लौट आओ दीपशिखा / भाग 10 / संतोष श्रीवास्तव
"नील, बला नहीं यह बीसवीं शताब्दी का संग्रहालय है। जिसे फ्रांस के राष्ट्रपति जॉर्ज पोंपेदू ने बनवाया था इसलिए इसका नाम पोंपेदू सेंटर के रूप में फ़ेमस हुआ।"
"चलिए मैम... फिलहाल तो होटल आबाद करिए।" कार खूबसूरत बगीचे वाले लॉन के एक ओर पार्किंग प्लेस पर रुकी। ऊँची-ऊँची चॉकलेटी बुर्जियों वाला गिरजाघर जैसादिखता होटल। बेहद भव्य रिसेप्शन... उतना ही भव्य उनका स्वागत। कोचपहले ही पहुँच चुकी थीं और पूरी यूनिट बाकायदा अपने-अपने कमरों में बंद हो चुकी थीं। नीलकांत के और दीपशिखा के सुइट कीचाबियाँ लेकर होटल बॉय पहुँचचुका था। सुइट आजू-बाजू ही थे।
"तुम फ्रेश हो लो... कॉफ़ी ऑर्डर करते हैं।" वह अपने कमरे में आ चुकी थी। उसने दरवाज़ा अंदर से लॉक किया और पर्स टेबिल पर रखते हुए फिरकी-सी घूमी... 'एनईवनिंग इन पेरिस... नाउ, आय एम इन पेरिस।'
गुनगुनाते हुए उसने टब बाथलिया। कॉफ़ी बनाकर पी और सुलोचना को फोन लगाने लगी-"माँ, तुमकल्पना भी नहीं कर सकतीं, पेरिस कितना खूबसूरत है।" फिर शेफ़ाली से बात की-"जल्दी आजा शेफ़ाली... यार, रहने लायक जगह है। कुछ दिन बिना किसी तनाव के आईमीनचित्रकारी के बिताएँगे।"
तभी इंटरकॉम बजा-"कॉफ़ी आ गई है। मैं बालकनी में इंतज़ार कर रहा हूँ।"
वह पतँग में लगी डोर-सी खिंचती चली आई नीलकांत के पास। इस बार उसने पहल की। लपककर उसके गले में बाहें डाल दीं-"आई लव यू नील।"
नीलकांत की बाहों में मानो आसमान से चाँद उतर आया, खलबली मच गई, जिस्म के सितारे कानाफूसी करने लगे। नीलकांत ने हौले-हौले उसके चेहरे के हर पोर को चुम्बनों से नहला दिया फिर आहिस्ते से उसे सोफ़े पर बैठाकर केतली से कॉफ़ी निकालने लगा।
"तुम्हारी स्वीकृति भरी मोहर ने मुझे ज़िन्दग़ी जीने की वजह दी... बड़ी बेवजह ज़िन्दग़ी जा रही थी।"
"मेरी नहीं नील... मेरी ज़िन्दग़ी में अगर प्यार नहीं था तो चित्रकारी थी।"
नीलकांत ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा-"झूठी प्यार करता हूँ तुम्हें, इतना भी नहीं समझूँगा।"
उसने शरमाकर पलकें झुका लीं।
हलकी-हलकी बूँदाबाँदी हो रही थी। कोई ज़िद्दी बादल था जिसने आधा किलोमीटर तक दीपशिखा और नीलकांत की कार का अपनी नन्ही-नन्ही बूँदों से पीछा किया और कार जब सेन नदी के पार्किंग प्लेस पर रुकी तो अच्छी ख़ासी धूप छिटक आई थी। दोनों सेन नदी के सफ़र के लिए क्रूज़ पर आ बैठे, नीलकांत उसका हाथ पकड़कर टैरेस पर ले आया। हवा हलकी, खुशबूदार थी। परफ़्यूम का शहर जो ठहरा। फ्रांस में चारों ओर फूल ही फूल... वादियों में खिले फूलों का अंबार। यहाँ की मुख्य खेती फूल ही हैं। बहारोंके गुज़र जाने पर सारे फूल तोड़कर कांसग्रेम में परफ़्यूमफैक्टरी में भेज दिये जाते हैं। नदी की शांत लहरों पर क्रूज़ का चलना पता ही नहीं चल रहा था। फ्रेंच और अंग्रेज़ी भाषा में कमेंट्री का कैसेट बज रहा था जिसमें बताया जा रहा था कि दाहिने और बाएँ कौन-कौन-सी इमारतें हैं। आईफिल टॉवर, ढेर सारे पुल, पुलों के खंभों पर राजा महाराजाओं की मूर्तियाँ जड़ी थीं सफ़ेद पत्थर से बनी। पत्थर के पक्के सीढ़ीदार तट पर कईजोड़े मस्ती कर रहे थे। आज पेरिस में छुट्टी का दिन है। सेन के किनारे कुछ युवा समूहबनाकरनृत्य कर रहे थे। संगीत और ऑर्केस्ट्रा बज रहा था। एक अकेला आदमी सुनसान किनारे पर खड़ा वायलिन बजाता अपने आप में खोया था। दीपशिखा ने उस ओर इशारा किया-"नील, देखोकितनीतल्लीनता से अकेलेपन को एन्जॉय कर रहा है।"
"मैं तो हवा में सिम्फ़नी सुन रहा हूँ।"
"और मैं रोमारोलांको याद कर रही हूँ जिसकी कलम से शब्दों के फूल खिलते थे।"
"तुम कवयित्री हो न... मैं फ़िल्मकार, सोच रहा हूँ फ्रांस पर एक फ़िल्म बनाऊँ, यहाँ के फूलों पे।"
"दीपशिखा हँसने लगी-" चलेगीनहीं क्योंकि फूलों पर फ़िल्म नहीं चित्र बनते हैं हुज़ूर। "
"नहीं, सच कह रहा हूँ... फूलों पर फ़िल्म बन सकती है बल्किपरफ़्यूम पे।"
"परफ़्यूम पर तो बन चुकी है फ़िल्म 'परफ़्यूम द स्टोरी ऑफ़ ए मर्डरर' जिसमें नायक एक के बाद एक सुंदरियों का अपहरण कर उनकेसाथहमबिस्तर होता था और उस दौरान निकले पसीने को इकट्ठा कर उससे परफ़्यूम बनाता था। ये परफ़्यूम लोग एक्साइटमेंट के लिये लगाते थे।"
नीलकांत ने दीपशिखा के चेहरे को ग़ौर से देखा और उसकी नाक दबा कर बोला-"माई इंटेलिजेंट फ्रेंड, इसीलिए तो मैं फूलों की बात कर रहा था। जानती हो मध्यकालीन फ्रांस में खूब सजी, रंगीनपोशाकें पहनी जाती थीं मानो हर कोई राजघराने का हो। हर जगह बनाव शृंगार और मेकअप के क़िस्से थे लेकिन वे एक-एक पोशाक कई-कई दिन बिना नहाए पहने रहते थे। अपना मेकअप तक नहीं उतारते थे, उसी पर और पोत लेते थे। कई स्त्रियाँ तो अपनी सारी उम्र बिना नहाए ही गुज़ार देती थीं।"
"ओ माय गॉड... ऐसा सोचना भी दूभर है।" दीपशिखा ने हैरत से कहा।
"स्त्रियाँ ही क्यों, कई पुरुष जीवन में पहली और आख़िरी बार तब नहाते थे जब वे सेना में भरती होते थे क्योंकि उस समय उनकी पूरी देह बिना कपड़ों के ही पानीमें डुबोकर परीक्षण से गुज़रती थी।"
नीलकांत बतानाचाहता था कि अमीर घरानों के फ्रांसीसीभी घरमें बड़े-बड़े गमले रखते थे और उसी में लघुशंका, दीर्घशंका कर लेते थे। उस पर मिट्टी ढँककर उसे खाद बनने को छोड़ देते थे। यानी गाँधीजी वाला टॉयलेट हर घर में मौजूद था। सामान्य घराने के लोग यह क्रिया घाट मैदान में निपटाते थे। घरों में बाथरूम, टॉयलेट होते ही नहीं थे। पर ये बात वह दीपशिखा से सहज होकर नहीं कह सकता था।
"मुझे लगता है नहाने का चलन न होने के कारण ही परफ़्यूम का जन्म हुआ... शरीर को सुगंधित बनाए रखने के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है जबकि फूल भी यहाँ बहुतायत से होते हैं।" दीपशिखा ने कहा।
नीलकांत ने घड़ी देखी-"चलिए मदाम, डिनर का वक़्त हो गया। क्रूज़ भी किनारे पर आ गया है।"
कार एक महँगे रेस्तरां के सामने रुकी। इस भव्य रेस्तरां में नीलकांत ने पहले से टेबिल बुक करा लिया था। खाना भारतीय था जिसकी खुशबू उन्हें भारतीय होने के गर्व से भर रही थी।
"तुमने ज्याँ पाल सार्त्र का नाम सुना होगा?" नीलकांत ने सूप पीते हुए पूछा।
"हाँ अस्तित्ववाद का मसीहा था वो, दार्शनिक भी और धारा के विरुद्ध चलने वाली लेखिका सीमोन द बोउवार का प्रेमी था।"
"उनका प्रेम दुनिया जानती है।"
"जैसे अमृता प्रीतम और इमरोज़।" वह मुस्कुराई।
"औरअब हमारा जानेगी दुनिया, नीलकांत और दीपशिखा का।"
दीपशिखा सपनों में खो गई। उसने नीलकांत की हथेली में अपना हाथ दे दिया-"हम भीघर नहीं बसाएँगे, होटल में रहेंगे और रेस्तरां में भोजन करेंगे जैसे सीमोन और सार्त्र करते थे। हम भी कहवाघरों में घंटों कला पर बहस करेंगे। सारी रात सड़कों पर इस तरह हाथ पकड़े चहलक़दमी करेंगे।"
"नहीं, हम यह सब कुछ भी नहीं करेंगे। हमारेपास कला है, हम अपने प्रेम को कला के लिए समर्पित कर देंगे। खुदको बंधनों में नहीं बाँधेंगे लेकिन रहेंगे साथ। मैं भारत लौटते ही जुहू पर एक बंगला खरीदूँगा जिसमें हम रहेंगे और उस बंगले का नाम होगा..."
"बस... बस, पहले बंगला तो ख़रीदिये... नामकरण भी हो जाएगा।"
"बंगला तो खरीद लिया समझो।" कहते हुए नीलकांत ने प्लेट सेटमाटर की स्लाइस उठा उसके मुँह की ओर बढ़ाई... "और यह भी अच्छे से समझ लो दीप, तुमसे रिलेशन बनाने के पहले मैं ईश्वर को साक्षी मानकर तुम्हारीमाँग में सिंदूर भरूँगा और तुम्हें वेडिंग रिंग पहनाऊँगा।"
"क़ुबूल है... तो अब चलें।"
दूसरे दिन से नीलकांत शूटिंग में व्यस्त हो गया और दीपशिखा घूमने में। आर्ट गैलरी बुक हो जाने की ख़बर उसने भारत में सभी दोस्तों को दे दी थी। सभी की तैयारी समाप्ति की ओर थी और वे भरपूर जोश में थे। उसने शेफ़ाली को फोन पर बताया-"आज मैंने 'मेजोंद ला पांसे फ्रांसेज़' में हेनरी मातीस के कोलाज देखे... जीवन्त कोलाज। मूजेद आर मोदर्न भी गई मैं। वहाँ मैंने रुओ, ब्राक़, मातीस, शगाल आदि आधुनिक चित्रकारों के मूल चित्र देखे।"
"जब मैं आऊँगी तो दोबारा चलना इन जगहों पर। अभी तक तो इन चित्रकारों के बारे में पढ़ा ही है और उनके चित्रों की अनुकृतियाँ ही देखी हैं।"
"मैं तो मूल चित्रों को देखकर रोमांच से भर उठी हूँ... तुम्हारा इंतज़ार है।"
दीपशिखा कला में आकंठ डूबी थी औरनीलकांत फ़िल्म की थका देने वाली शूटिंग में... कभी-कभी तो डिनर भी आउट डोर लोकेशन में ही हो जाता। दीपशिखा तब अकेली होती। रात के उन ख़ास लम्हों में वहनीलकांत की ग़ैर मौजूदगी में भी उसे अपने पास ही महसूस करती। कुछ जुड़-सा गया थाउससे... 'दिल के बारीक तारों का गुँथन नीलकांत के दिल से। कितना अंतर है मुकेश और नीलकांत में। मुकेश उसके जिस्म को पाना चाहता था पा लिया और छोड़कर चला गया। वह उसे अपने मासूम, अल्हड़ प्यार में अपनी ज़िन्दग़ी काहिस्सामानती थी लेकिन नीलकांत उसकी ज़िन्दग़ी का हिस्सा नहीं बल्कि उसकी ज़िन्दग़ी है जिसके आते ही उसके एहसासों के पर्वतों पर जाने कितने आबशार गुनगुनाने लगे थे।'
सुबह नाश्ते के बाद वह गाड़ी लेकर निकल पड़ी पेरिस की सड़कों पर। सबसे पहले लूव्र संग्रहालय... विश्वविख्यात सुंदरी मोनालीसा कि पेंटिंग के सामने वह बुत की तरह खड़ी रही। कितना दर्द है मोनालीसा के चेहरे पर लेकिन आँखों में हँसी, जैसेकहना चाह रही हो कि दुख से भरी ज़िन्दग़ी में हँसते रहना एक ईमानदार कोशिश है। संसार की मरीचिका का एहसास दिलातीहै यह पेंटिंग। मूजे दल'म... मनुष्य का संग्रहालय जिसमें मानव सभ्यता के गुहाकाल से अब तक के दृश्य हैं। कुछ दुर्लभ चीज़ें, कुछ तस्वीरें। इंप्रेशनिस्ट... प्रभाववादी चित्रकला का संग्रहालय जहाँवैनगॉग का स्वनिर्मित आत्मचित्र और विश्वप्रसिद्ध चित्र' सूरजमुखी' और उनका कमरा है। सेजां के चित्र भीजिनके कंस्ट्रक्शन का हवाला ऑरो कार्तीए ब्रेसों ने दिया था। दीपशिखा मानो बिना पंख आसमान में उड़ रही थी। जितने दिन शूटिंग चली वह बार-बार इन संग्रहालयों में जाती। उन चित्रों की बारीकियाँ समझने की कोशिश करती, गैलरियों में चित्रों की प्रदर्शनी देखती... रोदां कीबनाई विशाल मूर्ति देखती जो फ्रांसीसी लेखक बालज़ाक़ की थी। कितनासुंदर है पेरिस... पूरा का पूरा कला संग्रहालय और अपार खिले फूलों से भरा। कहाँ निकल गये इतने सारे दिन?
"एमेरी पागल चित्रकार... कहाँ हो? मैं कब से होटल में तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूँ।"
"बस, पाँच मिनट में पहुँच रही हूँ। गेट पर ही हूँ।"
नीलकांत होटल के कमरे के सामने गैलरी में चहलक़दमीकर रहा था। लिफ़्टसे बाहर निकलती दीपशिखा को उसने आलिंगन में भर लिया। नीलकांत के कमरे में वह सोफ़े पर आराम से बैठ गई।
"डिनर लिया?" नीलकांत ने उसके लिए जूस गिलास में निकाला।
"नहीं जूस नहीं पिऊँगी। कॉफ़ी ऑर्डर करो। मैं स्वादिष्ट चीज़ पीज़ा खाकर आ रही हूँ। मैंने पीज़ा को भट्टी में बनते हुए देखा।"
नीलकांतग़ौर से दीपशिखा के चेहरे को देखने लगा जिस पर नूर ही नूर था।
"ऐसे क्या देख रहे हो नील... इसलिए कि मुझे पेरिस से प्यार हो गया है? यहाँ की फूलों भरी वादियों से, आर्ट गैलरियों से, संग्रहालयोंसे? तुम जानते हो नील जब तकतुम शूटिंग में बिज़ी रहे मैंने पेरिस की तमाम सड़कों को, गलियों को देखा। लेटिन क्वार्टर की सँकरी गलियों में मैं पैदल चली। सदियोंकी संस्कृति और इतिहास को जैसे संवाद सहित सुनाती हैं यहाँ के बेशकीमती चित्रों से भरे संग्रहालय... आई लव पेरिस..." कॉफ़ी आ चुकी थी। नीलकांत ने उसकी ओर प्याला बढ़ाया "मुझे तो रश्क़हो रहा है पेरिस से। एक बार इस नाचीज़ के लिए भी ऐसा ही कह दो जो तुम पर मर मिटा है।"
दीपशिखा मुस्कुराई-"दिन भर से बाहर थी... बाथ लेकर आती हूँ।"
"छोड़ोबाथ वाथ... फ्रांसीसी नहाते कहाँ थे?" कहते हुए नीलकांत ने उसे गोद में उठाया और बड़ी कोमलता से पलँग पर लेटा दिया। फिर उसके सैंडिल उतारने लगा। दीपशिखा अपने इस पागल प्रेमी के लिए कुर्बान हुई जा रही थी... एक नशा-सा तारी था-"आई लव यू नील, हाँ, मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूँ, तुम्हाराहोना चाहती हूँ।" न जाने पेरिस के रोमांटिक माहौल का असर थाया फ़िज़ाओं में हर वक़्त शृंगार के मौसम बसंत के पहरे का या... टूटे दिल की तड़प वह नीलकांत की ओर ऐसी उमड़ी जैसे नदी समंदर की ओर। नीलकांत भी अपनी इस पागल प्रेमिका के संग-संग पागल हो उठा। उसने दीपशिखा के बालों से क्लिपनिकालकर उसकी नोक अपने अँगूठे के सिर पर चुभो ली। खून की बूँद छलकी जिसे उसने दीपशिखा कि माँग में मोती-सा सजा दिया। अब वह उसकी दुल्हन थी। उस रात पेरिस के उस आलीशान होटल के शानदार कमरे में नीलकांत और दीपशिखा एक हो गये। अब उनके बीच ऐसा कुछ न था जो उन्हें दो में बाँट सके।
अलस्सुबह दीपशिखा कि नींद टूटी, ठीक उसी वक़्त नीलकांत की-"कैसी है मेरी दुल्हन, नींद अच्छे से आई?"
दीपशिखा मुस्कुराने लगी। नीलकांत समझ गया-"क्या फ़र्क़ पड़ता है जानूं और वैसे शादी के लिए दो लोगों की ज़रुरत पड़ती है और हम तो एक हैं।"
"टालो मत नील, मेरीमुँहदिखाई दो।" दीपशिखा कि आँखों में नशा था।
"क्या लोगी?"
"पूछकर दोगे?"
"आज हम शॉपिंग के लिए चलेंगे... जानूं के लिए मुँह दिखाई के ढेर सारे तोहफ़े जो ख़रीदने हैं। कल तुम्हारे दोस्त मुम्बई से आरहे हैं, फिर अकेले शॉपिंग का वक़्त कहाँ मिलेगा?"
दीपशिखा अपने कमरे में आकर तरोताज़ा होकर नीली पोशाक में नील पारी-सी दिख रही थी। उसकी आँखों में गुलाबी नशातैर रहा था। उसने खुद को आईने में देखा। नीलकांतके खून की बूँद उसकी माँग में बीरबहूटीसी सजी थी। उसने आहिस्ते से उसे छुआ। उतनी ही बड़ी लाल बिंदी लगाई। बाएँ गाल का काला तिलडिठौनाबनाउसकी खूबसूरती को किसी की नज़र न लगे वाले अधिकार से और अधिक काला दिख रहा था। इंटरकॉम पर नीलकांत... ओफ्फो... "कितना बेताब है नील?" वह सोच ही रही थी कि डोर बेल भी बज उठी और पलभर में नीलकांत अंदर-"मैंने चीज़ ऑमलेट और एस्प्रेसो कॉफ़ी ऑर्डर की है तुम्हारे ही रूम में।" फिर ऊपर से नीचे तक दीपशिखा को देखा-"माशाल्लाह... जान ही निकाल ली तुमने तो..."
और उसके माथे की बिंदी को चूम लिया-"मुझे डिप्रेस्ड व्यक्ति को तुमने ज़िन्दग़ी दे दी जानूं।"
"मुझे सम्हालना, अक्खड़ हूँ मैं।" दीपशिखा ने शरारत से कहा।