लोक-साहित्य, संस्कृति और समाज / प्रताप सहगल
पढ़ा-लिखा आभिजात्य-समाज अक्सर कलाओं की चर्चा करता है और इन कलाओं में सबसे ज़्यादा चर्चा संभवतः साहित्य की होती है। साहित्य का दायरा, साहित्य की गुणवत्ता, साहित्य की मात्रा, साहित्य के प्रकार, साहित्य की मूल्यवत्ता और साहित्य का भविष्य आदि को लेकर गहन-गंभीर चर्चाएँ होती हैं। इसी चर्चा के चलते कभी-कभी लोक-साहित्य का ज़िक्र भी एक संदर्भ के तौर पर कर दिया जाता है। लोक-साहित्य और संस्कृति के रिश्तों की पड़ताल पर ध्यान कम दिया जाता है।
यह लोक-साहित्य है क्या? लोक क्योंकि अंग्रेज़ी के 'फोक' का पर्याय माना जाता है, इसलिए लोक-साहित्य को भी हम 'फोक लिटरेचर' का पर्याय मान लेते हैं। बहस तलब बात यह नहीं है कि इन दोनों शब्दों की अवधारणाओं में मूलभूत अंतर क्या है, समझने की इच्छा यह होती है कि आखि़र लोक-साहित्य से हमारा आशय क्या हो सकता है। लोक के बरक़्स यहाँ परलोक की कल्पना भी है, जो 'फोक' के बरक़्स अंग्रेज़ी में नहीं है, लेकिन लोक-साहित्य इस कल्पना को लेकर नहीं चलता।
लोक-साहित्य के कई आशय हो सकते हैं। पहला-उस लोक का साहित्य जो सभ्यता कि सीमाओं से बाहर या उन लोगों का साहित्य जिनकी गिनती सभ्यता कि सीमाओं में नहीं होतीं। हालाँकि सभ्यता के मान अलग-अलग हो सकते हैं और सांस्कृतिक विरासत सभ्यता के पैमानों को बदल सकती है और मूल्यहीन बना सकती है, लेकिन आज मोटे तौर पर यही समझा जाता है। मसलन आदिवासी लोगों द्वारा रचित मौखिक साहित्य इसी कोटि में रखा जा सकता है, जोकि एक काबिले-एतराज़ बात है। दूसरा-आदिम परंपराओं को सुरक्षित रखे हुए लोगों का साहित्य, जो कबीलाई संस्कृति या फिर कबीलाई मानसिकता के साथ-साथ विकसित होता है। तीसरा-गाँवों में रचा जाने वाला साहित्य और चौथा-लोक-रंजन के लिए रचा जाने वाला साहित्य। इस कोटि में हम फ़िल्मी गीतों को भी रख सकते हैं।
लोक-साहित्य की ख़ास बात यह है कि यह हमें युगों-युगों से मौखिक परंपरा से प्राप्त होता है, इसके रचयिता का भी पता नहीं चलता और समस्त लोक उसे अपनी ही रचना समझता है। एक ही तरह के लोक-गीत या लोक-कथा के कई-कई रूप मिलना ही लोक-साहित्य की विशेषता है। लेकिन वैज्ञानिक उपकरणों के आविष्कार के बाद लोक-साहित्य को विभिन्न रूपों में सुरक्षित रखना संभव हो गया है, फिर भी उसमें परिवर्तन आते रहते हैं। इसी के साथ यह बात भी जुड़ी हुई है कि लोक-साहित्य की रचना प्रायः अपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोगों के लिए की जाती है और कई बार इसे ग्राम्य-साहित्य मानकर भी एक भ्रांति पैदा कि जाती है।
यह सत्य है कि शुरू-शुरू में लोक-साहित्य की रचना भले ही कबीलों या गाँवों में हुई, लेकिन बाद में जनपदों तथा शहरों के विकास के साथ उसकी रचना शहरों में भी होने लगी। लोक-साहित्य लोगों की ज़बान पर होता है। लोक-साहित्य लोगों के सुख एवं दुःख के अवसरों पर समवेत स्तर पर गाया-बजाया जाता है। अगर यह सत्य है (यह सत्य ही है) तब आज सबसे बड़ा लोक-साहित्य हमारी फ़िल्मों के गीत ही हैं। हालाँकि यह गीत एवं इनका संगीत अनाम या अज्ञात नहीं होता, इसलिए आज ग्रामीण लोक-साहित्य या शहरी लोक-साहित्य के रूप में बँटवारा ठीक नहीं लगता।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या लोक-साहित्य और जन-साहित्य एक ही बात है। जन-साहित्य भी आम जन का साहित्य है और लोक-साहित्य भी आम लोगों का, तो दोनों में बुनियादी फ़र्क क्या है? फ़र्क तो है। जन-साहित्य भले ही आम जन की पीड़ाओं, संघर्षों एवं आकांक्षाओं को केंद्र में रखकर लिखा जाता है, लेकिन वह अपेक्षाकृत अधिक सुगठित, जन-चेतना कि सामूहिक अभिव्यक्ति और प्रायः राजनीतिक विचारधारा से आप्लावित होता है। वह जन-कल्याण की भावना तथा किसी निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रतिबद्ध होता है। भारतीय संदर्भों में वामपंथी, जनपक्षी, दलित एवं आदिवासी साहित्य को इस कोटि में रखा जा सकता है, जबकि दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रेरित साहित्य जन के बजाय संभ्रांत व्यक्ति को महत्तव देता है ओर प्रायः यथास्थितिवाद का समर्थक होता है। लोक-साहित्य व्यक्ति-केंद्रित हो ही नहीं सकता। प्रायः वह मौखिक परंपरा से प्राप्त लोक-रंजन के लिए होता है, कहीं उसमें बदलाव की आकांक्षा भी हो सकती है और उसमें सांस्कृतिक घटक गुँथे रूप में आते हैं तथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी हो रहे संक्रमण के दौरान उसमें कई स्थानीय परिवर्तन होते रहते हैं। इस तरह देखा जाए तो लोक-साहित्य बेहद ल चीला और सर्वग्राही होता है।
यह पहले ही कहा जा चुका है कि छापेखाने, ध्वनि-मुद्रण यंत्र तथा अन्य कई उपकरणों के आने से लोक-साहित्य छपित एवं रिकार्डेड रूप में भी मिलता है। कई बार तो एक ही लोक-गीत या लोक-कथा के कई-कई प्रचलित रूप मिलते हैं। ऐसा कैसे होता है? यहीं से हम संस्कृति के दायरे में प्रवेश कर जाते हैं। संस्कृति के आधार क्या हैं? संक्षेप में धर्म, इतिहास, भूमि, भूगोल एवं भाषा संस्कृति के आधार हो सकते है॥ इनमें से धर्म के साथ संस्कृति का रिश्ता सबसे ज़्यादा नाज़ुक है। वस्तुतः हमारे यहाँ संस्कृति की पहचान धर्म के रास्ते से की जाती है, जो कि एक अपूर्ण प्रक्रिया है। किसी भी धर्म में विश्वास रखने वाला या किसी भी धर्म में विश्वास न रखने वाला व्यक्ति भी सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध और संपन्न हो सकता है। मिसाल के तौर पर दीवाली पर लक्ष्मी-पूजन, होली पर होलिका दहन, ईद पर नमाज़ अदा करना या क्रिसमस पर चर्च की प्रार्थना-सभा में हिस्सा लेना एक धार्मिक अनुष्ठान है, जबकि इन अनुष्ठानों में विश्वास न रखने वाला व्यक्ति भी दीवाली पर रिश्तेदारों या मित्रो से मिलता-जुलता है, ईद पर सेवइयाँ खाता है या अन्य इसी तरह के सामाजिक मिलन, जो मनुष्य को क़रीब लाते हैं, संस्कृति का ही एक रूप है। इसलिए एक संप्रदाय के धार्मिक त्यौहार से जुड़ा सांस्कृतिक पक्ष दूसरे संप्रदायों के लिए भी साझा हो जाता है। यह काम धर्म नहीं कर पाता। यहीं यह कह देना भी ज़रूरी है कि धर्म अपने समर्थन के लिए संस्कृति की तलाश करता है, नाकि संस्कृति किसी धर्म की रचना करती है। संस्कृति सामाजिक परंपराओं से ही प्राप्त होती है। संस्कृति का अर्थ ही है-परिष्कृत करना। व्यापक अर्थ में देखें तो सीखे हुए व्यवहार का नाम ही संस्कृति है। नर-विज्ञानियों की दृष्टि में संस्कृति एवं सभ्यता में कोई अंतर नहीं है। जबकि इन दोनों अवधारणाओं में अंतर है। संक्षेप में सभ्यता से तात्पर्य उन आविष्कारों, उत्पादन साधनों एवं राजनीतिक, सामाजिक संस्थाओं से है, जिनके कारण मानव-जीवन के विकास की यात्रा सरल एवं सुगम हुई है। जबकि संस्कृति में चिंतन तथा कलात्मक सर्जन की क्रियाएँ समाहित हैं। दर्शन, चिंतन, नैतिकता, आदर्श, परंपराएँ, लोकाचार आदि संस्कृति के ही घटक हैं, सभ्यता के नहीं। सभ्यता बाहरी रूप है। संस्कृति उसकी आत्मा है। उदाहरण के लिए घर में अच्छा फर्नीचर सभ्यता का सूचक हो सकता है, लेकिन उसका उपयोग कैसे किया जाए संस्कृति का सूचक होंगे। ड्रैस अगर सभ्यता है तो एड्रेस संस्कृति है। लोक-साहित्य के संदर्भ में संस्कृति के इसी रूप की पड़ताल अपेक्षित है।
लोक-साहित्य संस्कृति का निर्माण करता है या संस्कृति लोक-साहित्य के रूपों को पैदा करती है-यह भी एक पेचीदा प्रश्न हो सकता है। हमारे मत से लोक-साहित्य संस्कृति के निर्माण में अपनी भूमिका अदा करता है और फिर सांस्कृतिक विरासत के दूसरे पक्ष लोक-साहित्य के विभिन्न रूपों को विकसित करते हैं। यह एक तरह से दोहरी प्रक्रिया है। लोकगीत, लोक-कथाएँ, लोक-चुटकुले, लोक-पहेलियाँ, लोक-कहावतें, लोक-मंत्र एवं लोक-नाटक आदि सभी ने मिलकर लोक-साहित्य की विपुल संपदा का निर्माण किया है। आल्हा-ऊदल, लैला-मजनूँ, शीरी-फ़रहाद, सोहनी-महिवाल के किस्सागो गीत, जो गीत भी हैं और लोक-नाट्य की परिधि में भी प्रवेश कर जाते हैं, लोक-साहित्य का हिस्सा हैं। इसी तरह से आनुष्ठानिक गीत जैसे पूजा, व्रत, जागरण, त्योहारों या संस्कारों आदि के अवसर पर गाए जाने वाले गीत या शुद्ध मनोरंजन के लिए मौज-मस्ती भरे गीत लोक-साहित्य की सांस्कृतिक संपदा हैं। लोक गीतों को पौरुषेय एवं अपौरुषेय रूपों में भी बाँटा गया है। लोरी आदि लोकगीत अपौरुषेय श्रेणी में आते हैं, जबकि पुरुषों द्वारा गाई जाने वाली रागनियाँ आदि पौरुषेय लोकगीतों में शामिल की जाती हैं। कहने का तात्पर्य यह कि लोकगीतों की सर्जना लोक द्वारा, लोक के बारे में और लोक के लिए ही की जाती है। लोक-साहित्य का यही प्रजातंत्र है।
लोक-साहित्य संस्कृति का निर्माण कैसे करता है, इसकी छटा विवाह-संस्कार के अवसर पर गाए जाने वाले सोहर, सोहाग, सिठनी, सेहरा द्वाराचार या झूमर आदि लोक-गीतों में देखी जा सकती है। विभिन्न प्रदेशों में एक ही अवसर पर अलग-अलग भाषाओं एवं सुरों के लोकगीत, लेकिन उनके मूलाधारों में बहुत अंतर नहीं मिलेगा। वज़ह यह है कि इन लोक-गीतों के माध्यम से ही लोक के मन में दबी-छिपी कुंठाओं को अभिव्यक्ति मिलती है और आम जन कुंठा से परिष्कार की यात्रा तय करता है। इसी माध्यम से उसका विरेचन होता है। विरेचन का यह रास्ता आभिजात्य-साहित्य के बजाय सीधा एवं सरल है। इसीलिए लोक-साहित्य सदियों तक जीवित रहता है और परिवेश बदल जाने के बावजूद अपनी धमक देता रहता है।
लोक-गीतों के बाद लोक-साहित्य का सबसे महत्तवपूर्ण पक्ष लोक-कथा है। प्रायः 'लोक-कथा' शब्द का प्रयोग हम लोक-गाथा या लोक-कहानी के रूप में भी कर देते हैं, लेकिन इनमें फ़र्क है। मिसाल के तौर पर सत्यनारायण की कथा होती है, कहानी नहीं, पंचतंत्र, कथा सरित सागर या बैताल पच्चीसी की कहानी होती है, कथा नहीं। लोक-गाथा तो इन दोनों से अलग है। लोक-कथा प्रायः धार्मिक अनुष्ठानों के अवसर पर सुनाई जाती है, जबकि लोक-कहानी का उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ नीतिगत उपदेश देना भी होता है। इनका धार्मिक अनुष्ठानों से दूर-दूर तक कोई सम्बंध नहीं होता। लोक-कथाएँ आध्यात्मिक भूख या जिज्ञासा को शांत करने का एक रास्ता है तो लोक-कहानी लोक-बुद्धि को विकसित करने, उसमें एक मूल्यगत सोच पैदा करने के लिए लिखी जाती है। इनके लेखक ज्ञात-अज्ञात होते हैं, लेकिन इनका लोक-रूप मौखिक परंपरा से ही प्राप्त होता है। कहानी-कला का मूल रूप देखा जाए तो यहीं मौजूद है।
जैसा कि कहा, लोक-गाथा लोक-साहित्य का एक अलग रूप है। वीर गीत, नृत्य गीत तथा आख्यान गीत आदि को लोक-गाथा माना जा सकता है। मनुष्य के सांस्कृतिक विकास के सोपानों में लोक-गाथाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। मनुष्य जब कबीलाई-संस्कृति विकसित कर रहा था तभी इनका विकास हुआ। अपनी मनोभावनाओं को सामाजिक रूप से अभिव्यक्त करने की इच्छा तब भी थी, आज भी है। आज पहले से भी प्रबल है। तब वह मनोभावनाएँ ही अभिव्यक्त करना चाहता था, आज वह इन्हें अपनी पहचान के साथ अभिव्यक्त करता है। लोक-संस्कृति में मनुष्य की वैयक्तिक पहचान लोक की सेवा में ही कहीं तिरोहित हो जाती है। इस दृष्टि से कबीले का आदमी ज़्यादा उदार था। लोकगाथाओं का प्राचीनतम रूप ऋग्वेद के कुछ सूक्तों, पुराणों एवं सबसे ज़्यादा महाभारत में मिलता है। उल्लेखनीय बात यह है कि इन उपलब्ध लोक-गाथाओं ने भारतीय साहित्य के कई लेखकों को अनुप्रेरित एवं अनुप्राणित किया और ऐसी रचनाओं की संख्या कई सौ होगी, जिन्होंने इन्हीं लोक-गाथाओं का अपनी-अपनी तरह से सर्जनात्मक इस्तेमाल किया है। यहाँ यह तथ्य भी ओझल न हो जाए कि इन्हीं गाथा-गायकों के माध्यम से कवि, चारण, सूत, भाट आदि का विकास हुआ। आज यह परंपरा लुप्त-प्रायः-सी है, लेकिन तीजन बाई की गाथा-गायकी सुनने के लिए अभी भी लोग उमड़ पड़ते हैं और छोटे-छोटे गाँवों, कस्बों में इसकी कहीं-कहीं झलक मिल सकती है।
सांस्कृतिक संपदा के स्वरूप को लोक-नाटक या लोक-नाट्य के बिना समझना संभव नहीं है। मांगलिक उत्सवों, पर्वों, तीज-त्यौहारों या अन्य किन्हीं सामाजिक-सम्मेलन के अवसरों पर लोक-नाट्य की ज़रूरत महसूस हुई होगी, क्येांकि लोक-रूढ़ियों, लोक-परंपराओं, लोक-विश्वासों तथा लोक-भावनाओं के जितने विविध रूप लोक-नाट्य में मिलते हैं, उतने अन्य कहीं नहीं। भरत ने नाट्यशास्त्र में रूपक के भेदों के साथ-साथ उपरूपक एवं उसके भेदों में प्रहसन, डिम, भाण, वीथी आदि अनेक रूपों की चर्चा कि है। साथ ही उन्होंने नाटक को नाट्यधर्मी एवं लोकधर्मी मानकर भी विभाजन प्रस्तुत किया है। तात्पर्य यह है कि शास्त्र-सम्मत नाट्य-व्यवहार के साथ-साथ लोक-धर्मी नाट्य-व्यवहार भी उनके समय तक विकसित हो चुका था। रास, रासक, लीला आदि ऐसे ही रूप थे, जिन्होंने लोक-नाट्य की परंपरा बनाई, बढ़ाई और यह आज भी किसी न किसी रूप में जीवित है। सांस्कृतिक विकास की इस प्रक्रिया में अग्रगामी रंगमंच, लोकधर्मी रंगमंच और जन-धर्मी रंगमंच के स्वरूप की अलग-अलग व्याख्या कि जा सकती है। यहाँ हम केवल लोकधर्मी नाट्य, जिसे हम लोक-नाट्य कह रहे हैं, के अवदान को रेखांकित कर रहे हैं।
संस्कृति की बात के साथ कुछ बातें और भी जुड़ जाती हैं। संस्कृति? यानी कौन-सी संस्कृति? ग्राम्य संस्कृति? शहरी संस्कृति? आभिजात्य संस्कृति या फिर हाई ब्रांड संस्कृति? भारतीय संस्कृति या पाश्चात्य संस्कृति? हिंदू संस्कृति या मुस्लिम संस्कृति? यह सवाल भी यहाँ उठता है। फिर चीनी संस्कृति, यूनानी संस्कृति या मिस्र संस्कृति आदि-आदि अनेक संस्कृतियों की बात की जा सकती है, लेकिन यह बात सभी संस्कृतियों के साथ लागू होती है कि प्रत्येक संस्कृति ने अपनी किन्हीं भौगोलिक सीमाओं में ही स्वयं को विकसित किया है। कालांतर में सामाजिक आदान-प्रदान या कहें कि लोक के आदान-प्रदान ने भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण किया है। इस अतिक्रमण में सबसे ज़्यादा भूमिका लोक-साहित्य के विभिन्न रूपाकारों की ही रही है और आज कई बार यह पहचान करना मुश्किल हो जाता है कि लोक-साहित्य के किस रूप की पहचान पहले कहाँ बनी या किस गाथा, कथा या कहानी ने कैसे-कैसे अपना रूप बदल लिया। लोक-साहित्य ने जिस संस्कृति को पनपाया वह धार्मिक-रेखाओं का भी अतिक्रमण करती है। कई बार आभिजात्य एवं हाई ब्रांड संस्कृति के मुकाबले लोक-संस्कृति या लोक-साहित्य को खड़ा करके देखा जाता है। वस्तुस्थिति क्या है? मनुष्य कितना ही हाई ब्रांड क्यों न हो जाए। (इसे ज़रा भारतीय संदर्भ में देखें तो तस्वीर और भी साफ़ नज़र आएगी) कि वह कितना ही हाई ब्रांड क्यों न हो जाए, मूल रूप से वह एक मनुष्य ही रहता है और संस्कारवश, परिवेशवश या कहीं-कहीं अभ्यासवश उसके ख़ून में लोक-साहित्य का कोई न कोई रूप ज़रूर रहता है। एक फैशन के तहत लोक-साहित्य या लोक-संस्कृति को अजायबघर की चीज़ माना जाने लगा। फैशन था न, जल्दी ही ख़त्म भी हो गया। आदमी के जो मूल भाव हैं, वह तो आज भी हैं। उनका ऊपरी रूप, अभिव्यक्ति के तरीक़े ही तो बदले हैं, लेकिन मूल भाव को आज भी संतुष्ट करना चाहता है। यह उसकी ज़रूरत है, विवशता है। इसीलिए शादी-ब्याह के मौकों या मेलों, उत्सवों या त्योहारों के अवसरों पर लोक-साहित्य का रूप ज़्यादा मुखरित होता है, चाहे वह आज फ़िल्मों के गीतों के माध्यम से ही मुखरित क्यों न हो रहा हो। लोक-साहित्य का एक बड़ा हिस्सा जो सामने नहीं आया, वह आदिवासी लोक-साहित्य है, जो रमणिका गुप्ता तथा अन्य कई लेखकों के प्रयासों से सामने आ रहा है।
वस्तुतः लोक-साहित्य का पहिया रुक नहीं सकता, क्योंकि इसका प्रचार-प्रसार लोक-चेतना, लोक-विश्वास एवं लोक-रुचि के सहारे होता है, लोक-साहित्य में जितनी अनगढ़ता है, कच्चापन है, उतनी ही उसमें मिट्टी की ख़ुशबू भी है। उसमें एक सम्मोहन है। मानवीय संवेदना का ज़बरदस्त वाहक है लोक-साहित्य। लोक-साहित्य कभी हिंसक नहीं होता, सांप्रदायिक भी नहीं, सकुंचित भी नहीं। वह तो समूहधर्मी है, सामाजिक प्रतिबद्धता है उसमें। इसीलिए वह व्यक्ति को उसकी वैयक्तिक कुंठाओं के खोल से बाहर निकालता है। जो काम शास्त्र और संत नहीं कर पाता, वही काम लोक-साहित्य बड़े प्यार से कर देता है। इस दृष्टि से लोक-साहित्य सच में उदात्त है। इसके लिए उसे लांजाइनस के पास जाने की ज़रूरत नहीं। वह तो अपनी अंतर्वस्तु में ही उदात्त है और यही काम संस्कृति का भी होता है। इसीलिए इन दोनों में कहीं गहरा और पूरक रिश्ता है।