लौट आओ दीपशिखा / भाग 15 / संतोष श्रीवास्तव
टैक्सी में दोनों बैठे ही थे कि गौतम के मोबाइल पर नीलकांत की किचकिचाती आवाज़ थी, इतनी तेज़ कि दीपशिखा साफ़ सुन पा रही थी-"तुमने दीपशिखा को यहाँ लाकर ठीक नहीं किया गौतम... आज से तुम नीलकांत प्रोडक्शन सेबर्खास्त किये जाते हो। आउट... कभी मुँह मत दिखाना मुझे।"
गौतम ने बिना जवाब दिये फोन काट दिया। वह जानता था यही होगा। लेकिन इस वक़्त उसे दीपशिखा को सम्हालना था। पूरे रास्ते दोनों में कोई बात नहीं हुई। अचानक हुई घटनाओं ने दोनों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। दीपशिखा का घर आया तो गौतम नेउसका हाथ अपने हाथ में लेकर थपथपाया-"कुछ भी मत सोचना। एक बुरा सपना था और तुम जाग गई हो। लो... आज अभी रात के ढाई बजे मैं तुम्हें साक्षी मान संकल्प लेता हूँ कि फ़िल्मी दुनिया से अलविदा। हम इस चकाचौंध भरी दुनिया के लायक नहीं।"
"ग़लत... वह दुनिया हमारे लायक नहीं है। हमारे अंदर के भरोसे और क़ाबलियत को वह सम्हालनहींपाई।" दीपशिखा खुद पर काबूपा चुकी थी। गौतम ने आश्वस्त हो विदा ली।
अपनी टूटन को समेटने की कोशिश में दीपशिखा कई बार बिखर-बिखर गई। ऐसा उसके साथ ही क्यों हुआ? पहलेमुकेश, फिर नीलकांत... और क्यों हर बार एक द्वार बंद होता है तो दूसरा खुलता नज़र आता है। ये सिलसिला कब तक चलेगा? कब तक वह अनिश्चित को निश्चित मान जीती रहेगी। जानती है इस वक़्त इस शहर में वह बिल्कुल तनहा है। उसकी प्यारी सखी शेफ़ाली उससे सैकड़ों मील दूर है और उसके दोनों प्रेमी... प्रेमी! याउसका इस्तेमाल करने वाले कापुरुष? ... शायद यही नियतिहै उसकी और जो नियति है उसे स्वीकारते जानेमें ही बुद्धिमानी है। नियति के विरुद्ध लड़ते रहना और नाकामयाबी हासिल करना ही दुख का कारण है। जो कुछ पहले से तय है वह तो हमारे लाख न चाहने पर भी घटित होगा ही।
बिस्तर पर पहुँचते ही वह ढह गई। अंदर से एक उबाल-सा उछला। जैसे-तैसे वह बाथरूम तकपहुँची। भरभराकर उबाल बाहर निकला... वह पसीने से लथपथ हो गई। उल्टी के बाद थोड़ी राहत तो महसूस हो रही थी पर तेज़ सिर दर्द होने लगा-"दाई माँ ऽऽऽ" उसने पुकारा।
दाई माँ दौड़ी आईं-"क्या हुआ बिटिया?"
"उल्टी हुई... सिरफटा जा रहा है दर्द से।" दाई माँ ने घड़ी देखी। सुबह चार बजे थे। इस वक़्त डॉक्टर मिलना मुश्किल है। उसनेसिर दर्द की दवा दी और नीबू पानी बना लाई। नीबूपानी पिलाकर वह देर तक दीपशिखा का सिरदबाती रही। धीरे-धीरेदीपशिखानींद के आगोश में चली गई। सुबह देर तक सोती रही। जागी तो देखा मोबाइल पर नीलकांत का मिस कॉल था। उसने गौतम को फोन लगाकर अपनी तबीयत ख़राब होने की सूचना दी।
"आधे घंटे में पहुँच रहा हूँ।"
"नहीं, घर नहीं स्टूडियो आना... शाम चार बजे।"
"और दिन भर तुम उस दगाबाज़ की याद में बिसूरोगी।"
दीपशिखाझल्ला पड़ी-"नाम मत लो उसका... रात को अपने दिलो दिमाग़ से खुरच-खुरच कर मैंने उसे निकाल बाहर किया। उसे फ्लश कर दिया मैंने, एक ही उल्टी के साथ... बह चला वह गंदी नाली में... और भी गंदगी की ओर।" भर्रा गई थी दीपशिखा कि आवाज़... "रिलैक्स... जो होता है अच्छे के लिये होता है। शायद मुझे तुमसे इसीलिए मिलवाया भाग्य ने... वरना... ख़ैर छोड़ो, मिलते हैं शाम को।"
उधर दाई माँ ने दीपशिखा कि तबीयत की सूचना सुलोचना को दे दी थी। गौतम का फोन रखते ही सुलोचना का फोन-"क्या हुआ दीपू?"
"ज़रा-सा स्ट्रेन हो गया था... अब ठीक हूँ।"
"क्यों इतना काम करती हो कि स्ट्रेन पड़े। कल की फ्लाइट लेकर इधर आ जाओ। कुछ दिन आराम करोगी तो सब ठीक हो जायेगा।"
प्रस्तावअच्छा था। उसे आराम की ज़रुरत थी लेकिन आराम से बढ़कर गौतम की जो इन मुश्किल दिनों में उसका साथ दे रहा है। उसने सुलोचना को टाल-सा दिया-"बताती हूँ माँ... वैसे मैं ठीक हूँ। तुम परेशान मत हो। कोशिश करूँगी आने की।"
शाम चार बजे वह स्टूडियो पहुँची। सैयद चचा उसका कुम्हलायाचेहरा देख ताड़ गये-"क्या हुआ बेटी, तबीयत तो ठीक है?"
असल बात वह छुपा गई-"हाँ चचा, तबीयत नासाज़है। क्या करूँ... कुछ दिनों के लिए पीपलवाली कोठी हो आऊँ?"
तब तक सना, एंथनी, जास्मिन, आफ़ताब, शादाब भी आ गये। सबके स्टूडियो खुले, चाय के प्याले खनके, रौनक लौट आई। सपनीली आँखों ने फिर सपने देखने शुरू किये। नई प्रदर्शनी को लेकर, नई थीम को लेकर... और इन सबके बीच नया गौतम... दीपशिखा ने सबसे परिचय कराया-"ये हैं गौतम राजहंस, फ़िल्मी राइटर।"
"राइटर था, अब नहीं। मैं अपना प्रोफ़ेशन बदलरहा हूँ।"
"हमारे जैसे चित्रकार हो जाओ।" एंथनी ने कहा तो मज़ाक में था पर गौतम ने इसे सीरियसली माना-"नहीं, चित्रकारजन्मजात होते हैं। चित्रकला ही क्यों हर कला जन्मजात होती है। यह बात दीगर है कि उसे इंस्टिट्यूट या कलाकेन्द्रों में निखारा जाता है। मैं मीडिया में जाऊँगा। पहले भी न्यूज़ चैनल में ही था फिर विदेशी कम्पनी के लिये काम किया। न जाने क्या फितूर चढ़ा कि नीलकांत प्रोडक्शन केलिये काम करनेलगा। मुझे तो इस बात पर ताज्जुब है कि मुझे इतनी आसानी से काम कैसे मिल गया?"
बातों ही बातों में पूरी शाम निकल गई। दीपशिखा कि पीपलवाली कोठी जाने की बात सुन सब ताज्जुब से भर उठे-ये अचानक कैसे जाने का प्लान कर लिया? आज ही तो हम मिले हैं। "
दीपशिखा ने अलसाई-सी अँगड़ाई ली-"माँ की याद सता रही है, कुछ दिन आराम भी करना चाहती हूँ।"
"झूठ... मन तो शेफ़ाली भाभी के बिना नहीं लग रहा है। हम तो कुछ हैं ही नहीं आपके।" सना ने नाराज़ी से कहा।
"जाने भी दो सना... हम इनके हैं कौन?" शादाब ने भी नाराज़गी प्रगट की।
दीपशिखा का इरादा पिघलने लगा। सभी का आग्रह उसके दुखी मन पर मलहम की तरह लग रहा था। वह हँसकर बोली-"सुबह तक का टाइम तो दोसोचने के लिये।"
"चलो दिया।"
"ऐसे नहीं... इनकी सोच का मुँह पानीपूरी से भरना होगा।" सब हँसते, मुस्कुराते बाहर निकले। एक डेढ़ घंटा दोस्तों के साथ गुज़ारकर दीपशिखा काफी हलकापन महसूस कर रही थीं। गौतम उसे पहुँचाने घर तक आया-"अगर जाने का मन बना ही लिया है तो... अपना ख़याल रखना दीपशिखा। लौटोगी तो मुझे अपने इंतज़ार में पाओगी। जानता हूँ यह मौका नहीं है कुछ कहने का, पर मैं हमेशा मन की सुनता हूँ।"
दीपशिखा उसे निहारती ही रह गई। उसके आँखों से ओझल होते ही उसे लगा जैसे अपना कुछ छूटा जा रहा हो... अरसा लगा था मुकेश से खुद को अलग करने में... जीवन का पहला प्यार फूल में बसी खुशबू जैसा होता है। फूल सूख जाता है पर खुशबू नहीं जाती। नीलकांत ने उसे खुशबू को अपनी धड़कनोंमें बसा लेने का नाटक किया। टूटी थी दीपशिखा, ... सहारा पाकर जुड़ने लगी थी लेकिन इस बार की टूटन? सब कुछ होते हुए भी दीपशिखा लुटा हुआ-सा खुद को पा रही है। सुलोचना और यूसुफ़ ख़ान की बेशुमार दौलत की अकेली हक़दार... पीपलवाली कोठी की राजकुमारी, अत्यंत रूपमती... दीपशिखा... कला के लिये धड़कता मासूम दिल... क्यों टूटा बार-बार और क्यों भीड़ में अकेली रह गई दीपशिखा।
"कल सुबह दस बजे की फ़्लाइट की टिकट आ गई है बिटिया रानी... मैं भी चल रही हूँ साथ में।" कहते हुए दाई माँ जल्दी-जल्दी अपना और दीपशिखा का सूटकेस तैयार कर रही थीं। महेश काका बाज़ार गये थे... सुलोचनाने कुछ चीज़ें मँगवाई थीं, उसीकी ख़रीद फ़रोख्त करने। दीपशिखा टब बाथ ले रही थी। फोन की घंटी बजी तो दाई माँ ने दरवाज़ा खटखटाया-"फोन है शेफ़ाली बिटिया का।"
ज़रा-सा दरवाज़ा खोलकर दीपशिखा ने फोन लिया-"क्या कर रही है, इतनी देर क्यों लगी फोन उठाने में।"
हमेशा कि तरह शेफ़ाली की चुलबुली आवाज़ सुन दीपशिखा भी मुस्कुराई-"नहा रही हूँ जानेमन, हनीमून के बिज़ी शेड्यूल में मुझ नाचीज़ को कैसे याद किया?"
"आ जो रही हूँ... दिल्ली एयरपोर्ट पर हूँ... दोपहर तीन बजे तक पहुँच जाऊँगी।"
"क्यों भई, दो दिन पहले ही पैकअप कर लिया?"
"करना पड़ा, तुषार से मिलने कुछ सीनियर डॉक्टर्स जापान से मुम्बई आ रहे हैं... बहुत ज़रूरी है पहुँचना। अच्छा, रखती हूँ। फ्लाइट एनाउँस हो गई। शाम को घर आती हूँ।"
दीपशिखा जल्दी-जल्दी नहाकर बाहर आई-"दाई माँ, पैकिंग खोल दो...हम नहीं जा रहे हैं।"
दाई माँ ठोड़ी पर हाथ रख अवाक़ मुद्रा में खड़ी रह गईं।
जुहू किनारे दीपशिखा का हाथ पकड़े शेफ़ाली समंदर में डूबते सूरज को देख रही थी। दूर कहीं बारात के बाजे बज रहे थे। हवा में उमस थी-"मुझे नीलकांत पर शक तो था पर मैं उसे अपना फितूर समझ चुप थी। भूल जाओ दीपू सब कुछ, जानती हूँ यह कह देना आसान है पर..."
"भूलने की कोशिश मैं भी करूँगी लेकिन शेफ़ाली, मेरे ही साथ ऐसा क्यों होता है? क्यों बार-बार मैंछली जाती हूँ?"
"तुम बहुत भोली हो दीपू... किसी पर भी सहज विश्वास कर लेती हो। तुम्हारा दिल प्रेम से पगा है, छल कपट नहीं जानता लेकिन दुनिया में कामयाबी हासिल करने के लिए थोड़ी होशियारी भी तो होनी चाहिए न दीपू।"
"शेफ़ाली, क्या हालात बदलते ही हमारे भीतर का भी सब कुछ बदल जाता है या अलग कलेवर में सभी कुछ बार-बार वापिस आता है।"
शेफ़ाली ख़ामोश रही। काश... ऐसा हो कि उसकी सखी को भी अलग कलेवर में सब कुछ वापिस मिल जाये। वे लम्हे जिनमें वह प्यार के लिए उमड़ी थी। वह उमड़न उसे वापिस मिल जाये।
धीरे-धीरे ज़िन्दग़ी वापिस अपने ढरल्ले पर आ गई। हर आड़े-दूसरे स्टूडियो में दोस्तों के साथ बैठक होने लगी। नए-नए प्लान बनने लगे। शेफ़ाली नौकरी के लिए एप्लाईकरने लगी... जहाँ भी देखती आर्ट टीचर की डिमांड है अपने हाथ से एप्लीकेशनदे आती। गौतम और दीपशिखा कि मुलाकातें बढ़ने लगीं। ज़ख़्मभीभरने लगे... लेकिन नहीं... ज़ख़्मभरने के जिस भ्रम में वह थी उसकी ऊपरी पपड़ी अचानक उखड़ गई और ताज़े खून की बूँद छलक आई। वह गौतम के साथ मरीन ड्राइव के समंदर के किनारे ख़रामा-ख़रामा चल रही थी कि नीलकांत की गाड़ी उसके क़रीब आकर रुकी, दरवाज़ा खुला और किसी के मज़बूत हाथों ने अंदर घसीट लिया और गौतम जब तक कुछ देखता समझता गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ ली। दीपशिखा नीलकांत के मुस्कुराते चेहरे को देखकर तिलमिला गई-"यह क्या बद्तमीज़ी है। धोखेबाज़ तो तुम हो ही अब किडनैपर भी हो गये?"
"किडनैपर नहीं... आशिक़... तुम्हारा पृथ्वीराज चौहान दीप।"
"क्या चाहते हो? मुझेइस तरह किडनैप करके कहाँ ले जा रहे हो?"
गाड़ी ताज होटल के सामने आकर रुकी। नीलकांत उसका हाथ पकड़े होटल के एक कमरे में जो उसने पहले से बुक किया था ले आया... वह तड़प उठी।
"मैं एक पल भी तुम्हारे साथ गुज़ारना नहीं चाहती, नफ़रत करती हूँ तुमसे... मुझे तुम्हारी शक्ल देखना भी मंजूर नहीं मिस्टर नीलकांत।"
नीलकांतने उसे बाहों में भरकर उसके होठों पर अपने होठ टिका दिये। अब उसकी मुट्ठियों में दीपशिखा के बाल थे जिन्हें सख़्तपकड़कर उसने उसका चेहरा उठा-सा दिया तकलीफ़ से दीपशिखा के माथे पर लकीरें उभर आईं।
"बताओ... कब से गौतम के संग तुम्हारे रिलेशन हैं। मुझे उल्लू बनाती रहीं और मेरी आड़ में इश्क़ उससे करती रहीं... धोखेबाज़ तुम हो।"
दीपशिखा दंग रह गई। इस उलटवार की उसे उम्मीद न थी।
"बताओ तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?"
उसने नीलकांत को धक्का देकर खुद को छुड़ाया और तेज़ी से दरवाज़े की ओर मुड़ी।
"मेरी बात का जवाब दिये बिना तुम नहीं जा सकतीं।" नीलकांतनेज़ोर से उसकी बाँह पकड़ी। नरम माँस पर उसकी उँगलियों के निशान उभर आये।
"क्या कर लोगे? मेरा मर्डर? और तुम कर भी क्या सकते हो? अपनीग़लती मुझ पर थोपकर तुम भले ही अपनी सफ़ाई में कुछ भी करो पर अब चैन तुम्हें ज़िन्दग़ी भरनहीं मिलेगा।" दीपशिखा उत्तेजित थी। उसे पसीने का अटैक-सा आया। मुँहमें पानी-सा भरने लगा। देखते ही देखते उस दिन जैसा उबाल उसके पेट से सीने की ओर उछला। वह भागकर बाथरूम में गई और उल्टी करने लगी। पीछे-पीछे नीलकांत आया। उसकी पीठ सहलाने लगा। दीपशिखा ने उसके हाथ झटक दिये। वह थोड़ी देर दीवार से लगकर खड़ी रही।
"लेट जाओ, दवा मँगवाता हूँ।"
दीपशिखा ने आँखें तरेरकर नीलकांत की ओर देखा और दरवाज़ा खोल बाहर निकल गई। नीलकांत ने उसे नहीं रोका।
टैक्सी लेकर दीपशिखा सीधी शेफ़ाली के घर गई। शेफ़ाली डिनर तैयार कर रही थी। उसे देखकर खुशी से भर उठी-"अच्छे वक़्त पर आई तू, मैं तेरा मनपसंद गुच्छी पुलाव बना रही हूँ।"
दीपशिखा उससे लिपटकर रो पड़ी। रोते-रोते ताज होटल में घटी सारी घटना उसे सुनाई। उल्टी की बात सुन शेफ़ाली ने पूछा-"नीलकांत को गोली मार... ये बता तुझे बार-बार उल्टियाँ क्यों आ रही हैं? कहींतू प्रेग्नेंट तो नहीं?"
दीपशिखा के पैरों तले से ज़मीन खिसक गई-"हो सकता है। मुझेपीरियड्स भी तो नहीं आ रहे हैं। मैंने तो ध्यान ही नहीं दिया। अब क्या होगा?"
"इसका मतलब है कि तुझे पूरी तरह से नीलकांत से छुटकारा नहीं मिला है। एबॉर्शन कराना पड़ेगा।"
दीपशिखा चकरा गई-"कैसे? दाई माँ अनुभवी हैं, पल-पल की ख़बर रखती हैं।"
शेफ़ाली थोड़ी देर सोचती रही। एकाएक उसका ध्यानदीपशिखा कि बाँह की ओर गया। नीलकांत की उँगलियों के निशान लाल-लाल उभरे हुए थे-"बाप रे... रीयली राक्षस ही हैनीलकांत। एक दिन ज़रूर मेरे हाथों से पिटेगा।"
और दौड़कर क्रीम उठा लाई। दीपशिखा कि दुर्गति से उसकी आँखों में भी पानी तैर आया। तभी उसके सास ससुर घूम कर लौटे। दीपशिखाकोदेखकरदोनों खुश होगये-"बहुत दिनों बाद आईं आप?"
"जी, थोड़ा बिज़ी थी।"
"चाय नाश्ता लिया?" सास उसके बाजू में ही बैठ गईं।