लोकसाहित्य / रंजन

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लोकसाहित्य

अंग-जनपदोॅ के सभ्यता-संस्कृति, धर्म, नीति, रीति-रिवाज, कला-साहित्य, एकरोॅ सामाजिक-अभ्युदय आरो आकांक्षा के अवलोकन करना छै तेॅ एकरोॅ श्रोत छै-लोक-साहित्य के अनुशीलन।

श्री राधावल्लभ शर्मा कहै छै-शास्त्रासम्मत शिष्ट आरो सम्मुन्नत-साहित्य के उद्गम-श्रोत आरो होकरोॅ विकाश के जड़, लोकाभिव्यक्ति आरो लोकमानस सें ही तत्व ग्रहण करै छै।

लोक-साहित्य के स्वाभाविकता में सुसंस्कृत शृंगार नै, मतर वनोॅ के प्राकृतिक सौंदर्य विद्यमान रहै छै। हेकरा पर व्यक्ति नै, समाजोॅ के छाप रहै छै। हमरोॅ अंग जनपद में पुरातन-काल सें आय तक, अनगिनत सभ्यता आरो संस्कृति के उथल-पुथल होलै मतर-कि हमरोॅ लोक-साहित्य के अजस्त्रा-धारा कहियो नै सुखेॅ पारलै, आइयो अविरल बही रहली छै।

संसार के सब्भें देशोॅ के लोक-साहित्य के संग्रह के अर्थ छै, मानवजाति के विचारधारा के सम्पूर्ण इतिहास केरोॅ संग्रह। साहित्य केरोॅ अध्ययन आरो अनुशीलन करला सें तत्कालीन संस्कृति के ज्ञान हुवेॅ पारै, मतर होकरा सें संस्कृति के प्रारंभिक विकास केरोॅ संकेत नै मिलेॅ पारेॅ, जबेॅ कि लोक-साहित्य के अनुशीलन सें इ सुलभ छै।

निर्मल वही छै जे सहज, मासूम आरो भोला छै। निर्मल हृदय आरो मासूम संवेदना के नै कोय सिद्धांत होय छै नै व्याकरण। उ नै शिष्ट होय छै नै अशिष्ट, उ मात्रा निर्मल होय छै, सरल आरो सहज होय छै।

लोक-जीवन के साहित्य, संगीत आरो कला के बारे में यही बात लागू होय छै। लोक-साहित्य समाज के ऐन्हों दर्पण छेकै जेकरा में लोक-जीवन के सौंसे कार्य-कलाप, रीति-रिवाज, सुख-दुख, रहन-सहन, खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा, धर्म-संस्कार, पूजा-पाठ आरो व्रत-पर्व-त्यौहार आरिन सम्पूर्ण सामाजिक परिवेश के दर्शन एक्के साथें होय छै।

संस्कारित-साहित्य या शिष्ट-साहित्य के अनुशीलन करला सें समाज के संस्कार पता चलै छै आरो लोक-साहित्य सें जीवन के.जे साहित्य, कला आरो संगीत, लोक में बसलोॅ छै, जन-साधारण के कंठ आत्मा आरो जीवन में झंकृत छै-वहेॅ नैसर्गिक छै, प्राकृतिक छै, सारस्वत छै।

ऐन्हों साहित्य, कला आरो संगीत के नै कोय व्याकरण बांधैलेॅ पारेॅ, नै कोय नियम। लोक-जीवन में बसलोॅ, जीवन-रस के नितांत-अबोध आरो मासूम-स्वरूप के नाम छेकै लोक-संस्कृति।

जेना लोक-संगीत के अलंकरण करला के बाद, व्याकरणबद्ध करथैं, एकरोॅ स्वरूप सुगम सें तुरंते दुर्गम होय जाय छै। आरो एकरोॅ परिवर्तित स्वरूप के नाम पर शास्त्राीयता के मुहर लगी जाय छै। यही नांकी, हमरोॅ लोक-साहित्य, तभिये तक लोक-जीवन में रहै छै, जब-तक ओकरा संस्कारित करी केॅ विद्वानें, शिष्ट-साहित्य नै बनाय दै छै। शिष्ट-साहित्य के इ मतलब नै निकाललोॅ जाय कि लोक-साहित्य अशिष्ट छै। लोक-साहित्य तेॅ वैन्हों सौंदर्य के प्रतिमां छेकै, जेकरोॅ सौंदर्य नै अंगराग के आश्रित छै, नै टिकुली-बिन्दी आरो काजर के. हौ तेॅ इ सब ऊपरी शृंगार के बिना भी सुन्दर आरो नैसर्गिक छै।

लोक-साहित्य के विपरीत, व्याकरणबद्ध शिष्ट-साहित्य संस्कारित होय के आपनोॅ सौंदर्य-छटा तेॅ ज़रूरे बिखेरै छै, मतर लोक-साहित्य के जे निहित खुसबू आरो मिठास, मिट्टी के सोंधापन, लोकजीवन के अतिसहज अभिव्यक्ति आरो भोलापन छै-उ सब लोक-साहित्य के आपनोॅ अनमोल निधि छेकै।

शास्त्रीय साहित्य यदि बड़का के शिष्ट-मुस्कान छेकै तेॅ लोक-साहित्य, अबोध-बच्चा के खिलखिलैलोॅ हँसी. बस यही भेद छै दोनों में।

भारतीय लोक-साहित्य

आपनो देशोॅ में भी जबेॅ अंग्रेज़ी सरकार स्थापित होलै, तेॅ हमरा पर शासन आरो धर्म-प्रचार करै के वास्तें, हमरोॅ भाषा, हमरोॅ लोक-साहित्य के अध्ययन करी केॅ, सर्वसाधारण जनता सें सम्पर्क स्थापित करना आवश्यक छलै। यही कारण छलै कि हमरोॅ लोक-साहित्य के संकलन आरो अनुसंधान के प्रथम कार्य हिनिये शुरू करलकै।

1829 में भारतीय लोक-साहित्य के पहलोॅ गं्रथ छपलै। नाम छलै, 'ऐलन्स एण्ड ऐंटिक्विटीज आॅफ राजस्थान' लेखक छलै कर्नल जेम्स टाड। हेकरोॅ बादे जे. ऐवट, रेवरेंड ए. हिल्सप, सर रिचर्ड टेंपुल, मिस फ्रेजर जैन्होॅ अंग्रेज के ग्रंथ प्रकाशित होलै। 1871 में हमरोॅ देश के लोक गीतोॅ के सर्वप्रथम संग्रह 'फोकसांग्स आॅफ सदर्न इंडिया' चाल्र्स। ई. ग्रोवर के संपादनोॅ में प्रकाशित होलै।

अंग जनपद के लोक-साहित्य

'जर्नल आॅफ रायल एशियाटिक सोसायटी आॅफ बंगाल' में हमरोॅ लोक-साहित्य के सम्बध में 1833 सें ही लेफ्टि। कर्नल एस. आर. टिकेल नें लिखना शुरू करी देलकै। 1870 के पहनें, हमरोॅ लोक-साहित्य विषयक आलेख-लेखन में प्रमुख अंग्रेजोॅ के नाम छलै ए. कैंपवेल, डब्लू पेपे, लेफ्टि। कर्नल ई. टी. डैल्टान आरो भारतीय लेखक छलै राखालदास हालदार आरो रासबिहारी बोस।

मतर अपनों जनपद के लोक-साहित्य के सम्बंध में सबसें महत्त्वपूर्ण काम करै वाला के नाम छेकै-सर जार्ज ए. ग्रियर्सन। 1878 में हिनी 'मानिकचंद' के गीत पर एक निबंध लिखलकै। 1884 में 'विजयमल' लोकगाथा के संकलन प्रकाशित करबैलकै, फेनू 'गोपीचंद' आरो 'नयका बनजरवा' के संकलन आरो प्रकाशन के बाद हमरोॅ लोक-गीतोॅ के संकलन-प्रकाशन के श्रेय भी हिनखै जाय छै।

बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक लोक-भाषा विषयक महत्त्वपूर्ण कार्य प्रायः विदेशी विद्वानें ही करलकै आरो होकरोॅ बाद भारतीय विद्वान इ दिशा में प्रवृत्त हुवेॅ लागलै।

रांची से प्रकाशित होय बाला, श्री शरतचंद्र राय के शोधपूर्ण त्रौमासिक पत्रिका 'मैन इन इंडिया' में लोक-साहित्य पर विद्वानोॅ के आलेख प्रकाशित होय छलै। एकरोॅ अतिरिक्त पं। रामनरेश त्रिपाठी के भी नै भुलावेॅ पारै छियै, हिनी लोकगीतोॅ के कर्मठ शोधकत्र्ता छलै आरो लोक-साहित्य केरोॅ संकलन-संपादन में उल्लेखनीय काम करलकै।

जहाँ तक हमरोॅ अंग प्रदेश के लोक-कंठ में बसलोॅ गीत-गाथा के संकलन के काम छै, हेकरा में प्रदीप प्रभात, श्री सच्चिदानंद स्नेही, डाॅ। रमेश आत्मविश्वास आरो नरेश पाण्डे चकोर के कार्य अविस्मरणीय छै। लोक कंठ में बसलोॅ गीत गाथा केॅ सुनी केॅ, रिकार्ड करी केॅ, लिपिबद्ध करना आरू होकरा प्रकाशित करै करबाबै में, हिनका सिनी के उल्लेखनीय योगदान छै।

अंग-महाजनदपदोॅ के लोक-साहित्य पर भागलपुर के तिलकामांझी विश्वविद्यालय में अनेकानेक शोध होय चुकलोॅ छै, मतर हमरोॅ लोक-साहित्य के संरक्षण आरो प्रकाशन में डाॅ। विश्वनाथ प्रसाद केॅ अवदान वास्तव में अद्वितीय छै। बिहार-सरकार द्वारा संचालित बिहार राष्ट्रभाषा-परिषद के तत्वावधान में 'लोकभाषा अनुसंधान विभाग' द्वारा लोकभाषा आरो लोक-साहित्य के वैज्ञानिक अध्ययन-अनुशीलन के जे कार्य हिनकोॅ कार्य-काल में होलै उ वास्तव में अति-महत्त्वपूर्ण छै। मतर अफसोस छै कि इ विभाग द्वारा प्रकाशित सामग्री आबे जन-सुलभ नै छै, जबकि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के 'लोकभाषा अनुसंधान विभाग' ने बिहार के विभिन्न भाषा आरो बोली के 57000 पारिभाषिक शब्द, 13117 लोकगीत, 331 लोक-कथा, 10192 कहावत, 2123 मुहाबरा, 1500 पहेली, 45 लोकगाथा आरो 4 गीत-रूपक के संग्रह करी चुकलोॅ छलै।

लोकसाहित्य के महत्त्व

लोक के संचित ज्ञान-अनुभव आरो विचार, लोक-कंठ में सुरक्षित रहै छै। एकरोॅ अभिव्यक्ति चाहे गीतोॅ में होय अथवा कहानी, खिस्सा, मुहाबरा या कि लोकोक्ति में, सब्भे हमारोॅ लोक साहित्य ही छै। यहाँ तक की गाली-गलौज भी।

अनपढ़-गंवार भी हमरोॅ लोक-अंग छेकै आरो पंडित-पुरोहित भी। लोक के मानस-अभिव्यक्ति में कोय लाग-लपेट नै रहला के कारण, हमरोॅ लोक-साहित्य, लोक के नैसर्गिक आरो प्राकृतिक अभिव्यक्ति के माध्यम छेकै।

प्रश्न छै कि शिष्ट-साहित्य के अलंकार सें विहीन, इ लोक-साहित्य के आखिर आय के तथाकाथित शिष्ट-उन्नत समाज में, 'उपयोगिता' की छै? एकरोॅ संरक्षण आरो संग्रह कैन्हें आवश्यक छै?

यही ली लोक-साहित्य के महत्त्व पर विचार करना ज़रूरी छै। एकरोॅ महत्त्व केॅ हम्में छह भागोॅ में विभक्त करेॅ-पारै छियै।

+ऐतिहासिक महत्त्व

+भौगोलिक आर्थिक महत्त्व

+सामाजिक महत्त्व

+धार्मिक-पौराणिक महत्त्व

+नैतिक महत्त्व

+भाषाशाशास्त्रीय महत्त्व

ऐतिहासिक महत्त्व

इतिहास के अध्ययन करला सें, मुख्य-रूप संे, अलग-अलग काल-खण्डोॅ में स्थापित विभिन्न राज्य-वंश के जानकारी मिलै छै। एकरोॅ अलावे समय-समय पर ऐलोॅ, विदेशी भ्रमणकारी के विवरण देखला सें, तत्कालीन राज्यवंश के साथें आम-आदमी के रहन-सहन के भी पता चलै छै। पुरातत्व-अन्वेषी के खनन आरो अन्वेषण के परिणाम में भी काल-खण्ड विशेष के सभ्यता-संस्कृति के अनुमान प्रकाशित होय छै। इ तीनों श्रोत के द्वारा एकत्रित जानकारी सें ही 'इतिहास' के निर्माण होय छै। लेकिन देखलोॅ जाय तेॅ शिष्ठ-समाज द्वारा उपलब्ध करैलोॅ इ 'इतिहास' तब तक अधूरा छै, जब तक कि लोक-साहित्य में छिपलोॅ इतिहास के अध्ययन नै करलोॅ जाय।

जहाँ तक हमरोॅ 'अंग महाजनपद' के प्रश्न छै, वहाँ इ स्थापित होय चुकलोॅ छै कि इ जनपद के इतिहास अभी तक अँधेरा में छिपलोॅ छै। कहलोॅ गेलोॅ छै कि अविभाजित बिहार के इतिहास ही सौंसे देशोॅ के इतिहास रही चुकलोॅ छै। कम सें कम एक हजार सालोॅ के काल-खण्ड ऐन्हों छै, जेकरा बारे में विद्वान-सिनी के यही राय छै। लेकिन वास्तविक स्थिति यही छै कि इ सौंसे काल-खण्ड में अंग-महाजनपद' के इतिहास पर अन्वेषण-अनुशीलन आरो अध्ययन के काम आइयो तक अधूरे छै।

आंगी लोकगाथा के ऐन्हो 'ऐतिहासिक-पात्रा' सिनी ठेरी छै, जेकरोॅ नाम पर इ अंचल में नै केवल स्मारक निर्मित छै, बल्कि उ सनी स्थानोॅ पर लाखों-लाख आदमी एकत्रित होय करी केॅ हुनका-सिनी के स्मृति में आपनोॅ श्रद्धा-सुमन अर्पित करै छै। 'लोकगाथा' प्रकरण में ऐन्होॅ ऐतिहासिक पात्रोॅ पर प्रकाश डाललोॅ गेलोॅ छै। यहाँ बस एतने कहना छै कि इतिहासकारें यदि आंगी लोक साहित्य के गंभीरतापूर्वक अनुशीलन करै तो हमरोॅ छुपलोॅ इतिहास के एक महत्त्वपूर्ण अंग प्रकाशित हुवेॅ पारै छै।

भौगौलिक आरो आर्थिक महत्त्व

लोकसाहित्य के अध्ययन करला के बाद जे सबसेॅ पहलोॅ जानकारी मिलै छै, ओकरोॅ अनुसार आवागमन के प्रमुख मार्ग छलै-जलमार्ग। थलमार्ग के कठिनाई आरो कभी के कारण आवागमन आरो व्यापार, जल-मार्ग के द्वारा होय छलै। रास्ता में पड़ै वाला गाँव, शहर आरो समुद्र में स्थित द्वीप, देश के विवरण भी आंगी लोक-साहित्य में भरलोॅ छै। एकरोॅ अध्ययन करला सें तत्कालीन भूगोल के अलावे वाणिज्य-व्यापार आरो आर्थिक स्थिति के आय तक के अज्ञात जानकारी उपलब्ध हुवेॅ-पारै छै।

सामाजिक महत्त्व

सामाजिक वर्णन के तेॅ खाने छेकै, लोक साहित्य। लोगोॅ के रहन-सहन, खान-पान आरो रीति-रिवाज के दर्पण छेकै लोक साहित्य। स्थान-विशेष के सामाजिक अध्ययन के इ एकलौता श्रोत छेकै। एकरोॅ अनुशीलन करला सें अलग-अलग जाति के लोक-व्यवहार आरो परम्परा के विस्तृत अध्ययन करलोॅ जाबेॅ सकै छै। यही ली समाजशास्त्राीय अध्ययन के मामला में एकरो महत्त्व विशेष महत्त्वपूर्ण छै।

धार्मिक-पौराणिक महत्त्व

धार्मिक-लोकाचार के अध्ययन नै शास्त्रा द्वारा संभव छै नै वेद-पुराण आरो उपनिषद के द्वारा कैन्हें कि लोकाचार के सम्बंध नै दर्शन शास्त्रा सें छै, नै कि शास्त्रा-सम्मत कर्मकांडोॅ सें। एकरोॅ अध्ययन के एकमात्रा श्रोत छेकै, हमरोॅ लोक-साहित्य। लोक साहित्य के अध्ययन सें हमरा अलग-अलग लोकाचार, परम्परा, लोक देवी-देवता, आस्था आरो परम्परा के विषद् ज्ञान प्राप्त होय छै। यै कारण लोक साहित्य के धार्मिक-पौराणिक महत्त्व के पता चलै छै।

नैतिक महत्त्व

सदाचार आरो दुराचार के सुखद आरो दुखद परिणाम सें हमरोॅ लोक-कथा भरलोॅ छै। यदि कहलोॅ जाय कि लोक-मंगल के अभिव्यक्ति, शिष्ट साहित्य सें अनेक गुणा ज़्यादा लोक साहित्य में छै तेॅ एकरा में कोय विरोध, कोय भ्रम नै हुवेॅ पारेॅ।

इ विषय पर आगू विशेष चर्चा करलोॅ गेलोॅ छै। यहाँ एतने दोहराना पर्याप्त छै कि नैतिक महत्त्व के क्षेत्रा में लोक साहित्य, शिष्ट साहित्य सें आगू छै।

भाषाशास्त्राीय महत्त्व

इ विषय पर पहलोॅ बात तेॅ यही छै कि अंगिका-भाषा में एकरोॅ आपनो शब्द-भंडार एतना विशाल छै, जेकरोॅ फायदा उठाय करी के राष्ट्रभाषा हिन्दी आरो समृद्ध हुवेॅ पारै छै।

सबसें पहने क्रिया-पद के कुछ उदाहरण देखलोॅ जाय-'हेराय गेलै' आरो 'नुकाय गेलै' के वैन्होॅ सीमित अर्थ नै छै जे हिन्दी के 'खो जाना' आरो 'छुप जाना' के छै। भावाभिव्यक्ति के आंगिका शब्द 'कनमुहां' होय गेलै, 'अचकचाय गेलै' , 'ससुरमुहां' होय गेलै, अन्ठियाय देलकै, ढनमनाय गेलै, आरिन ऐन्हें शब्द छेकै जिनकोॅ पर्यावाची हिन्दी में उपलब्ध नै छै।

यही स्थिति घर के विभिन्न स्थानो ली प्रयुक्त शब्दोॅ में भी छै। जेना-ताखा, ओसरा, ओलती, आदि शब्द।

हल-बैल, खेती-गृहस्थी, साज-समान, औजार, नाव आदि के हिस्सा के नाम के साथे-साथ आंगी-भाषा में ऐन्होॅ ढेरे ओरो विशेष शब्द छै जे राष्ट्रभाषा के साथें विश्व के कई एक उन्नत भाषा में उपलब्ध नै छै।

उदाहरण ली, एक शब्द लेलोॅ जाय 'गंध' । आंगी में गंध के जेतना अलग-अलग शब्द छै, उ नै हिन्दी में छै, न अंग्रेज़ी में। 'बिसैन' या 'विसायनी गंध' एक ऐन्हें आंगी शब्द छै।

आंगी के मुहाबरा सिनी भी ऐन्होॅ मौलिक छै, जेकरा सें राष्ट्रभाषा के समृद्ध करलोॅ जाबेॅ सकै छै। एकरोॅ लोकोक्ति, कहावत, फैंकड़ा सिनी में भी यही गुण छै।

हमरोॅ अंग-जनपद के अति-विशाल लोक-साहित्य के वटवृक्ष के छोह प्रधान अंग छै-लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोकनाट्य-लोकनृत्य आरो प्रकीर्ण साहित्य, जेकरोॅ अंर्तगत् कहावत, मुहावरा आरो बुझौव्वल सिनी आबै छै।

लोक-साहित्य के प्रारंभ पद्य से होलै। यही कारण छै कि अंगिका लोक-साहित्य में भी पद्य लोक-साहित्य के अनुपात ज़्यादा छै। एकरोॅ अतिरिक्त लोकनाट्य आरो नृत्य में गद्य भी छै आरो पद्य भी, मतर एकरा में भी पद्य के ही अनुपात ज़्यादा छै। कहावत आरो मुहाबरा में भी गद्य आरो पद्य के रचना छै, मगर एकरा में गद्य के अनुपात विशेष छै।