच का दल - विजयी दल - है। एक ज्वलंत उदाहरण लीजिए। लोकमान्य सदैव आन्दोलन के पक्ष में रहे। 'शिक्षात्मक प्रचार' (Educative propaganda) उनका मूलमंत्र था। केवल आन्दोलन के लिए ही आन्दोलन करने की उपयोगिता और आवश्यकता पर वे सदैव विशेष बल देते रहे। उस समय नरम कहलाने वाला दल उनकी इस नीति पर खूब आक्षेप-वर्षा किया करता था। यहाँ तक कि अमृतसर कांग्रेस में इसी सिद्धांत और इसी नीति के कारण लोकामन्य और महात्मा गाँधी का विरोध हो गया था। परन्तु जगतप्रसिद्ध हठी तिलक अड़ गये। परिणाम हमारे सामने है। उनके उपदेशों के कारण एक तीसरे दल की सृष्टि हुई और उसने आन्दोलन का ऐसा भयंकर बवंडर उठाया कि जिससे चारों ओर तहलका मच गया। यह दल दूसरे दल-लोकमान्य के दल-से कहीं आगे बढ़ा। परन्तु अब हम देखते हैं कि प्रकृति अपना काम कर रही है। एक ओर असहयोग-आन्दोलन के नेता खंडनात्मक आन्दोलन को छोड़कर उसके विधेयात्मक भाग की ओर झुके हैं, दूसरी ओर नरम दल वाले अब विधेयात्मक आन्दोलन की आवश्यकता और उपयोगिता स्वीकार करने लगे हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि पिछले कुछ महीनों से असहयोग प्रस्ताव के पहले भाग-खंडनात्क भाग को बिल्कुल छोड़ दिया गया है और दूसरे भाग अर्थात् विधेयात्मक भाग में समस्त शक्तियाँ लगाई जा रही हैं। महात्मा गाँधी के नवीन कार्यक्रम में अब असहयोग-प्रस्ताव के खंडनात्मक भाग का जिक्र तक नहीं है। व्यवहार में भी अब केवल असहयोग प्रस्ताव के विधेयात्मक भाग पर ही जोर दिया जा रहा है। यह तो हुआ तीसरे दल का पीछे हटना। अब दूसरे दल का आगे बढ़ना भी देखिए! इलाहाबाद का 'लीडर' अपनी नरमी के लिए प्रसिद्ध है। आजकल तो उसकी नरमी और भी बढ़ गयी है, परन्तु वह भी लिखता है कि असहयोग-प्रस्ताव के विधेयात्मक भाग पर किसी को कुछ आपत्ति नहीं है। यह बात उसने लार्ड रेडिंग और महात्मा गाँधी की भेंट के बाद कही है। उसका कहना है कि यदि असहयोगी प्रचार द्वारा जनता को राजनीतिक शिक्षा दें, गाँवों में पंचायतों की स्थापना करायें, ग्रामीणों में आत्मदशा को अनुभव करने की शक्ति उत्पन्न करें तथा उनमें संगठन का भाव पैदाकर दें या धर्म का रूप देने वाले महात्मा गाँधी जैसे असाधारण प्रभावशाली लोकनायक इस समय राष्ट्रीय दल के कर्णधार हैं, तब भी राष्ट्रीय दल का समस्त कार्य बहुमत-पूजा के सिद्धांत के अनुसार ही हो रहा है। कैसी आश्चर्यजनक विजय है! यदि राष्ट्रीय दल लोकामन्य के इस सिद्धांत के अनुसार काम करे तो असहयोग-आन्दोलन और राष्ट्रीय दल यत्किंचित् समय में आक के फल से निकली हुई रुई की तरह छिन्न-भिन्न होकर हवा में उड़ जायें। कैसा उपयोगी सिद्धांत है और केसा अपरिहार्य! जादू का चमत्कार भी जिसके सामने पानी भरता है। जहाँ देखो वहाँ बहुमतरूपी महात्मा की पूजा की पुकार है। लोकमान्य के इस सिद्धांत की विजयी इतनी भारी और इतनी पूर्ण है कि इस समय राष्ट्रीय दल में उसका एकछत्र निरंकुश राज्य है। यहाँ तक कि विजय-मद से मत होकर यह सिद्धांत लोगों की पूजा का एकाधिकारी बनना चाहता है। लोग उसके इतने अंध उपासक हो गये हैं कि वे अब उसकी सीमाओं तक को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। जादू वह जो सर पर चढ़कर बोले! महात्मा गाँधी जैसे कट्टर अंत:करणवादी भी अब कांग्रेस को आज्ञा मानने का उपदेश देते हैं। लोकमान्य की नीति का एक प्रधान अंग एकाग्रता थी। उनका कहना था कि इस समय हमें अपनी सारी शक्तियाँ स्वराज्य प्राप्त करने में ही लगा देनी चाहिए। जिस समय कांग्रेस के उस समय के कर्णधार विनीत प्रार्थनाओं की झड़ी लगा देते थे, एक-एक रियायत, एक-एक अधिकार के लिए अलग-अलग एक-एक प्रस्ताव पास होता था और ये प्रस्ताव बार-बार शाब्दियों तक दुहराये जाते थे, उस समय लोकमान्य तिलक ने ही देश को एकाग्रता का पाठ पढ़ाया। यह उन्हीं के प्रयत्नों का फल था कि लखनऊ कांग्रेस में पिछली कांग्रेसों की तुच्छ प्रार्थनाओं की लड़ी को छोड़कर केवल एक स्वराज्याधिकार की माँग उपस्थित की गयी। तब से अब तक कांग्रेस में एक ही प्रस्ताव होता है - जो स्वराज्य से संबंध रखता है। शक्तियों की एकाग्रता के पक्ष में होने के कारण ही लोकमान्य ने लखनऊ में यह कहा था कि यदि मुसलमान, ईसाई, राजपूत, सिक्ख, भंगी किसी एक को औरों से पहले स्वराज्य मिले तो मैं उसका स्वागत करूँगा क्योंकि मैं त्रिभुजात्मक युद्ध नहीं करना चाहता। स्वराज्य की स्थापना हो जाने पर हम इन समस्याओं को भी हल कर लेंगे। शक्तियों की एकाग्रता के पक्ष में होने के कारण ही लोकमान्य समाज-सुधार तथा अछूतोद्वार आदि उपयोगी प्रश्नों को अपने हाथ में नहीं लेते थे। यह उन्होंने एक बार स्वयं अपने श्रीमुख से कहा था। उस समय वे लोग जो येन-केन प्रकारेण अपने सदैव विजयी प्रतिस्पर्धी पर छींटे उछालना ही अपने जीवन का परम कर्तव्य समझते थे, उन पर सहसा और एक आक्षेप करते थे, परन्तु आज हम क्या देखते हैं? आज हम देखते हैं कि हिन्दू-मुसलमानों की एकता के नाम पर उन्हें संगठित करें तो उनके इस काम से नरम दलवाले भी सहमत होंगे। संक्षेप में, अब वह भी शिक्षात्मक-प्रचार की आवश्यकता और उपयोगिता स्वीकार करते हैं। पहले वह जिस बात से भागता था, उसी को अब वह हृदय से अपनाता है। हमारे उपर्युक्त कथन का इससे अच्छा उदाहरण और नहीं मिल सकता। यह स्पष्टतया लोकमान्य तिलक की विजय है। एक दल आगे बढ़कर और दूसरा पीछे हटकर उनके दल में मिल रहा है। यह है सच्ची विजय, जिसने बिना किसी प्रकार के दबाव के विपक्षियों को अपने-आप पैरों पर ला डाला। सच्ची और ऐसी पूर्ण, जिसने विपक्षियों के मन, मस्तिष्क और आत्मा पर पूर्ण अधिकार कर लिया, परन्तु जो उन्हें अपनी पराजय स्वीकार करने के लिए विवश करके उन्हें लज्जित नहीं करती। जो आजकल विधेयात्मक असहयोग के नाम से पुकारा जा रहा है, वह वास्तव में लोकमान्य के शिक्षात्मक प्रचार और संगठन का दूसरा नाम मात्र है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कालांतर में लोकमान्य का मार्ग ही सर्वोत्तम मार्ग-बीच का विजयी मार्ग-सिद्ध हुआ।
अब हम यह दिखावेंगे कि किस प्रकार लोकमान्य के अनेक सिद्धांत अज्ञात रूप से लोकमान्य हो रहे हैं। मजदूर-आन्दोलन और श्रम-समस्याओं के प्रामाणिक और विचारशील लेखक धुरंधर विद्वान श्री जी.डी.एच. कोल ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है -
"The Government admittedly has no conscience, but the public has one of a sort. The public's chief use for its conscience is to send it to sleep; but a very rude shock will sometimes wake it up." (The World of Labour, by G.D.H. Cole, Chap. IX)
अर्थात् : सरकार के अंतरात्मा नहीं होती। जनता के एक प्रकार की अंतरात्मा होती है, परन्तु जनता बहुधा उसे सुख से सोने भेज दिया करती है। एक भारी धक्के से ही जनता की यह सुप्त अंतरात्मा जगाई जा सकती है। इस तत्व को मानकर ही लोकमान्य तिलक जनता की कुम्भकर्णी अंतरात्मा को जगाने के लिए उग्र उपायों से काम लेने-घनघोर आन्दोलन करते रहने के पक्ष में रहते थे। आजकल असहयोग जैसे घनघोर आन्दोलन की लोकप्रियता लोकमान्य के उपर्युक्त जनता की चित्तवृत्ति के अनुकूल तथा राजनीति-विज्ञानसम्मत सिद्धांत की लोकामन्यता का परिचय देती है।
बहुमतरूपी महात्मा की पूजा करना लोकामन्य का दूसरा सिद्धांत था। इस समय राष्ट्रीय दल में इस सिद्धांत की जैसी पूजा हो रही है, वैसी और किसी सिद्धांत की नहीं। बहुमतरूपी महात्मा की पूजा करने का उपयोग देने वाले लोकमान्य तिलक इस समय संसार में नहीं हैं और अंत:करण के सिद्धांत के उच्चतम कोपरगंज के मामले की उपेक्षा की जाती है, गो-हत्या का प्रश्न स्थगित किया जाता है और ब्राहृण-अब्राहृणों की समस्या से आँख फेर ली जाती है। आज हम देखते हैं कि हिन्दू-मुसलमानों की एकता के नाम पर अफगान-आक्रमण के प्रश्न पर खुलकर विचार तक नहीं किया जाता, तीन महीने के अंदर स्वराज्य लेने के नाम पर अवध के किसानों पर किये जाने वाले रोमांचकारी क्रूर अत्याचारों की ओर से पीठ फेर ली जाती है और हम देखते हैं कि जो महात्मा गाँधी उस समय सामाजिक सुधार को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाये हुए थे, जो राजनीति से अलग रहना चाहते थे और जो मतभेद के कारण कांग्रेस में सम्मिलित होने से इंकार कर देते थे, वे ही महात्मा गाँधी अब स्वराज्य-प्राप्ति के लिए समस्त शक्तियों की एकाग्रता के इतने कट्टर पक्षपाती हैं, जितना कि कोई ही हो सकता है। कैसी भयंकर विजय है! जो महात्मा गाँधी चम्पारन और खेरी के पीड़ित निवासियों का कष्ट दूर करने में इतने संलग्न और एकाग्रचित हो जाते थे कि स्वराज्य समस्या की ओर ध्यान भी नहीं देते थे, जिनको सामाजिक सुधार और पीड़ितों के कष्टों के निवारण की चिंता में निरंतर व्यस्त रहने के कारण शासन-सुधार-व्यवस्था को पढ़ने के लिए समय भी नहीं मिलता था, वे ही अब स्वराज्य-समस्या को हल करने में अपने समस्त अलौकिक गुणें को एकाग्र करके लगे हुए हैं। यही वह विजय है जो अपना साम्य नहीं रखती। यही वह विजय है जिस पर संसार का बड़े से बड़ा व्यक्ति समुचित गर्व कर सकता है और यह विजय हमारे हृदय-सम्राट लोकमान्य की है।
ऊपर लोकमान्य की विजय की झलक दिखाने का क्षीण प्रयत्न किया गया है। उससे लोकमान्य की असाधारण राजनीतिज्ञता और अलौकिक दूरदर्शिता का कुछ-कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। क्या उस महापुरुष की विजय का प्रमाण देने की आवश्यकता है जिसके मूलमंत्रों का जाप उसके कट्टर शत्रु भी करते हैं? आज साम्राज्य के कर्णधारों को भी हम लोकमान्य का यह वाक्य दुहराते हुए पाते हैं कि स्वराज्य भारत का जन्मसिद्ध अधिकार है। आज हम सर शंकरन नायर - जैसे क्रांतिकारी समाज-सुधारक को भी यह स्वीकार करते हुए पाते हैं कि जब तक राजनीतिक सुधार न होगा, तब तक सामाजिक सुधार संभव नहीं। आज हम सम्राट की घोषणा तक में 'स्वराज्य' शब्द की मधुर झंकार सुनते हैं। विजय? विजय लोकमान्य की क्रीतदासी है - वह उनके सामने हाथ जोड़े खड़ी है। ऐसी प्रशांत और ऐसी अज्ञात विजय संसार के बिरले महापुरुषों ने ही प्राप्त की होगी। ऐसा प्रतीत होता है मानो भारत के राष्ट्रीय संग्राम के इतिहास की छठी के दिन विधाता ने अमिट अक्षरों में लिख दिया था कि विजय लोकमान्य तिलक की होगी।