लोक तक पहुँचना है , तो लोकभाषा को प्राथमिकता / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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प्रश्न1- बाल साहित्य के क्षेत्र में अनुवाद का क्या महत्त्व है?

पंचतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा ने लगभग आज से लगभग 2300 वर्ष पहले संस्कृत में पंचतन्त्र (मित्रभेद , मित्रलाभ, काकोलुकीयम् , लब्धप्रणाश ,अपरीक्षित कारकम् )की रचना की थी। आज इसकी कहानियाँ पूरे विश्व के जनमानस में सर्वाधिक रूप में छाई हुई हैं। यह तो अनुवाद का ही चमत्कार है। अगर अनुवाद न हुआ होता, तो ये कथाएँ अतीत के गर्त में समा गई होतीं। प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद , टैगोर , गीजू भाई की कथाएँ अनुवाद के माध्यम से जन -जन तक पहुँची हैं; अत: अनुवाद वह सेतु है, जो दो भाषाओं को, उन भाषा के बोलनेवालों को जोड़ता है। लियो तॉलस्तोय की एक ऐसी पाठ्य-पुस्तक मेरे देखने में आई, जो छोटे बच्चों की पाठ्य पुस्तक के रूप में लिखी गई थी । उसमें पंचतन्त्र की कहानियाँ भी मौजूद थीं।

प्रश्न2- क्या आपने किसी भाषा से कोई ऐसा अनुवाद किए हैं?

लगभग 30-35 साल पहले मैंने कुछ पंजाबी मित्र लेखकों की लघुकथाओं के अनुवाद किए। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के आग्रह पर दो अँग्रेज़ी पुस्तकों का अनुवाद किया। पहले अनुवाद की सफलता के बाद ब्रिगेडियर टी. पी. सिंह की पुस्तक का अनुवाद ‘साहसिक क्रीड़ाएँ’ नाम से किया । यह बड़ी पुस्तक थी। इस पुस्तक के अनुवाद का कारण था हिन्दी में इस विषय पर किसी उपयुक्त पुस्तक का न होना और मुझ पर राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का भरोसा।

प्रश्न 3- आपकी साहित्यिक रचनाओं अथवा कृतियों के अनुवाद हुए हैं, तो उनके बारे में कुछ बताइए।

मेरी प्रथम लघुकथा ‘इन्तज़ार’ का अनुवाद ‘प्रतीक्षा’ नाम से नेपाली में टीकाराम उपाध्याय निर्भीक द्वारा किया गया , जो नेपाली की चमेली पत्रिका में 1972 में छपा । उसके बाद उर्दू, पंजाबी , संस्कृत, अंग्रेज़ी , गुजराती, मराठी, सिन्धी, बांग्ला, गढ़वाली आदि भाषाओं में भी अनुवाद हुए। मेरी बालकथा ‘हरियाली और पानी का विगत 3 वर्षों में, हो, असुरी, उड़िया , गुजराती, पंजाबी में अनुवाद हो चुका है। मेरी लघुकथा पर पंजाबी भाषा में टेलिफ़िल्म भी बनी हैं

प्रश्न 4- लघुकथा के क्षेत्र में अनुवाद पर प्रकाश डालिए। आपकी वेबसाइट लघुकथा डॉट कॉम की क्या भूमिका रही है?

अनुवाद एक ऐसा अक्षय-सूत्र है , जो भाषाओं के माध्यम से दिलों को जोड़ता है। आज विश्व के सभी राष्ट्र, जनसाधारण आदि कैसे जुड़े हैं? इसी अनुवाद के माध्यम से ही न? लघुकथा डॉट कॉम पिछले 14 वर्षों से इसका निर्वाह कर रहा है। सम्पादक के रूप में हमने उर्दू , संस्कृत, गुजराती , मराठी , सिन्धी , अँग्रेज़ी, तेलुगु, मलयालम के साथ लोकभाषा गढ़वाली में भी अनुवाद देना शुरू किया है। ‘अगर हमे लोक तक पहुँचना है , तो लोकभाषा को प्राथमिकता देनी पड़ेगी।

प्रश्न 5- अनुवाद की वर्त्तमान प्रासंगिकता क्या है? अर्थात् अनुवाद भारतीय साहित्य और जनमानस को कैसे व्यापकता प्रदान कर सकता है?

आज हम केवल गाँव , शहर , दिल्ली , भुवनेश्वर ही नहीं , बल्कि विश्वग्राम बन गए हैं। हमारी भाषा, संस्कृति, जीवनमूल्य, पूरे विश्व की संस्कृति बनती जा रही है। अगर हमें दूरस्थ गाँव में बैठे व्यक्ति तक पहुँचना है, तो हमें उसकी भाषा तक पहुँचना होगा । इसका अर्थ है, हमें उसको , उसकी बात, उसकी भाषा/ बोली में ही बतानी होगी। वह दिल्ली आकर क्या सीखेगा? शोरगुल , हंगामा हड़ताल? उसे शान्तिपूर्ण जीवन चाहिए। हम अगर उसकी भाषा में बात करने को अपनी कुलीनता का अपमान समझते हैं , तो हम भारत की वास्तविक शक्ति -जनशक्ति को खो देंगे। भारतीय पुस्तक न्यास ने भोजपुरी , मैथिली के अतिरिक्त स्थानीय भाषाओं में भी पुस्तकें प्रकाशित की हैं, जिनमें-कुमाऊँनी, गढ़वाली, डोगरी, हरियाणवी, मगही प्रमुख हैं। यही नहीं , अनेक जनजातीय बोलियों में भी प्रकाशन शुरू किया गया है , जिनमें ये दस बोलियाँ हैं- असुरी, कुदुख, खड़िया, बिहो, बिरजिया, भूमिजा,मातो, मुण्डारी, लुशेई, हो। भीली, सन्ताली अदि के साथ पूर्वोत्तर की नागा, आओ आदि में पहले से ही प्रकाशन हो रहा है।

जिनको अपनी मातृभाषा का एक पृष्ठ तक लिखना नहीं आता , हमें उनसे कोई आशा नहीं रखनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति दूसरी भाषा में ( जिसका उसे भाषा शास्त्रीय ज्ञान नहीं), क्या अनुवाद करेगा। अनुवाद -जगत में ऐसे बहुत से लोग कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं, जो अनुवाद कला का क-ख-ग भी नहीं जानते; लेकिन ज़रूरत्मन्द लोगों को पैसा देकर अपनी / औरों की रचनाओं का अनुवाद सस्ते में करा लेते हैं। अनुवादकों को उनके नाम की पहचान भी नहीं मिलती है।

हंसराज रहबर ने शरत् जैसे लेखकों को जन-जन तक पहुँचा दिया। पंजाबी से हिन्दी में यही काम सुरजीत, सुभाष नीरव , श्याम सुन्दर अग्रवाल, श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ और नव्येश ‘नवराही’ आदि ने किया है। आज सबसे बड़ी आवश्यकता है उत्तर से दक्षिण तक गहन अध्ययन और अनुवाद और अनुवाद के द्वारा भारतीय साहित्य को जन -जन तक पहुँचाना। अगर पाश्चात्य भाषाओं के बराबर भारतीय भाषाओं के अनुवाद पर ध्यान दिया होता, तो भारत की तस्वीर बहुत अलग होती। कारण- हम एक दूसरे का साहित्य, संस्कृति, लोकाचार जाने बिना ,किसी के हृदय में स्थान नहीं बना सकते।

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