लौट आओ दीपशिखा / भाग 20 / संतोष श्रीवास्तव
"तुम हमारे बिना यहाँ बोर नहीं हो रहे? गज़ाला, दरवाज़ा बंद करो पहले... 'सी आई ए' हम लोगों के पीछे लगी है। कभी भी मार सकती है वह हमें।"
दीपशिखा फिर बहकने लगी। शेफ़ाली उसकी कमर में बाँहें डाल उसे सोफ़े तक ले आई-"तो क्यों इतनी खूबसूरत हो कि दुनिया का हर शख़्स तुम्हें न पानेके गुस्से में मार डालना चाहता है।"
शेफ़ाली ने कुछ इस लहज़े में कहा कि सभी हँस पड़े।
"थकी हो दीपशिखा... इस इंजेक्शन से तुम्हें नींद आ जायेगी।" कहते-कहते इंजेक्शन बाँह में चुभ चुका था। थोड़ी ही देर में उसकी पलकें झपकने लगीं।
"मुश्किल समय है गौतम। दीपशिखा को अटैक आने शुरू हो गये हैं... ऐसी स्थिति में पागलपन के चाँसेज़ भी बढ़ जाते हैं।"
"तुम तो कह रहे थे कि चेंज से फ़र्क पड़ेगा? यहाँ तो उल्टा ही हुआ। पहले कभी अटैक नहीं आया था।"
तुषार सोच में पड़ गया। ऐसाहोना तो नहीं चाहिए। लेकिन जब दिवाकर की ज्योतिष सम्बन्धी बात पता चली तो उसने माथा ठोंक लिया-"दिखाया क्यों उसे हाथ? ऐसी बातों से इसे दूर रखना है। मामला बहुत नाज़ुक है। किसी भी तरह कीउल्टीसीधी बातें दिमाग़ पर भारी प्रेशर डाल सकती हैं।"
गौतम अफ़सोस से भर उठा-आय' म सॉरी यार, बड़ीग़लती हो गई मुझसे। "
दीपशिखा गहरी नींद में थी। शेफ़ाली और तुषार के जाने के बाद वह उसे गोद में उठाकर बेडरूम में ले आया। बिस्तर पर लेटाकर चादर उढ़ा दिया। उसके नज़दीक ही बैठ गया। कैसे ठीक होगी दीपशिखा? अब क्या पूरी ज़िन्दग़ी ऐसे ही जीनी पड़ेगी? वहधैर्य खो चुका था। उसके आँसू टप-टप तकिया भिगोने लगे।
समय गुज़र तो अपनी रफ़्तार से रहा था लेकिन गौतम को लग रहा था जैसे वह धीरे-धीरे, रुक-रुक कर गुज़र नहीं रहा बल्कि सरक रहा है। दिन बोझिल हो चुके थे। दीपशिखा ने पेंटिंग करना छोड़ दिया था... वह तो लाल रंग देखकर ही डर जाती। घर से लाल रंग की हर वस्तु हटा दी गई। गज़ाला को सख़्त हिदायत थी कि वह कभी लाल रंग की पोशाक पहनकर घर न आए। कोई भी कुरियर वग़ैरह भी खुद ही साइन करके ले लिया करे क्योंकि दीपशिखा शक़ करने लगती कि उसके हस्ताक्षर पहचानने के लिए तो कहीं इस कुरियर वाले को किसी ने रिश्वत देकर भेजा है। घर में कोई भी उससे मिलने आता तो वह संदेह भरी नज़रों से उसे देखने लगती। थोड़ी देर बाद उदास-सी धुन में बोले जाती-"कितनी जानें गईं, कितने घर बरबाद हुए। इस सबके पीछे किसी बड़ी साज़िश से इंकार नहीं किया जा सकता।"
दीपशिखा कि मानसिक बीमारी की ख़बर न जाने कैसे मीडिया तक पहुँची और अखबार की सुर्खियाँ बन गई। लोगों ने फोन पर उसकेहालचालजानना शुरू कर दिया जिन्हें ज़्यादातर गज़ाला ही अटैंड करती। दीपशिखा के मोबाइल का सिम तुषार ने बदल देने की सलाह दी थी ताकि कोई भी उसे परेशान न करे। वह शेफ़ाली के नवजात शिशु के नामकरण के दिन अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट्स के कुछ सदस्यों से मिली थी। सैयद चचा भी आये थे। वे दीपशिखा कि बीमारी से ग़मगीन नज़र आ रहे थे। बाद में वे स्टूडियो का काम छोड़कर गाँव चले गये थे। लेकिन हमेशा के लिये अपनी याद 'आर्यन' के रूप में छोड़ गये थे। शेफ़ाली के बेटे का नाम 'आर्यन' उन्होंने ही रखा था।
शेफ़ाली के बेटे के लिए एक पार्टी दीपशिखा ने भी अपने घर रखी थी। एकअच्छे से 'गेट टु गेदर' का इंतज़ाम टेरेस पर किया गया था। दीपशिखा ने पर्शियन व्यंजन की किताब से पढ़कर अपने हाथों से ठंडा पेय बनाया था और वेलकमड्रिंकके रूप में गुलाब की पंखुड़ियों से सजाकर मेहमानों को पेश किया था। पर कड़वे स्वाद के कारण सबने एक-एक घूँट पीकर गिलास रख दिया। दीपशिखा ने अपनी समझ से तो ठीक बनाया था... ज़रूरगज़ाला ने ही उसमें कोई कड़वी चीज़ मिला दी थी। सबके जाने के बाद वह गज़ाला पर बरस पड़ी-"हमें मार डालना चाहती हो तुम? आज कड़वी चीज़ मिलाई है, कल ज़हर मिला दोगी तो हम क्या करेंगे? तुम अब किचन में नहीं जाओगी। खाना मैं खुद बनाऊँगी।" गज़ाला सफ़ाई देना चाहती थी पर गौतम ने उसे इशारे से मना किया। बाद में अलगले जाकर समझाया-"बीमार इंसान की बात का बुरा क्यों मानती हो? तुम तो समझदार हो?"
"लेकिनमेमसाब ने मुझ पर शक़ क्यों किया?"
"यही तो बीमारी है उनकी। हमें खुद ही समझकर रहना होगा।" दीपशिखाढेर सारी व्यंजन की किताबें ख़रीद लाई कभी पकाया तो कुछ था नहीं, आता ही नहीं था पकाना। जो भी उल्टा सीधा, कच्चापका बनाती गौतम खा लेता। तारीफ़ भी कर देता।
"बहलाते हो मुझे। ये पुलाव बना है? जले हुए चावलों का बकबका स्वाद और तुम तारीफ़ किये जा रहे हो?" दीपशिखारुआँसी हो जाती।
"अरे जानेमन, अब हम तुम्हें देखें कि पुलाव को? हमें और कुछ सूझता ही नहीं तुम्हारे सिवा।" दीपशिखा पहले तुनक जाती फिर मुस्कुराती और फिर सहम जाती।
दिनपीछे की ओर क्यों नहीं लौटते? क्यों नहीं वे खुशनुमा बातें, मुलाकातें, प्यार के हसीन लम्हे... वे आवारा उड़ानें वापिस लौट आतीं जिनमें दीपशिखा थी और गौतम... दीपशिखा ने अपनी मंज़िल हासिल कर ली थी और जद्दोजहद गौतम को धरातल देने की थी। दीपशिखा ने क्या कुछ नहीं किया उसके लिये पर आज वह असहाय है। कुछ कर नहीं पा रहा है दीपशिखा के लिए। वह उसकी आँखों के सामने घुल रही है और वह लाचार... उफ़।
दीपशिखा कि खूबसूरत शख़्सियत... ब्रश और रंगों का कैनवास पर कमाल... वह मोहक, उद्वेलितकरती उसकी चित्र श्रृँखलाएँ... कहाँ थम गया वह सिलसिला?
"गौतम तुम्हें पीपलवाली कोठी की याद है? कोठी के वह फूलों भरे बगीचे जहाँ छुटपन में मैं शेफ़ाली के साथ तितलियाँ पकड़ती थी?"
गौतम व्याकुल हो गया, उसके बाल सहलाते हुए बोला-"याद है न... लेकिन अब वह हमारा नहीं रहा और जो हमारा नहीं रहा उसे याद करने से क्या फ़ायदा?"
"तुम तो बड़े मतलबी निकले? क्यों न याद करूँ? मुझे तो वह बरगद का दरख़्त भी याद है जो कोठी के कोने में लगा था। वह पहले बोनसाई था। माँ ने उसे एकदम छोटे से चौकोर गमले में लगाकर उसकी जड़ों को लोहे के तारों से बाँध दिया था। वे उसे सजाने के लिये संगमरमर के सफ़ेद पत्थर भी ख़रीद लाई थीं। मुझे तो बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था कि एक क़द्दावर प्रजाति के दरख़्त को छोटे से गमले में बाँध बूँधकर-काट छाँट करके लगा दो। मैंने तो माली काका से ज़िद्द करके उसे कोठी के कोने में लगवा दिया था। हमें क्या हक़ है पेड़ों को बौना करने का।"
दीपशिखा बोलते-बोलते खुद भी थक गई थी और गौतम को भी थका डाला था। वैसे वह कमज़ोर भी बहुत हो गई है। गौतम ने ठंडे पानी में ग्लूकोज़ घोलकर पिलाया। धीरेधीरे दीपशिखा कि आँखें मूँदने लगीं।
गौतम एकटक उसे देखता रहा... दीपशिखा तुमने मुझे ज़िन्दग़ी और प्यार की तीव्र उत्तेजनाओं का एहसास कराया, अनुभव कराया। आज तुम दिमाग़ी असंतुलन के दलदल में फँसी हो। क्या करूँ मैं... आह।
पहले दीपशिखा को ज़िन्दा लोगों को लेकर डर था, अब अदृश्य साये और भूत प्रेत के ख़याली दृश्य भी उसे डराने लगे थे। सपने में उसे पीपलवालीकोठी की जगह पीपल के विशालकाय दरख़्त और उन पर उल्टे लटके प्रेत दिखाई देने लगे। वह चौंककर जाग जाती और गौतम से बेतहाशालिपट जाती। कुछ न पूछता गौतम। जानता है पूछेगा तो न जाने क्या-क्या बताने लगेगी दीपशिखा। कैसे जिये गौतम? जैसे कई-कई रातें एक साथ इकट्ठी होकर अँधेरे को बहुत अधिक पुख़्ता कर गई हों उसके जीवन में और उजाले की एक किरन की भी उम्मीद शेष न बची हो। भयानक, तेज़ आँधियाँ उसे कँपा रही हैं और वह डाल से टूटे पत्ते-सा कभी इधर तो कभी उधर डोल रहा है। न ठीक से जी पा रहा है और न...
पर ज़िन्दग़ी के अपने तकाज़े हैं... तकाज़े न हों तो ज़िन्दग़ी कैसी? मुम्बई से बाहर ऑफ़िस के टूर में उसे जाना पड़ता है। दीपशिखा के पास चौबीसों घंटे किसी का रहना ज़रूरी है, पर वह गौतम के सिवा किसी को टिकने नहीं देती। एक शेफ़ाली है जिसे दीपशिखा हर वक़्त अपने साथ चाहती है। पर उसकी भी घर गृहस्थी... आर्यन और प्राजक्ता कि देखभाल... नौकरी सभी में व्यस्तता है। फिर भी वह आड़े दूसरे समय निकाल कर आ ही जाती है।
पेंटिंग बनाना तो पहले ही बंद हो चुका था। अब दीपशिखा किताबें पढ़ने में खुद को व्यस्त रखने लगी है। न जाने कहाँ से किप्लिंग की 'फेंटम रिक्शा' उसके हाथ लग गई। जैकब और एग्निस की प्रेम कहानी। जैकबको एग्निस बहुत ज़्यादा प्यार करती थी लेकिन जैकब बेवफ़ा निकला। उसने एग्निस को अपने प्यार के जाल में फँसाकर बाद में धोखा दे दिया। उसकी बेवफ़ाई के ग़म मेंएग्निसमर गई, मर कर भूत बन गई। जब भी जैकब छोटा शिमला रोड से गुज़रता वह एक रिक्शे में एग्निस को बैठी पाता। रिक्शे से एग्निस उसे झाँककर देखती नज़र आती। कहानी दीपशिखा के दिलको छू गई। अगर गौतम उसकी ज़िन्दग़ी में नहीं आता तो वह भी एग्निस की तरह नीलकांत की बेवफ़ाई के गम में मरकर भूत बन जाती। दीपशिखा घबराकर लॉन में निकल आई। एग्निस उसका पीछा करती रही। उसे लगा सामने सड़क पर भूत रिक्शा जा रहा है और उसमें से एग्निस झाँक रही है। डर के मारे आँखें मूँदकर वह लॉन पर रखी कुर्सी पर बैठ गई। फूलों की खुशबू हवा में समाई थी।
गौतम चार दिन के टूर पर दिल्ली गया था और शेफ़ाली भी हैदराबाद में अपने चित्रों की प्रदर्शनी के लिये गई थी। दोनोंकी याद में दीपशिखा बेचैन थी। एकाएक हवाएँ तेज़ चलने लगीं। दीपशिखा घबरा गई ऐसी हवाएँ तो सूनामीके वक़्त चलती हैं... कहीं सूनामी तो नहीं आने वाला है। गज़ाला ने पास आकर कहा-"मालकिन, खाना खा लो फिर दवा का वक़्त हो जायेगा।"
अचानक वह तमककर उठी-"दवा खिला-खिलाकर मुझे मार डालना चाहती है? सब मेरी जान के दुश्मन हो गये हैं। कोई भी मेरा अपना नहीं है।"
गज़ाला डर गई। मालकिन को फिर पागलपन का अटैक आने वाला है सोचकर वह गर्म दूध और दवा लाने किचन की ओर तेज़ी से मुड़ी।
तभी तेज़ अँधड़ में चंपा के पेड़ की डाल टूटकर गिरी... "आ गया सूनामी... घर जा अपने... तेरा घर समंदर के किनारे है। खूब अच्छे से दरवाज़ा बंद कर लेना और तब तक घर से बाहर मत निकलना जब तक मैं फोन न करूँ।"
उसकी आँखें और चेहरा हमेशा कि तरह सफ़ेद पड़ गया था।
"और आप?"
"मुझे क्या होगा। अमेरिका के राष्ट्रपति ने मुझे पहले ही फोन करके आगाह कर दिया है कि घर से न निकलूँ। तू भी मत निकलना।"
डर गई गज़ाला... इस समय तो गौतम भी नहीं है, इससमय यहाँ से चले जाने में ही भलाई है। उसके जाते ही दीपशिखा ने बंगले के सारे दरवाज़े बंद कर लिये। हवाएँ साँय-साँय चलती रहीं। वह बिना खाये पिये मुँहतक कंबल ओढ़े लेती रही। उसकी धड़कनेंउसे साफ़ सुनाई दे रही थीं। गला सूख रहा थापर हिम्मत नहीं थी कि पानी लेकर पिये। मोबाइल की आवाज़ ने उसे चौंका दिया। थरथराते हाथों से उसने मोबाइल थामा-"शिखा, खाना खाया?"
गौतम की आवाज़ से वह आश्वस्त हुई... "नहीं, तुम जल्दी आ जाओ।"
"रिलैक्स प्रिंसेज़... खाना खाकर आराम से सो जाओ। मैं आ रहा हूँ न जल्दी।"
"तुम भी खा लो, मुझे पता है तुमने नहीं खाया है।"
औरवह मोबाइल को चूमने लगी-"आई लव यू गौतम, नहीं रह सकती तुम्हारे बिना। कल सुबह तक नहीं आये तो जान दे दूँगी अपनी।"
"वो तो तं कब से दे चुकीं। मेरी बेग़म की जान मुझ नाचीज़ के दिल में समा चुकी है।"
दीपशिखा कि हँसी में खनक थी। पर यह हँसी हमेशा वाली हँसी नहीं लगी गौतम को। उसे लगा जैसे कुछ छूट रहा है कुछ अपना बहुत अज़ीज़... घबरा गया वह... ये क्या सोचने लगा? क्यों सोचने लगा? कहीं ये नियति का संकेत तो नहीं? सारी रात वह करवटें बदलता रहा लेकिन चाहकर भी वह तीन दिन से पहले नहीं पहुँच पायेगा मुम्बई।
गौतम के फोन रखते ही दीपशिखा पलँग से उठकर टहलने लगी थी। उसे लगा जैसे एग्निस की रूह की तरह वह हलकी होकर हवा में तैर रही है। रूह के क़ातिल कई सारे चाकू, खँजर उसकी ओर बढ़ रहे हैं... कभी वह माँ की गोद में सर छुपा लेती है, कभी गौतम के सीने में। दंगाई उसे चारों ओर से घेर चुके हैं, उनकेहाथों में जलती मशालें हैं। अचानकदंगाईयों के चेहरे नीलकांत के चेहरे में परिवर्तित होने लगे। दीपशिखा का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसनेपलँग पर लेट कर अपना चेहरा तकिये में छिपा लिया... अंतिम सहारे के लिए।
आख़िर'गौतम शिखा' कुटीर से सरकारी ताला हटा लिया गया। तीन दिन तक लावारिस पड़े बंगले में जब दीपशिखा का अन्तिम संस्कार करके गौतम ने शेफ़ाली और तुषार के साथ कदम रखा तो एक मनहूस सन्नाटा बंगले को अपनी गिरफ़्त में लिये था। गौतम का बंगले के फर्श पर पड़ता हरक़दम आँसू बनकर उमड़ रहा था उसकी आँखों में। बयालीस साल की छोटी-सी उम्र और मात्र दस वर्षों का साथ। दीपशिखा सचमुच दीप की शिखा के समान उसके अँधेरों को उजाला सौंप विलीन हो गई।
दीपशिखा कि बड़ी-सी तस्वीर के सामने जलता दीपक और लाल कपड़े से बँधा अस्थि कलश... इतनी-सी ज़िन्दग़ी के इतने बीहड़ रास्ते... इतनी उठापटक... इतनी नफ़रत, दुश्मनी... गौतमदीवानपर बुत बना बैठा था। गज़ाला ने पूरा बंगला धोया था और अब सबके लिये चाय बना रही थी। दीपशिखा और गौतम के दोस्त एक-एक कर आना शुरू हो गये थे। बारह बजे अस्थि विसर्जन होगा। शेफ़ालीवाल्केश्वर में बाणगंगा के तालाब में अस्थिपुष्प विसर्जित करना चाहती थी लेकिन गौतम ने वर्सोवा जाना तय किया-"दीपशिखा ये सब कर्मकांड नहीं मानती थी। वह कहती थी समुद्र से अधिक पावन पवित्र तो कहीं का जल हो ही नहीं सकता। सारी नदियाँ समुद्र में ही तो आकर मिलती हैं।"
तुषार वर्सोवा जाकर पहले से एक नाव तय कर आया था। अस्थिकलश लेकर जब सब वर्सोवा पहुँचे, आसमान पर बादल घिर आये थे और समुद्र की लहरें काफ़ी तेज़ उछल रही थीं जैसे तूफ़ान आने वाला हो। नाव मछुआरों वाली थी। एक नाव में छै: से ज़्यादा लोग बैठ ही नहीं सकते थे। गौतम बैठा नहीं बल्कि कलश लिए खड़ा रहा। नाव हिचकोले खाती समुद्र पर तैर रही थी। शेफ़ाली को डर था कहीं गौतम गिर न जाए लेकिन उसने अपने को डाँवाडोलहालत में भी खूब साध कर रखा। तीन कि।मी। तकनाव खेने के बाद केवट ने चप्पू चलाने बंद कर दिये। कलश गौतम, तुषार, शेफ़ाली और सना ने पकड़ कर लहरों में छोड़ दिया। कलश ने डगमग डोलकर एक गोल परिक्रमा कि और धीरे-धीरे जल में समाता चला गया। गौतम ने अंजलि में जल लेकर डबडबाई आँखों से छुआया और तुषार के कंधे पर अपना सिर टिका दिया-"मैंबिल्कुल अकेला रह गया तुषार।"
तुषार और शेफ़ाली उसकी पीठ थपथपाते रहे। नाव दीपशिखा के बिना तट की ओर लौटने लगी। अचानक काले सफेद पर वाले परिंदे क्वें-क्वें की तीव्र आवाज़ करते लहरों पर मँडराने लगे। उनमें से एक की चोंच में वह लाल कपड़ा था जो कलश के मुँह पर बाँधा गया था। लहरेंउसे किनारे की ओर ले आई थीं और अब वह परिंदे की चोंच में दबा था।
"दीपशिखा लाल रंग से डरती थी। अपने अन्तिम सफ़र में भी वह लाल रंग संग नहीं ले गई।"
गौतम देर तक तट पर खड़ा रहा। जैसे मेला ख़तम हो जाने के बाद मेले में लुट चुका मुसाफ़िर हो।