लौट आओ दीपशिखा / भाग 19 / संतोष श्रीवास्तव

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गाड़ी खुद ड्राइव करके आई थी दीपशिखा। शेफ़ाली ने उसे गले से लगा लिया-"कैसी है मेरी सखी?"

"तू बता? लंदन से मोटी होकर आई है। तुषार ने अच्छी ख़ासी केयर की है तेरी।"

"जी नहीं... उल्टे उसे पेम्परिंग करना पड़ता है। माई चाइल्ड हस्बैंड।"

शेफ़ाली ने दीपशिखा के आने के पहले ही सारे चित्र दीवार पर सजा दिये थे। दीपशिखा घूम-घूम कर चित्रों को देखते हुए बेहद खुश हो रही थी-"तेरा वहाँ रहना तो बड़ा कामयाब रहा। मैं तो दंगे और माँ की बीमारी से ही जूझती रही। रंग और ब्रश अलमारी में रखे मुँह बिसूर रहे हैं।" शेफ़ाली ने उबली हुई मूँगफली को मसाले आदि डालकर खूब चटपटा बनाया था जिसे खाते हुए लंदन की ढेरों बातें उसने दीपशिखा को बताईं... कि तुषार बहुत अच्छा इंसान है और उससे भी बड़ी बात ये है कि वह मुझे बेहद प्यार करता है। "

दीपशिखा शेफ़ाली को लेकर बहुत अधिक आश्वस्त हुई। उसकी प्यारी सखी सुख से है और उसे क्या चाहिए लेकिन गोधरा कांड की चर्चा छिड़ते ही दीपशिखा का चेहरा बुझने लगा।

"वो हमें जान से मारने आये थे।"

" है हिम्मत किसी में? शेफ़ाली ने बात बदली। तुषार और गौतम के बीचदीपशिखा को लेकर जो बातें होती थीं उनसे शेफ़ाली परिचित थी बल्कि तुषार और शेफ़ाली भी दीपशिखा को लेकर चिंतित थे।

धीरे-धीरे सुलोचना कि बीमारी और दीपशिखा का मनोरोग बढ़ता गया... तीन साल तक बिस्तर भोग कर सुलोचना एक रात जो सोईं तो सुबह उठी ही नहीं। उनकी नींद में ही मृत्यु हो चुकी थी। महँगे इलाज और विशेष सावधानी के बावजूद भी सुलोचना कि हालत देख सभी ये प्रार्थना कर रहे थे कि उन्हें जल्दी ही इस पीड़ा से मुक्ति मिले। दिन भर धैर्य से काम लेते हुए रात को गौतम के कंधे पर सिर रख रो पड़ी दीपशिखा... मन की कचोट आँसुओं संग बह चली-"ईश्वर सच में दयालु है। जो काम दवा नहीं कर सकी वह ईश्वर ने कर दिखाया। माँ को उनकी तकलीफों से छुटकारा दिला दिया।"

सुलोचना कि मृत्यु के साथ एक युग का अंत हो गया। अभीतेरहवींका हवन होकर ही चुका था कि पीपलवाली कोठी के कई दावेदार खड़े हो गये। यूसुफ़ ख़ान के चचाजात भाइयों ने दीपशिखा से बँटवारा चाहा। एक हिन्दू लड़की से शादी करने के गुनाह में यूसुफ़ ख़ान ताउम्र अपने परिवार वालों से 'बिरादरी बाहर' जैसी पीड़ा सहते रहे थे लेकिन अब वही परिवार वाले उनकी जायदाद पर अपना हक़ जता रहे हैं?

"किसी को फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी।" दीपशिखा ने बेबाकी से ऐलान किया-"गौतम, तुम जानते हो, इन्होंने मेरी माँ को कितना सताया है। चैन से जीने नहीं दिया उन्हें। मैं इन्हें देने से अच्छा दरिया में बहाना पसंद करूँगी उस जायदाद को।"

"रिलैक्स... तुम जो चाहोगी वही करेंगे। हम कल वकील से परामर्श करके सारे ज़ेवरात, शेयर्स आदि बेचकर तय कर लेंगेक्या करना है?"

वकील ने भी सब कुछ बेचकर वसीयतनामा तैयार करने की सलाह दी। सौ करोड़ की संपत्ति आँकी गई। जिस दिन गौतम और दीपशिखा पीपलवाली कोठी बेचने के लिये गुजरात जाने की तैयारी कर रहे थे दीपशिखा ने शंका जताई-"पापा के चचेरे भाई कहीं मुझे मार न डालें... उन्हें कुछ देना ठीक रहेगा क्या?"

"अंतरआत्मा जैसा कहे वैसा करो, किसी से सलाह मत लो।"

वीरान कोठी में क़दम रखते ही दीपशिखा का कलेजा काँप गया। अब वहाँ एक भी नौकर नहीं बचा था। सब अपने-अपने गाँव चले गये थे। फुलवारी सूख गई थी। सारे कमरे जालों से अँटे पड़े थे। रसोई जो कभी पकवानों से महकती थी आज भुतहा दिखाई दे रही थी। दीपशिखामाथा पकड़कर बैठ गई। गौतम अफ़सोस कर रहा था-"नहीं लाना था दीपशिखा को, वह तनावग्रस्त हो गई है।"

कोठी की नीलामी लगी और सौदा तय होते तक दीपशिखा ने यूसुफ़ ख़ान के तीनों चचेरे भाईयों को भी कुल संपत्ति का चालीस प्रतिशत देकर मुक्ति की साँस ली-"कब क्या कर बैठें कोई भरोसा?"

गुजरात से सदा केलिये नाता टूट चुका था। इस तरह अंत होता है एक भरे पूरे परिवार का, परिवार से जुड़ी ज़िन्दग़ियों का। दीपशिखा आहत मन से मुम्बई लौटी। गौतमऔर शेफ़ाली के साथ के बावजूद एक उदासी उसे घेरे रहती। उसने सुलोचना कि तस्वीर सामने रख एक औरत का आदमक़द चित्र बनाया जो काफी हद तक सुलोचना से मिलता जुलता था। औरत के चेहरे पर एक रहस्यमय उदासी थी। काली गहरी आँखों में सूनापन था। औरत की साड़ी को लाल रंग से रंगते हुए दीपशिखा डर गई थी... खून... ऐसा ही खून बहा था दंगों के दौरान... ऐसा ही खून बहाने कोठी में घुसे थे दंगाई... उसने आँखें बंद कर लीं जो भय से सफेद हो चुकी थीं। दीपशिखा नहीं जानती थी कि यह उसकी ज़िन्दग़ी काख़िरी चित्र है और लाल रंग उसे हमेशा डरावना लगेगा... वह यह भी नहीं जानती थी कि मशहूर चित्रकार की हैसियत से वह अपने प्रशंसकों को ऑटोग्राफ़ देने वाली एक दिन आड़ी तिरछी रेखाएँ भी नहीं खींच पायेगी। ... साम्प्रदायिक दंगों से लगी नफ़रत की आग ने, प्रतिहिंसा कि लपटों ने मातम में बदल दिये हैं दिल... यहाँ भी... वहाँ भी।

"गौतम... दीपशिखा को चेंज की ज़रुरत है। तुम्हें उसे समय देना होगा।" तुषारने, जो क्लीनिक से सीधा दीपशिखा के पास उसके चेकअप के लिये आया था बेहद फिक्रमंद होकर कहा।

साथ में शेफ़ाली भी आई थी। उए तीन महीने का गर्भ था। सुनकर उछल पड़ी दीपशिखा-"वाह... इस खुशखबरी पर तो जश्न मनाना चाहिए आज।"

"नहीं दीपू... बहुत नाज़ुक जान पलती है कोख में... जन्म के बाद ही हम जश्न मनाएँगे।" शेफ़ालीने दीपशिखा के गाल थपथपाये।

"हाँ, माँ कहती थीं कि बच्चे का नाम सुनते ही नज़र लगनी शुरू हो जाती है। मेरे जन्म के बाद मुझे जो पहला झबला पहनाया गया वह नया नहीं था, माँ की पुरानी साड़ी से बनाया गया था।"

तुषार और गौतम की धीमी आवाज़ दोनों सखियों तक नहीं पहुँच पा रही थी। गौतम ने आहिस्ता से कहा-"ऊटी प्लान कर लेता हूँ। वह जगह दीपशिखा को बहुत पसंद है।"

हफ़्ते भर बाद गौतम को ऑफ़िस से जाने की परमीशन मिली थी। काम ही ऐसा है जल्दी छुट्टियाँ सैंग्शन नहीं होतीं। दीपशिखा खुश थी कि कुछ दिन गौतम के साथ फुरसत में गुज़रेंगे। ऊटी के जिस होटल में वे रुके थे उसी होटल में गौतम का मित्र भी रुका था जो एक इत्तफ़ाक़ था। होटल के डाइनिंग हॉल में ब्रेकफ़ास्ट के दौरान दोनों की मुलाकात हुई।

"ओ... व्हाट अ सरप्राइज़, कैसे हो यार?"

"यह तो वाक़ई इत्तफ़ाक़ है।" फिर सामने बैठी दीपशिखा से परिचय कराया-"शिखा मेरा दोस्त दिवाकर और दिवाकर मेरी लाइफ़ पार्टनर दीपशिखा।"

दिवाकर ने दीपशिखा को ग़ौर से देखा-"डबल सरप्राइज़ दोस्त, तुम छुपे रुस्तम हो। शादी कर ली बताया तक नहीं।"

"हमलिव इन रिलेशन में हैं दिवाकर..."

दिवाकर आश्चर्य से दोनों को देखने लगा। वह ज्योतिष विद्या का जानकार था और दीपशिखा के माथे की लकीरें उसके मन में कई प्रश्न खड़े कर रही थीं लेकिन वह खामोश रहा। दोनों मित्र पुराने दिनों को याद करते रहे।

"अभी तुम लोग झील की सैर कर लो। शाम को हम चाय बाग़ान साथ में चलेंगे। बस, आज की शाम ही है मेरे पास गौतम तुम्हारे साथ बिताने की। कल वापिसी... चलो मैं चलता हूँ। दस बजे से मीटिंग है।"

झील के किनारे नीलगिरी के ऊँचे-ऊँचे दरख़्तों के नीचे छाया का मानो स्थाई बसेरा था। हवा में जब शाख़ें डोलतीं तो छाया भी डोलने लगती।

"देखातुमने गौतम?" दीपशिखा ठिठककर खड़ी हो गई।

"डालियों की छाया हवा के डर से इधर-उधर छिपने की कोशिश कर रही है।"

डर... डर... हर वक़्त असुरक्षा का एहसास ओह... मेरी संगिनी के साथ ही यह होना था? मुट्ठी भर खुशी भी ईश्वर को बर्दाश्त नहीं। प्रगट में वह दीपशिखा को मुग़लिया स्टाइल में सलाम करते हुए बोला-"बेग़म, यह तो आपके आने की खुशी में शाखाएँ कालीन बिछा रही हैं।" दीपशिखा ने हँसते हुए नीलगिरी के पेड़ के तने में उगी कोंपल को तोड़कर हथेली पर रगड़ा और हथेली गौतम की नाक के पास ले गई-"सूँघो।"

एक तुर्श गंध उसकी साँस के साथ भीतर कलेजे तक पहुँच गई।

"एक बात पूछूँ गौतम? मुझे लेकर तुम क्या सोचते हो?"

"मतलब?" दीपशिखा के अजीब से सवाल से चौंक पड़ा था गौतम...

"मैंजानती हूँ, पुरुष हमेशा औरत का पहला प्यार बनना चाहता है और मैं तो..."

"तुम ऐसा कब से सोचने लगीं? तुम तो उन्मुक्त विचारों की हो। अपनी ज़िन्दग़ी अपनी पसन्द से चुनी तुमने, क्या मैं तुम्हारी पहली पसंद नहीं हूँ?"

"... लेकिन एक अजीबोग़रीब चाहत ने जन्म लिया है मेरे दिल में कि मैं तुम्हारी अन्तिम चाहत रहूँ सदा।"

गौतम ने हथेली फैलाई-"वादा रहा।"

"सोच लो।"

"सोच लिया... तुम्हें पाकर ज़िन्दग़ी में अब और कोई या किसी और की चाहत नहीं रही। मैं तुममें संपूर्ण हो गया।" दीपशिखा हुलसकर लिपट गई गौतम से। तभी शाख़ों पर बैठी चिड़ियों का झुँड चहचहाकर उड़ा, मानोदोनों के मिलन से वह अपनी खुशी प्रगट कर रहा हो।

शाम को दिवाकर के साथ उन्होंने चाय बाग़ानों की सैर की। झुटपुटा होते ही वे होटल लौट आये। ठंड बढ़ गई थी औरहलकी बारिश के कारण सड़कों पर सन्नाटा था। दिवाकर वोद्कालेकर आया था। गौतम के कमरे में ही महफ़िल जमी। एक पैग पीने के बाद दूसरा बनाते हुए दिवाकर ने कहा-"दीपशिखा जी, बहुत यश है आपके नसीब में, आपकी माथे की रेखाएँ बता रही हैं।"

"यानी कि ये शौक तुम अब भी पाले हो।"

"शौक भी है और गौतम, अब मैं इसे प्रोफ़ेशन भी बनाने जा रहा हूँ। विदेश में बहुत माँग है इसकी।"

"आपहाथ भी देखते हैं? लीजिए... देखिए न मेरा हाथ।" दीपशिखा नज़दीक सरक आई।

दिवाकर उसका हाथटेबिल पर रखकर देर तक देखता रहा। फिर उसके माथे पर बल पड़ गये-"अरे, आपकीजीवन रेखा तो खंडित है।"

दीपशिखा ने चौंककर दिवाकर की ओर देखा। भय से वह काँप उठी। चेहराउतर गया-"यानी लाइफ़ ख़तम।" "क्या बकवास कर रहे हो दिवाकर... मैं इन सब चीज़ोंपर यकीन नहींकरता। छोड़ो ये सब, तुम दीपशिखा कि कविता सुनो।"

दिवाकरज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा-"बन गये न दोनों उल्लू... आय' म सॉरी... एक्चुअली उल्लू तो मैं गौतम को कह रहा हूँ दीपशिखा जी... मुझे लगा था आप मज़ाक समझती हैं। बात को आई गई हो जाना था पर दीपशिखा का मन आंदोलित था। वह आधी रात को जाग पड़ी और अपनी हथेलियों को ताकने लगी। दिवाकर का कथन काली छाया-सा उसके आसपास मँडरा रहा था। सुबह ऊटी जाने से पहले दिवाकर ने कहा-" प्लीज़, दीपशिखाजी... उसे सीरियसली मत लीजिए, वह महज़ एक मज़ाक था। "

लेकिन सीज़ोफ्रेनिया कि रोगी दीपशिखा के दिल में वह मज़ाक गहरे असर कर गया। जिस दिन वे मुम्बई लौटने वाले थे दीपशिखा को पागलपन का पहला दौरा पड़ा। मानो भूचाल आ गया हो जो उसके शरीर के 'जीन' से पैदा हुआ था और जो उसकी दुनिया के अंत की शुरुआत थी। वह ज़ोरों से चीख़ती हुई दरवाज़े पर पड़े परदों में खुद को छिपाने लगी-"गौतम, वे मुझे मार डालेंगे।"

गौतम ने उसे ज़ोरों से सीने में दबोच लिया। वह पंख फड़ाफड़ाती कबूतरी-सी काँपने लगी-"मैंने देखा, वह काली छाया हाथ में चाकू लिये इसी ओर बढ़ रही थी।"

"रिलैक्स... रिलैक्स शिखा, मैं हूँ न। भला किसकी हिम्मत है तुम्हारे नज़दीक आने की। मेरे सुरक्षा कवच में परिंदा भी पर नहीं मार सकता।"

गौतम ने दीपशिखा को पलंग पर लेटाकर कंबल उढ़ाकरथपकियाँदीं... धीरे-धीरे बोझिल तंद्रा में डूब गई दीपशिखा।

ऊटी से बैंग्लोरतक कार से आना था। मुम्बई के लियेबैंग्लोर से ही फ़्लाइट लेनी थी। दीपशिखा कि ऐसी हालत... और रात का सफ़र क्योंकि फ्लाइट सुबह आठ बजे की थी। फोन पर तुषार था-मैं एक टेबलेट का नाम एस एम एस कर रहा हूँ... अगर ऐसा लगे कि अटैक आने वाला है, खिला देना गर्म दूध के साथ। एयरपोर्ट से सीधे क्लीनिक आ जाना। "

"नहीं तुषार, तुम्हें ही मेरे घर आना पड़ेगा। मैं हिम्मत करके दीपशिखा को मुम्बई ला रहा हूँ... मेरे लिये यह बहुत जोखिम भरा है।"

बहुत ही आरामदायक गाड़ी से गौतम दीपशिखा को बैंग्लोर लाया। एहतियात के तौर पर उसने दवा भी ख़रीद ली थी और गर्म दूध थर्मस में भरवा लिया था। बैंग्लोर एयरपोर्ट पर शेफ़ाली को देखकर वह ताज्जुब से भर उठा-"तुम कब आईं?"

"तुम्हारी बातें फोन पर सुन ली थीं मैंने। मैं तुषार की क्लीनिक में ही थी। तुषार ने रात की फ़्लाइट की टिकट अरेंज कर दी। दो बजे से एयरपोर्ट पर तुम दोनों के इंतज़ार में हूँ। कैसी हो दीपू?"

दीपशिखा शेफ़ाली को देख खिल पड़ी। गले में बाहें डालते हुए बोली-"अच्छी हूँ... तू बता... मेरा शरारती कैसा है?" वह शेफ़ाली के पेट पर हाथ फेरने लगी।

"पहले चाय पियेंगे। कुम्हला गई हूँ तेरे इंतज़ार में। फिर चीज़ ऑमलेट खायेंगे।"

"मेरा फेवरेट।"

वे ठिठके से लम्हे नॉर्मल लगे गौतम को। शेफ़ाली को देखते ही दीपशिखा खिल पड़ती है। बचपन की दोस्ती ऐसी ही होती है। गौतमराहत की साँस लेते हुए कुर्सी पर आ बैठा। दोनों सहेलियाँ अकेली ही चाय पीने चली गईं। कुदरत भी क्या रंग दिखाती है। जिस विषय में तुषार ने अपना मेडिकल शोध किया। विशेषज्ञ होकर मुम्बई में नामी डॉक्टर हुआ उसी रोग ने दीपशिखा को आ दबोचा। तभी तो इस रोग की पीड़ा से पूरीतरह वाकिफ़ है शेफ़ाली और अपनी नौकरी में से समय निकाल वह उसकी छाया बनी रहती है।

मुम्बई में गौतम की गाड़ी बाद में पहुँची तुषार पहले पहुँच गया। दीपशिखा ताज्जुब से भर उठी।