लौट आओ दीपशिखा / भाग 1 / संतोष श्रीवास्तव
गुलमोहर के साये में स्थित वह खूबसूरत बंगला जो 'गौतम शिखा कुटीर' के नाम से मशहूर था और जो कभी रौनक से लबरेज़ हुआ करता था आज सन्नाटे की गिरफ़्त में है और उसके भीतरी दरवाज़े और काले स्टील के कंगूरेदार गेट पर सरकारी ताले लटक रहे हैं। शेफ़ाली कितनी बार इस गेट से पार हुई है। बंगले का कोना-कोना उसका परिचित है और उसकी मालकिन मशहूर चित्रकार उसकी बचपन की दोस्त दीपशिखा... उसकीहर अदा, हर ख़ासो आम बात की राज़दार है वह। ज़िन्दग़ी का ये हश्र होगा सोचा न था। ये सरकारी ताले उसके दिमाग़ में अंधड़ मचा रहे हैं। वह तहस-नहस हो जाती है। उसकी नींदें दूर छिटक जाती हैं और चैन हवा हो जाता है। क्याइंसान इतना बेबस-लाचार है? क्या वह सबके होते हुए भी लावारिस और तनहा है?
कितनी दर्दनाक थी वह सुबह जब अलार्म की जगह फोन की घंटी बजी थी... इतनीसुबह! घड़ी पर नज़र गई। आठ बज रहे थे यानी शेफ़ाली ही ज़्यादा सो ली। लौटी भी तो थी हफ़्ते भर के टूर से। शौक ही ऐसा पाला है उसने। चित्रों की प्रदर्शनी के लिए अब बुलावे आने लगे हैं। पाँच साल के आर्यन और तीन साल की प्राजक्ता को घर की देखभाल करने वाली काकी के भरोसे छोड़ वह नौकरी और अपने टूर में व्यस्त रहती है। बीस दिन घर में तो दस दिन बाहर। तुषार को भी बड़े-बड़े केसेज़के इलाज के लिए देश विदेश बुलाया जाता है। बूढ़े सास ससुर की घर में मौजूदगी ही शेफ़ाली की निश्चिन्तता के लिए काफ़ी है। फोन बजकर शांत हो गया था। शेफ़ाली ने एक लम्बी अंगड़ाई लेते हुए हमेशा कि तरह आवाज़ दी–"काकी, चाय।" काकीपाँच मिनिट में चाय बना लाई।
"आर्यन, प्राजक्ता सो रहे हैं क्या?"
"जी भाभी... दो बार गौतम सर का फोन आ चुका है।"
"अरे, ऐसी क्या बात हो गई, देनामेरामोबाइल।" मोबाइल मुश्किल से लगा-"क्या हुआ गौतम? दीपूठीक तो है?"
"सब कुछ ख़तम हो गया शेफ़ाली... मेरी शिखा हमेशा के लिये चली गई।" उसकी आवाज़ पथराई हुई थी।
"क्याऽऽऽ कब, कैसे? अभी बुध की सुबह ही तो हैदराबाद से फोन पर बात हुई थी उससे। मैं आ रही हूँ... गौतम कंट्रोल योरसेल्फ़।"
गौतम शिखा कुटीरका नज़ारा ही कुछ और था। गेट के बाहर पुलिस की जीप और अंदर लम्बे चौड़े कंपाउंड में लोग ही लोग। बीच में स्ट्रेचर पर सफ़ेद कपड़े से ढँकी दीपशिखा कि लाश। खंभे से लगा खड़ा गौतम... बस और सब अड़ोसी, पड़ोसी, पुलिस के आदमी। वह ख़ामोशी से गौतम की पीठ सहलाने लगी। कुछ सूझ नहीं रहा था क्या करें? चकित, व्याकुल और अविश्वसनीय-सी मन की हालत हो रही थी। यह आख़िर हुआ क्या? तभी पुलिस इंस्पेक्टर उसके पास आया-"मैडम, आप इनकी रिश्तेदार हैं?"
"नहीं, मैं इनकी सहेली हूँ।" मुश्किल से कह पाई वह।
"ओ.के., आप इनके सम्बन्धियों को ख़बर कर दें। हम लाश को पोस्टमार्टम के लिये ले जा रहे हैं। बॉडी शाम तक ही मिल पायेगी क्योंकि सभी कानूनी औपचारिकताएँ करनी पड़ेंगी।"
"आप बंगला क्यों सील कर रहे हैं?" शेफ़ाली ने हिम्मत कर पूछा।
"इनके रिश्तेदारों के आने के बाद हमबंगलाखोल देंगे।"
लाशएंबुलेंस में रख दी गई थी। दरवाज़ा धड़ाक् से बंद हुआजैसे सीने पर किसी ने ज़ोर का घूँसा माराहो... तीन दिन पहले तक जीती जागती, फोनपर उससे बतियाती दीपशिखा आज निश्चल बेजान बंगले से ऐसे जा रही है जैसे कोई फ़ालतू सामान, जिसकी अब ज़रूरत नहीं रही। वह भी लगभग सड़ चुकीहालत में। लाश की बदबूकंपाउंड से हवा आहिस्ता-आहिस्ता उड़ा ले चली जितने आहिस्ता इस कंपाउंड के बगीचे मेंलगे फूल महकते हैं। मह-मह... और हवा को रूमानी बना देते हैं। रात को बंगले की सड़क से गुज़रने वाला हर मुसाफ़िर पल भर रुक कर रातरानीकी सुगंध ज़रूरअपनी साँसों में भर लेता है और सुबह की सैर पर निकले लोग पारिजातकी खुशबू को। आज वहाँ सड़ चुके बदन की बदबू है... उन हाथों की जिन्होंने इन फूलों के पौधों को रोपा था।
"वहअगले महीने की बीस तारीख़ को लंदन के डॉक्टर के पास उसे लेकर जाने वाला था। तुषार ने ही अपॉइंटमेंट दिलाया था। मैं ऑफ़िस के कामों में ऐसा उलझा रहा कि जिस वक़्त उसे मेरी सबसे ज़्यादा ज़रुरत थी मैं उससे दूर रहा। मेरे ही साथ क्यों होना था ये सब?"
गौतम की वीरान आँखों में एक रेगिस्तान-सा नज़र आ रहा था... जहाँ सिर्फ़ रेतीले ढूह होते हैं, जीवन नहीं होता। शेफ़ाली गीता के कर्मयोग की हामी... लेकिन इस वक़्त वह भी हिल गई थी अंतरमन के कोने टूटी काँच से झनझना उठे थे। बाजू में खड़ी ग़ज़ालारो रो कर हलकान हुई जा रही थी। "तुम कहाँ थीं तीन दिन से?" शेफ़ाली ने उसके कंधे झँझोड़ डाले थे। वह रोते-रोते बताने लगी-"मालकिन ने मुझे सर के दिल्ली जाते ही बाहर निकालकर यह कहते हुए दरवाज़ा बंद कर लियाकिफ़ौरन घर जाओ... सूनामीआने वाला है। अमेरिका से मेरे पास फोन आया है कि घर से मत निकलना... तुम भी मत निकलना जब तक मैं फोन न करूँ।"
"और तुम उसके फोन का इंतज़ार करती रहीं... बेवकूफ़ जानती नहीं थी क्या किउसका अकेले रहना कितना ख़तरनाक है?"
फिरबरामदे के छोर पर खड़े लॉन की सफाई करने वाले लड़केऔर वॉचमैन दोनों पर बरस पड़ी शेफ़ाली। लड़का थर-थर काँपते हुए बोला-मुझे दो दिन से बुखारआ रहा था। आज सुबह हीसफ़ाई के लिये आया तो देखादरवाज़े के बाहर दूध के पैकेट और अखबार ज्यों के त्यों पड़ेहैं... घंटी बजाई... देर तक बजातारहा। दरवाज़ा नहीं खुला तो मैं वॉचमैन के बूथ की ओर दौड़ा। ये नहीं था वहाँ। "
"अरे थे कैसे नहीं... अब बाथरूम आथरूम के लिये आदमी नहीं जाता क्या? जब तक लौटे यहाँ तो हंगामा मचा था।"
"झूठ बोलता है ये... ये कहीं नहीं था। मैं ही पड़ोसियों को बुला लाया, पुलिस को ख़बर की गई। दरवाज़ातोड़ा गया।"
अकेली मौत से जूझती रही दीपशिखा? इतने नौकर चाकर, गौतम, शेफ़ाली सब के होते हुए भी वह अपनी ज़िन्दग़ी के अन्तिम पड़ाव में नितान्त अकेली पड़ गई। क्या पता पानी के लिए तड़पी हो... क्या पता गौतम को पुकारा हो। गौतमऔर शेफ़ाली टूटी शाख़ों की तरह वहींकुर्सियोंपर गिर पड़े। ग़ज़ाला जल्दी-जल्दीफोन पर सबको ख़बर दे रही थी। मारे पछतावे के उसके आँसू थम नहीं रहे थे। मन कर रहा था अपना सिर दीवाल पर दे मारे। इतने सालों से उसने तन मन से मालकिन की सेवा की। वह उनका मानसिक रोग भी जानती थी फिर भी उनकी बातों में आ गई? सारे किये धरे पर पानी फिर गया। उसने गौतम सर का भरोसा तोड़ा है... अब इस दाग़ को ज़िन्दग़ी भर ढोना है।
बरामदे के खूबसूरत खंभे पर जूही की बेल माशूका-सी लिपटी थी और फुनगियों पर फूल महक रहे थे। गौतम ने खंभे पर अपनासिर टिका दिया। उस पर जैसे जुनून-सा चढ़ गया था-"मेरी शिखा फरिश्ता थी। उसने उस वक़्त मुझे सम्हाला जब मैं अपने अवसाद में गहरे पैबिस्त था। उसने मुझे अपने प्रेम और विश्वासके पंख दिये ताकि मैं अपनी ज़िन्दग़ी में फ़िनिक्स पक्षी की तरह आसमान में उड़ सकूँ। अपनी मानसिक बीमारी के चलते, बल्किपूरी तरह बरबाद हो चुकी खुद की ज़िन्दग़ी के चलते उसने मेरी ज़िन्दग़ी को मक़सद दिया, जीनेका हौसला दिया। आज वह रेशा-रेशा बिखर गई और मैं कुछ नहीं कर पाया।"
शेफ़ालीने उसकी बाँह पर अपना हाथ रखा। पल भर ख़ामोशी रही-"चलो घर चलते हैं, अब यहाँ पुलिस का पहरा है, रुक कर करेंगे भी क्या?"
"मुझे यहीं रहने दो... काश, मैं भी उसके साथ चला जाता इस दुनिया से।"
"चलो, उठो... अब हमारे पास इंतज़ार के सिवा कोई चारा नहीं है।" शेफ़ाली ने उसे सहारा देकर उठाया। ग़ज़ालाने सवालिया नज़रों से शेफ़ाली की ओर देखा। उसकी आँखों में गहरा पछतावा था।
"तुमसुबह शाम बंगले का चक्कर लगा लिया करो। जब देखो ताला खुला है आ जाना।"
वह तुषार के फोन का भी इंतज़ार कर रही थी। घर पहुँचते पहुँचतेफोनआ गया-"चार बजे तक पहुँच जाऊँगा।" तसल्ली हुई। काकी चाय ले आई। गौतम ने खाने से मना कर दिया।
"दो बिस्किट खाकर चाय पी लो गौतम... यही ईश्वर की मर्ज़ी थी... इतना ही जीना था दीपू को... हम कर भी सकते हैं। यहीं आकर सब कुछ फेलहो जाता है और ज़िन्दग़ी से विरक्ति हो जाती है। फिर भी अन्तिम साँस तक तो जीना पड़ेगा न गौतम।"
और गौतम के सब्र का बाँध टूट गया। सुबह से ज़ब्त किये था जिस बाढ़ को वह आँसू बन बह चली। शेफ़ाली ने रो लेने दिया। ज़रूरी था रोना वरना ये बोझ हमेशा के लिए कुंठा में तब्दील हो जाता।
तुषार के आते ही तीनों मुर्दाघर की ओर रवाना हुए। लेकिन लाश मिलने के आसार कम ही नज़र आ रहे थे। पुलिस उनके इस तर्क से सहमत नहीं थी कि दीपशिखा का कोई रिश्तेदार नहीं है हालाँकि अभी तक किसी ने बॉडी क्लेम नहीं की थी। कितनी अजीब बात है कि जो गौतम दीपशिखा के लिए सब कुछ था आज उसी को दीपशिखा कि लाश सौंपने में पुलिस आनाकानी कर रही है क्योंकिकोई सामाजिक या धार्मिक रिश्ते की मोहर उनके सम्बन्धों में नहीं लगी थी। उन्होंने बिना शादी किये जीवन को स्वच्छन्द भाव से जिया था। दोनों बरसों से साथ रह रहे थे। हर पीड़ा, हर खुशी दोनों ने साथ-साथ जी थी। दीपशिखा कि मानसिक बीमारी को लेकर भी गौतम कहाँ-कहाँ नहीं दौड़ा था। देश-विदेश के हर उस डॉक्टर को दिखाया था जहाँ से थोड़ी-सी भी संभावना नज़र आती थी। मगर आज दीपशिखा और गौतम ने पश्चिमी जीवन मूल्यों वाले उस लिव इन रिलेशन की कीमत चुकाई है जिसकी ओर हमारा समाज ललचाई नज़रों से देखता है लेकिन वास्तविक जीवन में कभी स्वीकार नहीं करता। यह कैसी विडंबना है कि सच्चे साथी के बावजूद मृत्यु के समय दीपशिखा के न तो कोई सिरहाने था न पायताने और अब उसके दाह संस्कार के लिये भी सवालउठ खड़े हुए थे। तो क्या जिसकाकोई नहीं होता उसकाकोईसामाजिक महत्त्व नहीं जबकि रिश्तों की आँच में धीमे-धीमे न जाने कितनी ज़िन्दगियाँ सुलगती हैंउम्र भर।
उन्हेंनिराशहोकर लौटना पड़ा था। शाम को बंगले के लॉन पर शेफ़ाली ने कुर्सियाँ लगवा दी थीं और चाय पानी का इंतज़ाम भी करवा दिया था। सना फ़्लाइटसे दो घंटे पहले ही आई थी। अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट्स के सभी सदस्य अपनी-अपनी ज़िन्दगियों में इधर उधर थे। लेकिन कला क्षेत्र के सभी चित्रकार, बॉससहित गौतम का पूरा स्टाफ़इकट्ठा हो चुका था जिनके बीच दीपशिखा कि अजीबोगरीब ज़िन्दग़ी, उसकी मानसिक बीमारी और पागलपन का दबा-दबा ज़िक्र था। ज़िक्र भले ही सब तरह का हो रहा था पर सभी के दिल में दीपशिखा को लेकर सहानुभूति थी।
"सोचना ये है कि बॉडी मिले कैसे?" शेफ़ाली के चेहरे पर इस बात को लेकर काफ़ी तनाव था। जवाब तुषार ने दिया-"मैं वकील से काँटेक्ट करने की कोशिश कर रहा हूँ। वैसे भी पुलिस दो तीन दिन तो इंतज़ार करेगी। अगर फिर भी रिश्तेदार क्लेम नहीं करेंगे तब हमें बॉडी मिल जाएगी।"
कितनी बड़ी त्रासदी थी कि दीपशिखा को अपने घर का एक कोना भी न मिलाजहाँउसकीतस्वीरपर फूलमाला चढ़ाई जाती, दीपक जलाया जाता, अगरबत्ती की पवित्र सुगंध होती। बंगला अँधेरे की गिरफ़्त में था अँधेरे से टूटा अँधेरे का एक टुकड़ा। एक झिलमिलाती लौ तक क़रीब न थी जिसके। दीपशिखा हमेशा चर्चा का विषय रही लेकिन उसकी मौत इतनी ख़ामोशी सेहोगी कितीन दिनों तक किसी को पता ही न चले कि एक चर्चित शख्सियत किसी धूमकेतु की तरह तेज़ रोशनी के साथ आसमान में तो दिखाई देती है लेकिन फिर अँधकार केगर्त में कहाँ विलीन हो जाती है पता नहीं चलता। दीपशिखा मुफ़लिसी से नहीं निकली थी बल्कि नवाबी खानदान से ताल्लुक था उसका। विशाल, समृद्ध कोठी के कीमती खज़ाने की एकमात्र वारिस थी वह। जो पूरे गुजरात में पीपलवाली कोठी के नाम से जानी जाती थी। इसका एक महत्त्वपूर्णकारण और भीथा। दीपशिखा के पिता यूसुफ़ ख़ान जूनागढ़ केनवाब के यहाँ कानून मंत्री थे और माँ सुलोचना अहमदाबाद के करोड़पति व्यापारी की बेटी थीं। दोनों का प्रेम विवाह था जो माँ बाप की मर्ज़ी के बिना हुआ था और जो हिन्दू और मुस्लिम धर्म के कट्टरपंथियों के लिए चुनौती था। शादीके बाद यूसुफ़ ख़ान कोपैतृक संपत्ति से बेदख़ल कर दिया गया था। सुलोचनाको कई बरसों तक मायके की चौखट नसीब नहीं हुई थी। लेकिन फिर धीरेधीरे सुलोचना कि कोशिशों से उनकेमाता पिता ने उन्हें माफ़ कर दिया। वक़्त सबसे बड़ा मलहम होताहै।
एक एक कर बरस बीतते गये पर यूसुफ़ ख़ान के घर औलाद के दर्शन नहीं हुए। सुलोचना ने न जाने कितनी मन्नतें कीं, कितने मंदिरों में माथा टेका... यूसुफ़ के साथ पीर औलिया, मज़ार, दरगाह... कहाँ नहीं गईं। गंडा ताबीज़से बाँहें भरी रहतीं... कि एक दिन सब्र का अंत हुआ और चौदह बरस बाद सुलोचनागर्भवती हुईं। यूसुफ़ ने हिफ़ाज़त बरतने के ख़याल से उन्हें बुज़ुर्गवार फ़ातिमा बेगम और दाई की निगरानी में रखा। जिस दिन से बाहर निकलकर दाई ने सूचना दी-"बेटी हुई है।" यूसुफ़ख़ान के घर में मानो जन्नत उतर आई। पीपलवाली कोठी खुशियों से लबरेज़ हो गई। शहनाईयाँ बजीं, मिठाईयाँ बँटी। पीपलवाली कोठी हिन्दू मुस्लिम तहज़ीब का मिला जुला संगम थी। जहाँ होली, दीपावली, दशहरा आदि त्यौहार भी उतनी ही धूमधाम से मनाए जाते थे जितनी कि ईद, बकरीद आदि। यूसुफ़ ख़ानयूँ तो प्रगतिशील विचारों के थे पर अपनी बेटी को लेकर बेहद अंतर्मुखी थे। उन्हें लगता था दीपशिखा के रूप में उनके वैवाहिक जीवन के चौदह बरसों के औलादहीनवनवास का जो ख़ात्मा हुआ है उसमें खुदा कि मर्ज़ी और उनकी मन्नतें, दुआएँहैंलेकिनवक़्त इतना अधिक निकल चुका था कि वे एक-एक क़दम फूँक-फूँक कर रखते थे। दीपशिखा नाज़ नख़रों में पाली जाने लगी। फिर भी सुलोचना सतर्क रहतीं, कहीं इतनी नाज़ुक न हो जाए कि ज़िन्दग़ी केधूपपाले में कुम्हला जाये। लिहाज़ा उसके लिए तैराकी, नृत्य, घुड़सवारी और योगा के विशेषज्ञ नियुक्त किये गये। दीपशिखा सीख तो रही थी पर उसका मन चित्रकला में रमता था। छोटी-सी उम्र में ही वह पेंसिल स्केच में माहिर हो गई।
"तुम्हारी बेटी तो चित्रकार है यूसुफ़ और चित्रकार है तो भावुक भी होगी जोऔरत के लिए बड़ानुकसानदेहहै।"
"क्यों... यह तो अच्छी बात है। दूसरों के दुख दर्द समझेगी।"
"और फिर उस दुख दर्द को अपने मन पर लेगी, ज़राज़रासी बात में हर्ट होगी... अभी से ये सारे लक्षण दिखाई दे रहे हैं... छोटी-छोटी बातों को दिल पर लेना इंसान को कुंठित कर देता है।"
यूसुफ़ ख़ानहँस पड़े। अपनीखूबसूरत पत्नी की नाक दबा कर बोले-"जैसी तुम, वैसी तुम्हारी बेटी।"
पीपलवाली कोठी की दिनचर्या आम ज़िन्दग़ियों जैसी नहीं थी। वहाँ सूरज उगता अपनी मर्ज़ी से था लेकिन ढलता हुआ मानो थम-सा जाता था क्योंकि शाम यूसुफ़ ख़ान और सुलोचना के लिए बारह बजे रात तक रुकी रहती थी। दोनों ही शेरो शायरी के शौक़ीन थे। यूसुफ़ ख़ान खुद बेहतरीन ग़ज़लें लिखते और जब महफिलों में उन्हें पढ़ते तो वाह-वाह-मुक़र्रर की दाद मिलती। चाय कॉफी के दौर चलते। सुलोचना उनके शौक़ में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थीं। दीपशिखाकीआँखों से भी नींद उड़ी रहती। वह यूसुफ़ख़ानकी सिंहासन जैसी कुर्सी के इर्द गिर्द मंडराती रहती। इतनी छोटी-सी उम्र खिलौनों की जगह ग़ज़लें?
"यूसुफ़... बेटी की फ़रमाइश सुनी तुमने? दूध के दाँत तक तो टूटे नहीं अभी तक और..."
"तुम्हारीतिलस्मी कहानियों से तो बेहतर है किएकराजकुमारी थी जो उस राजकुमार का इंतज़ार करती थी जो सफ़ेद घोड़े पर बैठकर एक दिन आयेगा और राजकुमारी को विदा कराके ले जायेगा... बस एक ही मक़सदज़िन्दग़ी का शादी... और पति से तमाम इच्छाओं की पूर्ति... बाप तो नाकारा है, कुछ कर ही नहीं सकता।"
"यूसुफ़, मैंने ऐसा कब कहा?"
यूसुफ़ ने दीपशिखा को बाँहों में भर लिया-"हमारी दीपू लाखों में एक है।"