लोग उनका साहित्य भूल जाएंगे, उन्हें नहीं / देवेंद्र
उम्र के जिस पड़ाव पर ढेर सारे लोगों के आध्यात्मिक होते जाने के किस्से सुनाई देने लगते हैं, जीवन के उसी मुकाम पर राजेंद्र यादव के प्रेम सम्बंधों की अफवाहें लोग चटकारे लेकर एक-दूसरे से सुन-सुना रहे थे। टीवी पर आसाराम का समाचार आता और आस-पास बैठे लोग राजेंद्र यादव और ‘हंस’ में छपी किसी कहानी का जिक्र छेड़ देते। दरअसल, उनकी कोई उम्र नहीं थी। वह जिस किसी से बात करते, उसी की उम्र के हो जाते थे। उनकी फितरत ही ऐसी थी कि समय उनके करीब जाकर अपने को जवान महसूस करने लगता था।
‘नयी कहानी’ आन्दोलन की जो त्रयी थी, उसमें मोहन राकेश और कमलेश्वर के साथ ही राजेंद्र यादव का नाम आता है। बावजूद इसके कि उस दौर में निर्मल वर्मा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती और ऊषा प्रियंवदा जैसे बेहद समर्थ दर्जनों ऐसे सचनाकार हैं जिनका अवदान इस त्रयी से ज्यादा रहा है लेकिन शायद ही उनमें किसी के व्यक्तित्व का ताप और प्रताप नवतर रचनाकारों को इस हद तक प्रेरित और प्रभवित कर सका है। दरियागंज की तंग गली में ढेर सारी बासी पत्रिकाओं और पुस्तकों से अटा-पटा ‘हंस’ का दफ्तर लगभग तीन दशक से साहित्य का सबसे बड़ा प्लेटफार्म बना हुआ है। देश के कोने-कोने से लोग वहां जाते। दूरस्थ बिहार, झारखंड या उत्तर प्रदेश के किसी कस्बे की कोई लड़की, कोई स्त्री कहानी के किसी प्रयोजन में अब जब दिल्ली से लौटकर आयेगी तो लोग उसे लेकर तरह-तरह की बातें नहीं बनाएंगे। शायद राजकमल चौधरी के लिए मैंने कही पढ़ा था-‘उसका न होना, ढेर सारे पतियों के लिए अपनी पत्नी के पतिव्रता होने की गारंटी है।’ राजेंद्र यादव का इस तरह जाना किसी बेहद जवान के अचानक चले जाने जैसा लग रहा है।
वे हों, न हों, देश में कहीं भी होने वाली छोटी-बड़ी साहित्यिक गोष्ठियों और गप्पों में लोग उन्हीं की चर्चा करते। लोग उनकी निंदा करते और उन्हीं जैसा होना चाहते। लगभग चौथाई सदी के अपने जीवन में ‘हंस’ ने हिन्दी कथा साहित्य को सैकड़ों बड़े नाम दिये। आज उनमें से ढेर सारे लोग ख्याति और उपलब्धियों के शिखर पर हैं। सृंजय और संगम पाण्डेय जैसे भी हैं, जिनकी प्रतिभा का विस्फोट प्रतीक्षित है। राजेंद्र जी के उपन्यासों, उनकी कहानियों से ज्यादा ‘हंस’ में उनके द्वारा लिखी सम्पादकीयों ने नयी रचनात्मकता को उर्जा और आग दी है।
बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिन्दी भाषी प्रदेशों में फैलती जा रही साम्प्रदायिकता की विषैली लताओं को रोकने के लिए उन्होंने साम्प्रदायिकता विरोधी अच्छी, कम अच्छी और घटिया कहानियों की बाढ़ लगा दी थी। ‘कमंडल’ के विरोध में ‘मंडल’ का समर्थन करते हुए उन्होंने मुस्लिम विमर्श का वितान खड़ा कर दिया। इसके लिए गालियां सुनीं। उनके खिलाफ फतवे दिए गए। टस से मस नहीं हुए राजेंद्र यादव। वह एक बड़ा ऐतिहासिक दायित्व निभा रहे थे, लेकिन महानता का कोई गुरूर नहीं। एक बार बातचीत में मैंने उन्हें ‘सर’ कह दिया। उन्होंने टोका “तुम मास्टर ससुरे! ‘सर’ क्या होता है जी? मेरे मां-बाप ने मेरा नाम रखा है राजेंद्र।” मैं जीभ चाटने लगा। नैतिकता, मर्यादा और किसिम-किसिम की महानताएं उनसे बिदक कर भाग जातीं। कब किसका नाड़ा खोल दें। ‘हंस’ के जरिए उन्होंने ‘दलित विमर्श’ और ‘स्त्री विमर्श’ की न सिर्फ शुरुआत भर की, बल्कि ओमप्रकाश बाल्मीकि, मोहनदास नैमिषराय, धर्मवीर, श्योराज सिंह बेचैन और मैत्रेयी पुष्पा को हिन्दी साहित्य के इतिहास पर प्रतिष्ठित कर दिया और मजे की बात यह कि युग प्रवर्तक होने का कोई दम्भ नहीं।
वह अक्सर दबे पांव गुमनाम जंगलों और खंडहरों की ओर जाते थे। वहां मधुमक्ख्यिों के बड़े-बड़े छत्ते होते। उन्हें शहद में राई-रत्ती दिलचस्पी नहीं थी। सिर्फ ढेला फेंक कर भागने की आदत थी। प्रियंवद के साथ वह लखीमपुर गए हुए थे। जिला पंचायत सभागार में किसी ने उनसे ओसामा बिन लादेन के बारे में कुछ पूछा। राजेंद्र जी ने शक्ति और समृद्धि के प्रतीक पेंटागन और वर्ल्ड टेड सेंटर के अहंकार को पल भर में तहस-नहस कर देने के लिए उसकी तुलना ‘हनुमान’ से कर दी। फिर तो शिवसैनिकों की भीड़ ने सभागार और शहर में हंगामा कर दिया। राजेंद्र जी लखनऊ के लिए निकल चुके थे। देश भर का मीडिया महीनों हनुमान चालीसा बांचता रहा।
उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग उन्हें कैसे देखते और क्या कहते हैं? जो सच लगा उसे कह दिया। जातक कथाओं में बुद्ध और देवदत्त की तरह मुल्ला नसीरुद्दीन की तरह या अकबर-बीरबल की तरह भविष्य में सौ-दो सौ साल बाद स्त्री-पुरुष सम्बंधों की नाना कहानियों, किस्सों और चुटकुलों में संभव है राजेंद्र यादव एक स्थायी पुरुष पात्र की तरह रचे जाएं। उनके व्यक्तित्व में ऐसी ढेर सारी गुंजाइशें हैं कि उनमें अचंभित कर देने वाली किंवदन्तियां फिट बैठती चली जाएं।
वे लोग, जो उनके प्रशंसक हैं, कल किसी दूसरे को प्रशंसा करने के लिए तलाश लेंगे। समस्या उनकी यही है। जो राजेंद्र जी को उनके मुंह पर गालियां दे लेते थे, उन्हें उनकी कमी बहुत अखरेगी। दो-ढाई सौ साल बाद जब उनकी कहानियां पढ़ने को नहीं मिलेंगी। जब लोग उनके उपन्यासों के नाम भूल चुके होंगे, तब भी राजेंद्र यादव साहित्यिक गोष्ठियों और गप्पों में मौजूद रहेंगे। लोग उन्हें बतियाएंगे और सुनेंगे। जो जीवन उन्होंने जिया है और जो कुछ कर दिया है, वह उनके लिखे से बहुत बड़ा है। हमने ढेर सारे अवसरों पर बहुत सारा समय उनके साथ बिताया है। आने वाली पीढ़ी में हमारा महत्व इसलिए भी बहुत हद तक बना रहेगा कि हमने राजेंद्र यादव को प्रत्यक्षतः देखा है।