लोकल कवि का चक्कर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
जब गीदड़ की मौत आती है, तो वह गाँव की ओर भागता है और जब मेरे जैसे कायर पर आफ़त आती है, तो किसी न किसी कवि का खूनी पंजा गर्दन पर कस जाता है। यदि कवि लोकल हो, फिर तो कोढ़ में खाज ही समझिए। यह कवि सचमुच महान् होता है। सूर, प्रसाद, पंत, निराला इसने नहीं पढ़े। ये सब स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले कवि हैं, अतः इसके लिए त्याज्य है। जब इसकी ओर कोई कन्या प्रेमपूर्वक देखती है, तो यह प्रेमगीत लिखता है। जब उस कन्या कि (जो इसे पागल समझती थी) शादी हो जाती है, तब विरह गीत लिखता है। जब नौकरी की तलाश में जूते घिस जाते हैं, तो यह जनवादी कवि हो जाता है और जब शहर के लौंडे 'हूट' करते हैं, तो यह उग्रवादी कवि हो जाता है नगर के अन्य कवियों को सौतिन समझकर यह ईर्ष्या कि पवित्र अग्नि में झुलसता रहता है। अपने काव्य को शाश्वत बनाने के लिए शराब पीता है। शराब की बदबू छुपाने के लिए पान खाता है और ख़ुद को महान् सिद्ध करने के लिए स्थापित कवियों की स्तुति में गालियों का वाचन करता है। एक बार आकाशवाणी पर कविता पढ़कर यह राष्ट्रीय कवि हो जाता है, क्योंकि आकाशवाणी राष्ट्रीय माध्यम है। दूरदर्शन पर पहुँचने के बाद इसे मिर्गी का दौरा पड़ने लगता है, जो केवल अभिनन्दन का जूता सुँघाने से ही ठीक हो सकता है। लोकल कवि वह ऊँट है, जो पहाड़ के पास से गुजरने पर भी स्वयं को ही 'एवरेस्ट' समझता है। इसकी हालत पैसेन्जर ट्रेन जैसी होती है, जिसमें मुसाफ़िर अपने साथ साइकिल और भेड़-बकरी भी ले जा सकता है।
इसके सामने यदि कोई सुन्दर महिला बैठी हो, तो इसकी वाणी ' रसराज
शृंगार'में गोता लगाने लगती है। यदि यह राजनीति के किसी मंच पर पहुँच जाए, तो अपनी तुकबंदी में राष्ट्रीय खलनायक को भी नायक बना सकता है। इसके ब्रीफकेस में वे सारी कतरनें होती हैं, जिनमें इसका नाम छपा होता है। इन अख़बारी कतरनों में इसके प्राण समाए होते हैं। दानवों की लोककथाओं में जैसे तोते की गर्दन मरोड़ने से राक्षस के प्राण निकल जाते थे, वैसे ही कतरनें नष्ट होने पर इसके प्राण-पखेरू उड़ सकते हैं। एक बार शामत का मारा मैं एक लोकल कवि की गुफ़ा में जा पहुँचा। नौकरी में नया आया था। शहरनया और अपरिचित था। मकान की इतनी दिक्कत थी कि स्वर्ग भले ही मिल जाए, मकान मिलना असंभव था। एक पत्रिका में इस शहर के पशुकुमार' पशु' की एक कविता पढ़ी थी। कविता के नीचे पशुजी का पता भी लिखा था। मैं उसे पते पर जा पहुँचा। आशा थी कि वे मेरी सहायता अवश्य करेंगे। मैंने दरवाज़ा खटखटाया तुरन्त ही दरवाज़ा खुल गया। मेरे सामने बिखरे बालों वाला छुहारा छाप मुखड़ा, पान से रचे होंठ, कान पर रखी तीन बीड़ियाँ, गोद में मरियल-सा पिल्ला लिये, नीला तहमद बाँधे एक जन्तु खड़ा था।
"किससे मिलना है?" उसने सियार की तरह थूथन ऊपर उठाकर पूछा।
"कविवर पशुजी से।"-मैं गले का थूक निगलकर बोला।
"वह कविवर हमारे सिवा कोई नहीं।"-उसका लक्कड़ जैसा हाथ मेरे कंधे पर पड़ा-"तुमने हमको नहीं पहचाना? सारा देश हमको जानता और पहचानता है।"
"मैंने आपको देखते ही पहचान लिया था, फिर भी पूछना ठीक समझा।"-मैं सफेद झूठ बोला।
"नहीं, इसकी फिर ज़रूरत नहीं होनी चाहिए, समझे।"-वे गुर्राए। मैंने भविष्य में ध्यान रखने का विश्वास दिलाया। वास्तविकता यह थी कि इस अनुपम आकृति को नाम जानने वाला ज़रूर पहचान लेगा। यथा नाम तथा रूप।
वे मुझे एक जेलनुमा कोठरी में भीतर ले गए। चौकी पर कंघा, शीशा, पुस्तकें, बिना धुले ढेर सारे कपड़े, कॉपी, पेन आदि बिखरे हुए थे। अपनी कविता में ये पूरे समाज की व्यवस्था बदलने के लिए लंगोट कसे हुए थे। मैंने जब इस अराजकता के साम्राज्य की ओर घूरकर देखा, तो वे मेरी बात ताड़ गए-"यहीं बैठो। मेरा सामान ऐसे ही रहता है। मैं कोई शादीशुदा आदमी नहीं, जो बीवी की गुलामी करते-करते व्यवस्थित रहना सीख लेता है। मुझे पशु की तरह स्वच्छन्द विचरण पसन्द है।"
मेरे बैठते ही वे ही चौकी पर धम्म से बैठ गए। उनकी टाँग के नीचे दबने से पिल्ला कें-कें करने लगा। उन्होंने पुचकार कर उसका लार से भीगा मुख चूम लिया। पिल्ला बड़ी नज़ाकत से अपने मालिक की ओर सजातीय भाव से ताकने लगा था। उन्होंने कान पर रखी तीनों बीड़ियों को तोड़कर हथेली पर रखकर मसला और फंकी लगाकर मुझसे पूछा-"तुम्हारा नाम क्या है?" उन्होंने ऐसे पूछा, मानो मैं उनके सामने एक क्षुद्र जन्तु के अतिरिक्त और कुछ नहीं हूँ।
"मुझे राकेश कमल कहते हैं। एक साप्ताहिक में आपकी कविता पढ़ी थी। उसी से आपके घर तक आ पहुँचा। अभी नया-नया ही इधर आया हूँ। आप मेरे लिए कोई कमरा देख दें तो बहुत आभारी रहूँगा। रहने की परेशानी हल हो जाए, तो कुछ बात बने।"
"अच्छा यह बताओ, मेरी कविता कैसी लगी?" उन्होंने अपना व्याकुल प्रश्न दाग दिया।
मैं क्या ख़ाव़फ़ उत्तर देता। कविता ठीक ढंग से पढ़ी ही नहीं थी। या यों कहिए कि पढ़ने पर भी वह कविता बेदम लगी थी। लेकिन माहौल की गंभीरता को देखते हुए मैंने मोर्चा संभाल लिया-"आपकी कविता साहित्य की अमूल्य निधि है। ऐसी रचना मैंने आज तक नहीं पढ़ी। आपकी कविता ही मुझे यहाँ तक खींच लाई है। आप मेरे लिए मकान—।"
उन्होंने मेरी बात काटी-"निश्चित रूप से तुम भी कवि हो। ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा मेरी कविता को समझ ही नहीं सकता। सम्पादक ने आकर हाथ जोड़े, तब मैंने उनको एक कविता दी। एक बार इसे फिर से पढ़ो"-उन्होंने फड़फड़ाती हुई पत्रिका मेरे ऊपर फेंक दी। मेरे ऊपर जैसे पहाड़ टूट पड़ा। दुबारा पढ़कर लगा कि यह कविता चार-पाँच साल पहले किसी और पत्रिका में पढ़ी थी, किसी और नाम से।
"और देखो" , -उन्होंने पिल्ला मेरी गोद में उछाल दिया और पान की गिलौरियाँ कल्ले में दबाकर कचरते हुए कहा-"मेरा लिटरेचर अजर और अमर है। यह बात सब लोग मानेंगे।"-उन्होंने अलमारी की तरफ़ हाथ बढ़ाकर तीन पुराने धूल-धूसरित रजिस्टर खींच निकाले। मैं डर गया-ज़रूर इनमें कविताएँ होंगी।
"ये मेरी कविताएँ हैं।"-उन्होंने तीनों रजिस्टर चौकी पर पटक दिए। मैं सिहर गया। सोचने लगा, समुद्र-मंथन से पन्द्रह रत्न निकले होंगे। विष शंकर जी पी गए। कविताएँ भूलोक के लिए बच गईं। शिवजी ने कविता-पान के बजाय विषपान करना उचित समझा। वे रजिस्टर मुझे बिल से खींचकर निकाले गए नाग लग रहे थे। "पिल्ले को सँभालिए। इसने मेरी पैंट तर कर दी है।"-मैंने पिल्ला उनकी ओर बढ़ाया। उन्होंने मुँह बिचकाया-"बच्चा है, ग़लती कर बैठता है। यह ग़लती तुमने भी की होगी कभी। मैं जनवादी हूँ, तुम जैसा नहीं कि प्राणियों से घृणा करूँ।"
"मैं इस समय थका हुआ हूँ। आराम करना चाहूँगा।"-उनकी कविताओं से त्रस्त होकर मैंने कहा-"इस समय मुझे नींद आने लगती है।"
"तुम्हें सिर्फ़ नींद आ रही है। मेरी कविता सुनकर मुर्दे में भी जान आ जाती है।"-वे मेरे पास खिसक आए-"मैंने भाषा में नई खोज की है। मैं अँधेरे में भी लिख सकता हूँ।"
"अँधेरे में भी—!" मैं चौंक उठा मानो मेरे हाथ पर बिच्छू ने डंक मार दिया हो। मैं सँभला-"लेकिन अँधेरे में सिर्फ़ उल्लू—।"
उन्होंने मेरी बात काट दी और कंधा थपथपाया-"अब तुम ठीक समझ रहे हो। ध्यान से देखो-हमारी आँखें कैसी हैं? हमारी आँखें उल्लू जैसी हैं। इसीलिए हम अँधेरे में भी लिख सकते हैं। जीव-विज्ञान में भी हमारी रुचि है।"-उन्होंने तहमद के फेंट से पुड़िया निकाली-"ये देख रहे हो, क्या है?"-उनके चेहरे पर मूर्खों जैसी गर्वित मुस्कान थी।
"ये तो हड्डियाँ हैं।"-मैंने मासूमयित से कहा।
"ठीक समझे। ये हड्डियाँ दस हज़ार साल पुरानी हैं। ये कुत्ते की हड्डियाँ हैं। मैं इन हड्डियों की तुलना अपने पिल्ले की हड्डियों से करूँगा। ये इस समय फॉसिल्स के रूप में हैं। खैर, अब तुम कुछ कविताएँ सुनों!"-उन्होंने रजिस्टरों को—नहीं—नहीं, साँप की पिटारियों को खोला। मैं सहमकर दीवार के सहारे लग गया। पिल्ले को बीच में बिठाकर बोले-"यह आज की कवि गोष्ठी का अध्यक्ष रहेगा। हाँ, तो अध्यक्ष महोदय, मैं आज आपकी अनुमति से अपनी विश्व-प्रसिद्ध कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ।" पिल्ले के चरण छूकर उन्होंने फटे बाँस के स्वर में कोई लोक-धुन या परलोक धुन सुनानी शुरू कर दी। वे एक के बाद एक कविता सुनाते गए। मैंने याचना-भरी दृष्टि से उनकी ओर देखा; लेकिन द्रवित नहीं हुए। वे मुझे अनदेखा करके घसखुदी कविताओं की जुगाली करते रहे। मैं नारकीय पीड़ा का अनुभव कर रहा था।
मैंने खड़ा होना चाहा-"अब तो चलने की आज्ञा दो कविवर।" —उन्होंने कसकर मेरी बाँह पकड़ ली और अपनी कौड़ियों जैसी आँखें निकालकर कहा-"तुम आए हो अपनी मर्जी से, जाओगे मेरी मर्जी से।" मैं उनकी तरफ़ ऐसे देख रहा था, जैसे मेमना बाघ की तरफ़ देखता है। आँखें नींद से बोझिल हो रही थीं। अध्यक्ष महोदय भी सो गए थे। कविवर पशु जी ने मुझको बिठा लिया-" अब ग़ज़ल सुनिए। दुष्यन्त कुमार हमेशा मेरी नक़ल करता था। सूर्यभानु गुप्त, चन्द्रसेन विराट जैसे मुझको गुरु मानते हैं। मेरी कविता अपने में एक भविष्यवाणी होती है। रूस, चीन, नेपाल में भी जो भी परिवर्तन हुए, उन्हें मैं पहले ही कह चुका था। मैं सर्वहारा वर्ग का पक्षपाती हूँ। यह बात अलग है कि मेरा एक हज़ार रुपया शराब में उड़ जाता है। मेरे बताए प्लॉट पर यदि तुम कहानी लिखो, तो प्रेमचंद और यशपाल से भी आगे निकल जाओ। अच्छा, अब ग़ज़ल सुनिए-
" कौआ अँधेरी रात में दिन भर उड़ता रहा।
मेरी अक़्ल पर रोज़ इक पैबन्द जुड़ता रहा॥
उनका आना, मेरा जाना, दरवाजे से लौट आना।
कछुआ छाप ससुर मुझे देखकर कुढ़ता रहा॥
सुबह-शाम चलता रहा, बीड़ी-सा जलता रहा।
ऊँट की गर्दन-सा इश्क़ मेरा मुड़ता रहा॥"
इसी के साथ वे हिचकियाँ लेकर रोने लगे। मैं मिट्टी का माधो बना इस दिलकश मंज़र को देखता रहा। उन्होंने तुरन्त एक भाँग की गोली शीतल जल के साथ उदरस्थ की ओर कहा-"जानते हो मैं क्यों रोया? जो फॉसिल्स मैंने तुमको दिखाए हैं, ये किसी जन्म में मेरी हड्डियाँ रही होंगी। मेरा पिल्ला मेरे साथ ही मरेगा। यही कारण है कि मैं मनुष्य का विकास कुत्ते से मानता हूँ। आदमी खुशामद करते समय कुत्ते की तरह दाँत निपोरता है। मौका मिलने पर कुत्ते की तरह भौंकता और काटता है। एक कवि किसी दूसरे कवि को आदमी मानने को भी तैयार नहीं होता। कवि मान लेना तो असंभव ही है। इससे स्वतः सिद्ध है कि कवि का विकास कुत्ते से ही हुआ है।"
अब मेरी बारी थी। मैंने कहा-"आपमें और आपकी कविता में कुत्ते के गुण कूट-कूट कर भरे हैं। आपके दाँत भी कटहे कुत्ते जैसे हैं। आपको या तो रस्सी से बाँध दिया जाए या पागलखाने में भर्ती करा दिया जाए!"-सुनते ही वे कुत्ते की तरह गुर्राकर मेरी ओर बढे़। मैं चीते-जैसी प़फ़ुर्ती से उठकर दरवाजे की तरफ़ लपका। वे जब तक मुझ पर झपट पाते, मैं बाहर की साँकल लगाकर सड़क पर आ चुका था। कवि शिरोमणि पशु जी दरवाज़ा पीठ रहे थे और चुनींदा गालियों के सस्वर वाचन के साथ मुझे भावभीनी विदाई दे रहे थे। मैं इस समय अपने को बहुत हल्का महसूस कर रहा था।