लोक और काव्य / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
सदियों पहले, एथेंस की एक सड़क पर, दो कवि मिले। एक-दूसरे को देखकर वे बहुत खुश हुए।
पहले कवि ने दूसरे से पूछा, "नया क्या कम्पोज़ किया है; और तुम्हारा हारमोनियम कैसा है?"
दूसरा कवि गर्वपूर्वक बोला, "मैंने अपनी महान कविताओं की कम्पोज़िंग पिछले दिनों ही पूरी की है। इतनी बेहतरीन कविता शायद ही अभी तक ग्रीक में लिखी गई हो। यह कविता महान जीसस से एक प्रार्थना है।"
फिर उसने अपनी घड़ी के नीचे से एक परचा यह कहते हुए निकाला, "लो, यह मेरे पास ही है। मैं इसे तुम्हें पढ़ने को दूँगा। आओ, चलकर सफेद साइप्रस के उस पेड़ के नीचे बैठते हैं।"
वहाँ कवि ने अपनी लम्बी कविता पढ़ी।
दूसरे कवि ने सहृदयता से कहा, "महानॉ कविता है। यह युगों तक ज़िन्दा रहेगी। इसके माध्यम से तुम्हारा नाम चमकता रहेगा।"
पहला कवि शान्त स्वर मे बोला, "और तुमने इन दिनों नया क्या रचा है?"
दूसरा बोला, "मैंने लिखी है, लेकिन बहुत छोटी चीज़। बगीचे में खेलते एक बच्चे को चित्रित करते हुए केवल आठ लाइनें।" यों कहकर उसने उन्हें गा दिया।
पहला बोला, "उतनी बुरी नहीं है।"
इसके बाद वे अपने-अपने रास्ते चले गए।
और आज, दो हजार साल बाद, दूसरे कवि की आठ लाइनें हर जुबान पर चढ़ी हुई हैं। सब उन्हें चाहते हैं, गुनगुनाते हैं।
और पहली कविता भी आज तक ज़िन्दा है लेकिन पुस्तकालयों में बन्द है। पढ़े-लिखों की अलमारियों में बन्द है। उसे याद किया जाता है; लेकिन न तो प्यार किया जाता है और न ही पढ़ा जाता है।