लोहजंघ के कारनामे (बृहत्कथा से) / कथा संस्कृति / कमलेश्वर

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उज्जयिनी के राजा चण्ड महासेन ने संगीतप्रेमी वत्सराज उदयन को एक जाल में फँसाकर कैद कर लिया था। फिर उसने उदयन को गान्धर्व-विद्या सिखाने के लिए वासवदत्ता के पास भेज दिया। उदयन के पकड़े जाने की सूचना जब राज्य में पहुँची, तो महामन्त्री यौगन्धरायण और वसन्तक भेस बदलकर अपने राजा को छुड़ाने वासवदत्ता के महल में पहुँचे। वहीं पर वसन्तक यह कथा सुनाता है। गुणाढ्यकृत पैशाची भाषा के इस महाग्रन्थ ‘बृहत्कथा’ (समय 100 ई.पू.) के कथा पीठ लम्बक की यह चौथी तरंग है।

वसन्तक कथा कहने लगा - “मथुरा में रूपणिका नाम की एक अधिक रूपवती वेश्या थी। एक दिन की बात है, मन्दिर में पूजा करने के लिए रूपणिका जा रही थी। रास्ते में वह लोहजंघ नामक एक ब्राह्मण युवक पर मोहित हो गयी। उस दिन से वह सिर्फ उसी का संग करने लगी। और सबको उसने छोड़ दिया।

उसकी माता ने उसे बहुत समझाया और कहा कि वेश्या को किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं रखना चाहिए। लेकिन लड़की नहीं मानी।

एक दिन कुटनी माँ ने एक निर्धन राजपुत्र को देखा, उसके साथ थोड़े-से हथियारबन्द आदमी भी थे। रूपणिका की माँ ने उसे अपने पास बुलाया और कहा कि एक निर्धन कामी पुरुष मेरे यहाँ रहता है। मैं चाहती हूँ कि तुम आज उसे मेरे यहाँ से निकाल दो और मेरी लड़की को ले लो। राजपुत्र के नौकरों ने लोहजंघ को कीचड़ के एक गड्ढे में ढकेल दिया। कीचड़ से सराबोर होकर वह निकल भागा।

जब धूप में भागते-भागते वह व्याकुल हो गया, तब उसे एक मरा हुआ हाथी दिखाई दिया, जिसका भीतरी मांस गीदड़ों ने खा डाला था, पर बाहर का चमड़ा मौजूद था। और कहीं छाँह न पाकर लोहजंघ उसी खोखले हाथी के भीतर घुस गया और थकावट के कारण सो गया। इसके बाद घोर वर्षा हुई, जिससे कि हाथी का चमड़ा तर हो गया और वह सिकुड़कर बन्द हो गया। फिर बाढ़ आने से वह हाथी का शरीर लोहजंघ समेत गंगा में बहता हुआ समुद्र में जा पहुँचा, उसे वहाँ से गरुड़ वंश का एक पक्षी मांस के धोखे में समुद्र पार उठा ले गया। वहाँ ले जाकर उसने उस चमड़े को चोंच से फाड़ा, लेकिन उसमें मनुष्य को बैठा देखकर वहाँ से उड़ गया। लोहजंघ चकरा कर इधर-उधर देखने लगा, तो उसे दो भयंकर राक्षस खड़े दिखाई पड़े। उनमें से एक राक्षस ने जाकर विभीषण से कहा कि कोई मनुष्य आया हुआ है।

उसके आने पर विभीषण ने पूछा कि महाराज, आपका आना कैसे हुआ? इस पर लोहजंघ धूर्तता से बोला कि मेरा नाम लोहजंघ है। मैं मथुरा में रहता हूँ। धन पाने के लिए निराहार होकर मैंने एक मन्दिर में तप किया। भगवान ने स्वप्न में मुझसे कहा कि तुम मेरे भक्त विभीषण के पास जाओ। वहाँ तुमको अवश्य धन मिलेगा!

विभीषण ने उसे लंका में रोक लिया। दूसरे ही दिन चतुर राक्षसों को भेज गरुड़ वंश में उत्पन्न पक्षी का एक बच्चा मँगवा लिया और कहा कि यहीं लंका में आप इस पक्षी पर चढ़ने का अभ्यास कर लें। यदि अभ्यास कर लेंगे, तो मथुरा सरलता के साथ जा सकेंगे। लोहजंघ कुछ दिनों तक उस पक्षी के बच्चे पर चढ़ने का अभ्यास करता रहा और जब समय मिलता, तब लंका की भी सैर कर लेता।

थोड़े दिन लंका में रहकर जब लोहजंघ मथुरा को जाने लगा, तब विभीषण ने उसे बहुमूल्य रत्न दिये और नारायण के लिए सोने के शंख, गदा, पद्म भी दिये। इसके बाद लाख योजन चलने वाले गरुड़ वंश के पक्षी पर चढ़कर लोहजंघ क्षण भर में मथुरा आ गया।

सन्ध्या को वह कपड़े तथा गहने पहनकर और शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण कर पक्षी पर सवार हुआ। फिर सीधा उड़ता हुआ उसी रूपणिका के घर गया और आकाश से ही उसे बुलाकर कहा कि मैं विष्णु हूँ। केवल तेरे लिए मथुरा नगरी में आया हुआ हूँ। रात बिता कर वह प्रातःकाल चला गया। इसके बाद वेश्या अपने को विष्णु-पत्नी समझने लगी और उसने मनुष्यों से बोलना बन्द कर दिया। उसकी माता ने तब कहा, तुम अब विष्णु की कृपा से देवी हो गयी हो। मैं तुम्हारी माता हूँ। मैं चाहती हूँ कि तुम्हारे सौभाग्य से मैं भी तर जाऊँ। इसलिए तुम अपने विष्णु से कहो कि मेरी माता को स्वर्ग भेज दो।

रूपणिका ने माँ की ओर से प्रार्थना की। उसकी प्रार्थना को सुनकर लोहजंघ ने कहा कि एकादशी के दिन प्रातःकाल स्वर्ग का फाटक खुलता है और उसमें पहले शिवजी के गण जाते हैं। तुम माता का सर मुँड़वाकर, उसके गले में मुण्डमाला पहना दो और उसका मुँह आधा काजल आधा सेंदुर से रँगकर नंगी कर दो। इस अवस्था में मैं उसे स्वर्ग ले जाऊँगा।

रूपणिका ने वैसा ही किया। लोहजंघ कुटनी माँ को लेकर उड़ा और एक मन्दिर के खम्भे में उसे लटकाकर छोड़ गया, और आकाश से बोला-‘हे मथुरावासियो! तुम पर महामारी गिरेगी!’

इतना सुनते ही मथुरा के निवासी डर गये और भगवान की स्तुति करने लगे। पर प्रातःकाल कुटनी को खम्भे से लटकती हुई देख सभी ने उसे पहचान लिया। भय दूर हुआ और सब हँसने लगे।

यह समाचार राजा के पास भी पहुँचा। राजा ने इस बात की तुरन्त घोषणा करा दी कि सबको छलने वाली इस कुटनी को किसने छला है, वह निडर होकर सामने आ जाए! तब लोहजंघ ने राजा को सब वृत्तान्त कह सुनाया और शंख, चक्र, गदा, पद्म लाकर दे दिये। लोहजंघ के इस प्रकार बदला ले लेने के बाद राजा की आज्ञा से वह और रूपणिका, दोनों सुख के साथ जीवन बिताने लगे।”

इस प्रकार वसन्तक ने इस कथा को समाप्त किया। इस कथा को सुनकर वासवदत्ता अधिक प्रसन्न हुई और बन्धन में पड़े हुए उदयन के साथ आनन्द से रहने लगी।