लौट आओ दीपशिखा / भाग 2 / संतोष श्रीवास्तव

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दीपशिखा सचमुच बेमिसाल थी। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि और संवेदनशीलता वस्तुओं की सूक्ष्मपकड़ ने उसे कैनवास थामने पर मजबूर कर दिया। ब्रश, रंग, थामते ही अनोखे दृश्य बिम्बों की रचना ने पीपल वाली कोठी में उसके नाम को लेकर खलबली मचा दी। एक दिन माली काका ने क्यारियाँ साफ़ करते हुए बताया था-"पहले इस जगह पीपल ही पीपल के झाड़ थे। ऊँचे-ऊँचे घने झाड़ों वाले जंगल में शाम और रात की तो छोड़ो दिन में भी यहाँ से गुज़रने में लोग डरते थे।"

"क्यों? इसमें डरने की क्या बात है?" दीपशिखा ने चकित होकर पूछा।

"पीपल के झाड़ में भूतों का वास होता है, ब्रह्मराक्षस रहता है उस पे।"

"ब्रह्मराक्षस? वह क्या होता है?"

"रहनेदो बिटिया, रात में डरोगी नाहक।"

"नहीं डरूँगी, बताओ न काका।"

क्यारियों में कचरा इकट्ठा हो गया था, उसे डलिया में भरकर माली गेट के बाहर रख आया। दीपशिखा ने ज़िद्द पकड़ ली "बताओ न माली काका।"

माली ने तम्बाखू हथेली में मलकर फाँकी और बड़ी कैंची से क्रोटन को शेप देने लगा-"जिन लोगों कीपुराण, शास्त्र पढ़ने की इच्छा होती है और बिना पढ़े ही अकाल मर जाते हैं वह ब्रह्मराक्षस बनकर पीपल में वास करते हैं। किसीको डराते थोड़ी हैं, पैर ही नहीं होते उनके। वह तो अपना ही नर्क भोगते पड़े रहते हैं। ये जगह ही ऐसी है। हर साल एक न एककी बलि लेती है। पिछले साल भटनागर का लड़का स्कूटर एक्सीडेंट में मर गया। वह तो हमारे साहब का जिगरा है जो यहाँ रहते हैं। तमाम झाड़ कटवा के कोठी बनवाई। इसीलिए तो इसका नाम रखा पीपलवाली कोठी। बड़ा भारी यज्ञ कराके बनी है ये कोठी। सब भूतों का उद्धार हो गया।"

दीपशिखा को बाकी कुछ समझ में न आयाहो पर भूतोंके बारे में अच्छे से समझ में आ गया। कई बार दाई माँ भी भूत प्रेतों की कहानी उसे सुनाती है। उसने अपने कमरे की दीवारों पर सुंदर-सुंदर चित्र उकेरे हैं, लेकिन आज वह पीपल के पेड़ों पर भूतों के चित्र बनाएगी।

सुबह सुलोचना जब दीपशिखा को उठाने उसके कमरे में आईं तो देखा कोने की दीवार पर पीपल के पेड़ों की डालियों पर बिनापैरों वाले इंसानों की आकृतियाँ... अस्पष्ट सी... जैसे ढलते सूरज केउजाले में परछाईयाँ लम्बी-लम्बी दिखती हैं... कुछवैसी सी। दीपशिखा जाग चुकी थी। उसके रेशमी मुलायम बालों को उसके चेहरे पर से हटाते हुए सुलोचना ने उसे चूम लिया-"गुडमॉर्निंग माँ।"

"गुडमॉर्निंग... दीपू... ये दीवार पर तूने क्या चित्रकारी की है?"

"माँ... वह भूत हैं... ब्रह्मराक्षस।"

सुलोचना ने चौंककर ध्यान से चित्रों को देखा और दीपशिखा का चेहरा अपने सीने में दबोच लिया-"मेरी नन्ही प्रिंसेज़ भूत कुछ नहीं होता। भूत यानी गुज़र चुका कल... और जो गुज़र चुका उसके लिये क्यों सोचा जाए?"

लेकिन छोटे से मन में डर का बीजारोपण हो चुका था।

ग्रीष्मावकाश के बाद स्कूल खुलते ही दीपशिखा कि क्लास में एक नया चेहरा था। भोलाभाला, बड़ी-बड़ी हिरनी-सी चंचल आँखों वाला-"मेरा नाम शेफ़ाली है, क्या तुम मेरी दोस्त बनोगी।"

"दोस्त बनाए नहीं जाते हो जाते हैं। हम भी अच्छे दोस्त हो सकते हैं।" दीपशिखा ने कहा।

क़द की ऊँचाई के हिसाब से क्लास टीचर ने दोनों को साथ-साथ एक ही बैंच पर बैठाया था। धीरे-धीरे दोनों में आत्मीयता बढ़ती गई। ड्रॉइंग का पीरियड होते ही दोनों चहक पड़तीं। दोनों ही चित्रकला कि शौक़ीन... उनके चित्रों की जब तारीफ़ होती और एक्सीलेंट का रिमार्क मिलता तो स्कूल की छुट्टी होते ही दोनों चिड़िया-सी उड़ने लगतीं। दीपशिखा कि गाड़ी गेट के बाहर उसका इंतज़ार करती और वह डूबते सूरज का पीछाकरती... कभी पेड़ बीच में आ जाते या बादल का टुकड़ा सूरज को अपने दामन में छिपा लेता तो वे वहीं रुक जातीं... "देखो, सूरज हार गया। हमसे डर कर छिप गया।" दीपशिखा शेफ़ाली का हाथ थाम लेती... वे लौट पड़तीं और शाम होते-होते ड्राइवर पहले शेफ़ाली को उसके घर छोड़ता फिर दीपशिखा को।

दीपशिखा पढ़ाई में शेफ़ाली से तेज़ थी। लेकिन विज्ञान और गणित में शेफ़ाली। दीपशिखा कि रूचि साहित्य, नृत्य, नाटक, चित्रकला में बहुत अधिक थी। स्कूल की पढ़ाई में उसने शहर के सभी स्कूलों के छात्रों में टॉप किया था और कॉलेज में भी वह हर परीक्षा में अव्वल रहती थी। शेफ़ालीको घर का माहौल आगे बढ़ने से रोकदेता। उसके पिता एक दुर्घटना में चल बसे थे और माँ का पूरा बायाँ अंग लकवाग्रस्त था। घर बड़े भाई के कंधोंपर था। शेफ़ाली, उसकी बड़ी बहन और माँ... ख़रामा-ख़रामा उसके भाई का स्वभाव रुखा और चिड़चिड़ा-सा हो गया था। इन सब बातों को दीपशिखा गहरे महसूस करती। वह अधिक से अधिक शेफ़ाली को खुश रखने की कोशिश करती... ऐसे ही एक खुशहाल दिन दीपशिखा ने पार्क में टहलते हुए कहा-"मैं चित्रकला में सिद्धहस्त होना चाहती हूँ। मुम्बई के जे.जे.स्कूल ऑफ़ आर्ट्स से चित्रकला में डिप्लोमा लेना चाहती हूँ।"

दोनों पार्क की बैंच पर बैठ गईं। लॉन में कुछ बच्चे बड़ी-सी गेंद से खेल रहे थे और उनकी माँओं के आसपास गुब्बारे वाले मंडरा रहे थे।

"यानी बी. ए. के बाद पढ़ाई बंद।"

"नहीं, प्राइवेट एम. ए. करूँगी।"

"दीदी भी मुम्बई में नौकरी के लिए ट्राई कर रही है। अगर दीदी की नौकरी लग गई तो मैं भी मुम्बई आकर चित्रकला का डिप्लोमा लूँगी।"

सुनकर दीपशिखा खिल पड़ी-"तू आयेगी तो क्या कहने। वैसेआँख मूँदकर हम डिग्रियाँ हासिल करते रहें उससे बेहतर है अपना लक्ष्य पहले से निर्धारित कर लें। कामयाबीतभी मिलती है। मैं आज ही माँ से बात करूँगी।"

लेकिन यह बात इतनी आसान नहीं थी। मुम्बई में सुलोचना के रिश्तेदार तो थे पर उनकी अन्तर धर्म शादी से वे नाराज़ थे और नाता तोड़ चुके थे। यूसुफ़ख़ान तनावग्रस्त हो गये-"अकेली कहाँ रहेगी वह? इकलौती संतान... कारोबार ऐसा कि खुद मुम्बई जाकर नहीं बसा जा सकता।" सुलोचना भी सोच में पड़ गईं। दीपशिखा को इंकार किया जा सकता था पर इससे उसके अंदर पनप रहा कला का अंकुर ख़त्म हो जायेगा... हो सकता है यह बात वह अपने मन पर ले ले... तब? रात भर दोनों के बीच विचार विमर्श चलता रहा। माँ बाप के नज़रिये से उसका साथ देना ज़रूरी था। तय हुआ पहले प्रवेश परीक्षा दे दी जाये फिर आगे की योजना पर विचार हो।

दीपशिखा को जे.जे. स्कूल में प्रवेश मिल गया। इस बीच यूसुफ़ ख़ान ने देखभाल कर बेहतरीन सोसाइटी में फ्लैट ख़रीद लिया। कुछ महीने सुलोचना वहाँ रहकर सब व्यवस्थित कर दें फिर दाई माँ और उनके पति महेशचंद्र को उसके संग रखा जाए। इतनी सुन्दर व्यवस्था के बारे में सुनते ही शेफ़ाली उछल पड़ी थी-"तब तो मेरा मुम्बई आना पक्का। दीदी की नौकरी नहीं भी लगी तो मैं तेरे साथ रह लूँगी।"

सुलोचना के साथ दीपशिखा मुम्बई आ गई। जुहू में समंदर की ओर खुलती खिड़कियों और बालकनी वाला पाँचवी मंज़िल पर स्थित उसका फ्लैट खूब खुला और हवादार था। तीन बेडरूम, बड़ा-सा हॉल, किचन, बालकनियाँ... औरबिल्डिंग के कंपाउंड में नारियल, बादाम और अशोक के दरख़्तों की गझिन हरियाली। गेट पर बोगनविला कि सघन लतर हमेशा सफेद, मजंटा रंग के फूलों से लदी रहती थी। बहुत खुश थी दीपशिखा इस माहौल में और उसकी खुशी पर निहाल थीं सुलोचना। क्लासेज़ से लौटकर दीपशिखा बालकनी में ईज़ी चेयर पर बैठकर समंदर की लहरों को गिना करती और फिर शेफ़ाली को फोन पर दिन भर का समाचार देती। धीरे-धीरे रात की चहल पहल के संग समंदर का काला जल अद्भुत सम्मोहन पैदा करता था। जैसे वह किसी तिलिस्म से गुज़र रही हो। जब कभी समंदर शांत दिखता था तो मानो चाँदसितारे उसकी सतह पर चहलक़दमी करते नज़र आते। डूबते उतराते चाँद के कई चित्र उसने बना डाले थे। वह अपने में खोई-खोई पूरे ब्रह्मांड की सैर कर लेती थी। उसे लगता आसमान कैनवास होता तो भी छोटा था जितने कि चित्र उसके ज़ेहन में उभरते थे। जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स तो कला को मंज़िल तक पहुँचाने का एक बहाना था... एक दिशा जो सीधी उसराह की ओर खुलती थी जिसके लिएदीपशिखा इस दुनिया में आई थी। उसे अपने चेहरे की आकृति से मोह हो गया था और अब पीपलवाली कोठी में बीजारोपण हुए डर के साथ-साथ वह आत्ममोहग्रस्त भी हो गई थी। जैसे नार्सिसस... नार्सिसस को अपने रूप रंग से प्यार हो गया था। वह आत्ममोहग्रस्त होभयानक अवसाद में चला गया था और अन्त में उसने आत्महत्या कर ली। कहते हैं नार्सिसस ने ही नरगिस के फूल के रूप में जन्म लिया। पीपल वाली कोठी से अपनी जीवन यात्रा आरंभकरनेवाली बेहद स्वाभिमानी, मोहक व्यक्तित्व की अत्यंत संवेदनशील दीपशिखा के अंदर भी नरगिस का फूल अंगड़ाई ले रहा था और वह आईने के सामने घंटे भर बैठकर अपने प्रतिबिम्ब का पोर्टेट बना लेती थी और नीचे दो पंक्तियाँ भी लिखी थीं उसने-इस दिलक़श हुस्न को थामे रखना, कहीं ये छूट न जाए तुम्हारी ज़द से ज़्यादातरपंक्तियाँ यूसुफ़ ख़ान की लिखी होतीं जिन्हें हर वक़्त गुनगुनाते रहना उसका शगल था।

कला शिक्षा के दौरान ही दीपशिखा ने भूलाभाई इंस्टिट्यूट भी ज्वाइन कर लिया जो एक तरह से कला और संस्कृति का तीर्थस्थल था। वहाँ चित्रकारों के अपने-अपने स्टूडियो थे जहाँ वे दिन रात रंगों और ब्रश की दुनिया में डूबे रहते। उनकी आँखों में बस एक ही सपना था... किसी तरह फ्रांस जाना और पेरिस में प्रदर्शनी लगाना। दीपशिखाको यहाँ का माहौल ज़्यादा पसंद आया... वह उसकी आँखों में पल रहे सपने में खुद भी शामिल हो गई। उसी रात उसने यूसुफ़ ख़ान को फोन किया-"पापा, मुझे एक स्टूडियो ख़रीदना है।"

"स्टूडियो।" उधर से आवाज़ चौंकी थी।

"जी पापा, यहाँ इंस्टिट्यूट में सबके अपने स्टूडियो हैं जहाँ उनके रंग, ब्रश बिखरे रहते हैं। उन्हें घर लौटने से पहले सब कुछ समेटना नहीं पड़ता। रंग सूखे या न सूखें... घर लौटने का मन हो तो बसतालालगाओऔरचल दो।"

दीपशिखा कि बातको यूसुफ़ ख़ानकैसे टाल सकते थे जबकि वह उनसे बात करने के दौरान तीन बार दाई माँ को टाल चुकी थी जो सूप का कटोरा लिए कब से उसके पास खड़ी इसरार कर रही थीं-"गरमहै... पहले पी लो न।"

"ठीक है बेटा... मैं कल सुबह की फ़्लाइट से मुम्बई पहुँच रहा हूँ।"

रिसीवर रखते ही उसने दाई माँ के गले में बाँहें डाल उनके गाल चूम लिए। मानो इतनी देर खड़े रहने की तपस्या ख़त्म हुई उनकी। वे खुश होकर उसे अपने हाथों से सूप पिलाने लगीं। दीपशिखातो दूसरी ही दुनिया में खोई थी। एक ऐसी दुनिया जिसमें सम्पूर्ण प्रकृति ही कैनवास थी और उस कैनवास में अगर रेगिस्तान का विस्तार था तो बर्फ़ लदी वादियाँ भी थीं... रंगों का ऐसाबरीकजाल कि जिसमें भँवरे, तितली, चिड़ियाँ, मोर सब एकमएक थे। कल ही तो मुकेश ने कहा था कि "मैंचित्रों के साथ-साथ छायाचित्रभी तैयार कर रहा हूँ और इसके लिए मैं राजस्थानके बीहड़ों में जाने का प्लान कर रहा हूँ। उसके बाद रुद्रप्रयाग जो हिमालय की गोद में है।"

"यानी कि तुम फोटोग्राफ़ी और पेंटिंग्स दोनों का एग्ज़ीवीशन प्लान कर रहे हो?"

"तभी तो सबसे आख़िरी में मेरा स्टूडियो बंद होता है। समझीं राजकुमारी दीपशिखा।"

दोनों भूलाभाई देसाई रोड से चहलक़दमी करते हुए हाजीअली तक आये। बावजूदरात अधिक होने के सड़कें चहल पहल से भरी थीं। खाने पीने के स्टॉल पर ठहाकों का सैलाब था। "चाटखाओगी?" मुकेश के गले में कैमरा था और पीठ पर बैग... शायद वज़नी... शायद नहीं भी।

"चलो खाते हैं।" दीपशिखा ने समंदर के काले जल में पड़ती रोशनी की शहतीरों पर नज़रें टिका दीं... शहतीरों के बीच हाजीअली दरगाह सफ़ेद नगीनेसी जड़ी थी। मुकेश ने कैमरा बैग में डाल लिया और दोनों'हीरा पन्ना' से लगे फुटपाथपर कीदुकानोंमें चाट के लिए बढ़िया स्टॉल तलाशने लगे। एक स्टॉल पर पानीपूरी और तवे पर सिंकती आलू टिक्की देख वे रुक गये।

"मेरेमें तीखा कम।"

मुकेश ने मुस्कुराकर दीपशिखा कि ओर देखा और आलू टिक्कीचम्मच से काटकर चम्मच उसकी ओर बढ़ाई"एक बाइट।"

"खाओ न।" कहते-कहते चम्मच मुँह केअंदर। दीपशिखाने होठों पर हथेली दबा ली। मुकेश उसे शरारतसे देखे जा रहा था। समुद्री हवा केझोंके रह-रह कर दीपशिखाके बालों से खेल रहे थे। कभी बाल चेहरे पर छा जाते, कभी पीछे की ओर उड़ जाते।

"प्लेट पकड़ो और ऐसी ही खड़ी रहना।" कहते हुए मुकेश ने कैमरा निकाला और चार पाँच तस्वीरें खींच डालीं।

घर लौटते हुए मुकेश संग-संग गेट तक आया था और चांदनी रात में दीपशिखा को गेट पर लगा बोगनविला का पेड़ रुपहला नज़र आया था और जब मुकेश सड़क के मोड़ से दिखना बंद हो गया था तो उसे लगा था कि सपनों की गली खुली और उसके संग ही चली गई। रात दस बजे उसने शेफ़ाली को फोन किया-"शेफ़ाली, मुझे प्यार हो गया है।"

शेफ़ाली ने शरारत की-"तुझे और प्यार... ऐ मेरी चित्रकार हसीना... बता किससे, कब, कहाँ?"

"अभी-अभी... अभीवो मुझसे जुदा हुआ है... यानी तीन घंटे पहले मुझे गेट पर छोड़कर... और उसके जाते ही मुझे लगा जैसे मैं सितारों की ओर उड़ी चली जा रही हूँ। बार-बार मुट्ठी खोलती, बंद करती कि जैसे उनकी झिलमिलाहट को कैद कर लेने को आतुर... और यूँ लगा जैसे अभी-अभी किसी कली ने मेरे मन को छुआ है और मैं खिल पड़ी हूँ।" दीपशिखा कि आवाज़ मानो साज़ पर छेड़ा गया कोई सुर हो।

"मेरे पास भी एक खुशखबरी है।"

"तुझे भी प्यार हो गया क्या?"

"नहीं... मैं अगले महीने की 15 तारीख को मुम्बई आ रही हूँ। दीदी का जॉब लग गया है। फ़िलहाल हम दोनों वर्किंग वुमेन्स हॉस्टल में रहेंगे फिर घर तलाशेंगे। तू भी घर केलिये कोशिश कर।"

"अरेवाह, ये तो ट्रीट लेने वाली खुशखबरी है। दीदी को मेरी ओरसे बधाई देना। और आने से पहले माँ से ज़रूर मिलकर आना।"

"ओ.के. डियर... रखती हूँ, गुडनाइट।"