लोप होती स्मृति में तन्हा दिलीप कुमार / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :10 दिसम्बर 2015
कल दिलीप कुमार का जन्म दिन है। वे पेशावर में 11 दिसंबर 1922 को जन्मे और दो वर्ष पश्चात उसी मोहल्ले में 14 दिसंबर 1924 को राज कूपर जन्मे। दोनों के पिता पड़ोसी और गहरे मित्र थे। विलक्षण प्रतिभा के धनी दिलीप कुमार भारत में 'मैथड स्कूल' के पहले कलाकार हैं, जबकि उन्होंने किसी स्कूल में अभिनय नहीं सीखा। दिलीप ने प्रयोग और अनुभव से खुद को फिल्म दर फिल्म तराशा है। उनके पिता फलों और सूखे मेवे के व्यापारी थे और मुंबई आने के पहले वे देवलाली में बसे थे। दीवारों पर लगे बेटे के पोस्टर देखकर उन्हें ज्ञान हुआ कि बेटा अभिनेता हो गया है। वे प्राय: पृथ्वीराज कपूर को ताना देते थे कि पठान होते हुए भी तुम भांड हो गए। वे पुत्र को लेकर मुंबई के सेंट्रल स्टेशन पर गए, जहां उनके परिचित गांधीजी के अनन्य साथी मौलाना अबुल कलाम आजाद आने वाले थे। उन्होंने प्रार्थना की कि वे उनके बेटे को समझाएं कि यह भांडगिरी ठीक नहीं। मौलाना ने दिलीप से केवल यह कहा कि बेटा जो भी करो, इबादत की तरह करना। दिलीप कुमार ने ताउम्र अभिनय इबादत की तरह किया। कभी काम से समझौता नहीं किया। अनेक दुखांत फिल्मों में अभिनय करके उनके अवचेतन में नैराश्य छा गया और उन्होंने लंदन के मनोचिकित्सक से परामर्श किया, जिन्होंने सलाह दी कि अब कुछ समय तक उन्हें सीधी, सरल व सुखद अंत वाली फिल्में करनी चाहिए। लंदन से आकर उन्होंने गुरुदत्त से माफी मांगी कि वे 'प्यासा' नहीं कर पाएंगे और उन्होंने आजाद, कोहिनूर तथा राम और श्याम की। फिर दिलीप ने सबसे महत्वाकांक्षी 'गंगा-जमुना' बनाई। उनका साहस था कि यह उन्होंने अवधि भाषा में रची।
अनेक वर्ष पूर्व उस दौर के सबसे बड़े पूंजी निवेशक जीएन शाह को मैंने अमृतलाल नागर के उपन्यास 'मानस का हंस' का सार सुनाया और उन्होंने उस पर फिल्म बनाने का निश्चय किया। शाह साहब को यकीन था कि अगर तुलसीदास की भूमिका दिलीप स्वीकारें तो यह फिल्म बनाई जा सकती है। वे मुझे लेकर दिलीप कुमार के घर गए। तय हुआ कि मैं सप्ताह में तीन दिन शाम पांच से आठ बजे तक उन्हें उपन्यास पढ़कर सुनाऊंगा। इस तीन महीने तक मैं उनके घर जाता रहा। मेरे सुनाए अंश पर अगली बैठक में वे प्रश्न और विचार इस गहराई से प्रस्तुत करते कि मैं हतप्रभ रह जाता। उन्हीं दिनों जब वे पतंग उड़ाते थे, तो कई बार मुझे उनका उचका पकड़ना होता और पतंग उड़ाने में भी उनका डूब जाना आश्चर्यजनक था। वे एक बोतल बीयर की शर्त पर पड़ोसी की पतंग काटते थे। जिस दिन उनकी पतंग कटती, वे अपने मांजा सूतने के कक्ष में जाते और अतिरिक्त पिसा कांच मिलाकर दास्ताने पहनकर नया मांजा सूतते थे। वे ताश के पत्तों की ट्रिक्स भी जमाते थे। उनका अभ्यास था कि अल्पतम समय में 52 पत्ते फेंट देते थे और कई बार उन्होंने मुुझे तीन बादशाह बांटें और स्वयं तीन इक्के बांट लिए। उनके उन्मुक्त ठहाके दसों दिशाओं में गूंज जाते थे। अभिनेता के पीछे छिपे असली दिलीप कुमार से ऐसे मुलाकात हुई। लगभग छह माह की मशक्कत के बाद उन्होंने स्वयं को तुलसीदास की भूमिका के लिए तैयार किया। किंतु जीएन शाह का मात्र 41 वर्ष की उम्र में निधन हो जाने के कारण वह फिल्म नहीं बनी। अमृतलाल नागर के मित्र महेश कौल की मृत्यु के कारण भी फिल्म नहीं बनी थी। यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि कुछ वर्षों से दिलीप कुमार की स्मृति छुपाछुपी खेल रही है। दिलीप के नौ भाई-बहन थे। उन्होंने न जाने कितने जनाजों में शिरकत की है परंतु कभी हिम्मत नहीं हारी। उनके पाक जासूस होने की अफवाह उड़ाई गई। पाकिस्तान में पुरस्कार लेने पर आलोचना सहनी पड़ी, जबकि वही पुरस्कार मोरारजी देसाई भी ले चुके थे। उनके साथ असहिष्णुता की ताकतों ने अफवाहों का छाया युद्ध लंबे समय खेला है।
आज के हुड़दंगियों को मालूम नहीं कि वे नेहरू के मित्र थे अन्यथा इस तन्हा व्यक्ति के साथ जाने कैसा व्यवहार होता? हिरण की तरह छलांग लगाती उनकी स्मृति गुमनाम जंगल की ओर कुलांचे भर रही है और स्मृति के तलघर में वे शायद जन्म स्थान पेशावर देखते हों या दिलीप कुमार के लेजेंड के पीछे खोए यूसुफ खान को खोजते हों या कभी-कभी मधुबाला की छवि भी उनसे कहती हो, 'बेकस करम कीजिए सरकारे मदीना' या 'प्यार किया तो डरना क्या, यूं घट-घुटकर मरना क्या।