लौटते हुए / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
नीरज ने गली में घुसते समय पीछे मुड़कर देखा–कहीं कोई उसे देख तो नहीं रहा है? धीरे–धीरे चलते हुए उसने दरवाज़ों पर नज़र डाली। एक दरवाज़े की सीढि़यों पर बैठे मिचमिची आँखों वाले अधेड़ ने उसको इशारे से पास बुलाया।
वह सिटपिटाया। जीभ जैसे तालू से चिपक गई. अधेड़ उसके पास खिसककर फुसफुसाया–"आइए साहब, मनपसंद मिलेगा। तबीयत हरी हो जाएगी।"
"मैं।" बोलते नीरज अटका।
"समझ गया, जनबा, नए हैं। पचास–रुपए निकालिए!" मिचमिची आँखों ने बीड़ी का धुआँ उगलते हुए कहा।
झिझकते हुए नीरज का हाथ जेब से निकला ही था कि अधेड़ ने पचास का नोट बाज की तरह झपटा और उसे सीढ़ियों की ओर ठेल दिया।
सीढि़याँ चढ़ते ही कई अदाएँ उसको गिरफ्त में लेने के लिए आगे बढ़ीं। उसकी टाँगें बुरी तरह काँप रही थीं। उसने चुपचाप खड़ी, बड़ी–बड़ी आँखों वाली युवती की तरफ दृष्टि उठाई। वह आगे बढ़ी और लगभग खींचते हुए उसे कोठरी में लेती गई।
पलंग पर बैठने का संकेत करके उसने पर्दा खींच दिया और फिर खुद भी उसके पास बैठ गई।
नीरज चुप। दिमाग में भयंकर तनाव। भयंकर हड़कम्प। बात कैसे शुरू करे!
"क्यों, मैं पसन्द नहीं हूँ क्या?" उसने रुखाई से पूछा।
वह सकपकाकर एक तरफ को खिसक गया।
"किस काम से आए हैं मेरे राजा?" उसने नीरज पर आँखें गड़ा दीं।
"मुझे अपनी पत्नी पर शक है!" वह अचकचाया–"मैं उसके साथ...पति की तरह नहीं रह पा रहा हूँ। किसी और से कह भी नहीं सकता। तुम लोगों को अनुभव होगा, इसीलिए यहाँ आया हूँ। मैं कैसे जानूँ कि मेरी पत्नी बदचलन है या नहीं?" बड़ी–बड़ी आँखें पलभर को धधक उठीं। फिर अचानक गंभीर हो गईं–"एक बात पूछूँ तुमसे?"
"पूछो!" उसने माथे पर छलक आया पसीना पोंछा।
"तुम्हारी पत्नी अगर तुमको इस कोठे से उतरते हुए देख ले तो क्या सोचेगी?" उसने होंठ चबाए॥
"..." नीरज बगलें झाँकने लगा।
"बोलो! यही न कि तुमने किसी से मुँह काला किया है जबकि यह सच नहीं है।" बड़ी–बड़ी आँखों वाली युवती के चेहरे पर कड़वाहट उभर आई।
नीरज की जुबान पर जैसे ताला पड़ गया।
"सुनो, पत्नी पर विश्वास करना सीखो। मुझे देखो"–उसकी आँखें भर आईं–"पति के शक ने मुझे इस कोठे पर पहुँचा दिया। अगर तुम्हारा शक झूठा हुआ तो क्या करोगे?"
नीरज भीतर तक दहल गया। उसने कृतज्ञ दृष्टि बड़ी–बड़ी आँखों पर डाली और बिजली की तेजी से सीढ़ियाँ उतरकर गली में आ गया।