लौट आओ दीपशिखा / भाग 6 / संतोष श्रीवास्तव
स्टूडियो सूना-सूना लग रहा था। हालाँकि सभी संगी साथी थे। बातें भी अमूमन वैसी ही पर मुकेश की कमी के शून्य ने उसे अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। दिल में प्यार और बदन में उसके बदन का, छुअन का एहसास... एक नये दौर से गुज़र रही थी दीपशिखा। उसकी नज़रों में कैद थे महाबलेश्वर के हरे भरे जंगल, बलखाते ऊँचे-नीचे रास्ते, रास्तों पर पसरा सन्नाटा... सन्नाटे में उसकी और मुकेश की पहचल... शांत मंथर झील... झील पर तैरती नावें और मल्लाह के गीत... वह कैनवास में खुद को पिरोने लगी। पहले लहरें उभरीं जो गति की प्रतीक हैं। जीवन गति ही तो है... जैसे लहरें अपने साथ बहुत कुछ लाती भी हैं और ले भी जाती हैं। लहरों को उसने कितने कोणों से उकेरा और हर चित्र में लहरों का सौंदर्य नए-नए रूपों में नज़र आने लगा। ओह, कितना रोमांचक है... एक लहर शरीर में भी समा गई है, मुकेश की छुअन की लहर जो माथे से पैर के अँगूठों तक दौड़ गई थी जब मुकेश के होठ उस पर फिसले थे।
"तुम्हारा बदन जैसे साँचे में ढला हो... पत्थर कीशिला को तराशकर जैसे मूर्तिकार मूर्ति गढ़ता है।" वह रोमांचित हो उठी थी। अपने इस रोमांच को वह चित्र मेंढालने लगी। एकयुवती गुफ़ा के मुहाने पर ठिठकी खड़ी है। युवती पत्थर की मूर्ति है मगरचेहरेझौंकोंज़िन्दग़ी को पा लेने की आतुरता है। आँखों में इंतज़ार...ज़िन्दग़ी का... उसने शीर्षक दिया 'आतुरता' ... उसे लगा मानो उसकी आतुरता मुकेश तक पहुँची है। वह समंदर के ज्वार-सा उसकी ओर बढ़ा चला आ रहा है। पीछे-पीछे फेनों की माला लिए लहरें और रेत में धँस-धँस जाते मुकेश के क़दम... वह मुड़कर समंदर के बीचोंबीच लाइट हाउस को देख रहा है जो तेज़ ऊँची-ऊँची लहरों पर डोलते जहाज़ों के नाविक को राह दिखाता है।
फिर दौड़ा है मुकेश... अब की बार उसका लम्बा कुरता, बाल हवा के तेज़ झौंकों में उड़ रहे हैं और वह किसी रोमन-सा नज़र आ रहा है... फिरखुद को उकेरा दीपशिखा ने... दीपशिखा मुकेश की बाहों में झूल गई है और ज्वार से भरी ऊँची-ऊँची लहरों ने उन्हें भिगो दिया है और समंदर के अंतिम छोर सेचाँदझाँका, हँसा और बादलों में समा गया मगर रुपहली चाँदनी फिर भी फूटी पड़ रही है बादलों से... समंदर रजत होउठा है।
दीपशिखा ने पूरे हफ़्ते चित्र बनाए। वॉटर कलर्सके साथ-साथ उसने ग्रेफाइट, क्रेयोंस और ऑइल कलर्स का भी इस्तेमाल किया। हल्के-हल्के रंगों की छटा ने उसके चित्र जीवंत कर दिए... जास्मिन, सना, शादाब, आफ़ताब, एंथनी अवाक़ थे।
"दीपशिखा... यार, गज़ब के जीवन्त चित्र बनाए हैं। कमाल हो गया... हम भोपाल की आर्ट गैलरी बुक करवा ही लेते हैं। दिसम्बर में जब मौसम खुशनुमा होगा और बाज़ार क्रिसमस के उपहारों से लदा होगा।"
"मगर एंथनी?"
"तो क्या? 25 दिसम्बर क्रिसमस के लिए हमेशा से तय तारीख है। हम दिसम्बर का पहला हफ़्ता बुक कराते हैं। अभी तो दो महीने बाकी हैं।"
दीपशिखा मुकेश को फोन लगा-लगा कर थक गई पर नॉट रीचेबल... पहुँच के बाहर।
"मुकेश का घर कहाँ है आफ़ताब?" दीपशिखा बेचैन थी।
"यू.पी. मेंहै... सुल्तानपुर हैशायद।"
"बताता कहाँ है कुछ अपने बारे में।"
सूरज ढलते ही परिंदे घोंसलों की ओर लौटने लगे। स्टूडियो बंद कर दीपशिखा अनमनी-सी घर लौटी। दाई माँ की ज़िद्दके कारण उसे दो निवाले हलक़के नीचे उतारने पड़े। बिस्तर पर लेटी तो लगा सेज काँटों की है, मुकेश ख़ामोश क्यों है? फोन क्यों नहीं करता? बताता क्यों नहीं किवहाँ कौन-सी उलझन में है... कहीं वह धोखा तो नहीं दे रहा? उसे पा लेने की तड़प में वह इतने लम्बे अरसे तक उसके आगे पीछे घूमता रहा और अब... जब दोनों एक हो गये... संग-संग जीने मरने की कसमें खा लीं तो वह कौनसा राज़ है जिसे मुकेश उससेछिपारहा है... नहीं... नहीं... वह दीपशिखा को धोखा नहीं दे सकता। ज़रूर किसीमुश्किल से गुज़र रहा होगा। वह सोते-सोते चौंककर उठ बैठती। एस.एम.एस. करती तो फेल हो जाता। ट्राई अगेन... ट्राई अगेन... कॉल करती तो नॉट रीचेबल... आख़िरहुआ क्या है?
कई हफ़्ते बीत गये। भोपाल की प्रदर्शनी के दिन नज़दीक आ गये। दीपशिखा ने अपने चित्रों में प्रेम का संसार रच दिया था। पहले वह गुनगुनाते हुए चित्र बनातीथी इसलिए आसपास की आवाज़ें सुनाई नहीं देती थीं। अबख़ामोशी मुकेशकी ग़ैर मौजूदगी को बढ़ा देती है। उसके ब्रश में से प्रेम के सातों रंग उभर आतेहैं-प्रेम, विश्वास, आतुरता, जुनून, घृणा, तिरस्कार, धोखा...और उसका ब्रश जुनून से छलाँग मारकर सीधाधोखे पर आ जाता है। आफ़ताब सना के कान के पास फुसफुसा रहा था-"ख़बर पक्की है, मुकेश ने शादी कर ली है।"
जैसे दिल में घूँसा-सा लगा हो। कानों में पहुँची इस फुसफुसाहट से पूरे बदन में सनसनी तारी हो गई... वह नहीं ऽऽ की चीत्कार के संग बिखरे रंगों पर ढेर हो गई।
"दीपू... सम्हालो खुद को। यह तुम्हें क्या हुआ?" शेफ़ाली भी चीख़ी। पल भर को वक़्त स्तब्ध रह गया।
बंद आँखों में भी मानो हर दृश्य उभर रहा था। पापा आये हैं। वह हवाई जहाज से पीपलवाली कोठी लाई गई है। उसका अपना कमरा... सामने बालकनी की ग्रिल पर चमेली की उलझी उलझी-सी लतर पर खिले फूलों की खुशबू नथुनों में समा गई। माली काका गुलाब की छँटाई कर रहे थे। उसकी ऐसी हालत देख कैंची उनके हाथ में धरी की धरी रह गई... माँ सिरहाने खड़ी डॉक्टर के हर सवाल का जवाब देतीं। डॉक्टर के जाने के बाद लगभग दो घंटे बेहोशी की नींद सोती रही दीपशिखा। उठी तो चिंतातुर माँ को सामने पाया-"मुझे क्या हुआ था माँ?" पूछना चाहा पर तभी सुलोचना बोल पड़ीं-"अब कैसी हो दीपू?"
वह हथेली की टेक लेकर उठी। सुलोचना ने तकियों के सहारे उसे बैठा दिया... उसने पूछना चाहा क्योंकि अब कोई शंका शेष नहीं थी इसलिए कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ माँ?
"तुम्हारेसारे चित्र बिक गये दीपू... शेफाली का फोन था कि प्रदर्शनी बहुत सफल रही।"
"सचऽऽऽ... माँ..." खुशी की लहर ने उसके चेहरे को खिला दिया।
"तुमने मेहनत भी तो बहुत की थी। तुम्हारे पापा बता रहे थे कि चित्र बेहद कलात्मक थे। वे तो मोहित हैं तुम्हारी चित्रकारी से।"
भर आई आँखों के बावजूद वह मुस्कुरा पड़ी।
"माँ, मैं कुछ दिन बिल्कुल अकेले रहना चाहती हूँ। खुद का मंथन करना चाहती हूँ, पहचानना चाहती हूँ।"
"हाँ... तो रहो न इधर।"
"इधर? ... इधर तनहाई कहाँ है, मैंलद्दाख़ जाना चाहती हूँ। बस आठ दस दिन के लिए।"
"पहले पूरी तरह स्वस्थ हो जाओ फिर चली जाना। वहाँ का इंतज़ाम दौलतसिंह से करवा देंगे।"
दरवाज़े के परदे पर टँगी घंटियाँ टुनटुनाईं-"कैसी है मेरी शहज़ादी? ये देखो, पेपर में तुम्हारी तस्वीर।"
"मेरी तस्वीर?"
"तुम्हारे सारे चित्र फ़िल्म डायरेक्टर नीलकांत ने ख़रीद लिये हैं। इसलिये ख़बर ने भी तीसरे पन्ने पर जगह पाई, तुम्हारे चित्र की और तुम्हारी फोटो के साथ नीलकांत की फोटो... रातों रात तुम भी स्टार बन गईं दीपू..."
दीपशिखा ने पापा के हाथ से पेपर लेकर पलँग पर फैला लिया। ओह सेलिब्रिटी पेज पर उसकी तस्वीर उसकी पेंटिंग, उसका नाम... आँखें उमड़ आईं... सच है इंसान का जब दिल टूटता है ईश्वर मलहम साथ-साथ भेज देता है। उसे लगा वह पहाड़ से गिरी ज़रूर पर फूलों की घाटी ने उसे लपक कर कोमल बिछावन दे दी।
इतने दिनों बाद दीपशिखाने सबके साथ भरपेट डिनर लिया और गहरी नींद सोई।
सुबह वह तरोताज़ा थी। उसने शेफ़ाली को फोन लगाया। वह चहकी-"अरे छा गई तू तो यार... बम्बई, भोपाल के सारे अखबारों में तू छपी है...नीलकांत काफ़ी बड़ी हस्ती हैं। तू जब बम्बई लौटेगी तो मिलने चलेंगे उनसे..."
"शेफ़ाली... अरे, मेरा हाल तो पूछ।"
"पूछना क्या... तू अच्छी है... तुझे और कुछ नहीं सोचना है। भूल जा उस धोखेबाज़ को... उसने तुझे दिया ही क्या? बस... लिया ही लिया है... ऐसे लोग बरबाद हो जाते हैं। अब तुझे केवल और बस केवल ही... अपनेपेंटिंग पर ध्यान देना है। तू मशहूर हो गई है। लोगों की अपेक्षाएँ बढ़ गई हैं तुझसे।"
हाँ सच... आसमाँ पर बिठा दिया है उसेउसके फेन्स ने... और उसे उस जगह को बरक़रार रखना है। सहसा वह ऊर्जा से भर उठी। उसे लगा जैसे आसमान उसे आमँत्रण दे रहा हो।
"माँ, कब की टिकट है लद्दाख़ की?"
"दो तारीख़ की फ्लाइट है दीपू... तुम्हारा सारा लगेज कैनवास, ब्रश, कलर्स, पेपर्स सब कुछ दौलतसिंह लेह में होटल का कमरा बुक कराके रख आया है। एक जीप का भी इंतज़ाम हो गया है। पहाड़ीइलाक़ा है, जीप ठीक रहेगी।"
सुलोचना बताती जा रही थीं और दीपशिखा कि अटैची तैयार करती जा रही थीं।
एयरपोर्टमें अंदर जाते-जाते सुलोचना और यूसुफ़ ख़ानके चीयर्स करते हाथ उनके जाने के बाद भी आँखों में कैद रहे। जाँच पड़ताल के बाद वह कुर्सीपर बैठी फ़्लाइट एनाउंस होने का इंतज़ार करती रही। मन नहीं माना तो मुकेश का नंबर डायल किया-"नॉट रीचेबल... पहुँच से बाहर... सच है मुकेशअबपहुँच से बाहर ही हो गया है। उसने बिना आगा पीछा सोचे मुकेश के साथ इतनाबड़ा क़दम उठा लिया, अपने भोले भाले स्वभाव के कारण उस पर भरोसा किया। रिश्तों का मतलबढूँढने निकली थी पर जहाँ मतलब होता है वहाँ रिश्ते नहीं होते। वह ज़िन्दग़ीके मेले में ठगी गई... उसका गुनाह था प्यार करना और अगर वह गुनाह था तो वह उस गुनाह को बार-बार करना चाहेगी। फिर क्यों पीड़ा दे रहे हैं वे दिन? क्या खुद पर से भरोसा उठ गया है... भरोसा तो मुकेश ने तोड़ा है... और ज़िन्दग़ी भरके लिए एक पथराया मौन दिल की तहों में ज्वाला कि तरह सुलग रहा है। जो हुआ उसके लिये रोये या क्यों हुआ इस सवाल से जूझे... वह मुकेश को क्यों दोष दे? उसने भी तो यही सब चाहा था। चाहा था मुकेश के शरीर के तेज में खुद को सूरजमुखी की तरह खिला देना... चाहा था उसकी आँखों की झील में डूब जाना... नशीले स्वाद में... बनैले आगोश में... पर अधबीच में सफ़र से किनारा करलेना... कैसे सहे दीपशिखा? उसकी आस्था, विश्वास मुकेश की क्षणवादिता के आगे चूर-चूर हो गया है... अब याद आ रहा है उस रात के मंजर का असली रूप... जब मुकेश ने उसे बाहों में भरकर क़रीब लिया था और वह कसमसाई थी... मुकेश... ये सब बिना किसी बंधन के?"
"लेट्स एन्जॉय दीप... ये खूबसूरत लम्हे क्या दोबारा आयेंगे? इस पल में जियो... देह को मर्यादा से मुक्त करो, देखोज़िन्दग़ी कितनी खूबसूरत है।"
वह उलझी लता-सी थरथराई थी-"मुझे अपना बना लो मुकेश, वादा करो... कहो तुम मेरे हो।"
"मैं तुम्हारा हूँ... यह वक़्त कह रहा है, तभी तो हम साथहैं, तभी तो मिलन के ये लम्हे नसीब हुए हैं। कुछ मत सोचो दीप... अपनी नसों में आग सुलगा लो और खुद को मुझमें बह जाने दो... ये लम्हा ही सच है जैसे भीतर ली साँस सच है... जैसेदिल की ये धड़कनें सच हैं।" बौनीपड़ गई थी दीपशिखा मुकेश के तर्कों के आगे... उसका सनातन सच, शाश्वत आस्थाएँ और अनवरत भावनाएँ लघु हो गई थीं।
लगातारछै: महीनों तक दोनों के बीच बस देह रही। वह शीशम के दरख़्त-सा मज़बूतयौवन और जीवन की अनन्तसंभावनाओं से लबरेज़... हर पल चिटख़ जाने को आतुर... हर पल मधुदंश देने को बेकरार और वह बूँद-बूँद खुद को लुटाती, रिसती... उसके जीवन का गुलाब तो काँटा ही काँटा रह गया।
लेह पहुँचकर वह अवाक़ थी। पहाड़ों के इतने रंग। इतनी खूबसूरती! ईश्वर भी काबिले तारीफ़ चित्रकार है। एयरपोर्ट से बाहर उसके नाम की तख़्ती लिये जीप खड़ी थी। ड्राइवर ने सलाम किया और उसके हाथ से अटैची ले ली। होटल तक का रास्ताबर्फीली हवाओं के कारण ख़ासा लम्बा लग रहा था।
"ड्राइवर जी... आपका नाम बताएँगे?"
"जी... नीमा।"
शक्ल सूरत से लद्दाख़ीलगता था नीमा। लद्दाख़ी ही तो है। छोटी-छोटी आँखें, चपटी नाक। दीपशिखा के हर एक सवाल का जवाब वह मुस्कुरा कर देता तो चेहरे पर आँखें काली पतली लकीर-सी दिखतीं। होटल आ चुका था। कमरे में सामान होटल के कर्मचारी ने पहुँचा दिया और इंटरकॉम पर आधे घंटे बाद डिनर के लिए बुलावा भी आ गया।
"शुबै कितना बजे आऊँ?" नीमा ने अदब से पूछा।
"ब्रेकफ़ास्ट के बाद चलेंगे साढ़े दस तक।"
"ओ.खे।" फिर सलाम।
उसके जाते ही वह पलँग पर गिर पड़ी। ओ गॉड, इतनी ठंड! चलो दीपशिखा जी पहले फ्रेश हो लेते हैं। छोड़ोयार, फ्रेश तो हैं ही... चेंज कर लेते हैं और माँ को पहुँचने की खबरकर देते हैं। खुद से बात करते हुए उसने चेंज के लिए अटैची खोली ही थी कि पीली पोशाक पर पहली नज़र... मुकेशको ये रंगकितना पसंद था। महाबलेश्वर के एकाकी कमरे में उसने खुद ये पोशाक उसे पहनाई थी और उसके बालों को सँवार कर तस्वीरें खींची थीं-"दीप... पीलारंग जैसे उगता सूरज... पीला रंग जैसे पीली उजास में बुना गयास्वप्न जाल और इस रंग में तुम मेरे दिल की मलिका... ईश्वर ने तुम्हें अपने हाथों से गढ़ा है।"
वह लम्हा आज तक रुका है दीपशिखा के सामने। फिर जाने क्या हुआ... पीली पोशाक उसने अटैची में सबसे नीचे डाल दी...
"फोन बजा।"
"पहुँच गई दीपू?"
ओह, चूक हो गई उससे। आते ही साथ पहले माँ को फोनकरना था।
"माँ, इतना खूबसूरत है लेह। अभी तो एयरपोर्ट से होटल तक के रास्ते से ही गुज़री हूँ। और माँ, बहुत कड़ाके की ठंड है... पता है, मैंने तो कनटोपा भी पहना है। पहाड़ीभालूलग रही हूँ मैं।"
" सुलोचनाहँसती रहीं। दीपशिखा सराबोर होती रही।
डिनर के बाद गर्म पानी की थैलियाँ बिस्तर में रखकर और गुडनाइटकहकरकर्मचारी चला गया। वह लिहाफ़ ओढ़कर सुकून भरी गरमाहट में नींद का इंतज़ार करने लगी।