लौट आओ दीपशिखा / भाग 18 / संतोष श्रीवास्तव
"माँ जो छूट जाता है उसके लिये समझ लेना चाहिए कि बस इतना ही साथ लिखा था नियति ने। हमेंउतने साथ का शुक्रिया अदा करना चाहिए उस अदृश्य शक्ति के प्रति जो एक दरवाज़ा बंद करती है तोदूसरा खोल भी देती है।" हँसने लगी दीपशिखा... "अब देखो न दाई माँ और महेश काका चले गये तो हंसा बेन और रतीलाल जैसेसेवकमिल गये न।"
सुलोचना भी हँसने लगी-"हंसाबेन के हाथ की मसाला चाय पी लो, बहुत अच्छी बनाती हैं।"
"नहीं माँ... मन नहीं है... तुम पियोगी?"
"जब तुम पियोगी दीपू।" कहते हुए वे तिरछी होकर सोफ़े पर पाँव फैलाकर बैठ गईं।
"माँ, गौतमने मुझे गहरे अवसादसे निकाला है वरना मैं अपने अँधेरों में डूब ही चुकी थी। छूट चुके लोगों से जुड़ी यादें... पापा को लेकर मन की गाँठ... उफ़, जैसेकाले गहरे समुद्र पर छायी काली घनघोर घटाएँ।"
दीपशिखा कि आँखों में नमी छलक आई थी। अचानक रतीलाल दौड़ा आया-"मालकिन, दंगे छिड़ गये हैं। खूब मारा मारी चल रही है। सुना है रामभक्तों को ट्रेन के डिब्बे में बन्द कर जी ज़िन्दा जला दिये जाने की घटना घटी थी बस वही गुस्सा दंगे के रूप में भड़का है।"
दीपशिखा ने तुरन्त टी.वी. पर समाचार चैनल लगाया। खबरें आ रही थीं-"अयोध्या में राम नाम का पत्थर राममंदिर में चुनकर आये रामभक्तों की ट्रेन जलानेका मुद्दा ही साम्प्रदायिक दंगों के भड़कने की वजह बन गया है।" क्लिपिंग में धुआँ, जले हुए प्लास्टिक, कपड़े, रस्सी, काग़ज़ के उसी आकार में जले हुए दृश्य... मस्जिदके गुंबदों पर केसरिया पताकाएँ लहरा रही थीं।
गौतम ने फोन किया-"क्या हाल हैं वहाँ के? इसक़दर तेज़ी से गुजरात के हालात बदले हैं कि समझ में नहीं आ रहा क्या होगा? दीपशिखा, पुलिस सुरक्षा माँगो। तुम्हारी कोठी निशाने पर न आ जाए कहीं।"
हिल उठी दीपशिखा। मुस्लिम पुरुष से हिन्दू स्त्री के विवाह के कारण वैसे भी विवादों में घिरी रही कोठी... उस पर दीपशिखा का विवादास्पद जीवन।
"हाँ... मैं बात करती हूँ पुलिस थाने से। तुम फोन रखो गौतम।"
गौतम के फोन रखते हीशेफ़ाली का फोन-"दीपू, तू पारिख अंकल से बात कर, सुरक्षा माँग..."
शेफ़ालीने इस वक़्त पारिख अंकल का नाम सुझा कर दीपशिखा को बहुत बड़ा सम्बल दे दिया मानो। वे तो पापा के दोस्त हैं। उनके मातहत पूरा पुलिस महक़मा है।
दीपशिखा ने पारिख अंकल को फोन लगाया। इंगेज... इंगेज... कभी नेटवर्क नहीं पकड़ रहा तो कभी सीमाक्षेत्र से बाहर। जैसे तैसे फोन लगा-"हाँ, कहिए भाभीजी।"
"अंकल, मैं दीपशिखा... आप तो जानते हैं पापा के जाने के बाद हम बिल्कुल बेसहारा हो गये हैं। अंकल, हालात को देखते हुए प्लीज़ हमें पुलिस सुरक्षा दीजिए।"
पारिख अंकल सोच में पड़ गये। कहाँ से दें सुरक्षा? पूरी पुलिस फोर्स तो शहर के हालात काबू करने में लगी है। उन्होंने धीरज बँधाया-"घबराओ नहीं दीपशिखा। किसी भी बात का अंदेशा हो तो मेरे प्राइवेट मोबाइलपर कॉल करना या एस एम एस करना... नंबर लिख लो।"
दीपशिखा ने दौलतसिंह, हंसाबेन और रतीलाल को नौकरों के क्वॉर्टर में नहीं बल्कि हॉल में सोने को आदेश दिया। कोठी का हर एक दरवाज़ा अंदर से लॉक किया गया और सुरक्षा के लिए डंडे, पत्थर, चाकू, मिर्च पावडर भी हॉल में इकट्ठा किया गया। दौलतसिंह आधी रात तक पहरा देगा उसके बाद रतीलाल। दीपशिखा सुलोचना के कमरे में ही रही। गौतम का हर घंटे फोन आ जाता। लगभग दो बजे रात को पारिख अंकल ने भी फोन करके हालात पूछ लिए।
सुबह तक पूरा गुजरात बुरी तरह दंगे की चपेट में था। कई जगह दरगाहें तोड़कर वहाँ हनुमान और शिवलिंग के नाम से पत्थर रख, सिंदूर और चंदन की रेखाओं से पोतकर फूल चढ़ा दिये गये थे। बदले में कुछ ने उन दुकानोंको कैरोसिन से नहलाकर जला दिया था जिसमें गणपति पूजा और मकरसंक्रांतिके समय बिकने वाला पूजा का सामान, पतंगें रखी थीं। गुनाहगार कौन है। मरने वाले मुसलमानों केख़िलाफ़ दंगाइयों का ऐलाने जंग या कारसेवकों को ज़िन्दा जला दिये जाने के ख़िलाफ़ छिड़ा धर्मयुद्ध?
एक-एक कर दिन सरक रहे थे... जैसे न जाने कितनी सदियों की थकान से भरे हों और गुज़र जाना मुश्किल लग रहा है। अख़बारों की सुर्ख़ियाँ दीपशिखा को भयभीत किये थीं। दुधमुँहे बच्चों पर कहर... साम्प्रदायिकता कि आग ने इन्हें भी नहीं बख़्शा। चहल-पहल से भरे घर के दरवाज़े बंद कर पानी भरदिया तमाम घरों मेंऔर उसमें बिजली काकरेंट दौड़ा दिया। एक ही झटके में बीस लोग मर गये, सब एक ही परिवार के... दीपशिखा पत्ते-सी काँप उठी। ऐसा जघन्य कृत्य करने वाले क्या उसके जैसे ही इंसान थे या इंसान के वेश में नरपिशाच? औरतों के कटे हुए स्तनों से भरे पैकेट... नन्हे बच्चे की आँखों के सामने चाकू भोंक-भोंक कर मारे गये उसके माँ-बाप, भाई-बहन... ज़िन्दा जलाए जाते मर्द। एक औरत देह को चीथतेदस-दस आदमज़ात भेड़िये और शर्त बदते लोग-"आज मुसलमान ज़्यादा मारे जायेंगे। नहीं, हिन्दू मारे जाएँगे... लगी शर्त पचास हज़ार की।" और शर्त लगाते लोगों द्वारा ही छेड़े गये दंगे... मुँह पुलिस का भी रुपियों से ठूँसा गया... तभी तो वह निठल्ली खड़ी देखती रही।
नहीं... कुछ नहीं करेंगे पारिख अंकल। इस कोठी की और माँ की हिफ़ाज़त मुझे ही करनी होगी... अगर पारिख अंकल की पुलिस फोर्स कुछ कर पाती तो इतनी बर्बरता क्यों होती? समाजसेवी, दंगा पीड़ित इसे आतंकवादी कार्यवाही कह रहे हैं। यह कट्टरपंथियों का ऐसा वहशी गिरोहथाजिसने धार्मिक चश्मे पहन बर्बरता का विभाजन की त्रासदी से भी भीषण कीर्तिमान स्थापित किया था। यह मानो एकसधे हुए गिरोह का योजनाबद्ध काम था। ट्रकों में भरकर दंगाई आते... उनके हाथों में हथियारों के साथ मोबाइल फोन भी होते जिससे वे पल-पल की ख़बर अपने बॉस को देते, बॉस जैसा निर्देश देते वे वैसा ही कर गुज़रते।
सुलोचना कि तबीयत कल रात से ज़्यादा ख़राब हो गई थी। तेज़ बुख़ार और हाई शुगर लेवलके कारण मानो मूर्छा में थीं वे। डॉक्टर को बुलाया जाये भी तो कैसे? कर्फ्यूऔर भड़के हुए दंगे। दीपशिखा पुरानी लिखी दवाईयों के सहारे ही उन्हें ठीक करने की कोशिश कर रही थी। हंसाबेनपरहेज़का खाना लगभग सभी के लिये बना लेतीं। इस वक़्त इन सब कामों में ध्यान देने से बेहतर है सुरक्षा के उपाय सोचे जाएँ। सूरज ढलते ही दौलतसिंह और रतीलाल कोठी के आसपास का मुआयना कर लेते। गझिन हरियाली में डंडा ठोंक-ठोंक कर पड़ताल करते। कोठी तीन ओर से सात फुट ऊँची दीवारों से घिरी थी। दीवार की मुँडेरों पर काँच के नुकीले टुकड़े थे। लोहे का भारी-भरकम गेट जिसे दो आदमी ढकेलकर बंद कर पाते। जामुन, कटहल, मौलश्री, नीम के दरख़्तों की छतनारी डालियाँ जो पहले खूबसूरत लगती थीं अब भयावह लगने लगी थीं। क्या पता उनमें ही दंगाई छुपे बैठे हों। कोठीके बगल में ही नई इमारत बन रही थी। नींव ही खुदी थी कि दंगे भड़क गये। हर तरफ़ सन्नाटा तारी था। देश की आज़ादी के संग हिन्दू मुसलमानों के बीच हिन्दुस्तान, पाकिस्तान खड़ा कर अँग्रेज़ जाते-जाते भी अपनी ज़ात दिखा गये जबकि अपने देश को आज़ाद करने में दोनों का खून बहा था। और विभाजन की उस त्रासदी से भी बढ़-चढ़कर है गोधरा कांड... सामूहिकक़त्लेआम, लूटपाट... जो नादिरशाह, तैमूर, अहमदशाह अब्दाली की क्रूरता से भी दस क़दम आगे है। वे तो पराये देश से इस देश को लूटने आये थे। धनबटोरने और खूबसूरत भारतीय स्त्रियों से अपना हरम सजाने... लेकिन ये... अपने ही देश को लूटते, अपने ही लोगों को क़त्ल करते, अपनी ही माँ बहनों से बलात्कार करते... कौन हैं ये? किस देश के नागरिक? किस धर्म के पालक? दीपशिखा करवटें बदलती रही। हर बार औरत ही सज़ा भुगतती है हर अत्याचार की, हर दंगे की, हर लड़ाई, हर उत्पीड़न की? अपनी कोख में पल रहे बच्चे के लिये दंगाइयों के सामने दया कि भीख माँगती गर्भवती औरत। ओह, दंगाइयोंमें से एक ने अपनी तलवार उस औरत के पेट में घुसा कर उसकी कोख फाड़ डाली और उसका आठ महीने का शिशु हवा में उछाल कर तलवार की नोक पर लोक लिया। नर्म माँस का... हिलता डुलता शिशु तलवार की धार में धँसता चला गया।
"गौतम, मैं पागल हो जाऊँगी। ये सब क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है?" दीपशिखा कि आवाज़ काँप रही थी जबकि गौतम उसे खुशखबरीसुना रहा था-"मत सोचोजिस पर हमारा वश नहीं उसे मत सोचो। हम कुछ नहीं कर सकते। सुनो... मेरी अमृता शेरगिल... कोलकाता के एक लेखक तुम्हारा इंटरव्यू लेने वाले हैं। वे चुनिन्दा चित्रकारों के इंटरव्यू की एक किताब संपादित कर रहे हैं। जैसे ही हालात नॉर्मल हों तुरन्त लौटना है तुम्हें।"
हालात बेहतर होते तो दीपशिखा के लिये ये ख़बर वाक़ई खुशखबरी होती... पर। सुलोचना शायद पानी के लिये कुनमुनाईं थीं। दीपशिखा ने फोन कट किया और पानी देने को ग्लास की ओर बढ़ाया ही था कि कुछ फुसफुसाहटें सुनाई दीं। हंसाबेन दबे पाँव उसके पास आई और कानमेंधीरे से कहा-"बाहरकिसी के चलने की आवाज़ें हैं... होशियार रहिए।"
दीपशिखा सन्न रह गई। हाथसेगिलास छूटते-छूटते बचा। दौलतसिंह की ओर से ख़बर थी कि कुछ लोग दीवार फाँद कर घुस आये हैं... दंगाई ही हैं। अब क्या होगा?
फुसफुसाहटेंतेज़होगईं-"निकालो दोनों को बाहर... हमारेइस्लामके नाम पर धब्बाहैं ये। यूसुफ़ ख़ान को ज़िन्दग़ी भर चूसा है इस हिन्दू कुतिया ने।"
थर-थर काँप रही थी दीपशिखा। सुलोचना फटी-फटी आँखों से दरवाज़े को ताक रही थीं। कोठी को मज़बूत दरवाज़े, खिड़कियाँ और हॉल में रखा सुरक्षा का सामान... दरवाज़ाज़ोर-ज़ोर से पीटे जाने पर भी खुल नहीं रहा था। दीपशिखाने डरते-काँपते पारिख अंकल को फोन पर स्थिति की भयावहता बताई। एक मुसलमान के हिन्दू दोस्त ने उनका परिवार बचाने के लिए दस मिनट में ही पुलिस फोर्स भेज दी। आधे घंटे बाद खुद आये-
"वो आये कहाँ से दीपशिखा जबकि तुम्हारे सेवकों ने कोठी की सुरक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।"
"साऽब... बगल में खुदी पड़ी नींव में वे दिन में ही छिप गये थे। बस, नींवें ही हम नहीं देख पाये थे।" दौलत सिंह का संदेह एकदम सही था। रात के दो बजे थे और अब कोठी पूरी तरह सुरक्षित थी। पारिख अंकल ने राय दी-"भाभीजी, आप और दीपशिखा ये जगह छोड़ दीजिए, कभी भी कुछ भी हो सकता है। सब कुछ शांत हो जाने पर लौट आईयेगा। मैं आपको पुलिस सुरक्षा में एयरपोर्ट पहुँचा देता हूँ। आप मुम्बई चले जाइए।"
सुलोचना रो पड़ीं-"पारिख भाई... हमने किया क्या है? ये किस बात की सज़ा हमें मिल रही है?"
पारिख अंकल तसल्ली बँधाते रहे-"ये वक़्त ही बेरहम है भाभी... खुद को मत कोसिए।"
हंसा बेन चाय बना लाई थी। दीपशिखा ने कहा-"अदरकडाली है चाय में? अंकल को अदरक़ वाली चाय पसंद है।" सब हँस पड़े। सदमे में गुज़र रही कोठी पर भी मानो मुस्कुराहट तैर गई।
दूसरे दिन रात की फ़्लाइट से दीपशिखा और सुलोचना मुम्बई आ गईं। पीपलवाली कोठी नौकरों के भरोसे थी और नौकर खुद को कोठी की मज़बूत घेराबंदी में क़ैद कर भगवान भरोसे थे।
दीपशिखा गौतम से लिपट फूट-फूट कर रो पड़ी। दंगों की हैवानियत का असर उसके दिमाग़ पर बुरी तरह था। तेज़ी से घटी घटनाओं ने उसे मथ डाला था। अचानक यूसुफ़ ख़ान का जाना, सुलोचना कि बीमारी ने उन्हें लगभग बिस्तर पर ही डाल दिया था। दंगे... दंगों की ज़द में पीपलवाली कोठी का भी शुमार होना।
"गौतम, तुम तो मुझे छोड़कर नहीं जाओगे न?" वहक़ातर हो गौतम की बाहों में झूल गई।
"ए पगली... गौतम दुनिया छोड़ देगा पर तुम्हें नहीं। हम देर से ज़रूर मिले पर मिले यही क्या कम है?"
थोड़ी देर में डॉक्टर आ गया। सुलोचना का चेकअप कर दवाइयाँ लिखदीं-"डायबिटीज़ बहुत ज़्यादा है। बहुत अधिक परहेज़ से रहना होगा वरना पैरालाइज़्ड..."
"नहीं ऽऽऽ" चीख़ पड़ी दीपशिखा। गौतम उसे दूसरे कमरे में बैठा आया। गज़ाला को दवा लाने भेजकर गौतम ऑफ़िस के लिए तैयार होने लगा। जाते-जाते सख़्त हिदायत देता गया-"दीपशिखा, तुम टी.वी. तो हरगिज़ नहीं देखोगी, न्यूज़ चैनल तो बिल्कुल नहीं। आराम करो, गज़लें सुनो और माँ से बातें... मैं जल्दी लौट आऊँगा।"
दीपशिखा ने नन्ही बच्ची की तरह सिर हिलाया पर पीपलवाली कोठी में घुस आये दंगाईयोंकी दरवाज़े पर की गई ठक्-ठक् उसके दिमाग़ में घुस चुकी थी। गज़ाला ने खाना टेबिल पर लगा दिया। सुलोचना दवाई केसुरूर में नीमबेहोशसी थीं। नहीं खाया गया दीपशिखा से। दोपहर को किन्ही रघुवीर सहाय का फोन था इंटरव्यू के सिलसिले में...
"हाँ, बताया था गौतम ने। दो दिन बाद का रखते हैं। अभी तो मैं गोधरा कांड की विभीषिका से उबरने की कोशिश में लगी हूँ।"
फिर देर तक गोधरा कांड पर ही चर्चा करते रहे। इस बातचीत ने दीपशिखा को काफी राहत दी। लगा कि दिल का बोझ थोड़ा हलका हुआ है।
रघुवीरसहाय काफी गंभीर, सुलझा हुआ व्यक्ति था। उसने दीपशिखा से इन्टरव्यूके दौरान उसकी निजी ज़िन्दग़ी पर एक भी सवाल नहीं किया। वह सारी बातें रिकॉर्ड कर रहा था। गौतम पास ही बैठा था। दीपशिखा ने बतायाकि पहले वह रोमन, ग्रीक और ब्रिटिश चित्रकला को ही वरीयता देती थी लेकिन ज्यों ही हुसैन के चित्रों में बोल्ड और सघन रेखाओं से वह परिचित हुई वह उनकी मुरीद बन गई। मोहन सामंत के ऐब्स्ट्रेक्टचित्रों का ट्रीटमेंट भी बहुत असरदार लगता है लेकिन अब पूर्णतया अमृता शेरगिल को ही अपना आदर्श बना लिया है। उनके चित्रों में भारतीय देहातों की जीवंतता और प्रकृति से उनकी जुगलबंदी काबिले तारीफ़ है।
"और आपके चित्र? आपकी प्रदर्शनियाँ?"
"पेरिस में मेरे चित्रों का सफलतम आयोजन हुआ। मैंने बहुत कुछ सीखा वहाँ। गिरजाघरों के स्टेनग्लासके रंगों और वर्जिन मेरी या बाल ईशु को स्तनपान कराती मेडोना के चित्रों को ज़ेहन में बसाया और जब भारत लौटी तो मेरे चित्रों मेंबहुत अधिक प्रौढ़ता दर्शकों ने महसूस की।"
गज़ाला गर्मागर्म आलू पोहे, पनीर पकौड़े और चाय लाकर रख गई।
"अरे गज़ाला, रघुवीर जी को अंजीर रोल भी खिलाओ। आज आपकी मैडम का इन्टरव्यू लिया है इन्होंने, कुछ मीठा तो बनता है न?"
गौतम के कहने पर रघुवीर सहाय ने टेप रिकॉर्डर स्विच ऑफ़ करते हुए कहा-"इतना बेहतरीन इन्टरव्यू अभी तक तो किसी चित्रकार का लिया नहीं मैंने जबकि दीपशिखा जी हमारी किताब की अंतिम चित्रकार हैं।"
धीरे-धीरे गुजरात के दंगे शांत होने लगे। लेकिन दीपशिखा का मन अब उतना ही अशांत रहने लगा था। दंगों से वह उबर नहीं पा रही थी। हर वक़्त ख़ौफ़ बना रहता कि कोई उसे मारने आ रहा है। रात को चौंक-चौंक जाती। गौतम उसका सिर अपने सीने से लगाकर थपकियाँ देता। एक अनाम लेकिन मज़बूत बंधन था दोनों के बीच जिसके सिरे दोनों के दिल से बँधे थे। दीपशिखा ने गौतम का कॅरियर बनानेमेंजी जान एक कर दी थी। वह इस बातके लिए खुद को दोषी मानती थी किगौतम का फ़िल्मीकॅरियर उसी की वजह से ख़तम हुआ है। गौतम को बेतहाशा प्यार करना, उसे सँवारना दीपशिखा कि दिनचर्या थी उन दिनों। मानो वह छोटा बच्चा हो जिसकी जवाबदारी दीपशिखा कि थी। लेकिन पीपलवाली कोठी में घटे हादसे से अब दीपशिखा ही नन्ही बच्ची हो गई थी। भयभीत, डरपोक और शक के दायरे में कैद। पिछली रात सुलोचना को पानी देने गज़ाला जब उनके कमरे में गई तो लॉबीसे गुज़रते हुए उसकी लम्बी छाया दीवार पर देख दीपशिखा डर गई थी। उसने बगल में सोये गौतम को झँझोड़ा-"गौतम... नीलकांत मुझे मारने आया है। वह मुझे मार डालेगा एक दिन।"
गौतम उसकी बड़ी-बड़ी सफ़ेद पड़ चुकी आँखों को एकटक निहारता ही रह गया। क्या हो गया है दीपशिखा को? किस्से सलाह ले? तुषार भी लंदन में है छै: महीनों से। शेफ़ाली भी उसके साथ गई है। तुषार अपने विषय का विशेषज्ञ होने के लिये वहाँ रहकर गहन शोध कार्य कर रहा था। उसी से सलाह लेना ठीक है। उसने फोन पर तुषार को दीपशिखा के डर और भय की बात विस्तार से बताई। सुनकर तुषार चिंतित हो बोला-माई गॉड... ये तो पेरोनाइड सिज़ोफ्रिनिया के सिम्टम हैं जिसमें ऐसा लगता है कि कोई मारने आ रहा है। बड़ा घातक है ये रोग... तुम चिन्ता मत करो... मैं एक हफ़्ते बाद लौट रहा हूँ। तुम्हें दीपशिखा को पुराने माहौल से निकालना होगा। विश्वास, प्यार और आबोहवा बदलने से इस रोग पर काफ़ी हद तक काबू पाया जा सकता है। "
गौतम के माथे पर पसीने की बूँदें झलक आईं। घबराहट में वह दो तीन गिलास पानी पी गया-" ये क्या हो गया शिखा तुम्हें... इतने कमज़ोर दिल की तुम कैसे हो गईं मेरी बहादुर शिखा... लेकिन दीपशिखा गहरी नींद में सोई थी। गौतम रात भर करवटें बदलता रहा। बाथरूम जाता बार-बार और उतनी ही बार ठंडा पानी हलक से नीचे उतारता। उसे लग रहा था जैसे वह सहरा से गुज़ररहाहै जहाँ धूप की चिलचिलाहट औरगरम रेत के सिवा कुछ नहीं।
शेफ़ाली लंदन के आसपास के गाँवों में चित्रकला के विषय तलाशने की मुहिम में तब तक जुटी रही जब तक तुषार अपने शोध में व्यस्त रहा। लौटी तो ढेर सारे चित्र साथ लेकर लौटी। उसने दीपशिखा को फोन किया-"आँटीजी किस हैं? क्या तू लंदन में बनाए मेरे चित्रों को देखने मेरे घर आ सकती है?"
इतने महीनों बाद शेफ़ाली से मिलने को खुद को रोक नहीं पाई दीपशिखा... वैसे भी सुलोचना कि तीमारदारी गज़ाला बहुत अच्छे से कर रही थी।