लोक संवेदना में रचे बसे मधुर-कर्णप्रिय लोकगीत / उपमा शर्मा
खड़ी बोली के लोकगीत (लोकगीत-संग्रह) : संकलन-वीर बाला काम्बोज, पृष्ठ: 40, मूल्य: 80 रुपये (पेपर बैक), ISBN: 978-93-94221-55-0, प्रकाशक-अयन प्रकाशन, जे-19 / 39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
ढोलक की मधुर थाप, स्त्रियों का समूह और कानों में माधुर्य घोलते इस समूह के कर्णप्रिय मधुर गीत। बहुत पुराने समय से लोक की संवेदनाओं को प्रखरता से उभारते यह गीत भले ही छंद की कसौटी पर खरे न उतरते हों, लेकिन आज भी वैवाहिक कार्य हों या पुत्र-पुत्री प्राप्ति पर होने वाले रीति-रिवाज, इन गीतों के बिना कार्यक्रम की मधुरता खोई-सी रहती है। अपनी परंपराओं के वाहक अपनी संस्कृति की मिठास को सहेजते यह गीत लोकरंजन एवं लोक मंगल के महत्त्वपूर्ण उपादान हैं। लोकगीत का इतिहास सम्भवतया उतना ही पुराना है, जितना मानव। लोकगीतों में अमराई की ख़ुशबू भी है। चूल्हे पर पकते सौंधे पकवानों की मिठास भी है, हरे-भरे खेत भी हैं, कुएँ बावड़ी पनघट भी हैं। सास-बहू की मीठी नोक-झोंक भी है। ननद-भाभी के खट्टे-मीठे सम्बंध भी हैं। परदेसी पिया के विरह भी इनमें गुथे हैं, तो सावन के झूलों की पींग भी इनमें रची-बसी है।
वीर बाला काम्बोज जी द्वारा संकलित 'खड़ी बोली के लोकगीत' के इस संकलन में 23 लोकगीत संकलित हैं। लोकगीतों की बात हो और राधा-कृष्ण की मीठी-मधुर नोंक-झोंक न हो, कैसे संभव है? इन लोकगीतों में ब्रज की मिट्टी की सौंधी महक आती है। मस्तिष्क पटल पर कृष्ण की लीलाओं का वर्णन कौंध जाता है।
संकलन के पहले ही गीत में कृष्ण मनिहार का वेश बनाकर आते हैं; लेकिन राधा जी भला कान्हा को कैसे न पहचानती? खड़ी बोली की मिठास से परिपूर्ण इस लोकगीत का प्रवाह देखते ही बनता है।
राधा जाण गई / कोई छलिया है ये / छलिए ने छल दिखलाया / ब्रज चूड़ी बेचने आया
लोक का तात्पर्य उस वर्ग से है जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है। 'गीत' शब्द का अर्थ प्रायः उस कृति से है जो गेय हो। लोकगीत में संगीत एवं लय इसका प्राण है, इसी कारण लोकगीत को स्वत: स्फूर्त संगीत कहा गया है। ये गीत सरल, स्वच्छन्द एवं मधुर इसलिए होते हैं कि इनका निर्माण लोक समाज द्वारा शान्त स्वच्छन्द वातावरण में प्रकृति के सान्निध्य में स्वाभाविकता के साथ होता है।
सावन की ॠतु आते ही हरियाली तीज के अवसर पर रिवाज के अनुसार नई विवाहित स्त्रियाँ मायके आती हैं। तीज पर हर लड़की और स्त्री एक अलग ही उल्लास में होती है। झूले की पींगे बढ़ाते हुए मधुर सम्मिलित स्वरों में गाए गए ये झूला गीत बरबस ही मन को मोह लेते हैं। इन गीतों में लोक व्यवहार का पूरा चित्र खिंच जाता है। इन गीतों में अक्सर चुहल और वाक्पटुता का तीखा मिश्रण होता है। इस पुस्तक के संकलित गीत में बहू मनिहार को चूड़ी पहनने को बुलाती है और सारे रंगों को मना कर देती है कि रंग इन-इन कारणों से नहीं पहनूँगी। सास समझ जाती है और ससुर से कहती है बहू बड़ी चकचाल है। कहीं इन गीतों में विरह का वर्णन बड़ी मार्मिकता से किया है। पति कमाने के लिए परदेस है अब झूला किसके साथ झूलूँ। तुम परदेस चले जाओगे तो मैं किसके सहारे रहूँगी।
और समझाकर कहती है मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगी।
पीहर मैं न जाऊँगी जी राजा जी
भाई-भौजियों का राज सै... । / थारी गैलों जाऊँगी राजा जी
तुम मेरे भरतार सै... ।॥
लोकगीत का रचयिता अज्ञात ही हैं; लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि इनकी रचना किसी ने की ही नहीं या इनकी उत्पत्ति किसी देवयोग से हुई है। वीर बाला काम्बोज जी ने इन गीतों को संगृहीत कर लोक का कार्य किया है।
लोकगीत मौलिक परम्परा में जीवित रहते हैं। लोक कवि साधारण एवं जनसमूह का प्रतिनिधि होता है। गीत का सर्जन करते समय वह लेखनी से अधिक अपने कण्ठ तथा जिह्वा का उपयुक्त प्रयोग करता है। यह गीत लुप्त होती परंपराओं और दृश्यों को जीवित रखते हैं। आज की पीढ़ी के लिए पनघट और बंटा टोकणी नितान्त अपरिचित से शब्द हैं। पहले पानी के लिए कुएँ पर ही जाते थे। गगरी में रस्सी बाँध कुँए में लटकाई जाती थी, फिर गगरी भरने पर रस्सी से उसे ऊपर खींच लेते थे। उसी काम को हँसी-ख़ुशी करने को स्त्रियाँ लोकगीत रचकर गाते-बजाते मनोरंजन कर लेती थीं। पनघट दूर होते थे। नई बहू अकेले कैसे जाए, इसीलिए सास ननद को साथ भेज देती थीं। इसी दृश्य को इस लोकगीत में कितनी अच्छी तरह दर्शाया है। कौन कहेगा यह गाँव की अनपढ़ स्त्रियों के रचे गीत हैं। ऐसे सरस, मधुर गीत लिखने वाली यह छन्द शास्त्र को जानती भी नहीं।
सासू पनिया कैसे जाऊँ, रसीले दोऊ नैना।
बहू ओढ़ो चटक चुनरिया, सर पै राखो गगरिया
बहू मेरी छोटी नणद लो साथ, रसीले दोऊ नैना
वैवाहिक मांगलिक कार्यक्रम के शुरू होते ही विवाह गीत, फेरे गीत, हल्दी गीत आदि-आदि कानों में गूँजने लगते हैं। ढोलक की मधुर थाप और गाने वाले गीतों से सहज ही समझ आ जाता है कि इस घर में विवाह के मांगलिक कार्यक्रम हो रहे हैं। बन्ना-बन्नी के गीतों से घर ही नहीं पूरा मोहल्ला गुंजायमान रहता है। किसी के घर सोहर के गानों से ही पता चल जाता है इस घर में नव जीवन ने आँखें खोली हैं। विदाई गीत की मार्मिकता पड़ोसियों की आँखों से आँसू की अविरल धारा बहा देती है। ऐसे हैं हमारी संस्कृति के द्योतक यह लोकगीत।
लोकगीतों का कई दृष्टि से बड़ा महत्त्व है। हमारी इन अमूल्य निधियों को आधुनिकता नाश करने पर लगी है। विवाह-कार्यों में बजते पश्चिमी संगीत और फिल्मी गानों ने हमारी नवपीढ़ी को भ्रमित ही किया है। जब चक्की, चूल्हे ही नहीं रहेंगे और हमारी नव पीढ़ी खेत-खलिहान, बाग पनघट जानेगी ही नहीं, तो गाएगी क्या और क्या हमारी संस्कृति को समझेगी। लोकगीत हमारी लोक-संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं। इसलिए लोकगीतों की इस संक्रमणकालीन अवस्था में ही हमें इनकी रक्षा में सतत प्रयत्नशील होना चाहिए। इन लोकगीतों को संगृहीत कर बीर बाला जी ने महत् कार्य किया है। हमारी संस्कृति की धरोहर समेटे यह किताब किताबों की दुनिया में निश्चय ही एक अलग स्थान बनाएगी।