लोक और तंत्र / अशोक भाटिया

Gadya Kosh से
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     सोया हुआ तंत्र जाग उठा ।लोक के पास आकर पूछा – क्या चाहिए ?” लोक बोला – रोज़गार ।नौकरी ।
    दरअसल गाँवों में चुनाव थे ।तंत्र गाँव-गाँव गया ।इस गाँव भी आया ।गणित का मन्त्र लगाया ।गाँव में दलित ज्यादा थे ।तंत्र मुस्कराया ।गाँव के मुखिया को जीत का मन्त्र बताया ।पिछड़े वर्ग के मुखिया ने यंत्र की तरह घोषणा की ।दलित बारूराम की बीवी को स्कूल में लगायेंगे ।मुखिया की सरपंची पक्की ।
  घोषणा से उस गाँव का लोक जागा ।सरपंची का एक और उम्मीदवार उठ भागा ।साथ में अगड़े जागे ।पाठक जागे ।झा जागे ।ठाकुर जागे ।दबे-दबे सवाल जागे ।दलित औरत को नौकरी क्यों ?उसका बनाया मिड-डे मील बच्चे छुएंगे भी नहीं ।प्रचार हुआ ।बात का संचार हुआ ।दलित की बीवी को स्कूल में नहीं लगने देंगे ।
फिर होना क्या था ।गाँव में खाड़ा हो गया ।अखाड़ा बन गया ।बहसें हुईं ।खींचतान हुई ।झगड़े हुए ।खून खौले ।प्रशासन हिला।अमला आया ।पुलिस आई ।बयान हुए ।बैठकें हुईं ।अगड़ों की ।पिछड़ों की ।दलितों की ।बवाल हुआ ।गाँव में जीना मुहाल हुआ।जेबें गर्म हुईं ।पुलिस कुछ नर्म हुई।
बारूराम की बीवी ने नौकरी करने से मना कर दिया ।तंत्र फौरन हरकत में आया – ऐसे कैसे ! मामला देखो ।प्रशासन जागा ।मुखिया जागा – मसला हम निपटायेंगे ।रामप्रसाद जागा – मुखिया की नहीं चलने देंगे ।मामला हम देखेंगे ।पुलिस आई – हम तो देखते ही रहेंगे ।
    तंत्र हँस रहा है ।लोक रो रहा है।बदस्तूर।
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