लौटना कठिन है / सुकेश साहनी
सुधीर विद्यार्थी की डायरी पढ़ने के बाद खलील जिब्रान की एक लघुकथा याद आ रही है-
अपने जन्म के तीन दिन बाद भी मैं अपने चारों ओर नए संसार को हैरत और घबराहट से देख रहा था। मेरी माँ ने नर्स से पूछा, "ठीक तो है न मेरा बच्चा?"
नर्स ने कहा, "मैडम, बच्चा बिल्कुल ठीक है, मैंने इसे तीन बार दूध पिलाया है। मैंने आज तक ऐसा बच्चा नहीं देखा जो पैदा होते ही इतना हँसमुख हो।"
सुनकर मुझे गुस्सा आया, मैं चिल्ला पड़ा, "माँ, यह सच नहीं है। मेरा बिस्तर सख्त है, दूध का स्वाद बहुत कड़वा था, धाय की छातियों की दुर्गन्ध मेरे लिए असह्य है। मैं बहुत दयनीय हालत में हूँ।"
लेकिन मेरी बात माँ और नर्स दोनों ही नहीं समझ सकीं क्योंकि मैं उसी दुनिया की भाषा में बात कर रहा था, जहाँ से मैं आया था।
मेरे जीवन के इक्कीसवें दिन पुजारी जी आए और मुझपर पवित्र जल छिड़कते हुए माँ से बोले, "आपको खुश होना चाहिए कि आपका बच्चा जन्मजात पंडित मालूम होता है।"
मुझे ताज्जुब हुआ, मैंने पुजारी से कहा, "तब तो तुम्हारी स्वर्गवासी माँ को दुखी होना चाहिए, क्योंकि तुम तो जन्मजात पुजारी नहीं थे।"
पुजारी भी मेरी भाषा नहीं समझ सका।
सात महीने बाद एक भविष्यवक्ता ने मुझे देखकर माँ से कहा, "तुम्हारा बेटा बहुत बड़ा राजनीतिज्ञ बनेगा, उसमें महान नेता के सभी गुण हैं।"
मैं मारे गुस्से के चीख पड़ा, "गलत...मुझे संगीतज्ञ बनना है, संगीतज्ञ के अतिरिक्त मैं और कुछ नहीं बनूंगा।"
पर आश्चर्य...उस उम्र में भी मेरी भाषा किसी के पल्ले नहीं पड़ी।
आज मैं तैंतीस वर्ष का हो गया हूँ। इन वर्षों में मेरी माँ, नर्स और पुजारी सब मर चुके हैं पर वह भविष्यवक्ता अभी जीवित है। कल ही मेरी मुलाकात उससे मंदिर के प्रवेशद्वार पर हुई थी। बातों ही बातों में उसने कहा था, "मुझे शुरु से ही पता था कि तुम संगीतज्ञ बनोगे, इस बारे में मैंने तुम्हारे बचपन में ही भविष्यवाणी कर दी थी।"
मैंने उसकी बात पर आसानी से विश्वास कर लिया क्योंकि अब मैं स्वयं नन्हें बच्चों की भाषा नहीं समझ पाता हूँ।
खलील जिब्रान की इस रचना के कथानायक से इतर सुधीर विघार्थी उम्र के वर्तमान पड़ाव पर आकर भी बच्चों की भाषा नहीं भूले हैं और यही वजह है कि वे बच्चों से आत्मीय संवाद स्थापित कर "लौटना कठिन है" जैसी साहित्यिक कृति का सर्जन करते हैं।
शिक्षा जगत की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि शिक्षक और छात्र के बीच का रिश्ता सिर्फ़ किताबों तक सीमित रह गया है। बच्चों के लिए शिक्षक खौफ का पर्याय बनकर रह गए है। ऐसे में बच्चों से संवाद की बात सोचना तो दूर की बात है। सुधीर विद्यार्थी जवाहर नवोदय विद्यालय के छात्र-छात्राओं को रचनात्मक लेखन का प्रशिक्षण देने जाते हैं और पहले दिन से ही बच्चों को इतने प्रिय हो जाते हैं कि बच्चे दिल खोलकर उनसे संवाद स्थापित करते हैं। छात्रा शालिनी के सुधीर विद्यार्थी के नाम लिखे पत्र की कुछ पंक्ति बताती है कि यहाँ शिक्षक और छात्र के बीच खौफ की दीवार कहीं नहीं है-मैंने पहले दिन आपकी वेशभूषा और आदतों को ध्यान से देखा। आप मुझे काफी संवेदनशील और वास्तविक लेखक लगे। लेकिन आपकी एक आदत बहुत अजीब-सी लगी कि आप अपने कंधे उचकाते हुए बात करते हैं। क्या आपने इसे सुधारने की कोशिश न की। लेकिन फिर भी कोशिश करिएगा कि इसे सुधार लें।
बच्चों से आत्मीय रिश्ता कायम कर सुधीर विद्यार्थी बाल मन की गहराईयों की पड़ताल करते है। कक्षा दस की गंगा वर्मा की लिखी पंक्तियाँ-संसार के बच्चों के लिए क्या सारी किताबों को दीमकों ने खा लिया है या फिर खेल मैदानों पर भवन बना दिए गए हैं और सारी गेंदें क्या आसमान में जा चिपकी हैं-यह पूछती हूँ कि मैं समाज से लेखकों से।
गोर्की ने कहा है कि यह दुनिया बहुत बड़ी पाठशाला है। डायरी के एक और मार्मिक प्रसंग में आया है कि लेखक कार्यशाला में बच्चों के बीच कहते हैं कि बिटिया कल फोन पर रो रही थी इसलिए हमें जाना है। नवीं कक्षा की छात्रा ने इस वाक्य को कितनी गहराई से लिया, इससे जो सीखा वह पिछले चार वर्षों का विद्यार्थी जीवन भी उसे नहीं सिखा पाया था।
बच्चों के पत्रों में स्थान-स्थान पर लेखक की प्रशंसा कुछ लोगों को अटपटी लग सकती है लेकिन मेरी दृष्टि में यही महत्त्वपूर्ण हैं, यही सच है। यह संवाद, आदान-प्रदान अत्यधिक उदेश्यपूर्ण एवं तृप्तकारी है। बच्चों ने ठान लिया है कि वे आज अपने प्रिय लेखक के बारे में सबकुछ जानकर रहेगे। न चाहते हुए भी सुधीर बेटे चंदन अभिषेक की मृत्यु और फिर पत्नी के खोने के दर्द को बच्चों से शेयर कर लेते है इसे सुधीर विद्यार्थी ने 'यह मुझसे क्या अनर्थ हो गया' में दर्ज किया है। क्योंकि सुनकर सब बच्चे रोने लगते हैं। लेकिन आदान प्रदान निश्छल मन से हो तो उसका प्रभाव भी सकारात्मक ही पड़ता है। महत्त्वपूर्ण यह है कि छात्र-छात्राओं ने इससे क्या ग्रहण किया। अपराजिकता के पत्र का अंश—स्मृतियाँ तो वस्तु नहीं जिसे किसी कमरे में बंद कर दिया जाए. परन्तु आपको बुरा न लगे मैं एक बात कहना चाहती हूँ। कभी-कभी इंसान को वर्तमान में जी रहे लोगों के लिए एक प्रेरणा बनकर जीना पड़ता है, उन्हें अपने अतीत को हटाना पड़ता है। आप विशाल हृदय वाले हैं जो इतना कष्ट सहकर भी गम की सिलवटों को कभी चेहरे पर नहीं आने देते।
सुधीर विद्यार्थी अपने मौलिक अंदाज में छात्र-छात्राओं के भीतर रचनात्मक लेखन के लिए ज़रूरी आग पैदा करने में सफल रहे है। देवेश की कुछ पंक्तियाँ-सर, पहली बार कोई पत्र मैं किसी को लिखकर दे रहा हूँ लेकिन यह पत्र पेन द्वारा नहीं लिखा। यह भावों द्वारा लिखा पत्र है। यह मैं किसी को चेक कराने, किसी को दिखाने के मकसद से नहीं लिख रहा हूँ बल्कि सच कहूँ तो कल शाम से मेरा मन अशांत है। बड़ी पीड़ा महसूस हो रही थी। शायद उसी को शांत करने के लिए यह पत्र लिख रहा हूँ।
डायरी में जहाँ-तहाँ लेखन ने अपने बचपन की स्मृतियों में डुबकियाँ लगाते हुए हमारा ध्यान छीजते पर्यावरण की ओर आकृष्ट किया है। लुप्त होती चिड़ियों की चहचहाट और सीमेंट और कंकरीट की इमारतों में तब्दील होते खेत सुधीर विद्यार्थी की चिंता का विषय है। क्षेत्रवाद को उभार कर राजनीतिक सत्ता हथियाने के हथकंडों की कामयाबी लेखक को विचलित करती है। वही नवोदय द्वारा विगत इक्कीस वर्षों में भाषीय स्तर पर संस्कृतियों को जुड़ने के प्रयास आशा जगाते हैं।
कार्यशाला के अंत में सुधीर विघार्थी कहते है-लेखक कभी खाली हाथ नहीं जाता कहीं से। यहाँ से मैं भी झोली भरकर जा रहा हूँ। डायरी पढ़कर कहना मुश्किल है कि किसकी झोली वजनदार है-लेखक की या छात्र-छात्राओं की।
और हाँ, डायरी पढ़ने के बाद बच्चों की दुनिया में कुछ देर ओर रहने को जी चाहता है, मेरा भी...