लोहे की कील/ गिरिराज शरण अग्रवाल

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पात्र-परिचय

सेठ : अतुल और प्रकुल के पिता

अतुल और प्रकुल : सगे भाई, सेठ के पुत्र

(रात का समय है, मंच पर हलकी-हलकी रोशनी फैली है। सेठ कुंदन की पत्नी घर में बिछे एक पलंग पर आराम कर रही है। अतुल और प्रकुल एक और बैठे कैरम खेलने में व्यस्त हैं। सेठ कुंदनलाल ड्राइंगरूम में अकेले बैठे हैं। आज कोई उनके पास नहीं आया है। एकांत से ऊबकर सेठ कुंदनलाल अतुल और प्रकुल को आवाज देते हैं। दोनों की आयु क्रमशः 10 और 14 वर्ष है।)

सेठ : अरे अतुल, प्रकुल कहाँ हो?

अतुल : हम यहाँ हैं पिताजी, कैरम खेल रहे हैं?

सेठ : (ऊँची आवाज में) हर समय खेलते ही रहते हो! यहाँ आओ।

(दोनों तेजी से सेठ जी के पास जाते हैं।)

प्रकुल : कहिए पिताजी, क्या आदेश है?

सेठ : कुछ नहीं, बैठो यहाँ।

(दोनों बालक पास बैठ जाते हैं।)

अतुल : आज आपसे मिलने कोई नहीं आया, पिताजी!

सेठ : नहीं। कभी-कभी अकेला रहना भी अच्छा लगता है, आदमी को।

प्रकुल : हाँ तो कैसे याद किया था पिताजी आपने?

सेठ : तुम लोग तो हर समय कैरम खेलते रहते हो या कॉमिक्स पढ़ते रहते हो। लगता है और कोई काम ही नहीं है तुम्हें?

अतुल : नहीं, पिताजी, हम स्कूल भी तो जाते हैं। पढ़ते भी तो हैं?

सेठ : ठीक है, तुम स्कूल भी जाते हो, पढ़ते भी हो, लेकिन अधिकतर समय तो तुम खेलने ही में बिताते हो, बेटे।

प्रकुल : सभी बच्चे खेलते हैं, पिताजी।

सेठ : सब नहीं प्रकुल, केवल वे जिनके पास सुख-सुविधाएँ हैं, साधन हैं और जो घर के प्रति निश्चित हैं।

अतुल : खेलते तो ग़्ारीब बच्चे भी हैं, पिताजी!

सेठ : लेकिन उनके खेल और काम के समय में संतुलन होता है, अतुल। कई बच्चे तो अपनी विकट स्थिति के कारण खेल भी नहीं पाते।

प्रकुल : आप नहीं खेलते थे क्या अपने बचपन में, पिताजी?

सेठ : मुझे खेलने का समय ही कहाँ मिला है, बेटो?

अतुल : मिला क्यों नहीं पिताजी?

सेठ : अच्छा आज मैं तुम्हें अपने बचपन की कहानी सुनाता हूँ, सुनो।

(सेठ कुंदनलाल अपने अतीत में झाँककर कहानी शुरू करते हैं।)

सेठ : तुम लोग नहीं जानते और शायद तुम्हारी माता जी भी इन बातों से परिचित नहीं हैं कि मैं ग़्ारीब घर में पैदा हुआ था।

अतुल : फिर आप इतने मालदार कैसे हो गए, पिताजी?

सेठ : वही कहानी तो तुम्हें सुनाने बैठा हूँ आज!

प्रकुल : सुनाइए पिताजी। तब तो बहुत रोचक कहानी होगी आपकी?

सेठ : हाँ, पर तुम शायद ही विश्वास कर पाओ कि मैंने कितने अभावों में अपनी बाल्यावस्था के दिन काटे हैं।

अतुल : दादा जी, कुछ कमाते नहीं थे क्या?

सेठ : नहीं अतुल, यह बात नहीं है। उनका देहांत तभी हो गया था, जब मैं अपनी माँ की गोद में था। घर में आमदनी का कोई साधन नहीं था। माँ मेहनत-मजदूरी करके जो पैसे पाती थी, उसी से हम दोनों को सूखी रोटी मिल जाती थी।

प्रकुल : तब आप स्कूल मेें पढ़ने भी नहीं जाते होंगे?

सेठ : पढ़ने तो जाता था बेटे, नगरपालिका के एक विद्यालय में, पर किताबें ख़रीदना बहुत मुश्किल था।

अतुल : तब आपको भी कुछ काम करना पड़ता होगा, पिताजी?

सेठ : हाँ बेटे, फालतू समय मैं अपनी माँ का हाथ बँटाता था। वह जो काम लेकर आती थी, उसमें उसकी मदद करता था।

प्रकुल : फिर आप इतने बड़े आदमी कैसे बन गए, पिताजी! क्या व्यापार शुरू किया था आपने?

सेठ : व्यापार शुरू करने के लिए पैसा ही कहाँ था, बेटे?

अतुल : फिर आपकी स्थिति कैसे बदली?

सेठ : यह तब की बात है बेटो, जब मैं कोई पंद्रह वर्ष का था। एक दिन अपनी निर्धनता पर दुःखी मन लिए घर से निकला। सोचा, किसी के यहाँ छोटी-मोटी नौकरी कर लूँगा, या जो भी काम मुझे मिलेगा, वही करूँगा, क्योंकि माँ की परेशानी अब मुझसे देखी नहीं जाती थी।

प्रकुल : फिर आप कहाँ-कहाँ गए काम की तलाश में, पिताजी?

सेठ : जल्दी मत करो, सुनते जाओ। घर से निकलकर मैं सड़क पर आ गया। मैंने देखा कि दो व्यक्ति आपस में बतियाते जा रहे हैं।

अतुल : क्या बात कर रहे थे, वे?

सेठ : वही बताता हूँ। तुम लोग ध्यान से सुनो? उनकी बातचीत से मुझे पता लग गया था कि वे दोनों व्यापारी हैं और अपनी दुकानों के लिए समान ख़रीदने जा रहे हैं।

अतुल : क्या आपने उनसे नौकरी की बात की, पिताजी?

सेठ : नहीं-नहीं, बेटे! मेरे साथ कोई और ही घटना घटी। चलते-चलते एक व्यापारी ने अपने साथी से कहा, तुम सड़क के किनारे पड़ी लोहे की यह कील देख रहे हो ना, अगर कोई बुद्धिमान व्यक्ति हो, तो इससे भी व्यापार आरंभ कर सकता है।

प्रकुल : आपने उन व्यापारियों से पूछा कि यह कैसे हो सकता है?

सेठ : नहीं प्रकुल। मैंने उनसे नहीं पूछा। जब वे कुछ आगे बढ़ गए तो मैं पीछे लौटा और मैंने सड़क के किनारे पड़ी वह कील उठा ली! (बात आगे बढ़ाते हुए) मैं बार-बार यही सोचता रहा कि इन व्यक्तियों के कहे अनुसार इस अकेली कील से व्यापार कैसे किया जा सकता है?

प्रकुल : लेकिन यह बात तो आपने उन्हीं से पूछी होती, पिताजी?

सेठ : नहीं बेटे, आदमी पढ़कर, पूछकर तो सीखता ही है, बहुत कुछ अपनी बुद्धि से भी सीख लेता है। तुम धैर्यपूर्वक आगे का हाल सुनो।

अतुल : सुनाइए पिताजी, आगे क्या हुआ?

सेठ : मैं कील को हाथ में लिए सड़क पर आगे बढ़ता गया। दिमाग़्ा में एक ही सवाल था कि इस बेकार-सी कील से व्यापार कैसे शुरू किया जा सकता है? जाड़ों के दिन थे और गन्ने का सीजन चल रहा था।

अतुल : लेकिन गन्ने के सीजन का कील से क्या सम्बंध हुआ, पिताजी?

सेठ : उतावले मत बनो, ध्यानपूर्वक सुनते जाओ। आगे निकलकर मैंने देखा कि एक किसान गन्ने से भरी गाड़ी रोके सड़क के किनारे बैठा है और पहिए में कुछ ठोक रहा है। मैंने पूछा, क्यों भाई, क्या हुआ जो तुम यों बैठे हो?

अतुल : गाड़ी का पहिया टूट गया होगा, पिताजी?

सेठ : नहीं बेटे। किसान ने बताया कि पहिए के धुरे की कील टूटकर गिर गई है। पहिए के बाहर निकल आने का ख़तरा है। पास में बाज़ार भी नहीं है, जहाँ से कोई कील ख़रीद लाए।

प्रकुल : किसान की समस्या सुनकर आपने क्या किया, पिताजी?

सेठ : वही सब तो बताता हूँ। किसान की समस्या सुनकर मुझे व्यापारी की बात याद आ गई कि आदमी बुद्धिमान हो तो एक कील से भी व्यापार करके मालामाल हो सकता है।

अतुल : पिताजी ने किसान को वह कील दे दी, बस।

सेठ : नहीं। मैंने किसान से पूछा-क्या इस कील से तुम्हारा काम चल सकता है? किसान ने कील को देखा और बोला, बिल्कुल चल जाएगा। तुम यह कील मुझे दे दो।

प्रकुल : फिर!

सेठ : यह सुनते ही मेरी बुद्धि एकदम जाग गई। मैंने किसान से कहा, यह कील मेरे काम की है, मैं इसे दूँगा नहीं।

अतुल : इस पर किसान नाराज हो गया होगा!

सेठ : किसान बोला, तुम जानते हो बालक, बाज़ार यहाँ से दूर है। मैं गन्ने से भरी गाड़ी अकेली छोड़कर जा नहीं सकता। तुम यह कील मुझे पैसे लेकर दे दो। तुम बाज़ार से दूसरी कील ख़रीद लेना?

प्रकुल : आपने ऐसा ही किया, पिताजी?

सेठ : हाँ बेटे। मैंने किसान से कहा कि मैं यह कील दो रुपए में दे सकता हूँ, इससे कम में नहीं। किसाने ने मुझे दो रुपए दिए और कील को पहिए की धुरी में ठोककर गाड़ी आगे बढ़ा दी।

प्रकुल : आपने दो रुपए का क्या किया, पिताजी?

सेठ : मैं घर से ख़ाली हाथ निकला था बेटे, अब मेरे पास दो रुपये थे। पर प्रश्न यह था कि दो रुपये की छोटी-सी राशि से क्या काम किया जा सकता था भला?

अतुल : दो रुपए से तो कुछ भी नहीं हो सकता, पिताजी!

सेठ : हाँ, पर अनुभवी व्यापारियों का तो यह कहना था कि बेकार कील बेचकर भी आदमी मालामाल हो सकता है।

अतुल : लेकिन आपने उनसे पूछा क्यों नहीं कि कैसे?

सेठ : मामला पूछने का नहीं, बुद्धि का था बच्चो! मैंने कुछ देर सोचा। फिर निश्चय किया कि कल सुबह इन रुपयों के फूल ख़रीदकर माता के मंदिर के सामने बैठूँगा। यदि श्रद्धालुओं की कृपा हो गई तो दो के दस हो जाएँगे।

प्रकुल : तो फिर, क्या ऐसा ही किया आपने?

सेठ : हाँ बेटे, मैं वह रुपये लेकर उस दिन तो घर आ गया। माँ को कुछ नहीं बताया। रातभर कार्यक्रम बनाता रहा। सूरज निकलने से पहले ही एक माली से दो रुपये के ढेर सारे फूल ख़रीद लिये। उन्हें एक टोकरी में रखकर मंदिर के सामने जा बैठा।

अतुल : क्या सारे फूल बिक गए, पिताजी?

सेठ : हाँ बेटे, वे फूल अधिक अच्छे और ताजा थे। हाथों-हाथ बिक गए। श्रद्धालुओं ने मोलभाव नहीं किया। मुँहमाँगे पैसे दिए मुझे।

प्रकुल : इन पैसों से आपने फिर कौनसा व्यापार किया, पिताजी?

सेठ : मैं जल्दीबाजी में नहीं पड़ा, बेटे। पहले कई हफ्ऱतों तक फूल बेचता रहा। फिर फूलों के साथ-साथ मेंने प्रसाद रखना भी शुरू कर दिया। इस तरह मेरा धंधा चलने लगा।

अतुल : मंदिर के सामने आपने दुकान बना ली होगी, पिताजी!

सेठ : नहीं, दुकान नहीं बनाई, फड़ लगाकर बहुत समय तक बैठता रहा। जिन दिनों माता का मेला लगता था, उन दिनों प्रसाद और फूलों की बहुत बिक्री होती थी। धीरे-धीरे मेरे पास काप़्ाफ़ी पैसा इकट्ठा हो गया। माँ को भी आराम मिला और घर की रोटी आराम से चलने लगी।

अतुल : लेकिन अब तो कपड़े का बहुत बड़ा कारोबार है, आपका?

सेठ : हाँ, इस व्यापार तक पहुँचते-पहुँचते मुझे बीच-बीच में कई और धंधे करने पड़े।

अतुल : जैसे?

सेठ : जैसे एक बार बहुत तेज आँधी आई। सड़क के बहुत-से पेड़ गिर गए। मैंने उनका ठेका लिया। इस लकड़ी को ईंधन और फ़र्नीचर में बेच दिया। अब इतना पैसा हो गया कि मैं कपड़े की दुकान कर सकूँ।

प्रकुल : अब तो शहर में कपड़े की सबसे बड़ी दुकान आपकी है। लोग आपका सम्मान करते हैं।

अतुल : तो यह छोटी-सी कील का चमत्कार हुआ, पिताजी।

सेठ : नहीं बेटे! कील का नहीं, उस वाक्य का जो व्यापारी ने अपने साथी से कहा था। आदमी बुद्धिमान हो तो एक कील से व्यापार करके भी मालामाल हो सकता है।