लौट आओ दीपशिखा / भाग 17 / संतोष श्रीवास्तव
और हुआ भी यही। फोन पर सुलोचना कि आवाज़ विचलित कर देने वाली थी।
"दाई माँ से सारी बातों की जानकारी मिली। गौतम से बात कराओ मेरी।"
दीपशिखा घबराई ज़रूर लेकिन तुरन्त ही उसने खुद पर काबू पा लिया। गौतम ने लाउडस्पीकर ऑन कर लिया-"जी माँ..."
"माँ कहा है तो बस इतना करो। मंदिर जाकर शादी कर लो। कम से कम समाज थूकेगा तो नहीं हम पे... यही कहेगा कि बेटी नेबिनाबताए शादीकर ली।"
गौतम और दीपशिखा चुप थे।
"क्यों... चुप क्यों हो? क्या इतना ही हौसला रखते हो? डरते हो बंधन से? आज़ादी चाहिए न?"
दीपशिखा ने फोन अपनी तरफ़ किया-"हाँ माँ, आज़ादी चाहिए। मैं बंधन में नहीं बँधना चाहती। माँ, मुझे माफ़ करो।"
उसने फोन काट दिया और ख़ामोशी से उठकर लॉन की ओर चली गई। माली ने अभी-अभी लॉन की दूब सींची थी। भीगी दूब पर वह नंगे पाँव चलने लगी। पैरों के संग-संग आँखें भी भीगने लगीं।
वह रात भर माँ के बारे में ही सोचती रही। सच है, उसे लेकर उनके भी कई ख्वाब होंगे। शादी, मंडप, दामाद, बिदाई, जैसे हर माँ का बेटी के लिए सपना होता है उनका भी तो होगा। पर उसने उन्हें सिवा रुसवाई के दिया क्या? पापा से शादी भी उनके लियेएक चुनौती थी और अब वह भी उनके लिये चुनौतीबन गई है।
दीपशिखा के बंगले में शिफ़्टहोने के साल भर के अंदर घटनाओं ने तेज़ी से करवट बदली। सना शादी के बाद रायपुर चली गई और शादाब जबलपुर। जास्मिन ने अचानक चित्रकारी छोड़कर मॉडलिंग का क्षेत्र चुन लिया। आफ़ताब ने फोर्ट में अपना बहुत बड़ा स्टूडियो खोलकर अखबारों, पत्रिकाओं में कार्टून बनाने का काम शुरू कर दिया। एंथनी अब भी दीपशिखा और शेफ़ाली के साथ था लेकिन वह भी अब स्थाई नौकरी की तलाश में था। अखबारों में दक्षिण भारत में प्रति दो वर्ष में आयोजित होने वाले 'कलाकुंभ' की खबरें पढ़कर और उससे भी अधिक इस कलाकुंभ में सम्मिलित होने का निमंत्रण पाकर दीपशिखा और शेफ़ाली खुशी से नाच उठीं। यह एक ऐसा अवसर था जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के चित्रकार शामिल होते थे। इस बार प्राकृतिक सुषमा से समृद्ध केरल में यह आयोजित हो रहा था। तीन महीने तक चलने वाला इस आयोजन में पूरे विश्व से कई प्रमुख चित्रकार हिस्सा लेंगे। दीपशिखा को अपना बेस्टसाबित करना था। वह पूरी एकाग्रता से कलाकुंभकी तैयारी में जुट जाना चाहती थी। बहुत बड़ी चुनौती है उसके सामने। अपनीखुशियों को शेफ़ाली के संग बाँटते हुए वह जॉगिंग गार्डन में गौतम का इंतज़ारकर रही थी। गौतम के साथ आज की शाम वे तीनों नाटक देखेंगे और चायनीज़ डिनर के बाद घर लौटेंगे।
"थीमक्या सोची है तुमने दीपू?"
"सोच ली है... मैं'नृत्य उत्सव' पर पेंटिंग्स तैयार करूँगी। सेमीरियलिस्टिक स्टाइल में नृत्य का एक संसार ही मैं अपने चित्रों में उतारूँगी। जिसमें अजंता एलोरा के भित्ति चित्रों के लुक में मानव आकृतियाँ नृत्य का उत्सव मनाती नज़र आएँगी, ये परम्परागत नृत्य से अलग हटकर होगा। मैं इनके ज़रिए संगीत के मार्ग से होकर ईश्वर से साक्षात्कार का मिथक तैयार करूँगी।"
"अच्छी थीम है। मैं 'अपराजिता' चित्र शृंखला तैयार करूँगी। मेरे चित्र औरत की तमाम क्षेत्रों में सफलताओं के प्रतीक होंगे जिनमें छिपे होंगे वे बिम्ब जो औरत को सिर्फ़ भोग की वस्तु समझते हैं।" शेफ़ाली की आँखों में अतीत के कई पन्ने फड़फड़ाये जिसमें दीपशिखा का अतीत भी पलभर को झाँका। गौतम के गेटसे अंदर आते देखदोनों उठकर उसके पास आ गईं-"ठीक वक़्त पर आये।"
"मैंटिकट्स भी ले आया हूँ। अभी प्ले शुरू होने में आधा घंटा है। चलो कॉफ़ी पीते हैं और समोसे खाते हैं।"
"समोसेके साथ कॉफ़ी?"
"तू चाय पी लेना शेफ़ाली।" दीपशिखा ने हँसते हुए कहा।
नाटक बहुत अच्छे से मंचित होने के कारण तीनों ही इस शाम को सार्थक महसूस कर रहे थे। शाम तो वैसे भी सार्थक थी। कलाकुंभ के लिये थीम भी तय हो गई थी और कई महीनों बाद गौतम और शेफ़ाली के साथ कुछ घंटे फुरसत से बिताने का मौका मिला था। यह भी तय हुआ था कि अगले दो महीने केवल जुटकर काम ही होगा। स्टूडियो में दीपशिखा तो लंच के बाद पहुँच जाएगी, शेफ़ाली डेढ़ बजे स्कूल से सीढ़ी स्टूडियो पहुँचेगी और दोनों रात के आठ बजे तक काम करेंगी। शेफ़ालीऔर दीपशिखा अब रोज़ आयेंगी यह जानकर सैयदचचा कि बाँछें खिल गई थीं। वैसे भी वे दिन भर स्टूल पर बैठे-बैठे तम्बाखू फाँकते थे और ऊँघते थे। अब रौनक रहेगी।
दो महीने देखते ही देखते बीत गये। कलाकुंभ का दिन भी नज़दीक आ गया। केरल जाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। शेफ़ाली ने बताया था-"मालूम है दीपू... केरल में बहुत लार्ज स्केल मेंकलाकुंभ का आयोजन हो रहा है। सात जगहों पर प्रदर्शनी का इंतज़ाम है। कुछ चित्रों को पब्लिकप्लेसेज़ में भी रखा जाएगा ताकि आम आदमी भी चित्रकारों से रूबरू हो सके।"
"पता है, मेरे पास भी सना का फोन आया था। ये तो लक की बात है कि हमारा एक शुभचिंतक वहाँ मौजूद है तो सारी खबरें पता हो रही हैं। सना का हनीमून पैकेज कितने दिन का है।"
"पूरा केरल घूमेंगे वह लोग, एकहफ़्ते में लौटेंगे।" कहते हुए शेफ़ाली अपने चित्रों कोफाइनल टच देने लगी। सना फिर फोन पर थी-"काम करने दोगीकिनहीं?"
"मैं तो चकरा गई हूँ भाभी। अपने पर कोफ़्त हो रही है। काश मैं भी भाग ले पाती। एक से बढ़कर एक नामी कलाकार आ रहे हैं। कोच्चि के किले के परेड ग्राउंड में इंस्टॉलेशन का काम पूरा हो चुका है।"
"ओ.के... मियाँ के साथ नहीं है क्या?"
"वोबाथ ले रहा है। तुम मेरी एक्साइटमेंट नहीं समझ सकतीं। मुजीरिस समुद्र के किनारे पुराने बंदरगाह में जो प्राचीन किला है न, उसके दरबार हॉल का रीकंस्ट्रक्शन कियागया है इसी कलाकुंभ के लिए। पेपर हाउस, पुराना डच स्टाइल का बड़ा बंगला और सोलह हज़ार वर्ग फ़ीटकाउसका कोर्टयार्ड आर्टिस्टों के स्टूडियो तथा रहने के लिए इस्तेमाल किया जायेगा। तुम्हारा और दीपशिखा का वहीं इंतज़ाम है रुकने का।"
"सना... तुम्हारा मियाँ नहा चुका होगा। उसके लिए कबाब ऑर्डर करो।"
"क्यों छेड़ रही है बेचारी सना को, ला फोन मुझे दे।"
दीपशिखा देर तक सना से वहाँ के हालचाल पता करती रही। फिर शेफ़ाली से बोली-"दो दिन बाद हमारी फ़्लाइट है। कल पूरा दिन हम आराम करेंगे और परसों पैकिंग।"
"हाँ यार, एक बड़ा बॉक्स तो मेरे चित्रों का ही होगा। तीन महीने रुकना है। विदेशी चित्रकारोंके बीच चर्चाएँ, वार्ताएँ, सेमिनार, प्रेज़ेंटेशन और लाइव परफॉरमेंस... ड्रेसेस भी अच्छी रखनी पड़ेंगी।"
"थोड़ी शॉपिंग भी ज़रूरी है... कल शाम मिलते हैं हम। सैय्यद चचा... तीन महीने के लिये बिदा। कल ड्राइवर आयेगा। आप हमारे ये बॉक्स गाड़ी में रखवा देना।"
"अच्छाबिटिया... बेस्ट ऑफ़ लक़।" सैय्यद चचा सेल्यूट की मुद्रा में खड़े हो गये।
रात को दीपशिखा ने सुलोचना को फोन लगाया। वेबार-बार नाराज़ीवश काटती रहीं लेकिन अंत में माँ का दिल... हाँ, बता दीपू, क्यों परेशान कर रही है? "
दीपशिखा ने कलाकुंभ की एक-एक बात विस्तार से बताई। दीपशिखा कि इस सफलता से सुलोचना ने आवाज़ दी-"यूसुफ़... सुना तुमने हमारी बेटी चोटी की चित्रकार हो गई है..." फिर जाने क्या हुआ वे फोन पर ही रो पड़ीं और यह बात गौतम को बताते हुए दीपशिखा भी रोती रही। गौतम उसके बाल सहलाता रहा, आँसू पोंछता रहा-"बस करो शिखा (वह उसे अब इसी नाम से सम्बोधित करता था) तुम्हें एक बड़े मिशन को सफल बनाना है। सोने की कोशिश करो वरना तबीयत बिगड़ जायेगी।"
गौतम के प्यार ने उसे ऊर्जा से भर दिया था और इसी ऊर्जा के सहारे तीन महीने कलाकुंभमें भागीदारी करके जब वह शेफ़ाली के साथ मुम्बई लौटी तो खिले पुष्प-सी ताज़गी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी गौतम को।
दीपशिखा का घर द्वार सम्हालने वाली गज़ाला ने फोन की लम्बी लिस्ट लाकर दी-"आपकी ग़ैर हाज़िरी में जो फोन आये थे... आपका इंटरव्यू लेने के लिए ये दिवाकर जी कल का ही अपॉइन्टमेंट माँग रहे थे।"
"ठीक है... तुम जाओ... मैं देख लेती हूँ।"
आलस्य के मूड में थी दीपशिखा। गौतम की इच्छा ऑफ़िस जाने की बिल्कुल नहीं थी पर अभी ही उसे खपोली के लिए निकलना है-"कोशिश करूँगा जल्दी आने की।"
गौतम के जाते ही दीपशिखा बिस्तर पर लेट गई। देर तक सोती रही। शाम को नहाकर उसने पीली एम्ब्रॉयडरी वाली काले रंग की अनारकली ड्रेस पहनी... बाल खुले छोड़ दिये और लॉन में आते हुए गज़ाला को चाय का ऑर्डर दे दिया। गौतम तयशुदा समय से पहले ही आ गया। दोनों लॉन में बैठकर चाय पीने लगे।
"क्या बात है प्रिंसेज़... आज तो मुग़ल शहज़ादी लग रही हो।"
"शहज़ादी तो मैं हूँ, अपनेपापा यूसुफ़ ख़ान की..."
जैसे मन से आवाज़ निकली हो... उसके दिल की धड़कनों ने पापा पुकारा हो... इसवक़्त? क्यों... क्यों उन तक पहुँचने के लिए वह तड़प उठी।
"क्या हुआ... कुछग़लतकह गया मैं?"
"नहीं गौतम... अचानकपापायाद आ गये। जब मुझे कुछ हासिल होता है तो मैं बड़ी शिद्दत से उसे माँ पापा के संग शेयर करना चाहती हूँ... उनकी शाबाशी चाहती हूँ पर..."
दो दिन बाद सूचना मिली यूसुफ़ ख़ान को दिल कादौरा पड़ा है और वे सीरियस हैं। गौतम के साथ बिना शादी कियेरहने के कारण लगभग डेढ़ साल से दीपशिखा उनकी नाराज़ी झेल रही थी औरइसी नाराज़ी के कारण वह पीपलवाली कोठी नहीं जा पाई थी। लेकिन यूसुफ़ ख़ान की बीमारी का सुन वह अपने को रोक नहीं पाई "मैंने कहा था न गौतम... पापा मुझे शिद्दत से याद आ रहे थे दो दिन से।"
गौतम ने उसे तसल्ली दी-"कुछ नहीं होगा। पहुँचते ही सारे हालचाल तुरन्त बताना।"
सुलोचना उससे लिपट कर रो पड़ीं-" यह क्या कर डाला तूने? हम क्या शादी के लिये मना करते? मैंने तो खुद गौतम से कहा था। तभी से तेरे पापा गुमसुम रहने लगे थे।
"माँ... मुझे माफ़ कर दो। मैं ऐसी ही हूँ माँ।" दीपशिखा भी रोने लगी। रोते-रोते ही 'आई-सी यू' में पापा को देखने गई। नालियोंसे पटा पड़ा शरीर। नाक पर ऑक्सीज़न मास्क। दीपशिखा ने हाथ जोड़े-"पापा... मुझे माफ़ कर दीजिए।"
दीपशिखा को लगा पापा ने पलकें झपकाई हैं। लेकिन वह जीवन की अन्तिम हरक़त थी। वे काँपे और फिर स्थिर हो गये।
पीपलवाली कोठीसदमे में डूब गई। दीपशिखासुलोचना को अपने साथ मुम्बई लाना चाहती थी लेकिन सुलोचना ने इंकार कर दिया। वे दीपशिखा से अब नाराज़ नहीं थीं। कई बार उन्होंने उसकी ज़िद्द के आगे घुटने टेके हैं लेकिन इस वक़्त वे यूसुफ़ के बिना जिस पीड़ा से गुज़र रही थीं उसमें कोठी में रहना वे उचित समझती थीं।
"माँ... अकेलेपन में तुम पापा को बहुत अधिक मिस करोगी।"
"नहीं दीपू... वह तो मुझसे दूर गये ही नहीं। शरीर से वे मेरे साथ नहीं हैं... दीपू, आँसूमेरी आँखों में थम गये हैं पर मैं तरबतर हूँ उन आँसुओं से। मुझे सब कुछ महसूस करने दो।"
दीपशिखा ने जिस प्यार को पाने के लिए तीन बार तक़दीर के दरवाज़े खटखटाये, उस प्यार को माँ ने एक ही बार में पा लिया। उसने माँ की गोद में सर रखदिया-"माँ, क़ाश मैं गौतम से शादी कर पाती। लेकिन माँ... जब तक इंसान और दूसरे बंधनों में है... आज़ाद नहीं है... तो वह कैसे एक और बंधन में बँधे। माँ... मैं चित्रकला के बंधन में जकड़ी हूँ, आज़ाद कहाँ हूँ?"
सुलोचना उसके बालों में उँगलियाँ फेरती रही-"तुम्हारे पापा भी लेखक थे। हाँ, मैं जानती हूँ वे वैवाहिक ज़िम्मेवारियाँपूरी तरह नहीं उठा सके लेकिन फिर भी हम खुश थे।"
"लेकिन माँ वे पुरुष थे, मैं स्त्री... क्या ये अंतर हमारी स्थितियाँ स्पष्ट नहीं करता?"
सुलोचना को हथियार डालने पड़े। दीपशिखा के तर्क अकाट्य थे।
कर्मकांड की तमाम विधियाँ सम्पन्न होने के बाद मजबूरी में दीपशिखा को सुलोचना को अकेला छोड़कर मुम्बई लौटना पड़ा-"माँ... डर रही हूँ यहाँ से जाते हुए... माँ, मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती। वादा करो, मेरे लिए खुद को सम्हालोगी।"
सुलोचना ने उसे कलेजे में भींच-सा लिया। पीपलवाली कोठी दीपशिखा के जाते ही सन्नाटे में डूब गई।
यूसुफ़ ख़ान की मृत्यु ने दीपशिखा के मन में गहरी उदासी भर दी थी। ज़िन्दग़ी की तमाम बातों को वह पूरा ज़रूर कर रही थी पर मन में जैसे एक खेद-सा बना हुआ था। लगता था इतनी उपलब्धियों के बावजूद वह जहाँ की तहाँ हैं क्योंकि उसके पापा उसके साथ नहीं हैं। वह जिनकी वजह से इस दुनिया में आई जब वे ही नहीं रहे तो किस काम की ज़िन्दग़ी। अब डर सुलोचना को लेकर भी था। छै: महीने गुज़र गये यूसुफ़ख़ान को गये लेकिन सुलोचना कि तबीयत सुधरने के बजाय दिन पर दिन गिरती जा रही है। कहीं वे भी... वह घबरा गई। गौतम कंपनी के काम से बेंग्लोर गया था... दिन ज़्यादा लग सकते थे इसलिये उसने दीपशिखा को पीपलवाली कोठी चली जाने की राय दी। दीपशिखा भी यही चाहती थी।
पीपलवाली कोठी का सन्नाटा देख दीपशिखा का मन रो पड़ा। हर वक़्त गुलज़ार रहने वाली कोठी यूसुफ़ख़ान के वियोगमें सहमी-सी नज़र आ रही थी। सुलोचना बहुत दुबली लग रही थीं-"ये क्या हाल बना रखा है माँ? क्या मुझे भी मरा मान लिया।"
सुलोचना ने उसके होठों पर अपनी हथेली रख दी। कहा कुछ नहीं बस रोती रहीं। थोड़ी देर बाद दीपशिखा ने टी.वी. ऑन कर दिया-"माँ, टी.वी. ऑनरखा करो। अकेलापन महसूस नहीं होता... मैं तुम्हारे मनपसन्द गानों की सी.डी. तैयार करवा के लाई हूँ, कुछअच्छी फ़िल्मों की सी.डी. भी लाई हूँ। तुम्हें पसंद आयेंगी।"
उसने सुलोचना के बालों में तेल लगाते हुए कहा।
"टी.वी. में कितने बोर प्रोग्राम आते हैं... देखने का मन भी नहीं करता।"
"देखने को कौन कह रहा है, बस चलने दिया करो। आवाज़ें सुनाई देती हैं तो घर भरा-भरा-सा लगता है।"
सुलोचना के चेहरे पर अरसे बाद हँसी भोर में चिटख़ी कली-सी तैर गई। अब उनकी बेटी बहुत गहरी बातें करने लगी है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है बुज़ुर्ग बच्चे हो जाते हैं और बच्चे बुज़ुर्ग।