लोक मानस की जीवंत कहानियाँ / शिवजी श्रीवास्तव
जब तक ज़िंदा हैं, कथाकार-कुँवर दिनेश, पृष्ठ संख्या-104, मूल्य-220 रुपये, संस्करण-प्रथम-2020, प्रकाशक-हिंदी साहित्य निकेतन, 16,साहित्य विहार, बिजनौर (उ.प्र.)-246701
जब तक ज़िंदा हैं, कथाकार-कुँवर दिनेश, पृष्ठ संख्या-104, मूल्य-220 रुपये, संस्करण-प्रथम-2020, प्रकाशक-हिंदी साहित्य निकेतन, 16,साहित्य विहार, बिजनौर (उ.प्र.)-246701
साहित्य की अनेक विधाओं में निष्णात डॉ. कुँवर दिनेश सिंह एक उत्कृष्ट कवि, हाइकुकार, सम्पादक एवं अनुवादक के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं,विविध विधाओं में उनकी तीन दर्जन से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हैं। इसी कड़ी में उनका प्रथम प्रकाशित कहानी संग्रह है-'जब तक ज़िंदा हैं'-;यह संग्रह उनकी प्रौढ़ और परिपक्व कथा-दृष्टि को सामने लाता है।बेजोड़ शिल्प एवं अनूठे कथ्य वाली समस्त कहानियाँ रोचक एवं कथा-रस से परिपूर्ण हैं। दस कहानियों वाले इस संग्रह की कोई भी कहानी शिल्प की दृष्टि से दूसरी से कम नही है,ये विशेषता कम ही कथाकारों में पाई जाती है।संग्रह की सात कहानियाँ पर्वतीय अंचल के जन जीवन और उनकी संस्कृति को बड़े स्वाभाविक रूप से सामने लाती हैं। भाषा मे पर्वतीय अंचलों में बोले जाने वाले शब्दों या वाक्यांशों का प्रयोग उन्हें आंचलिक स्पर्श देता है। संग्रह की इन कहानियों से गुजरना बड़ा ही रोमांचक अनुभव है, इनमें लोक मानस अपने सम्पूर्ण वैशिष्ट्य के साथ उपस्थित है।कथाकार ने विशिष्ट आंचलिक शब्दों का अर्थ देकर उन्हें आम पाठक हेतु ग्राह्य बना दिया है।संग्रह की तीन कहानियाँ-'महत्वाकांक्षा'-,'ममा'और 'पुराना मित्र'अलग स्वर की कहानियाँ हैं।
कुँवर दिनेश जी की कहानियाँ किसी विचार-दर्शन या किसी वाद के दायरे में आबद्ध नहीं की जा सकतीं। ये कहानियाँ जीवन को अपने यथावत रूप में चित्रित करती हैं, यही कारण है कि कहानियों में कृत्रिम या गढ़े हुए पात्र नहीं है; अपितु आसपास रहने वाले पात्र विद्यमान हैं। पात्र अच्छे भी हैं बुरे भी हैं, छोटी-छोटी बातों पर झगड़ने वाले, बात का बतंगड़ बनाने वाले, बिना बात फौजदारी करने वाले सरला और मानसिंह जैसे पात्र हैं (जब तक जिंदा हैं),आए दिन सबसे झगड़ा फसाद करने वाले छोटी मोटी चोरी करके सीनाजोरी करने और झूठ बोलने वाले चंदू जैसे पात्र हैं(चंदू टुंडा),बेशर्म ,आवारा, शराब पी कर पैसे के लिए किसी भी लफंडर के साथ रात गुजारने वाली चरित्रहीन स्त्री भी है(लच्छी) वहीं उसके समानान्तर ईमानदार,भोले, धर्म को मानने वाले, पारम्परिक मूल्यों में आस्था रखने वाले वैद जी(बामण का कर्ज),लोक विश्वास के प्रति आस्थावान जसवंत सिंह(मुमूर्षा),परोपकारी और उदारमना पुरुषोत्तम लाला(लच्छी),बसंती और गुलाबो जैसी ईमानदारी से मेहनत मजदूरी करती पहाड़ी स्त्रियाँ (पटबाल),गरीबी में पल कर पढ़ने की चाह लिये लक्ष्मी जैसी मेधावी बच्चियाँ(मुआवजा) विद्यमान हैं। पात्रों की दृष्टि से परस्पर विरोधी रंग लिये चरित्र कहानियों को रोचक और विश्वसनीय बनाते हैं।
यूँ तो प्रत्येक कहानी महत्त्वपूर्ण है किंतु कुछ कहानियाँ बहुत देर तक मन-मस्तिष्क को मथती रहती हैं वे कहानियाँ है 'लच्छी','पटवाल'और 'मुआवजा'। 'लच्छी' की नायिका लच्छी चरित्रहीन, आवारा, बदजुबान और बदमिजाज है, उसके वैधव्य ने उसे इस प्रकार का जीवन- यापन हेतु विवश किया है।स्वयं कथाकार के शब्दों में-'उसकी हालत अब इतनी बिगड़ चुकी थी कि उसे इंसान बनाना फटे दूध को सही करने जैसा था।'...गाँव के बाहर उसकी झोपड़ी है,एक दिन अनायास उसकी झोंपड़ी में आग लग जाती है, लच्छी का आश्रय समाप्त है, कोई ग्रामवासी उसकी मदद को आगे नही आता, आखिर गाँव के उपप्रधान नेक एवं परोपकारी पुरुषोत्तम लाला उसकी मदद को आगे आते हैं लोकापवाद से बेफिक्र होकर वे उसकी मदद करते हैं और जब तक झोंपड़े की मरम्मत न हो तब तक मंदिर की खाली कोठरी में उसके रहने की व्यवस्था करा देते हैं। एक रात का मंदिर प्रवास लच्छी का हृदय परिवर्तन कर देता है, वह मंदिर की साफ सफाई करते हुए एक भक्तिन में परिवर्तित हो जाती है।
जाने अनजाने यह कहानी गांधीवादी विचार के पास आ खड़ी होती है,गांधी जी कहते थे -पाप से घृणा करो पापी से नहीं-वे भी हृदय परिवर्तन कराने में विश्वास रखते थे। पुरुषोत्तम लाला गांधीवादी विचार के मूर्त रूप हैं वे अविचिलित भाव से लच्छी के पक्ष में रहते हैं और लच्छी के अंदर का पाप निकल जाता है, लाला के इस उपकारी कार्य से वह एक भक्त-हृदय वाली स्त्री बन जाती है।
पटबाल' एक अलग भावभूमि की कहानी है।लोक-विश्वास के प्रति गहरी आस्था वाली यह कहानी बेहद मार्मिक है,लोक में व्याप्त अनेक विश्वास-अंधविश्वास के मध्य यह कहानी एक व्यावहारिक मार्ग तलाशती है। कहानी में एक निर्धन माँ बसन्ती अपने बेटे दीपू का पटबाल (मुण्डन संस्कार) सम्पूर्ण धार्मिक विधि विधान से करने का स्वप्न सँजोए है। वह मजदूरी करके अपने परिवार का भरण पोषण भी करती है और बेटे के पटबाल हेतु बचत भी करती रहती है,किंतु कुछ ऐसे संयोग होते हैं कि जब भी संस्कार का मुहूर्त होता हैअनायास आए खर्चों से उसकी सारी जमा-पूँजी खर्च हो जाती है और बेटे का पटबाल स्थगित हो जाता है,होते-होते दीपू नौ वर्ष का हो जाता है पर उसका पटबाल नही हो पाता। एक दिन अनायास दीपू को सर्प डस लेता है,दीपू की जान बच जाती है पर इसे नागदेवता का प्रकोप मान कर दीपू को नागदेवता के मंदिर ले जाया जाता है,वहाँ गूर के ऊपर आए हुए देवता बतलाते हैं कि शुभ कार्य शीघ्र करना चाहिये, उसमें विलम्ब उचित नहीं...देवता उसे आशीर्वाद देकर कहते हैं कि 'ज्यादा टीम टाम की जरूरत नहीं,जितना तुम्हारे से पुगता है दे देना..' उसके पंडित जी भी उसे समझाते हैं-"जितनी हैसियत हो उसके अनुसार ही कार्य करना चाहिये..देवता तो वैसे भी भाव के भूखे होते हैं...आदमी तो बस दिखावे के लिए गाजे-बाजे, भात-भाती और लेन-देन के चक्कर में पड़ जाता है।" यह कहानी लोक मानस को व्यर्थ आडम्बर से मुक्ति की ओर प्रेरित करती है।
'मुआवजा' भी बेहद मार्मिक कहानी है, करुणा और वेदना जगाने वाली यह कहानी किसी सुदूर पिछड़े इलाके के पहाड़ी गाँव की एक निर्धन पर मेधावी बालिका लक्ष्मी के जीवन और उसके सपनों की कहानी है। गण्डमूल नामक अशुभ नक्षत्र में जन्मी लक्ष्मी को परिवार में अशुभ माना जाता है, हमेशा कर्जे में डूबे रहने वाले अपने शराबी पिता के कर्ज-मुक्त होने की वह सदा प्रार्थना किया करती है। पारिवारिक अभावों और उपेक्षाओं के बावजूद भी वह बहुत होनहार है,पढ़ाई में आगे रहती है,अनेक प्रतियोगिताओं में भी भाग लेती रहती है। उसे स्कूल की ओर से अन्तर्विद्यालयीय प्रतिस्पर्धाओं में सम्मिलित होने के लिये चुना जाता है,बस में बैठकर गाँव से दूसरी जगह जाना, मार्ग में नदी देखना उसके लिये एकदम से नया और रोमांचक अनुभव था। प्रतियोगिताओं में लक्ष्मी अव्वल आती है,पुरस्कार में उसे ट्राफियाँ और नकद राशि भी प्राप्त होती है; किंतु वापसी में उसकी बस दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है, जिसमें अनेक लोगों के साथ लक्ष्मी की भी मृत्यु हो जाती है। सरकार की ओर से मृतकों को दो लाख रुपये की राशि मुआवजे के तौर पर दी जाती है। इस प्रकार एक मनहूस कही जाने वाली लड़की मरते मरते अपने पिता को कर्ज मुक्त कर जाती है।
यह संग्रह की एकमात्र दुःखान्त कहानी है जो पाठक के अंदर करुणा जगाने में सफल होती है।अन्य कहानियों में--'जब तक ज़िंदा हैं'-गाँवों के झगड़ालू पात्रों की मनोवृत्ति को सामने लाती है,बात बात पर थाना कचहरी करने वाले पात्रों का हठ रहता कि जब तक ज़िंदा हैं समझौते का रास्ता नही चुनेंगे। 'मुमूर्षा'लोक मान्यताओं और आस्थाओं की रोचक कहानी है। लोक में ये विश्वास गहरा है कि कुछ सर्प इच्छाधारी होते हैं, उनका जीवन बहुत लंबा होता है, वे अपनी इच्छा से ही देह त्याग करते हैं, समाज का एक वर्ग ऐसी बातों पर आँख बंद करके विश्वास करता है वह नागों को देवता मानता है; जबकि एक वर्ग ऐसा भी है जो इन बातों पर विश्वास नही करता,उसकी दृष्टि में सर्प देवता नहीं अपितु एक खतरनाक प्राणी है यदि सामने हो तो उसे मार देना ही श्रेयस्कर है। इसी द्वंद्व को आधार बनाकर मुमूर्षा कहानी की रचना हुई है।
लोक मान्यताएँ, कुलदेवी में आस्था, किसी व्यक्ति(गूर)पर देवता का आना, ये प्रथाएँ ग्रामीण समाज मे सम्मान की दृष्टि से देखी जाती हैं,भले ही शिक्षित वर्ग इन्हें स्वीकार न करे; पर ग्रामीण मानते हैं कि कुलदेवता/कुलदेवी के रुष्ट होने पर विपदाएँ आती हैं,इन विपदाओं के निराकरण का मार्ग भी देवता गूर के माध्यम से बतलाते हैं। कुँवर दिनेश जी ने इन लोक विश्वासों को लोक मानस की ही दृष्टि से देखा है और उसी रूप मे चित्रित भी किया है। 'चंदू टुंडा' का चंदू यूँ तो बड़ा फितरती और फ़सादी है,आए दिन झगड़ा करना,फौजदारी करना,छोटी मोटी चीजें इधर से उधर करना उसकी फितरत में है,फौज से जबरन रिटायर किया गया,पर कुलदेवी में उसकी भी गहरी आस्था है। एक चोरी को छुपाने के लिए वह कुलदेवी की झूठी सौगंध खा लेता है,इस पर कुलदेवी रुष्ट होकर उसे कष्ट देना प्रारम्भ कर देती है। अंततः गूर के माध्यम से जब देवी उसका अपराध बतलाती है, तो चंदू दंड भी भरता है और नाक रगड़कर माफी भी माँगता है। चंदू को समझ में आ जाता है कि 'जमीनी अदालत से ऊपर भी एक अदालत होती है ऊपर वाले से डरना चाहिए। उसकी लाठी में आवाज नही होती।'
तर्क इन बातों को अंधविश्वास कहता है पर लोक मानस इसी विश्वास से संचालित है। इस विश्वास से परिचालित लोक मन अपराध तो कर सकता है; पर पाप-पुण्य,देवी-देवता, लोक-परलोक, ,स्वर्ग-नरक जैसी मान्यताओं से भय खाता है। वह परम्पराओं के पालन को अपना धर्म मानता है।इसी विश्वास की एक लंबी कहानी है-'बामण का कर्ज'...कहानी के नायक पचासी वर्षीय वैद जी ईमानदार, नियम-संयम से रहने वाले,पाप-पुण्य में विश्वास करने वाले, उदार,परोपकारी, पुराने संस्कारो पर चलने वालेआदर्श व्यक्तित्त्व हैं। एक रात्रि स्वप्न में वे बचपन के ब्राह्मण मित्र को ये शिकवा करते पाते है कि तीसरी जमात में पढ़ते हुए उन्होंने गुस्से में उनकी तख्ती तोड़ डाली थी। वैद जी को लगता है- उन्हें ईश्वर ने याद दिलाया है कि उनके ऊपर एक ब्राह्मण का कर्ज है।.अगली ही सुबह वे अपने पुत्र के साथ लम्बी यात्रा करके उन पंडितजी के घर जाकर मय ब्याज के उस तख्ती की कीमत चुका देते हैं, मित्र बहुत इंकार करते हैं तो वैद जी कहते हैं-"मैंने बामण का क़र्ज़ नहीं रखना है। मैंने सारी उम्र इस बात का ध्यान रखा; कभी किसी बामण से कुछ नही लिया। अब यह बात ईश्वर ने याद दिलाई, तो भला इसको कैसे नज़रअंदाज़ करूँ…" प्रगतिशील दृष्टि से यह कहानी ब्राह्मणवाद की पोषक कही जाएगी; किंतु लोक का भोला विश्वास किसी वाद में आबद्ध नही किया जा सकता।
ये सातों कहानियाँ लोक जीवन और उसकी गहन आस्थाओं के विविध रूपों को यथावत् चित्रित करती हैं। कथाकार एक तटस्थ द्रष्टा की भाँति उन्हें देखता भर है, कहीं हस्तक्षेप नहीं करता।अपनी बुनावट और शिल्प में इनमें किस्सागोई- सी रोचकता विद्यमान है। लोक-मानस अपने सम्पूर्ण वैशिष्ट्य के साथ इन कहानियों में उपस्थित है।
इन सात कहानियों से कुछ भिन्न संग्रह में तीन कहानियाँ और हैं, जिनका उल्लेख मैंने प्रारम्भ में किया है। ये तीनों कहानियाँ मनोवैज्ञानिक धरातल की कहानियाँ हैं। 'ममा' कहानी में विधवा निशिता का अबोध बेटा अखिल चाहता है कि उसकी ममा भी अन्य स्त्रियों की भाँति सज-सँवर कर क्यो नही रहतीं, लिपिस्टिक,बिंदी क्यों नहीं लगातीं, वह क्या जाने कि विधवा को समाज शृंगार करने की अनुमति नहीं देता। अखिल को लगता है कि उसकी माँ के पास इन्हें खरीदने के पैसे नहीं होंगें; अतः वह एक दिन अपने मित्र को अपनी ट्वॉय ट्रेन देकर बदले में उसकी माँ की प्रसाधन- सामग्री ले आता है। यह देख माँ का मन करुणा से भीग जाता है। निःसन्देह यह बाल मनोविज्ञान की सशक्त कहानी है।
'पुराना मित्र' समय के साथ पुराने मित्र के बदलते मनोविज्ञान की कहानी है। एक लंबे अंतराल बाद मित्रता औपचारिकता मात्र रह जाती है। जतिन को अचानक बस स्टैंड पर पुराना मित्र मिल जाता है। मित्र किसी इन्टरव्यू के सिलसिले में आया था। जतिन उस मित्र को अपनापन दिखाते हुए अपने घर आने का निमंत्रण तो देता है, पर घर का पता न बतलाकर मोबाइल नम्बर दे देता है कि इस पर काल कर लेना। मित्र की बस चलते ही अपने मोबाइल को स्विच ऑफ कर लेता है। कहानी यहीं समाप्त हो जाती है और बहुत से प्रश्न पीछे छोड़ जाती है।
'महत्त्वाकांक्षा' एक अलग ढंग की कहानी है, यश की आकांक्षा किसी मेधावी व्यक्ति को कैसे अपराधी बना देता है, इसी भाव को कहानी में पिरोया गया है। यह विखण्डित व्यक्तित्व वाले एक मनोरोगी लेखक की कहानी है, जो यश की लालसा से अपराधी बन जाता है। कथाकार का इस प्रकार की मनोवृत्ति के लोगों के विषय में विचार है -'प्रतिभा और धैर्य के बिना मनुष्य की महत्त्वाकांक्षा उसे उन्माद की ओर ले जाती है।'
संग्रह की समस्त कहानियाँ अनुपम है,लोक मानस को अपनी सम्पूर्णता में प्रतिबिंबित करने वाली इन यथार्थवादी कहानियों के नीचे आदर्श की झीनी रेखा भी विद्यमान है,वही इन कहानियों को जीवंत बनाती है।
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